Tuesday, November 7, 2023

"क" से कलावती, करवा चौथ या क्यूरी ?

"कलावती" नाम कम से कम समस्त हिन्दू धर्मावलम्बियों के लिए तो एक जाना-पहचाना नाम है, जो पाँच अध्यायों वाली सत्यनारायण स्वामी की कथा की केन्द्रीय नायिका है। साथ ही सर्वविदित है, कि भारत के कई राज्यों में वैदिक पंचांग के अनुसार प्रत्येक वर्ष कार्तिक महीने के कृष्ण पक्ष की चौथी तिथि को प्रत्येक विवाहिता व पतिव्रता सधवा हिन्दू महिला द्वारा लगभग बारह-तेरह घन्टे का निर्जला उपवास रख कर लोक मान्यताओं के आधार पर अपने पति की लम्बी आयु के लिए "करवा चौथ" का व्रत किया जाता है और .. शाम में चाँद के उगने पर चाँद को अर्घ्य देकर अपने-अपने पति लोगों के हाथों से ही पानी पीकर व्रत तोड़ती हैं, जिनमें तथाकथित पढ़े-लिखे पति लोग भी शामिल होते हैं .. शायद ...

हर वह व्यक्ति जो स्वयं को आस्तिक और सनातनियों के वंशज मानते हुए अपने आप को हिन्दू धर्मावलम्बी कहने में गर्व महसूस करते हैं, वे लोग अपनी संतानों को अवश्य ही सत्यनारायण स्वामी की कथा के आधार पर "कलावती" के पति की नैया के डूबने के कारण और फिर उसके उबरने की युक्ति व विधि की विधिवत चर्चा करते हैं और तथाकथित सभ्य-सुसंस्कृत महिलाएँ भी अपने परिवार की युवतियों के समक्ष "करवा चौथ" व्रत की महिमा के गुणगान के साथ बखान करने से नहीं चूकतीं हैं .. शायद ...

परन्तु इसी धरती पर जन्मीं एक बालिका .. जो ना कभी "करवा चौथ" जैसे व्रत-उपवास कीं और ना ही "कलावती" वाली कथा को सुनीं-जानीं .. ना ही मोक्ष प्राप्ति के लिए तथाकथित पुत्र रत्न के लिए बावली हुईं और ना ही किसी विदेशी से शादी करने से उनकी नाक कटी .. जिन क्रिया-कलापों की अवहेलना आज भी अमूमन हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी व सभ्य-सुसंस्कृत समाज में भी की जाती हैं। 

फिर भी आज वर्षों बाद भी उन महिला का नाम विश्व पटल पर आदर के साथ अंकित है और जब तक धरती पर विज्ञान रहेगा, तब तक वह नाम अमर भी रहेगा .. शायद ... 

उनकी उपलब्धियों में से सबसे बड़ी उपलब्धि है .. उनके साथ-साथ उनके एक ही परिवार के सदस्यों को पाँच-पाँच नोबल पुरस्कार की प्राप्ति होनी .. इसके बारे में जब अधिकांश तथाकथित पढ़े-लिखे अभिभावक ही अनभिज्ञ हों, तो अपनी संतानों से इनकी चर्चा करने की चूक (?) कैसे कर सकते हैं भला ? जिन्हें मालूम भी है .. वे लोग भी इन घटनाओं को इसी धरती की एक महत्वपूर्ण घटना होने के बावजूद .. विदेशी मानते हुए उनसे दूरी बना कर अपने धर्म-सभ्यता-संस्कृति बचे रहने की बात सोचते हैं .. शायद ...

दरअसल आज ही के दिन .. 7 नवम्बर को वर्ष 1867 में एक यूरोपीय देश- पोलैंड में मैरी स्क्लाडोवका (Maria Salomea Skłodowska) का जन्म हुआ था, जो बाद में दूसरे यूरोपीय देश- फ़्रांस के प्येर क्यूरी (Pierre Curie) से प्रेम-विवाह कर के "मैरी स्क्लाडोवका क्यूरी" हो गयीं थीं। जिन्हें रेडियम की खोज करने के कारण विज्ञान से जुड़े लोग जानते हैं या फिर अधिकांशतः अंक प्राप्ति के लिए पढ़ने वाले विद्यार्थीगण मैडम क्यूरी या मैरी क्यूरी के नाम को रटते हैं।

प्रसंगवश .. वैसे तो शादी के बाद पत्नी के नाम के साथ पति के उपनाम के जुड़ जाने जैसा प्रचलन हमारे देश में भी है। हिमानी भट्ट से हिमानी शिवपुरी बन जाने की हिमानी शिवपुरी जी से सम्बन्धित जिस बात की चर्चा अपनी बतकही "अँधेरे से डरता हूँ मैं ..." में हमने की भी है .. बस यूँ ही ...

सर्वविदित है कि भौतिक और रसायन विज्ञान .. दोनों में ही मैरी क्यूरी की गहरी पकड़ थी। जिस वजह से वह दोनों विषयों में नोबेल पुरस्कार पाने वाली आज तक की पहली और आख़िरी वैज्ञानिक महिला हैं और शायद रहेगीं भी। उनकी दो बेटियों में से एक- आइरीन (इरेन जुलियो क्यूरी) और उनके पति- जीन फ्रेडरिक जूलियट-क्यूरी को भी संयुक्त रूप से "प्रेरित रेडियोधर्मिता" की ख़ोज के लिए रसायन विज्ञान में और दूसरी बेटी- इव (एव डेनिस क्यूरी लाबौइस) के पति हेनरी रिचर्डसन लाबौइस जूनियर को "शांति" के लिए नोबेल पुरस्कार 'यूनिसेफ' ( UNICEF ) की ओर से मिला है। 

दरअसल पोलैंड में तत्कालीन चलन के मुताबिक महिलाओं के लिए उच्च शिक्षा पर पाबंदी होने के कारण आगे भौतिकी और गणित की पढ़ाई के लिए फ़्रांस की राजधानी- पेरिस जाकर 'डॉक्टरेट' करने वाली वह पहली महिला थीं। साथ ही पेरिस विश्वविद्यालय में 'प्रोफ़ेसर' बनने वाली भी पहली महिला थीं। यहीं उनकी मुलाक़ात उनके प्रेमी सह भावी पति- पियरे क्यूरी से हुई थी।

इस वैज्ञानिक दम्पती ने पोलोनियम ( Polonium ) की ख़ोज की थी, जिसका इस्तेमाल चिकित्सा विज्ञान में एक घटक के रूप में किया जाता है। वह "रेडियोसक्रियता" (Radioactivity) की भी खोज की थीं, जिसके लिए उन्हें, उनके पति- पियरे क्यूरी और हेनरी बैकेरल को संयुक्त रूप से भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला था। बाद में कुछ ही महीने बाद पति- पियरे क्यूरी की मृत्यु के बाद उन्होंने आंद्रे लुई डेबिरने ( André Louis Debierne ) की सहायता से रेडियम (Radium) की भी खोज की थीं और रेडियम के शुद्धीकरण (Isolation of Pure Radium) की ख़ोज के लिए रसायनशास्त्र का भी नोबेल पुरस्कार मिला था।

मैरी क्यूरी से जुड़ी उपरोक्त और इनके अलावा अन्य विस्तृत जानकारियाँ पाठ्यक्रम की पुस्तकों में या अन्य सम्बंधित पुस्तकों में या फिर 'गूगल' पर तो उपलब्ध हैं ही .. तो .. आज की अपनी अनर्गल बतकही को आप सभी सभ्य-सुसंस्कृत, बुद्धिजीवी, सुधीजन के समक्ष केवल इस प्रश्न से समाप्त करते हैं कि .. "क" से कलावती, करवा चौथ या क्यूरी ? .. बस यूँ ही ...


 

Thursday, November 2, 2023

पुंश्चली .. (१७) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- पुंश्चली .. (१) से पुंश्चली .. (१६) तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (१७) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

इन्हीं बातों को सुनकर मन्टू को अंजलि के घर के कचरों से जासूसी करने वाली 'आईडिया' आयी थी। इसी से उसे अंजलि की कई अनबोले बातों की जानकारी होती रहती है।  इंसान को जिसमें भी दिलचस्पी होती है, वह उसके बारे में जितना भी जान ले .. उसे कम ही महसूस होता है। अब मन्टू क्या-क्या जानता रहता है अंजलि के बारे में .. ये सब तो हमलोगों को भी जानना ही चाहिए .. शायद ...

गतांक के आगे :-

स्वच्छ भारत अभियान के तहत या उससे पहले से भी स्वच्छता पसंद कोई भी प्राणी अपनी दिनचर्या के दौरान उत्पन्न कचरों का यथोचित निष्पादन करके स्वयं के एक जिम्मेवार नागरिक होने का परिचय सदैव देता रहा है। परन्तु हम अपने घरों के अनुपयोगी कचरों को यथोचित स्थान पर डाल कर उसे प्रायः भूल ही जाते हैं। यूँ तो हमारा ऐसा करना स्वाभाविक भी है और .. उचित भी है ही .. शायद ...

परन्तु इस प्रक्रिया में हम जाने-अंजाने अपनी दिनचर्या की कई सारी निजी बातें सार्वजनिक करने से भी नहीं चूकते हैं। मसलन - कचरे में शामिल हमारे द्वारा खाए गए फलों और सब्जियों के अनुपयोगी छिलके या लहसुन-प्याज के छिलके, 'ब्रेड' के 'रैपर', 'कोल्ड ड्रिंक' के खाली 'कैन' या बोतल, 'केचप'-'सॅस' की खाली बोतलें या 'पाउच', 'चॉकलेट'-'टॉफ़ी' के 'रैपर', विभिन्न प्रकार के 'ब्रांडेड' मसालों के खाली 'पाउच' या 'पैकेट्स' के 'ब्रांड' या 'साइज़' इत्यादि हमारे खानपान के बारे में बहुत कुछ बोल देते हैं। इनके अलावा कचरे में माँसाहारी परिवार के घरों से डाले गए शेष बचे अंडे के छिलके, मछलियों के काँटे या माँस की बड़ी या छोटी आकार की हड्डियाँ हमारे माँसाहारी होने की चुग़ली तो करती ही हैं और .. बड़ी या छोटी हड्डियाँ क्रमशः "बड़का" (बीफ /Beef) या "छोटका" (मटन/Mutton) के मुर्दे-माँस को खाने वालों की श्रेणी में हमें स्वतः बाँट देती हैं। इसी प्रकार हमारे 'अंडरगारमेंट्स' या अन्य नए खरीदे गए परिधानों के अनुपयोगी डब्बे हमारी रूचि के साथ-साथ हमारे जीवन स्तर और ... हमारे 'अंडरगारमेंट्स' के माप की भी जानकारी आम करते हैं .. शायद ...

इन सब के अलावा हमारे द्वारा कचरे में फेंकी गयी 'टॉनिक' की खाली शीशी, 'टैबलेट' के खाली 'रैपर', 'इन्सुलिन' की खाली 'पैकिंग', 'सिरिंज', 'नीडल', 'बैंडेज' इत्यादि हमारे द्वारा या हमारे परिवार में किसी भी सदस्य के द्वारा भी सेवन की गयी दवाईयों और उनसे सम्बंधित हमारी विभिन्न बीमारियों की पोल खोल देती हैं। दूसरी तरफ ... घर से निकले कचरों में पड़े सिगरेट के शेष बचे 'फिल्टर'युक्त टुकड़े, शराब की छोटी शीशी या बड़ी बोतलें, चखना के तौर पर 'चिप्स' या 'मिक्सचर्स' के 'रैपर्स' .. धूम्रपान या मद्यपान या फिर दोनों ही के हमारे आदी होने की ओर इंगित करते हैं .. शायद ...

अक़्सर दूरदर्शन पर विभिन्न समाचार 'चैनलों' द्वारा हम दर्शकों को किसी भी घटना से सम्बन्धित विचलित करने वाले दृश्यों या दृश्य के कुछ हिस्सों को 'ब्लर' (धुँधला) कर दिया जाता है। यथासम्भव यह क़ानून की हद का भी ध्यान रखते हुए किया जाता है। परन्तु शब्दों के माध्यम से कुछ भी कहने (लिखने) के क्रम में 'ब्लर' करने जैसी कोई तकनीक अभी तक नहीं बन पायी है और अगर होगी भी तो मुझे ज्ञात नहीं है। अब ऐसे में अगर कथ्य के संदर्भ में शर्म, लज्जा, संकोच, झिझक या हिचकिचाहट की जाए तो तथ्य के साथ न्याय नहीं हो पाता .. शायद ... अब तथ्य या कथ्य ? .. दोनों में से एक के चुनाव के लिए हम जैसे अनुभवहीन और अतुकांतों की बतकही करने वालों के लिए तो तथ्य ही महत्वपूर्ण है .. शायद ...

तथ्यों को उजागर करने के लिए हो सकता है कई सारे आपत्तिजनक शब्दों या शब्द-चित्रों को भी इस्मत आपा जी (इस्मत चुग़ताई) या मंटो जी (सआदत हसन मंटो) की तरह (?) लिखनी पड़ जाए या यूँ कहें कि लिखना पड़ रहा है, तो .. मेरी बतकही पर अपनी सरसरी नज़र दौड़ाने वाले या वाली आप सभी सभ्य-सुसंस्कृत लोगों से .. अग्रिम क्षमाप्रार्थी ...

हाँ .. तो .. प्रसंगवश उपरोक्त क्षमा याचना के पश्चात कचरे के कुछ और भी गुणगान-बखान कर ही लेते हैं। मसलन .. सर्वप्रथम तो कचरे में पड़े अगर रक्तसिक्त कपड़े के टुकड़े हों, तो यह तय कर पाना थोड़ा मुश्किल हो जाता है, कि घर के किसी सदस्य के किसी अंग के कटने से बहे हुए ये रक्त हैं या किसी सदस्या के रजस्वला होने के कारण बहे रक्त से सने कपड़े का टुकड़ा है। पर हाँ .. अगर कचरे में व्यवहार किए गए रक्तसिक्त 'सैनिटरी नैपकिन' यानी 'पैड्स'हो या 'टैम्पोन' या फिर 'मेन्सट्रुअल कप' हो, तो यकीनन उन कचरों को बाहर फेंकने वाले घर में किसी के रजस्वला होने की ओर इंगित करता है। साथ ही इन सारे विभिन्न साधनों से उस परिवार विशेष की जीवन शैली और जीवन स्तर का भी पता चलता है .. शायद ... 

कभी-कभी किसी तो यूँ .. घर-परिवार विशेष के फेंके गए कचरे में पड़ी 'प्रेगनेंसी टेस्ट किट' और 'किट' पर रंगहीन या गुलाबी-नीली रेखाएँ भी बहुत कुछ कह जाती हैं और कई दफ़ा तो इस्तेमाल किए गए वीर्य से लथपथ 'कंडोम' और साथ में उसके 'रैपर' बीती रात की निजी घटना को सार्वजनिक कर जाते हैं .. और 'रैपर' के 'ब्रांड' से उस युगल जोड़ी की पसंद या उनके जीवन स्तर की जानकारी सार्वजनिक हो जाती है .. शायद ...

अपनी-अपनी बुद्धिमत्ता के अनुसार हालांकि हम अपने अत्यंत निजी प्रसंग से जुड़े कूड़े को पुराने अख़बार के पन्ने या घर के बेकार ठोंगे या 'पॉलीथीन बैग' में लपेट कर उन मामलों को सार्वजनिक होने से बचाने का भरसक प्रयास करते तो हैं ही, पर .. मंडला (मध्य प्रदेश) के एक शिक्षक- श्याम बैरागी जी की रची और गायी हुई पंक्तियाँ .. "गाड़ी वाला आया, घर से कचरा निकाल" ... बजाते हुए आने वाली नगर-निगम की गाड़ी पर सवार निगमकर्मी जब अपनी 'ड्यूटी' निभाते हुए "सूखा कूड़ा" और "गीला कूड़ा" अलग-अलग करने के क्रम में हमारे कूड़ेदान को पलट कर सारे कचरों को अपने पैरों से बिखेर कर अलग-अलग करते हैं या हमारे फेंके गए बेकार कचरों में से अपने जीवन आधार को बीनने वाले नाबालिग़ बच्चों द्वारा उसे कुरेदे जाते हैं या फिर ज़ंजीर से जकड़े पालतू विदेशी नस्ल के किसी कुत्ते-कुतिया की तरह खाने-पीने व रहने की उचित व व्यवस्थित व्यवस्था नहीं होने के कारण अपनी जठराग्नि को बुझाने की कुछ भी सामग्री मिल जाने की आस लिए गली-मुहल्ले के स्वतन्त्र कुत्ते-कुतिया द्वारा उन कचरों को उलट-पलट कर बिखेरे जाते हैं, तो हमारे द्वारा की गयी अत्यन्त निजी क्रिया-कलापों से उत्पन्न कचरों को ढँक-तोप कर छुपाने की हमारी बुद्धिमत्ता तो धरी की धरी ही रह जाती है .. शायद ...

और हाँ .. यही सारी बातें कचरे के साथ-साथ कबाड़ के साथ भी लागू होती हैं। हमारे घर से छाँट कर कबाड़ी को बेचे गये कबाड़ से भी हमारे जीवन स्तर का पता चलता है।कभी-कभी तो अचरज भी होता है .. जब कभी मुहल्ले भर की नज़रों में किसी व्यक्ति विशेष की छवि निहायत शरीफ़ और चरित्रवान इंसान की बनी हो और कबाड़ी वाला उसके घर से अक़्सर शराब की बोतलें गिन कर या तौल कर ले जाता हो या प्रतिदिन सुबह-सुबह जोर-जोर से शंख बजाने और मन्त्रोच्चार करने की वजह से किसी सभ्य समाज द्वारा किसी सभ्य माने जाने वाले व्यक्ति के घर से रद्दी वाले प्रायः पुराने अख़बारों के बीच फ़ुटपाथी अश्लील (?) किताबें भी लेकर निकलते हों .. जिनका प्रचलन आजकल 'यूट्यूब' जैसी सुविधा-साधन पर अनगिनत 'पोर्न साइट्स' उपलब्ध होने के कारण कम-सा हो गया है .. शायद ...

ख़ैर ! .. ये सब तो चलता ही रहेगा .. लोग दिन के उजाले में चालीसा भी चिल्लाएंगे और रात के अँधियारे में 'पोर्न साइट्स' भी देखने से नहीं चूकेंगे .. दोहरी मानसिकता .. दोहरे चरित्र .. सदियों से होते रहे हैं .. होते ही रहेंगे .. बस यूँ ही ... 

इतनी विस्तृत अनर्गल बतकही वाली भूमिका के बाद लौटते हैं हम .. हमारे धारावाहिक के जीवंत पात्रों की ओर .. तो .. मन्टू अभी-अभी प्रतिदिन सुबह-सुबह स्कूल जाते समय अंजलि द्वारा फेंकी गयी घर के कूड़ों से भरी थैली के 'पोस्टमार्टम' के लिए मुहल्ले भर की दुलारी गली की काली कुतिया- बसन्तिया को पुचकार कर, फिर ना मानने पर पत्थर से मार कर भी रोज की तरह सामान्य रूप से उसकी बात मान लेने वाली बसन्तिया को ना मानने पर .. सब की नज़र बचा कर पहले अपने दाएँ पैर से और फिर .. अपने हाथों से उस थैली के कचरों को बिखेर कर अंजलि की दिनचर्या का 'पोस्टमार्टम' करने लगा है। इसी से उसे हर माह पता चलता रहता है, कि अंजलि के "मुश्किल से भरे वो चार दिन" कब शुरू होते हैं और कब ख़त्म .. जिसके बाद उसके 'शैम्पू' किए .. अपने खुले बालों में उसके दर्शन हो जाने से वह मन ही मन .. बहुत ही खुश होता रहता है। पर ये क्या .. अभी तो उसकी आँखें फ़टी की फ़टी रह गयीं है .. चेहरे पर एक तनाव की गहरी रेखा अचानक खींच गयी है। आख़िर ऐसा क्या दिख गया भला उसे अंजलि के घर से निकले आज के कचरे में ... ? 

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (१८) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】


Monday, October 30, 2023

मस्जिदों की सीढ़ियों पर ...


दोहरे चरित्र वाले इंसानों की उपस्थिति हमारे हर समाज, मुहल्ले, गाँव, शहर, राज्य, देश, विदेश में प्रायः होती ही होती है .. शायद ...

मसलन .. कई दफ़ा रामनवमी के मौके पर निकलने वाली शोभायात्राओं में कई युवाओं या वयस्कों के मुँह में घुलते गुटखे, एक हाथ में सुलगते सिगरेट, दूसरे में नंगी तलवार .. और .. गुटखे चबाने वाले और धुएँ के छल्ले उगलने वाले उसी मुँह से चीख़ती हुई निकलती आवाज़ .. जय श्री राम.. देखने-सुनने के लिए मिलती है .. शायद ...

अक़्सर राहों से गुजरते वक्त सफ़ेद और लम्बी दाढ़ीधारी मौलाना 'टाइप' कुछेक इंसानों को सार्वजनिक स्थल पर या कई दफ़ा तो मस्जिद की चौखट या सीढ़ी पर बैठ कर बीड़ी फूँकते हुए देख लेने पर उन्हें हम तो टोक ही देते हैं। उनकी उम्र और मज़हब का लिहाज़ किए बिना कहना पड़ता है कि - " श्रीमान ! .. आप तो दो-दो गुनाह एक साथ कर रहे हैं .. एक तो आपके मज़हब के मुताबिक़ किसी भी तरह का नशा हराम है। दूजा अपने देश के संविधान के अनुसार सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान वर्जित और क़ानूनन अपराध भी है। " 

ऐसे में सामने वाला कितना भी अक्खड़ वाला हो, अकड़ वाला हो, उनकी गर्दन झुक ही जाती है और बीड़ी या सिगरेट को जकड़ने वाली तर्जनी और मध्यमा उनके चूतड़ की पृष्ठभूमि में स्वतः चली जाती है या फिर शेष बची बीड़ी या सिगरेट उनकी उँगलियों की गिरफ़्त से आज़ाद हो कर झट से जमीन में पड़ी धूल चाटती हुई नज़र आने लगती है .. शायद ...

कई-कई बार तो प्रायः कई सज्जन पुरुष (नारी भी) स्वयं को किसी भी महापुरुष का अनुयायी स्वघोषित करते नज़र आ जाते हैं .. ख़ासकर 'सोशल मीडिया' पर। वह किसी एक महान व्यक्ति के अपने मन-हृदय में बसने की भी बात करते हैं, परन्तु व्यवहारिक रूप से वे उनके आदर्शों से कोसों दूर नज़र आते हैं .. शायद ...

तो क्या ..  ऐसे दोहरे चरित्र वाले सज्जन इंसानों को सामने से टोकना या पीछे से दर्पण दिखलाना किसी हिंसा की श्रेणी में रखा जाएगा ? शायद नहीं .. तो आज से .. अभी से .. हम सभी को .. जब कभी भी ऐसे लोग नज़र आएँ तो उन्हें सामने से दिखें टोक कर, एक जागरूक नागरिक होने के नाते हमें अपना यथोचित कर्तव्य निभाने की कोशिश करनी ही चाहिए .. बस यूँ ही ...

ऐसे एक व्यक्ति को टोक कर उन्हें उनकी भूल और साथ ही शर्मिंदगी का एहसास कराना .. हमारे-आपके द्वारा हर वर्ष 'व्हाट्सएप्प' पर भेजे जाने वाले 'कॉपी & पेस्ट' वाले 'हैप्पी रिपब्लिक डे' या 'हैप्पी इंडिपेंडेंस डे' जैसे सैकड़ों 'मैसेजों' से कई गुणा बेहतर है .. शायद ...

अभी हाल ही में एक प्रसिद्ध स्वयंसेवी संस्थान (जिनका यहाँ नाम लेना उचित नहीं .. शायद ...) द्वारा एक सरकारी विद्यालय की चहारदीवारी के भीतर परती जमीन में  आयोजित वृक्षारोपण कार्यक्रम में शामिल होने का मौका मिला, तो कार्यक्रम के दौरान वहाँ उपस्थित कुछ स्वयंसेवकों को बाहरी चिलचिलाते धूप से बचने के लिए एक कार के भीतर बैठ कर "चखने" के साथ मद्यपान करते और कार से बाहर धूम्रपान करते देख कर .. तो हमारा मन विचलित-सा हो गया .. तत्क्षण सोचने लगा कि दुनिया में ना जाने ऐसे कितने सारे दोहरे चरित्र वाले सज्जन लोग भरे पड़े हैं .. शायद ... 

इन विसंगतियों से भरी आबनूसी काली अँधेरी रात में ज्यादा कुछ नहीं तो कम से कम हम एक जुगनू तो बन ही सकते हैं .. शायद ...  ऐसी ही सारी विसंगतियों से भरी घटनाओं से अभिप्रेरित होकर मन में ऊपजी कुछ तुकबन्दियों वाली बतकही आपके समक्ष है .. बस यूँ ही ...

मस्जिदों की सीढ़ियों पर ...

कई सनातनियों के मुख से यूँ निकलते तो हैं जय श्री राम,

उसी मुख के गुटखे हैं बनाते दीवारों-सड़कों को पीकदान ?


जाने क्यूँ बन्दे ख़ुदा के ख़ुद को कहने वाले यूँ कुछ इंसान, 

प्रायः बैठे मस्जिदों की सीढ़ियों पर करते हैं भला धूम्रपान ?


हों जिनके आदर्श, करने वाले बकरी के दूध का दुग्धपान,  

भला करते हैं क्यों और क्योंकर वे महान जन मदिरापान ?


करते हैं क्यों हर बात में अमित्र करने की बात कई इंसान,

जो कहते हैं स्वयं को हर बार अहिंसा-पुजारी के कद्रदान ?


सोचो-सोचो जीते जी, करो भलाई किसी अमित्र की भी,

मरने पर ना जा के क़ब्रिस्तान, ना श्मशान, करके देहदान।


Thursday, October 26, 2023

पुंश्चली .. (१६) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- पुंश्चली .. (१) से पुंश्चली .. (१५) तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष पुंश्चली .. (१६) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

उस वर्ष सिनेमा हॉल में आयी फ़िल्म- आशिक़ी-2 के गाने ने दोनों के कच्चे मन में जली प्रेम (?) की पक्की आग में लोहबान-गुग्गल की तरह सुगन्धित ज्वलनशील सामग्री की तरह काम किया था .. "सुन रहा है ना तू , रो रही हूँ मैं ~~~~" ... सिनेमाघर की कुर्सी पर बैठे किशोर-किशोरी का ना जाने कब सिनेमा के पर्दे पर दिख रहे नायक-नायिका के चरित्र में पदार्पण हो जाता है .. कमरे में बैठे-बैठे भी कई बार उस देखी गयी फ़िल्म के गाने की आवाज़ की तरंगों पर ही सवार होकर तथाकथित प्रेमी-प्रेमिका एक दूसरे की बाँहों में समा जाने का सुख पा जाते हैं .. और पास बैठे घर-परिवार वालों को इसका भान तक भी नहीं हो पाता है .. शायद ...

गतांक के आगे :-

यूँ तो किसी के भी यौवन काल की प्रेम कहानियाँ .. ना .. ना .. प्रेम घटनाएँ इतनी भी छोटी नहीं होती, जिसे तीन घन्टे से भी कम समय वाले फ़िल्मी पर्दे पर देखा जा सके या फिर चंद पन्नों के उपन्यास में पढ़ा जा सके। उस काल की प्रेम घटनाओं की लम्बाई और गहराई निर्भर करती हैं .. दोनों ही प्रेमी-प्रेमिका की सम्वेदनशीलता पर .. मन से मन के जुड़ाव पर। वैसे तो .. तन से तन का जुड़ाव तो एक मौसम विशेष में राह चलते कुत्ते-कुत्तियों के बीच .. कहीं भी .. कभी भी हो जाते हैं .. शायद ...

ओह ! ... प्रसंगवश अभी-अभी .. कुत्ते-कुत्तियों की चर्चा होने से .. याद आयी कि हमलोग मन्टू को "पुंश्चली .. (९)" के दौरान मुहल्ले भर में घुमने वाली गली की काली कुतिया- बसन्तिया के पास छोड़ कर आयें हैं, तो .. अभी मन्टू और रजनी यानी .. मन्टू की रज्ज़ो की और भी ढेर सारी प्रेम घटनाओं की चर्चा आगे फिर कभी .. फिलहाल चलते हैं रसिकवा की "रसिक चाय दुकान" के निकट वाले कूड़ेदानों के समीप .. जहाँ मन्टू और बसन्तिया की नोक-झोंक से चाँद और भूरा के साथ-साथ हम सब भी रूबरू हुए हैं।

दरअसल रंजन के कोरोना के गाल में समाने के बाद मन्टू निःसहाय हो चुकी अपनी अंजलि भाभी के प्रति स्वाभाविक सहानुभूतिवश जुड़ते-जुड़ते ना जाने कब अपने मन में एक कोमल भावनाओं को पनपा लिया .. इसका उसे तो भान तक भी नहीं हो पाया है। फिर तो अपने मन में एकतरफा प्रेम के वशीभूत होकर घर, स्कूल के अलावा दोनों की दूरी तय करने के दौरान भी कभी आमने-सामने, तो कभी छुप-छुपा कर उस पर अपनी पैनी और कोमल नज़रें भी रखने लगा है। अंजलि की सुरक्षा के ख़्याल से भी और अपनी आत्मसंतुष्टि के लिए भी। इन्हीं सब बातों के अंतर्गत अब मन्टू की दिनचर्या में शामिल है, रोजाना सुबह-सुबह तीन वर्षीय अम्मू यानी अमन के साथ-साथ अंजलि के स्कूल जाते वक्त अपने घर के एक दिन पहले के पूरे दिन-रात वाले कूड़े-करकट से भरी थैली को उसके द्वारा सार्वजनिक कूड़ेदान में फेंकने तक छुप-छुपा कर पीछा करना और फ़ेंक देने के बाद उस थैली का 'पोस्टमार्टम' करना या काली कुतिया- बसन्तिया से करवाना। 

आज भी अंजलि भाभी के कचरे वाली थैली का बसन्तिया 'पोस्टमार्टम' नहीं कर रही है, तो ... मन्टू ने गुस्से में आकर उस पर एक पत्थर के टुकड़े से वार कर दिया है। वास्तव में बसन्तिया को सुबह-सुबह तेज भूख लगी थी और कूड़ेदान में उसे किसी के घर से माँसाहारी व्यंजन की चूसी-चबायी हुई अवशेष रूप में फेंकी गयी जूठी बची-खुची हड्डियाँ मिल गयी है, तो उसके लिए तो मनपसंद जलपान ही मिल गया है। उसी वक्त अंजलि वाली कचरे से भरी थैली को रोज की तरह बसन्तिया से उसको पुचकार कर खुलवाने की मन्टू की कोशिश नाकाम हो गयी है।

इसके बाद फ़ौरन उसे बसन्तिया को मारने पर बहुत ही अफ़सोस भी हो रहा है, क्योंकि मन्टू, भूरा और चाँद ही नहीं रसिकवा, परबतिया, शनिचरी चाची के साथ-साथ बुद्धनवा व उसकी पत्नी रामरतिया भी .. बल्कि यूँ कहें कि पूरे मुहल्ले भर की चहेती है बसन्तिया। ख़ैर ! .. पुनः उसकी पीठ और माथे को सहलाते हुए मन्टू उसे पुचकार कर कचरे वाली थैली की ओर अपनी दायीं तर्जनी से संकेत करता है। रोज-रोज मन्टू के इस काम में मदद करते हुए बसन्तिया भी उसके इशारे बख़ूबी जान गयी है।

मन्टू और भूरा के सामने कभी चाँद ने ही अपनी 'टैक्सी' में चढ़े सवारियों की अजीबोग़रीब और रहस्यमयी बातों की चर्चा करते हुए बोला था, कि उस दिन दो जासूस साहब लोग आपस में अजीबोग़रीब बातें 'डिस्कस' कर रहे थे।

एक साहब - " विदेशों में तो बड़े-बड़े जासूस लोग किसी भी  व्यक्ति विशेष की जासूसी करके उसकी जानकारी हासिल करने लिए कई-कई महीने तक उसके घर से मिले कचरों का अध्ययन-विश्लेषण करते हैं। "

दूसरे साहब - " विदेशों में ही नहीं .. अपने देश में भी ये वाली पद्धति अपनायी जाती है। "

उस दिन इस तरह की अचरज भरी बातें सुनकर भूरा बीच में ही टपक पड़ा था। 

भूरा - " भला कचरे से भी जासूसी की जा सकती है ? तब तो हम भी एक जासूसी वाली कम्पनी खोल लेते हैं। "

चाँद - " 213 नम्बर वाली भाभी के घर 'केचप् फ़ैक्ट्री' खुलने वाली बात की जानकारी भी तो कचरे से तेरी की जाने वाली जासूसी का ही तो परिणाम है बे। "

इन्हीं बातों को सुनकर मन्टू को अंजलि के घर के कचरों से जासूसी करने वाली 'आईडिया' आयी थी। इसी से उसे अंजलि की कई अनबोले बातों की जानकारी होती रहती है।  इंसान को जिसमें भी दिलचस्पी होती है, वह उसके बारे में जितना भी जान ले .. उसे कम ही महसूस होता है। अब मन्टू क्या-क्या जानता रहता है अंजलि के बारे में .. ये सब तो हमलोगों को भी जानना ही चाहिए .. शायद ...

【 आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (१७) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】


Wednesday, October 25, 2023

रामायण संग युधिष्ठिर ! ...






दरअसल ऋषिकेश के परमार्थ निकेतन घाट पर प्रतिदिन होने वाली गंगा आरती के दौरान कल विजयादशमी के अवसर पर आरती के साथ ही विशेष आयोजन भी किए गए थे। 




जिसके तहत राम-रामायण से जुड़े कुछ प्रसंगों की झांकियों  की प्रस्तुति की गयी थी।  





दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले पुराने धारावाहिक- महाभारत में युधिष्ठिर की भूमिका निभाने वाले अभिनेता- गजेन्द्र चौहान जी भी उस आयोजन में हिस्सा लेने के लिए उपस्थित हुए थे।





बस यही तात्पर्य था हमारी आज की बतकही के शीर्षक का, कि कल रामायण वाले प्रसंगों के मध्य महाभारत दूरदर्शन धारावाहिक के युधिष्ठिर के पात्र को निभाने वाले अभिनेता- गजेन्द्र चौहान जी की उपस्थिति से माहौल और भी ख़ुशनुमा हो गया था .. बस यूँ ही ...







Thursday, October 19, 2023

पुंश्चली .. (१५) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)


प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- पुंश्चली .. (१) से पुंश्चली .. (१४) तक के बाद पुनः प्रस्तुत है आपके समक्ष पुंश्चली .. (१५) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. बस यूँ ही ...  :-


गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

अलग से सभी के हिस्से के अतिरिक्त लाने लगा था। 

धीरे-धीरे पन्तुआ की चाशनी की मिठास इनके यानी तेईस साल के रंजन और बीस वर्षीया तरुणी अंजलि के भावनात्मक सम्बन्धों पर तारी होती चली गयी थी और परिणामस्वरुप दोनों ने एक मंदिर में प्रेम विवाह कर लिया था। जिसका विवरण हमलोग पहले ही पढ़ चुके हैं। इस शादी से अंजलि के संरक्षक- मेहता जी नाख़ुश थे, इसी कारण से वे इन दोनों की शादी में शामिल नहीं हुए थे। 


गतांक के आगे :-

मेहता जी की इस नाराज़गी की वजह किसी आम भारतीय अभिभावक की तरह .. उनकी संतान के अन्तर्जातीय प्रेम-विवाह कर लेने पर समाज में जगहँसाई वाली नहीं थी, बल्कि उनके पैसों से पोषित एक मजदूरिन के छीन जाने की थी। जो उनके घर और स्कूल दोनों ही जगह खटती रहती थी।

मेहता जी की बस इतनी ही मेहरबानी रही कि रंजन के गुजर जाने के बाद अंजलि के पास कोई भी जीवकोपार्जन के साधन ना रहने पर और उसके अपने स्वाभिमानी स्वभाव के कारण कुछ ही दिनों बाद मन्टू की आर्थिक मदद ना लेने के लिए हठ करने पर, जब मेहता जी आगे अंजलि और उसके तीन वर्षीय अम्मू के लिए मन्टू के गिड़गिड़ाने पर अंजलि को अपने स्कूल में सहायिका के रूप में रखने के लिए तैयार हो गए थे।

यूँ तो वह बाद में अंजलि को अपने घर में भी दुबारा रखने के लिए मन बना लिए थे। पर तब अंजलि ने साफ़-साफ़ मना कर दिया था। वह उनके स्कूल में मासिक वेतन पर नौकरी कर के ही संतुष्ट थी या यूँ कहें कि वह अपने बेटे के साथ पीढ़ी-दर-पीढ़ी बंधुआ श्रमिक बनना नहीं चाहती है। उसे अपने और रंजन की आख़िरी निशानी .. अपने अम्मू के भविष्य की चिन्ता है। वह जानती है कि अगर वह दोबारा मेहता जी के घर गयी तो उसके साथ-साथ उसका अम्मू भी एक मज़दूर बन कर रह जाएगा। 

मेहता जी में लाख बुराई के बावजूद उनकी एक और रहम-ओ-करम के लिए तो उनकी तारीफ़ तो करनी ही चाहिए कि उन्होंने अपनी तरफ से अम्मू की पढ़ाई के लिए उनके स्कूल में पढ़ने तक किसी भी तरह के शुल्क से मुक्त कर दिया है। यह भी परोक्ष रूप से अंजलि के लिए एक आर्थिक सहायता ही है, जिससे उसका स्वाभिमान भी चोटिल नहीं होता है।

यूँ तो अंजलि अपने जीवन में रंजन के जीते जी और अचानक चले जाने के बाद भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कई तरह के सहयोग का एहसानमंद है मन्टू का। उस के इस घर में आने से भी पहले रंजन का भी जाने-अन्जाने बहुत ही बड़ा हितैषी रहा है मन्टू। इन सारी बातों से शनिचरी चाची भली-भाँति अवगत हैं। पर स्वयं मन्टू को ही किसी के लिए भी किया गया उसका कोई भी सहयोग याद नहीं रहता है। उसे तो बस और बस आज भी केवल रज्ज़ो की ही याद आती रहती है। 

रज्ज़ो .. मतलब मन्टू के बचपन की पड़ोस में रहने वाली रजनी .. तब मन्टू पाँच साल का रहा होगा, जब रजनी के घरवाले मन्टू के बगल में एक मज़बूर परिवार से उसका बना -बनाया मकान खरीद कर रहने आ गये थे। 

दरअसल उस मकान के मूल मालिक की तपेदिक की चिकित्सा के कारण अत्यधिक उधार हो गये थे। एक तो उस दम्पति की कोई सन्तान ना थी और तपेदिक के कारण उस घर का मालिक कोई भी काम करने लायक नहीं रह गया था। जब ठीक था, तब तो एक किराने की दुकान में साधारण-सी नौकरी कर के अपना और अपनी पत्नी का पेट भर लेता था। रहने के लिए एक साधारण-सा परन्तु पुश्तैनी मकान तो था ही। 

यूँ तो उसकी पत्नी साँवली-सी पर .. गदराए तन के साथ-साथ तीखे नयन और नाक-नक़्श की मालकिन थी। मुहल्ले के मनचले उसके घर के आसपास या यूँ कहें कि उसके आसपास मंडराते रहते थे। लगभग तीस-बत्तीस वर्षीया उस औरत की शारीरिक भूख या मानसिक यौन इच्छाओं जैसी भी कोई समस्या रही होगी, जो अन्य भूख या इच्छाओं के समान ही होती है और जिसे हमारा सभ्य-सुसंस्कृत समाज बुरी बात मान कर या कह कर सिरे से नकारते हुए, उस विषय पर बात करने से भी कतराता है। 

जिस समस्या का तपेदिक से पीड़ित उसके पति के पास कोई हल नहीं रहा होगा .. तभी तो वह अपने बीमार पति  की सेवा-शुश्रूषा और चूल्हा-चौका को शीघ्र ही निपटा कर, फ़ुर्सत के वक्त अपने दरवाज़े की चौखट पर बैठ कर मुहल्ले के कई मनचलों के साथ अक़्सर हँसी-ठठ्ठा करती नज़र आती थी। उन्हीं में से एक के साथ उसका कुछ ज्यादा ही मेल-मिलाप था। 

वही विशेष चहेता मनचला कई दफ़ा रात के अँधियारे में या कभी-कभार तो साँझ में भी मुहल्ले भर की बिजली गुल रहने का फ़ायदा उठाते हुए उसके घर में आता-जाता दिख जाता था। जब कभी बिजली विभाग द्वारा दैनिक समाचार पत्र में सप्ताह भर या माह भर के लिए शाम में एक निश्चित समय के लिए 'लोड शेडिंग' की घोषणा की जाती थी, तो मुहल्ले भर के लोग उस घोषित समय से पहले ही अपने शाम का सारा काम पूरा करके मोमबत्ती और लालटेन की तैयारी करके बैठ जाते थे। बच्चे लोग भी अपना 'होमवर्क' पूरा कर लेते थे। मुहल्ले भर की सभी गृहणियाँ चूल्हा-चौका भी 'लोड शेडिंग' के पहले पूरा कर लेती थीं और ऐसे मौकों पर उधर उस मनचले के साथ-साथ उस औरत की भी तो मानो 'लॉटरी' निकल आती थी। उन दोनों का वश चलता तो सालों भर 'लोड शेडिंग' करवा देते .. शायद ...

अंततः उधार चुकाने के लिए और आगे की चिकित्सा व जीवकोपार्जन के लिए मन पर पत्थर रख कर उन्हें अपने इस पुश्तैनी घर का सौदा करना ही पड़ा था। मकान के बदले मिले रुपयों के अधिकांश हिस्से से सारे उधार देने वालों का मुँह चुप कराया दोनों ने और उसके बाद वे दोनों अपने पुश्तैनी घर से और मुहल्ले से भी निकल कर चले गए थे। बाद में पता चला था, कि शहर की आबादी से दूर कम किराए पर एक कोठरी वाली गृहस्थी में दोनों जीवन गुजारने लगे थे।

तब पाँच साल का मन्टू और उस वक्त की तीन वर्ष की रजनी एक ही स्कूल में पढ़ने जाते थे। एक ही रिक्शा गाड़ी पर बैठ कर दोनों स्कूल जाते थे। 

मानव नर और मादा को अपने बचपन में अपने शारीरिक बनावट में दिखने वाले जनन तंत्र के अंतर से ऊपजी उत्सुकता उनकी बढ़ती उम्र के साथ-साथ शनैः-शनैः ... अंतर और उत्सुकता दोनों ही बढ़ती जाती है। 

वक्त के साथ-साथ वे दोनों ही तथाकथित 'टीन ऐज' के गलियारे में चहलकदमी करने लगे थे। स्कूल से घर आ जाने के बाद भी रजनी गणित का या विज्ञान के किसी कठिन सवाल को लेकर मन्टू के पास उसके घर पर समझने के बहाने चली आती थी। कभी भूगोल या संस्कृत सम्बंधित भी। 

उस वर्ष सिनेमा हॉल में आयी फ़िल्म- आशिक़ी-2 के गाने ने दोनों के कच्चे मन में जली प्रेम (?) की पक्की आग में लोहबान-गुग्गल की तरह सुगन्धित ज्वलनशील सामग्री की तरह काम किया था .. "सुन रहा है ना तू , रो रही हूँ मैं ~~~~" ... सिनेमाघर की कुर्सी पर बैठे किशोर-किशोरी का ना जाने कब सिनेमा के पर्दे पर दिख रहे नायक-नायिका के चरित्र में पदार्पण हो जाता है .. कमरे में बैठे-बैठे भी कई बार उस देखी गयी फ़िल्म के गाने की आवाज़ की तरंगों पर ही सवार होकर तथाकथित प्रेमी-प्रेमिका एक दूसरे की बाँहों में समा जाने का सुख पा जाते हैं .. और पास बैठे घर-परिवार वालों को इसका भान तक भी नहीं हो पाता है .. शायद ...

【 आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (१६) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】


Saturday, October 14, 2023

हे प्रिये ! .. काश ! .. कभी ...

हे प्रिये ! .. 

काश ! .. कभी ...

ले पाओ जो तुम दृष्टि मेरी 

और कभी ले लें तुम्हारी हम।


मन्दिरों में फिर हमें शायद 

दिख जाएँ तुम्हारे पूज्य भगवन

और दिखने लग जाए प्रिये तुम्हें 

पूजा की थाली में निर्मम पुष्प हनन।


हे प्रिये ! .. 

काश ! .. कभी ...

ले पाओ जो तुम दृष्टि मेरी 

और कभी ले लें तुम्हारी हम।


श्रद्धा से पढ़ पाएँ शायद तब हम

दोहे-चालीसे, कर पाएँ भजन-कीर्तन

और तुम्हें दिख पाए कभी भी, 

कहीं भी .. मुरली की तानों में ही वृंदावन।


हे प्रिये ! .. 

काश ! .. कभी ...

ले पाओ जो तुम दृष्टि मेरी 

और कभी ले लें तुम्हारी हम।


देख सकें हम अनायास विधाता

मंदिरों-धामों के गढ़े हुए पाषाणों में और 

हो दिव्य दर्शन प्रिये तुम्हें देख हर कीट-खग, 

पशु-पादप, नदी-सागर, अनगढ़ पर्वत, बाग़-वन।


हे प्रिये ! .. 

काश ! .. कभी .. 

ले पाओ जो तुम दृष्टि मेरी 

और कभी ले लें तुम्हारी हम।


सिर झुका पाएँ हम, मूँदें अपनी आँखें,

ढाक की थाप संग हो जब रक्तरंजित मंदिर प्राँगण

और दिख जाएँ तुम्हें वीभत्स छटपटाहट,

साथ सुन पाओ निरीह पठरुओं के तुम करुण क्रंदन।


हे प्रिये ! .. 

काश ! .. कभी ...

ले पाओ जो तुम दृष्टि मेरी 

और कभी ले लें तुम्हारी हम।


जिह्वा मचले तब हमारी लार भरे मुँह में,

देख कर कोई भी माँसाहारी व्यंजन

और हो भान तुम्हें प्रिये .. वध किए 

प्राणी के मृत अंगों पे तेल-मसालों का लेपन।


हे प्रिये ! .. 

काश ! .. कभी ...

ले पाओ जो तुम दृष्टि मेरी 

और कभी ले लें तुम्हारी हम।


दिख पाए हमें दाह-संस्कार से ही 

सम्भव हमारे मृत तन का निष्पादन 

और शव में भी प्रिये तुम्हें दिख जाएँ,

सूरों के लिए शेष बचे मेरे दो अनमोल नयन।


हे प्रिये ! .. 

काश ! .. कभी ...

ले पाओ जो तुम दृष्टि मेरी 

और कभी ले लें तुम्हारी हम।


लग जाएँ करने हम मानव-मानव में अंतर,

जाति-धर्म, भाषा-भूषा, वर्ण-वर्ग के मापदण्ड पर

और हो जाए प्रिये प्रतीत तुम्हें सारे मानव समान,

सबकी एक ही धरती, एक ही सूरज-चाँद के आलंबन,

समान प्राणवायु में श्वसन, एक जीवन-स्रोत हृदय स्पंदन।