Monday, March 13, 2023
पर नासपीटी ...
Thursday, March 9, 2023
बीते पलों-सी .. शायद ...
सुनता था,
अक़्सर ..
लोगों से, कि ..
होता है
पाँचवा मौसम
प्यार का .. शायद ...
इसी ..
पाँचवे मौसम की तरह
तुम थीं आयीं
जीवन में मेरे कभी .. बस यूँ ही ...
सुना था ..
ये भी कि ..
कुछ लोग
जाते हैं बदल अक़्सर
मौसमों की तरह .. शायद ...
तुम भी उन्हीं
मौसमों की तरह अचानक ..
यकायक ..
ना जाने क्यों
बदल गयीं .. बस यूँ ही ...
अब ..
उन लोगों का भी
भला ..
क्या है बावली ..
बोलो ना !
लोग तो बस
कहते हैं कुछ भी,
करते हैं बदनामी
बेवज़ह मौसम की,
आदत जो उनकी ठहरी .. बस यूँ ही ...
क्योंकि ..
अब देखो ना ...
मौसम तो कई बार ..
बार-बार .. बारम्बार ..
जाते हैं .. आते हैं ...
आते हैं .. जाते हैं .. बस यूँ ही ...
लेकिन .. जा कर एक बार,
फिर एक बार भी
लौटी ना तू कभी ..
बीते पलों-सी .. शायद ...
Thursday, February 2, 2023
तनिक देखो तो यार ! ...
हैं शहर के सार्वजनिक खुले मैदान में किसी,
निर्मित मंच पे मंचासीन एक प्रसिद्ध व्यक्ति ।
परे सुरक्षा घेरे के,जो है अर्धवृत्ताकार परिधि,
हैं प्रतिक्षारत जनसमूह कपोतों के उड़ने की ।
पर कारा बनी सिकड़ी, अग्रणी के पंजों की,
पूर्व इसके तो थे बेचारे निरीह स्वतन्त्र पंछी ।
थी ना जाने वो कौन सी घड़ी, बन गए बंदी,
विचरण करते, उड़ान भरते, स्वच्छंद प्राणी ।
विशेष दर्शक दीर्घा में है बैठी 'मिडिया' भी,
कैमरे के 'फ़्लैश' की चमक रही है रोशनी ।
ढोंग रचते अग्रणी, हों मानो वह उदारवादी,
पराकाष्ठा दिखीं आडम्बर औ पाखण्ड की ।
कपोत उड़ चले, हुई जकड़न ढीली पंजे की ,
ताबड़तोड़ 'फ़्लैश' चमके,ख़ूब तालियाँ गूँजी।
तनिक देखो तो यार,है विडंबना कितनी बड़ी,
और दुरूह कितनी, वाह री दुनिया ! वाह री !
धर कर उड़ते पखेरू को कुछेक पल, घड़ी,
करना दंभ छदम् स्वतंत्रता प्रदान करने की।
है होता यही यहाँ अक़्सर, जब-२ कभी भी,
नारी उत्थान,नारी सम्मान की है आती बारी।
हैं सृष्टि के पहले दिन से ही स्वयंसिद्धा नारी,
जिस दिन से वो गर्भ में अपने हैं गढ़ती सृष्टि।
ना जाने क्यों समाज मानता कमजोर कड़ी ?
फिर ढोंग नारी दिवस का दुनिया क्यों करती ?
ज्यों बढ़ाते पहले पंजों में कपोतों की धुकधुकी,
करते फिर ढोंगी स्वाँग उन्हें स्वच्छंद करने की।
रचती पुरुष प्रधान समाज की खोटी नीयत ही,
पर करते हैं मुनादी कि है यही नारी की नियति।
सदियों कर-कर के नारियों की दुर्दशा, दुर्गति,
है क्यों प्रपंच नारी विमर्श पे बहस करने की ?
तनिक देखो तो यार,है विडंबना कितनी बड़ी,
और दुरूह कितनी, वाह री दुनिया ! वाह री !
Thursday, January 5, 2023
श्वेत प्रदर की तरह ...
देख अचम्भा लगे हैं हर बार,
यूँ ऋषिकेश में गंगा के तीर।
निज प्यास बुझाए बेझिझक,
कोई उन्मुक्त पीकर गंगा नीर।
मोक्ष के आकांक्षी उन्मत्त कई
डुबकी लगाते हैं पकड़े ज़ंजीर .. शायद ...
महकाए यादें मेरी जब तक सोंधी पंजीरी-सी
अंतर्मन को तेरे, तभी तक हैं वो मानो वागर्थ।
पर अनचाहे श्वेत प्रदर की तरह जब कभी भी
अनायास उनसे आएं दुर्गन्ध, तब तो हैं व्यर्थ।
प्रिये ! तुम्हें मेरी सौगंध, दुर्गन्ध सम्भालने की
मत करना कभी भी तुम कोई बेतुका अनर्थ।
कर देना याद-प्रवाह, बिना परवाह पल उसी,
धार में अपनी वितृष्णा की, ये अंत देगा अर्थ .. बस यूँ ही ...
और अन्त में .. चलते-चलते .. 02.01.2023 को रात 10 बजे से प्रसार भारती, देहरादून से प्रसारित होने वाली एक कवि गोष्ठी में पढ़ी गयी अपनी बतकही की रिकॉर्डिंग ...
अब .. औपचारिकतावश ही सही .. तथाकथित नववर्ष की .. वास्तविक हार्दिक शुभकामनाएं समस्त पृथ्वीवासियों के लिए .. प्रकृति हर पल .. बस .. सद्बुद्धि की वर्षा करती रहे, ताकि हम सभी पाखण्ड और आतंक से परे .. सौहार्द से सराबोर होते रहें .. अपने लिए ना सही, आने वाली भावी पीढ़ियों के लिए कम से कम तथाकथित समाज में तथाकथित धर्म-सम्प्रदाय या जाति-उपजाति की विष वेल की जगह सरगम के बीजों को बोएँ, सद्भावनाओं के पौधे रोपें .. जिनके वृक्षों का आनन्द हम ना सही, वो ले सकें .. बस यूँ ही ... 🙏🙏🙏
Thursday, November 17, 2022
मन की झिझरियों से अक़्सर .. बस यूँ ही ...
देवनागरी लिपि के वर्णमाला वाले जिस 'स' से कास का सफ़र समाप्त होता है, उसी 'स' से सप्तपर्णी की यात्रा का आरम्भ होता है। संयोगवश व्यवहारिक तौर पर भी एक तरफ कास खिलने के उपरांत एक अंतराल के बाद जब किसी पहाड़ी गौरवर्णी चिरायु वृद्ध-वृद्धा के झुर्रीदार परन्तु देदीप्यमान मुखड़े की तरह झुर्रियाने लगते हैं, तभी किसी पहाड़न की सादगी भरे सौंदर्य-से सप्तपर्णी के यौवन की मादकता समस्त वातावरण को सुवासित करने लग जाती है .. बस यूँ ही ...
इन्हीं कास और सप्तवर्णी के आगमन-गमन के दरम्यान ही हर वर्ष की भांति कुछ दिनों पूर्व ही हिन्दू त्योहारों के मौसम के सारे के सारे हड़बोंग, चिल्लपों, अफ़रा-तफ़री, आपाधापी की पूर्णाहुति हुई है .. शायद ...
जिनके दौरान हम में से अधिकांशतः जन सैलाब संस्कार और संस्कृति की आड़ में इनके अपभ्रंश परम्पराओं के तहत तथाकथित ख़ुशी तलाशने और बाँटने के छदम् प्रयास भर भले ही कर लें, परन्तु आध्यात्मिकता से कोसों दूर रह कर प्रायः हम अपने-अपने आत्मप्रदर्शन की प्रदर्शनी लगाए आपस में मानसिक या आर्थिक स्पर्धा-प्रतिस्पर्धा से जूझते हुए ही ज़्यादातर नज़र आते हैं इन मौकों पर .. शायद ...
पर उत्तराखंड की अस्थायी राजधानी- देहरादून में गत मई' 22 से वर्तमान में रहते हुए ऐसे तथाकथित त्योहारों के मौसम में यहाँ के लोगों की अजीबोग़रीब कृपणता देखने के लिए मिली है।
वैसे तो बचपन की पढ़ाई के अनुसार हमारे खान-पान, रहन-सहन पर हमारे भौगोलिक परिवेश का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से असर पड़ता है। परन्तु मालूम नहीं किस कारण से बिहार-झारखंड के परिप्रेक्ष्य में यहाँ के निवासी पूजा-अर्चना में कोताही करते नज़र आते हैं। इस दौरान यहाँ विशाल की बात तो दूर, बौने या मंझोले पंडाल भी नज़र नहीं आए और ना ही शहर या गाँव-मुहल्ले में कहीं भी विराट की विशाल प्रतिमाएँ दिखीं .. और तो और ध्वनि विस्तारक यंत्र से आकाश में तथाकथित विराजमान विधाता तक पैरोडी वाले भजनों की आवाज़ पहुँचाने वाले बुद्धिमान लोग भी नहीं दिखे। अब इनकी इतनी सादगी भरी परम्पराओं से तो कोफ़्त ही हो जाएगा; जिनको पंडालों, मेलों, रेलमपेलों, लाउडस्पीकरों की शोरों में ही अपने पावन परम्पराओं के निर्वहन नज़र आते हों।
हैरत होती है कि यहाँ उत्तराखंड के लोग अपनी भक्ति-भाव की आवाज़ किस विधि से बिना लाउडस्पीकर के ऊपर आकाश में बैठे विधाता तक पहुँचा पाते होंगे भला ! ?
हो सकता है .. इस अलग राज्य की तरह ही इस राज्य के विधाता का विभाग भी आकाश में कोई अलग ही हो, जहाँ लाउडस्पीकर की आवाज़ के बिना ही उन तक उनके उत्तराखंडी भक्तों की बात पहुँच जाती होगी .. शायद ...
ख़ैर .. हमें इन सब से क्या लेना- देना ...
आज तो इन सब को भुला कर बस .. अभी हाल ही में ऋषिकेश के एकदिवसीय भ्रमण के दौरान आँखों के दृश्य-पटल पर अपनी छाप छोड़ते कुछ दृश्यों या कुछ विशेष घटनाओं के परिणामस्वरूप पनपी कुछ बतकही को छेड़ता हूँ .. बस यूँ ही ...
#(१)
यूँ तो है हर चेहरे पर यहाँ छायी मुस्कान,
पर है किसे भला इनकी वजह का संज्ञान .. बस यूँ ही ...
खेलने की उम्र में .. पेशे में लगे बच्चे हों या
खिलने के समय .. पूजन के लिए टूटे फूल।
यूँ समय से पहले कुम्हला जाते हैं दोनों ही,
अब .. इसे संयोग कहें या क़िस्मत की भूल .. बस यूँ ही ...
#(३)
त्रिवेणी घाट पर केवल नदियाँ ही नहीं,
साहिब ! ... दो दिल भी मिला करते हैं।
आते हैं आप यूँ यहाँ मोक्ष की तलाश में,
गोद में प्रकृति की हम तो मौज करते हैं।
लिए कामना स्वर्ग की आप आ-आकर,
लगा कर डुबकी नदी में स्नान करते हैं।
हम तो बस यूँ ही .. प्रेम में गोता लगाए,
स्वर्ग बने धरती ही, कामना ये करते हैं .. बस यूँ ही ...
वज़ह नभ पर आनन के, मुस्कान की घटा छाने की,
आज़ादी ही नहीं, साहिब ! कई बार होती है क़ैद भी।
गोया हथकड़ियों से सजे जेल जाते स्वतन्त्रता सेनानी,
प्रिय की आँखों के रास्ते ह्रदय में समाती प्रेम दीवानी।
बाँहों में बालम के बिस्तर पर खुद को सौंपती संगिनी,
कैमरे के रास्ते गैलरी में क़ैद होती रेहड़ी वाली रमणी .. बस यूँ ही ...
#(५)
नज़रबन्द करने में भले ही लोग छोड़ें ना कोई कसर,
झाँक ही लेते हैं हम तो मन की झिझरियों से अक़्सर ..
.. बस यूँ ही ...
Thursday, August 25, 2022
दूब उदासियों की .. बस यूँ ही ...
(१)
सोचों की ज़मीन पर
धाँगती तुम्हारी
हसीन यादों की
चंद चहलकदमियाँ ..
उगने ही कब देती हैं भला
दूब उदासियों की ..
गढ़ती रहती हैं वो तो अनवरत
सुकूनों की अनगिनत पगडंडियाँ .. बस यूँ ही ...
(२)
देखता हूँ जब कभी भी
झक सफेद बादलों के
अक़्सर ओढ़े दुपट्टे
यूँ तमाम पहाड़ों के जत्थे ..
गुमां होता है कि निकली हो
संग सहेलियों के तुम
मटरगश्ती करने
शहर भर के सादे लिबासों में .. बस यूँ ही ...
Thursday, August 11, 2022
धुआँ-धुआँ ही सही .. बस यूँ ही ...
(१) #
तिल-तिल कर,
तिल्लियों से भरी
दियासलाई वाली
डिब्बी अनुराग की
सील भी जाए गर
सीलन से दूरियों की,
मन में अपने तब भी
रखना सुलगाए पर,
धुआँ-धुआँ ही सही ..
एक छोटी-सी
अँगीठी यादों की.. बस यूँ ही ...
कायम रहेगी
तभी तो
तनिक ही सही,
पर रहेगी तब भी
.. शायद ...
आस बाक़ी
सुलगने की
तिल-तिल कर
तिल्लियों से भरी
दियासलाई वाली
डिब्बी अनुराग की .. बस यूँ ही ...
अब दो और बतकहियाँ .. अपने ही 'फेसबुक' के पुराने पन्नों की पुरानी बतकहियों से :-
(२) #
साहिब ! ..
आप सूरज की
सभी किरणें
मुट्ठी में अपनी
समेट लेने की
ललक ओढ़े
जीते हैं .. शायद ...
और .. हम हैं कि
चुटकी भर
नमक की तरह
ओसारे के
बदन भर
धूप में ही
गर्माहट चख लेते हैं .. बस यूँ ही ...
(३) #
साहिब ! ..
आपका अपनी
महफ़िल को
तारों से सजाने का
शौक़ तो यूँ
लाज़िमी है ..
आप चाँद जो ठहरे .. शायद ...
हम तो बस
एक अदना-सा
बंजारा ही तो हैं ..
एक अदद
जुगनू भर से
अपनी शाम
सजा लेते हैं .. बस यूँ ही ...