Monday, September 6, 2021

ना 'सिरचन' मरा, ना मरी है 'बुधिया' ... -(भाग-१).

मानो आम में दूध मिला हुआ हो ... :-

बिहार राज्य में रह कर भी, कई बिहारवासियों की तरह ही, शायद आप भी बिहार के इन दो विश्वस्तरीय महत्वपूर्ण और विशेष गौरवशाली पर्यटन स्थलों के बारे में अनभिज्ञ हो सकते हैं, जिनके बारे में, यूँ तो विश्व स्तर पर बेहतर जाना जाता है। जिनमें एक तो .. सामान्य ज्ञान के अंतर्गत, इस राज्य में सिगरेट और बन्दूक के कारखाने के लिए प्रसिद्ध मुंगेर जिले में, गंगा नदी के किनारे सन् 1963-64 ईस्वी से स्थापित "बिहार योग विद्यालय" (Bihar School of Yoga) है और दूसरा राज्य की राजधानी- पटना जिला के लगभग पश्चिमी छोर पर, गंगा-तट से कुछ ही दूरी पर सन् 1988-89 ईस्वी से अवस्थित "तरुमित्र आश्रम" है।

वैसे तो .. "बिहार योग विद्यालय" तो एक आश्रम की ही तरह है; जहाँ पूरे विश्व से योग में रूचि रखने वाले लोग यदाकदा स्वास्थ्य लाभ या ध्यान (Meditation) के लिए उपलब्ध अल्पकालिक प्रवास की सुविधा के तहत आते-जाते रहते हैं। परन्तु इसके बारे में .. विस्तार से फिर कभी। फ़िलहाल .. आज, अभी चर्चा करते हैं, तरुमित्र आश्रम की .. बस यूँ ही ...




पर आप कहीं .. इस "तरुमित्र आश्रम" संज्ञा में जुड़े आश्रम शब्द से किसी पौराणिक काल के परिदृश्य में खोने मत लग जाइएगा। ना, ना .. दरअसल यह कोई आश्रम नहीं है और .. वैसे भी तो .. "तरुमित्र" के नाम से ही लोगों में ज्यादा प्रचलित भी है। दरअसल यह पर्यावरण को संवारने के लिए लोगों को जागरूक करने और इस से जोड़ने के लिए अनवरत कार्यरत एक गैर सरकारी संगठन (NGO) है, जिसका मुख्यालय पटना के दीघा नामक क्षेत्र में, ठीक-ठीक तो नहीं मालूम, परन्तु अनुमानतः लगभग तीस एकड़ में विस्तार पाए हुए है .. शायद ...


"बिहार योग विद्यालय" के बारे में या "तरुमित्र" के बारे में यूँ तो विस्तृत जानकारियाँ वर्तमान के सहज-सुलभ उपलब्ध शिक्षक- 'गूगल' के पास है ही। पर इन जगहों पर सशरीर आ कर, यहाँ के शुद्ध वातावरण की विशुद्ध हवा में साँस लेने का अलग ही आनन्द है। साथ ही, विशेष तौर पर, तरुमित्र के परिसर में, विभिन्न प्रकार के परिंदों की सुमधुर, मनभावन गूँजती आवाज़ें, जो यूँ तो प्रायः शहरों-महानगरों में पूरी तरह नदारद ही रहती हैं या फिर वहाँ की चिल्ल-पों में ग़ुम-सी ही हो जाती हैं .. शायद ...

लगभग पचास-चालीस वर्ष पहले तक हमारे बचपन के दिनों में अभिभावकगण, पटना के इसी दीघा वाले क्षेत्र में तत्कालीन बहुतायत में उपलब्ध बाग़ीचों से, तब सैकड़े की दर से बिकने वाले प्रसिद्ध दूधिया मालदह आम, अपने सामने तुड़वा कर और टोकरे में भरवा कर, रिक्शे पर लदवा कर सीधे घर तक लाया करते थे। आम टूटने से लेकर टोकरी के रिक्शा पर लदने तक की अवधि में हम बच्चों द्वारा खाया जाने वाला आम बाग़ीचे के मालिक या ठीकेदार के तरफ से हम बच्चे या बड़ों के लिए भी मुफ़्त होता था। उस दूधिया मालदह आम की ख़ासियत होती थी, उसका कागज-सा पतला छिलका और पतली व छोटी-सी गुठली .. पूरा आम गूदा से भरा हुआ और स्वाद की ख़ासियत तो .. अहा !! .. मानो आम में दूध मिला हुआ हो या फिर दूध में आम। उस पतली गुठली को भी चूसने का, तब बचपन में अलग ही मजा होता था। पर ... आज ना तो यहाँ वो बाग़ीचे रहे और ना ही वो .. दूधिया मालदह आम। अब तो वो सारे बाग़ीचे कट गए। बढ़ती आबादी के साथ-साथ, बढ़ते शहरीकरण के तहत, वहाँ पर बनती तमाम बहुमंजिली इमारतों की बाढ़ ने तो सब को लगभग लील ही लिया है .. शायद ...





"अर्थिकल" तख़ल्लुस भी ... :-

ख़ैर ! .. अभी बात हो रही है, तरुमित्र की, तो .. यह संस्थान पटना शहर के सड़कों के किनारे-किनारे और गंगा नदी के किनारे भी, पेड़-पौधों की कई सारी हरित पट्टियों से पाट के उसे ऑक्सीजन पट्टियों में परिवर्तित करने के लिए हरदम प्रयासरत रहती है। यह पेड़-पौधों को लगाने के साथ-साथ, सालों भर उसके देखभाल का भी काम करती है। जबकि कई निजी या सरकारी संस्थाओं के लोग अक़्सर पर्यावरण दिवस के नाम पर साल में एक बार पेड़-पौधे कई जगहों पर लगाते तो हैं जरूर, वो भी 'सोशल मिडिया' पर अपनी 'सेल्फ़ी' चिपकाने भर के लिए, पर बाद में उन पेड़-पौधों का रख-रखाव उन भीड़ में से कम ही लोग कर पाते हैं .. शायद ...

यहाँ के अलावा गुजरात, मेघालय, तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल जैसे कई राज्यों के कई सुदूर स्थानों पर भी इसकी शाखाएँ कार्यरत है। यहाँ प्रयोग किये जाने वाले हर उपकरण या अन्य रोजमर्रे के सामान पर्यावरण हितैषी (Eco Friendly) होते हैं। यहाँ के मानव निर्मित जंगल में 500 से भी अधिक दुर्लभ प्रजातियों के पेड़-पौधे यहाँ की प्रदूषणमुक्त खुली हवा में साँसें ले रहे हैं। यहाँ पाटली के भी कई सारे वृक्ष हैं, जिनके बारे में कुछ इतिहासकार मानते हैं, कि अतीत के एक कालखंड में इनके वृक्ष बहुतायत संख्या में होने के कारण ही पटना का प्राचीन नाम पाटलिपुत्र रखा गया था।

















यहाँ एक विशाल जननिक पौधशाला (Genetic Nursery) और उत्तक संवर्धन प्रयोगशाला (Tissue Culture Lab) की भी सुविधा है। विश्व स्तर पर लगभग पाँच हजार से अधिक स्कूल और काॅलेज इसके सदस्य हैं, जिनके हजारों छात्र-छात्राएँ भी इस के सदस्य हैं। इसके निदेशक- फादर राॅबर्ट अर्थिकल ने अपने नाम के आगे "अर्थिकल" तख़ल्लुस भी 'अर्थ' (Earth = पृथ्वी) को ध्यान में रखते हुए जोड़ रखा है। इस से इनकी पर्यावरण के प्रति जुड़ी समर्पित भावनाओं का पता चलता है।


यहाँ इसके हरे-भरे विशाल परिसर में उपलब्ध पर्यावरण हितैषी आवासीय सुविधा में कुछ आजीवन स्वयंसेवकगण भी रहते हैं। यहीं एक बार अभिगमन के दौरान यहाँ के एक आजीवन स्वयंसेवक - शशि दर्शन जी से मुलाक़ात हुई थी, जो उनके कथनानुसार यहाँ के सूचना प्रौद्योगिकी (Information Technology) के लिए कार्यरत हैं।

एक आजीवन स्वयंसेवक - शशि दर्शन

ये संस्थान स्थानीय, राज्य और केंद्रीय प्रशासनिक प्राधिकरणों जैसे राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (State Pollution Control Board), वन पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन विभाग (The Department of Forest, Environment and Climate Change), नगर निगम निकाय (The Municipal Corporation Body), राज्य कृषि विभाग (The State Department of Agriculture) के साथ भी प्रायः सहयोग करता है।

प्रति वर्ष संयुक्त राष्ट्र द्वारा आयोजित होने वाले पर्यावरण सम्मेलन में इस संस्थान से प्रतिनिधिगण भाग लेने जाते हैं। विश्वस्तरीय मंच पर भी यहाँ के सदस्यगण कई दफ़ा उल्लेखनीय प्रदर्शन करते रहते हैं।

मध्य अमेरिका में स्थित हौन्डुरस देश के एक गैर-लाभकारी निजी कृषि विश्वविद्यालय- Zamorano Pan-American Agricultural School और अमेरिका के ही पेंसिल्वेनिया के एक निजी अनुसंधान विश्वविद्यालय- Lehigh University के विद्यार्थीगण प्रशिक्षुता कार्यक्रमों (Internship Programs) के लिए अक़्सर यहाँ आते हैं।













अब फिर जल्द ही हम मिलते हैं, "ना 'सिरचन' मरा, ना मरी है 'बुधिया' ... - (भाग-२)" के साथ .. बस यूँ ही ...



Monday, August 16, 2021

जलुआ नहीं जी, जलवे ...

झेल कर रोज़ाना सालों भर,
धौंस अक़्सर पुरुषों की कभी,
निकाला करती थीं महिलाएं,
शायद .. आज भी कहीं-कहीं,
मन की भड़ास, होकर बिंदास,
अंदर दबी कुंठाएँ, अवसाद भी, 
और कभी कभार मन की कसक।
अपने गले फाड़ती, कुछ पैरोडी गाती,
कुछ सुरी, कुछ बेसुरी,
ढोलक-चम्मच की थाप पर, 
गा-गा कर पुरुषों वाली माँ-बहन की,
ऐसी-तैसी करने वाली गालियाँ बेधड़क।
वर पक्ष की महिलाएं, वधू पक्ष के लिए,
शुभ तिलक के शुभ अवसर पर,
या फिर वर पक्ष के लिए, वधू पक्ष की महिलाएं,
बारातियों को सुना-सुना कर, उनके भोज जीमने तक।
भद्द पीटती थी, फिर तो सभी बारातियों की,
माँ, बहन, मौसी, चाची, फुआ, भाभी की,
करके सभी की ऐसी की तैसी मटक-मटक .. बस यूँ ही ... 

अबलाएं बन जाया करती थीं सबलाएं, 
एक रात के लिए कभी बारातियों के,
जाते ही वर पक्ष के घर से,
डोमकच या कहीं-कहीं जलुआ के बहाने ;
'कॉकटेल'-सी बन जातीं थी फिर तो ..
स्वच्छंदता और उन्मुक्तता की यकायक।
मिटा कर भेदभाव सारे ...
नौकरानी और मालकिनी की,
बन जाती थीं कुछ औरतें पहन कर, 
लुंगी, धोती-कुर्ता या फुलपैंट-बुशर्ट पुरुष वेश में ..  
कोई दारोग़ा, कोई डाकू,
कोई लैला, कोई मजनूं,,
कोई प्रसूता, कोई 'दगडर* बाबू',
कोई चुड़ैल, कोई ओझा-औघड़ ज्ञानी।
होती थीं फिर कुछ-कुछ ज्ञान की बातें,
दी जाती थी कभी-कभी .. खेल-खेल में,
कई यौन शिक्षा भी संग हास-परिहास के, 
कभी होती थीं पुरुषों वाली 
उन्मुक्त अश्लीलता भी बन कर मजाक .. बस यूँ ही ... 

पड़ती नहीं अब आवश्यकता
शायद रोज़ाना घुट-घुट कर,
अवसाद इन्हें मिटाने की ;
क्योंकि महिलाएं हों या लड़कियाँ,
हर दिन ही तो अब पहनती हैं,
पोशाक पुरुषों वाले ये कहीं-कहीं,
बड़े शहरों, नगरों या महानगरों में बिंदास।
बकती हैं पुरुषों वाली गालियाँ भी,
खुलेआम धूम्रपान, मद्यपान जैसी मौज़,
करती हैं अधिकतर .. 
पुरुषों वाली ही, हो बेलौस।
औरतें वर पक्ष की होतीं भी तो नहीं,
घर पर अब बारात जाने वाली रात,
बल्कि चौक-चौराहे, सड़कों जैसे,
सार्वजनिक स्थलों पर, 
आतिशबाज़ी और बारातियों के बीच,
बैंड बाजे की फ़िल्मी धुन पर, 
बिखेरे जाते हैं अब तो
डोमकच या जलुआ नहीं जी, जलवे कड़क .. बस यूँ ही ...


【 * = दगडर = डॉक्टर ( एक आँचलिक सम्बोधन ). 】.










 



Sunday, August 15, 2021

एक मीरा नहीं, कईं मीराएँ ...

कुछ लोगों का मानना है, कि आज स्वतंत्रता दिवस है, तो हमें ज़श्न मनाना चाहिए, उसकी सालगिरह मनानी चाहिए। सच भी है, अगर कोई बुद्धिजीवी यह बात बोल रहे / रहीं हैं, तो बातें गलत हो भी कैसे सकती है भला ! है ना ? तो .. हमें एक दूसरे को सुबह-सुबह सबको शुभकामनाओं की फ़ुहार में सराबोर कर ही देनी चाहिए। इनमें कोई बुराई भी तो नहीं। 'गूगल' पर या 'व्हाट्सएप्प' पर कई सारी 'कॉपी-पेस्ट' वाली शुभकामनाओं की भी, 'रेडीमेड' कपड़ों की तरह, लम्बी और अनगिनत फ़ेहरिस्त 'रेडीमेड' तैयार हैं। बस .. 'कॉपी' कर के चिपका कर, आगे 'फॉरवर्ड' भर कर देना है। वो सारे सामने वाले भी खुश, आप भी खुश .. शायद ...
पर एक अदना-सा सवाल, उन बुद्धिजीवियों से, कि .. एक ही दिन अगर एक भाई का जन्मदिन हो और उसी दिन उसके दूसरे भाई की हत्या कर के उसकी इहलीला समाप्त कर दी गई हो, तो उस दूसरे भाई की पुण्यतिथि के मातम को नज़रअंदाज़ करते हुए, एक भाई का जन्मदिन मनाना कितना उचित है, दूसरे की पुण्यतिथि के अवसर पर ही ?? फिर .. अगर पहले का हम जन्मदिन मना भी रहे हैं, पर वह रुग्णावस्था में है, तो उस समय शायद मेरी प्राथमिकता होनी चाहिए, उसे उसके स्वास्थ्य को पुनः वापस दिलाने की। ताकि जब उसका जन्मदिन मनाया जाए, तो घर-परिवार के लोग और स्वयं वह भी अपने स्वस्थ शरीर के साथ खुल कर ख़ुशी मना सकें। अब ये क्या .. कि वह 'वेंटिलेटर' पर 'ऑक्सीजन सिलेंडर' के रहमोकरम पर आश्रित होकर, अपनी ठहरी साँसों को घसीट रहा हो और हम उसे सालगिरह की मुबारक़बाद दे रहे हों।
ऐसे में देने वाले भी हम, लेने वाले भी हम, कहने वाले भी हम, सुनने वाले भी हम ही, केक काटने वाले भी हम, खाने वाले भी हम। हम जिसके लिए जश्न मनाने की बात कर रहे हैं, वह तो मरणावस्था में बेसुध पड़ा है। अब ऐसे में भी कोई बुद्धिजीवी ये तर्क देते / देती हैं, कि किसी के जन्मदिन पर तो उसे मुबारक़बाद देनी चाहिए, ज़श्न मनानी चाहिए, उसकी बुराइयों यानि बुरी बीमारियों को नज़रअंदाज़ कर देनी चाहिए। उसी दिन उसके सगे भाई की, की गयी निर्मम हत्या वाली मौत के मंज़र भुल कर, झटक देनी चाहिए। तब तो .. साहिबान !!!  .. उन बुद्धिजीवियों की मर्ज़ी .. वैसे भी आज स्वतंत्र लोकतांत्रिक भारत का स्वतंत्रता दिवस है .. कुछ भी करने की सभी को आज़ादी है .. बस यूँ ही ...
वैसे हमारी ही चंद पंजीकृत बेमुरव्वत ? ... ", " क्या सच में पगला गया हूँ मैं !????????", " गणतंत्र दिवस के बहाने - चन्द पंक्तियाँ - (२२) - बस यूँ ही ...  ", "बस यूँ ही ... ", " अनचाहा डी. एन. ए.", और " काला पानी की काली स्याही " जैसी पुरानी बतकहियाँ .. हमें आज .. आप सभी क्या .. किसी को भी अपने मोबाइल के 'क्वर्टी की-बोर्ड' पर अपनी उंगलियों को टपटपा कर "स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाइयाँ" बाँट कर एक जिम्मेवार सभ्य भारतीय नागरिक बनने से रोकती-सी .. शायद .. एक रुआँसी गुहार लगा रही है .. बस यूँ ही ...
इसीलिए ऐसे में तो ...हमारे जैसे मंद बुद्धि वाले लोग, आज के दिन तो .. "हँसुआ के बिआह में खुरपी के गीत" वाली बात को ही चरितार्थ करने की 'स्टुपिडपना' करेंगे .. तो .. आज .. किसी आधुनिक 'टीनएजर' प्रेमी-प्रेमिका के क्षणिक छिछोरे आवेशित प्रेम की तरह, आज वाले उपजे एकदिवसीय देशप्रेम को त्याग कर, आइए ना !! .. कुछ और ही राग अलापते हैं .. बस यूँ ही ...

(१) एक मीरा नहीं, कईं मीराएँ ...

सुना है कि .. कभी ..
हुई थी एक मीरा भी ...
बनी दिवानी, 
किसी कान्हा की,
थिरकाती नर्म 
उंगलियाँ अपनी,
बजाती इकतारा,
भटकती फिरती गली-गली,
गाती, पुकारती, विरहनी-सी, 
कान्हा को अपने,
बनी प्रेम दीवानी 
किसी कान्हा की .. शायद ...

यूँ तो .. ग़ुम रह जाती हैं ..
आज भी गुमनाम, ना जाने .. 
एक मीरा नहीं, कईं मीराएँ,
अनगिनत कामकाजी मीराएँ,
थिरकाती हुईं,
'शेप' में बढ़ाए हुए,
रंगे 'नेलपॉलिश' से
अपने नाखूनों वाली 
टपटपाती उंगलियाँ,
किसी दफ़्तर के 
'कंप्यूटर' वाले
'क्वर्टी की-बोर्ड' पर ही।
कुछ कुशल गृहिणी मीराएँ,
बटलोही के खदकते चावल 
या कड़ाही में सिंझती 
सब्जी के दौरान,
गैस-चूल्हे वाले चबूतरे पर 
रसोईघर के अपने अक़्सर,
चटकाती रहती हैं कभी, 
तो कभी .. 
थपथपाती हैं उंगलियाँ अपनी,
गुनगुनाती-सी कुछ भी,
कभी बारहमासा, कभी कजरी,
कभी भजन, या कभी गीत कोई फ़िल्मी .. बस यूँ ही ...

भटकती तो हैं .. अब ये नहीं, 
गलियों में किसी, वरन् नापती हैं,
रोजाना की अपनी-अपनी तय दूरियाँ, 
उपलब्ध बसों, मेट्रो जैसे 
'पब्लिक ट्रांस्पोटों' में।
हाँ ! .. वैसे तो .. वो .. खुलकर,
बस .. मन बहलाने को भी,
गा भी तो नहीं पातीं,
कि ... कहीं मान ना बैठे इस
सभ्य समाज का कोई 
सभ्य सज्जन पुरुष 
उसे बदचलन या मनचली। 
चिहुँकी भी रहती हैं, हर क्षण कि ..
'ऑटो' में बैठा पास कोई,
चरित्रवान एक चरित्र कहीं,
बरपाने ना लगे क़हर
कूल्हे पर उसके 
केहुनी अपनी रगड़ कर,
किसी माचिस की डिबिया पर,
तिल्ली के घर्षण की मानिंद।
तो .. इस डर से .. बस .. गुनगुना भर लेती हैं,
नग़में रूमानी कोई मन ही मन,
वो भी .. फ़िल्मी कोई नए या 
पुराने भी कभी-कभी .. बस यूँ ही ...


(२) एक मीरा नहीं, कईं मीराएँ ...

ना तो कोई भजन, ना ही गीत,
कान्हा के लिए किसी, 
बल्कि लिखती हैं इनमें से तो कई बारहा,
शुरू होने से ख़त्म होने तक के अन्तराल,
गैस-सिलेंडर के और ..
दूध वाले या अख़बार वाले के 
नागे वाले दिनें, कैलेंडरों में घेर कर।
लिखती हैं, कभी काटती हैं, 
सूची लम्बी-लम्बी,
महीने भर के 'बजट' के अनुसार,
ताकि आ सके महीने भर के राशन
मुहल्ले-शहर की दुकान से या फिर 'ऑनलाइन',
ताकि घर-परिवार के साथ-साथ
निबाहे जा सकें आए-गए भी। 
या फिर लिखती हैं कई, लिए गए बढ़े-घटे,
साप्ताहिक नियमित माप,
'फास्टिंग' या 'पी पी' वाले,
'शुगर लेबल' के कभी मधुमेह से 
पीड़ित धर्मपति के अपने
या कोई बढ़े-घटे माप, स्वयं के रक्तचाप के,
कभी-कभार तो .. दोनों ही के,
अब तो .. 'ऑक्सीजन लेबल' भी,
कोई-कोई लेटी हैं अपने थुलथुले बदन के 
वज़न और .. माप बदन के तापमान के भी .. बस यूँ ही ...

काम से इतर तो ये अब 
भटक भी नहीं सकतीं,
डर है कि कहीं .....
क्या कहा आपने ? .. 
क्या ?? .. बलात्कार का डर ?
अरे ! ना, ना .. साहिब ! 
होते थे बलात्कार तो तब भी,
बात-बात में बलात्कार,
अजी साहिबान ! ..
होती थीं तब भी अपहरणें भी,
पर आज की तरह तब
जलायी नहीं जाती थीं
बलात्कृत अबलाएँ।
हाँ .. तब जलायी जाती होंगीं, 
सतियाँ .. हो सकता है .. बेशक़, 
पत्थर भी बना दी जाती होंगीं,
तथाकथित दिव्य श्रापों से वे, पर ...
पर अब तो आजकल ..
बलात्कार के बाद ..
जला भी दी जाती हैं बेचारी।
कर दी जाती हैं तब्दील फ़ौरन,
राख और कंकाल में,
कभी तेज़ाब से या फिर कभी माचिस से,
नहला कर धारों से पेट्रोल की .. बस यूँ ही ...

ईमानदारी के साथ, मीराएँ आज की,
निभाना अपने काम को ही,
पावन पूजा हैं मानती, 
मानती हैं फ़िज़ूल,
फटकना या भटकना मंदिरों में कहीं-कभी।
काश ! .. जो इस दफ़ा,
कोई कान्हा ही रच लेता,
इन मीराओं की पीड़ाओं के गीत,
और गाता फिरता भटकता हुआ, 
संग 'स्पेनिश गिटारों' के,
गलियों में, सड़कों पे,
पर .. तलाश में कतई नहीं अपनी मीरा की,
वरन् रखवाली की ख़ातिर उनकी ही, जो ...
एक मीरा नहीं, कईं मीराएँ ...
लोकतांत्रिक स्वतन्त्र भारतीय
चौक-सड़कों पर हैं, आज भी असुरक्षित-सी .. शायद ...




Saturday, August 14, 2021

क्षुप कईं मेंथा के ...

जब कभी भी तुम ..
रचना कोई अपनी रूमानी 
और तनिक रूहानी भी,
अतुकान्त ही सही, पर ...
बटोर के चंद शब्दों को 
किसी शब्दकोश से, 
जिन्हें .. टाँक आती हो,
मिली फुरसत में हौले से,
नीले आसमान पे, किसी वेब पन्ने के;
तूतिया मिली अपनी अनुभूति की,
भावनाओं की गाढ़ी लेई को 
लपेसी हुईं मन की उंगलियों से
और फिर .. औंधी पड़ी बिस्तर पर या 
सोफ़े पर, मन ही मन मुस्कुराती हो,
या .. कभी 'बालकॉनी' में खड़ी,
गुनगुनाती हो, तो ..
तो उग ही आते हैं हर बार,
महसूस कर-कर के स्वयं को उनमें,
सितारे .. ढेर सारे .. टिमटिमाते, 
आँखें मटकाते, मानो .. आश्विन महीने के,
धुले और खुले आकाश में,
एक रात की तरह, अमावस वाली .. बस यूँ ही ... 

हरेक पंक्ति होती है जिसकी, मानो .. 
हो शाम से तर क्यारी कोई,
चाँदनी में जेठ की पूनम की,
मंद-मंद सुगंध बिखेरती,
रात भर खिली रजनीगंधा की।
या फिर सुबह-शाम वैशाख में 
हों सुगंध बिखेरते क्षुप कईं मेंथा° के,
सभी खेतों में बाराबंकी या बदायूँ के।
नज़र आते हैं, झूमते .. हरेक शब्द भी,
जैसे .. पसाने के बाद माँड़,
मानो .. करने के लिए फरहर°°भात,
झँझोड़ने पर भात भरे तसले को, 
अक़्सर .. झूमते हैं झुमके 
या कभी झूमतीं हैं,
जुड़वे कानों में तुम्हारे,
लटकीं तुम्हारी जुड़वीं बालियाँ। 
नज़र आते हैं हर अनुच्छेद, 
थिरकते हुए अनवरत, 
मानो थिरकते हैं अक़्सर ..
'शैम्पू' किए, तुम्हारे खुले बाल,
जब कभी भी तुम, किसी सुबह या शाम,
खुली छत पर अपनी, कूदती हो रस्सी .. बस यूँ ही ...


मेंथा° = हमारे देश- भारत के उत्तर प्रदेश राज्य वाले बाराबंकी और 
               बदायूँ ज़िले में पुदीना की ही एक संकर प्रजाति के "मेंथा"     
               नामक क्षुप की खेती होती है, जिससे देश के कुल 
               उत्पादन का आधे से अधिक "मेंथा का तेल" उत्पादित 
               किया जाता है। 
               इस तेल का लगभग तीन-चौथाई भाग निर्यात किया जाता 
               है। इसी के रवाकरण (Crystallization) से पिपरमिंट 
               (Peppermint) बनाया जाता है। इसके खेत दूर से ही 
               एक सुकून देने वाले महक से महकते हैं। वैसे .. पिपरमिंट 
               मिले कुछ खाद्य पदार्थों के स्वाद तो आप सभी ने ही ..
               चखे ही होंगे .. शायद ...
फरहर°° =  फरहर = फरहरा = चावल से पका ऐसा भात जो एक-
                 दूसरे से लिपटा या सटा हुआ न हो ,  ( फार = अलग - 
                 अलग )। 】




Thursday, August 12, 2021

कभी-कभार ही सही ...

पालथी मरवाए या कभी
करवा कर खड़े कतारों में,
हाथों को दोनों जुड़वाए, 
आँखें भी दोनों मूँदवाए, 
बचपन से ही बच्चों को अपने,
स्कूलों - पाठशालाओं में उनके, 
हम सभी ने ही तो ..
समवेत स्वरों में कभी पढ़वाए,
तो कभी लयबद्ध गववाये ...
" त्वमेव माता च पिता त्वमेव,
  त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
  त्वमेव विद्या च द्रविणं त्वमेव,
  त्वमेव सर्वम् मम देवदेवं। " .. बस यूँ ही ...
 
बड़े होकर तभी तो वही बच्चे,
आज भी या फिर ताउम्र मूंदे,
हमारी तरह ही अपनी-अपनी आँखें , 
झुंड में ही अक़्सर सारे के सारे ;
वही सब बतलाए गए .. समझाए गए,
ज़बरन पहचान करवाए गए,
उन्हीं "माता-पिता" विशेष और
"बंधु-सखा" विशेष के आगे,
आए दिन कतारबद्ध हैं नज़र आते।
वो भी .. भेज कर अनाथ आश्रम 
आजकल जैविक "माता-पिता" को ये अपने।
धरा के "बंधु-सखा" को भी ये अपने 
अक़्सर ही तो इन दिनों हैं ठुकराते .. शायद ...

बौद्धिक क्षमता के बलबूते पर अपने,
संग सहयोग से योग्य शिक्षकों के,
देख कर चहुँओर की बहुरंगी दुनिया भी
और पढ़ कर पुस्तकों को सारे,
ये यूँ "विद्या" तो हैं, पा ही लेते।
पर "द्रविणं" का अर्थ ..
ठीक से .. शायद ...
समझाया नहीं इनको हम सब ने।
तभी तो पड़े हैं धोकर हाथ ये सारे,
आज तक सब कुछ ठुकराये, 
सब कुछ बिसराये,
बस और बस .. केवल .. 
"द्रविणं" के आगे-पीछे .. शायद ...

परे .. इस धरती और उस ब्रह्माण्ड के,
धरती के इंसानों और प्राणियों से भी परे,
छोड़ कर इन प्रत्यक्ष संसार को, 
जो हैं ख़ुद ही भरे-पूरे, 
ज़बरन फिर इन्हें .. अबोध मासूमों को,
एक अनदेखी दुनिया को,
भला क्यों ... दिखलायी हमने ?
काश ! .. कि हम कभी इन्हें,
संग-संग इन तथाकथित प्रार्थनाओं के ही 
या फिर इन सब के बदले में,
केवल इंसान और इंसानियत के, 
संग-संग अच्छी नीयत के भी ..  
कभी-कभार ही सही .. 
पर .. पाठ पढ़ाते .. बस यूँ ही ...