Wednesday, February 10, 2021

रिश्ते यहाँ अक़्सर ...

वैसे तो हमारे जीवन में पढ़ाई के समय तो Course ( अध्ययन/ पाठ्यक्रम ) शब्द हुआ ही करता है और अब तो .. खाने में भी Course शब्द धड़ल्ले से इस्तेमाल होता है .. प्रायः शहरी या नगरीय भोजों या होटलों व रेस्टुरेन्टों में .. शायद ...

मसलन - खाने से पहले परोसे जाने वाले हल्के  भोजन को स्टार्टर कोर्स मेनू ( Starter Course Menu ) कहते हैं। कहीं-कहीं इसे First Course भी कहते हैं। फिर आता है मुख्य भोजन यानि मेन कोर्स (Main Course ) और अंत में आती है बारी .. मिठाईयों या कुछ भी मीठे की , जिसे रेगिस्तान (Desert) में एक और एस (S) जोड़ कर हम सभी डेज़र्ट (Dessert) बोलते हैं। कभी न कभी आप भी बावस्ता हुए ही होंगे जरूर इन सब से .. शायद ...

पर .. गाँव या घर में भी तो ये सब होता ही है न ? नहीं क्या ? न, न, होता है .. हमारे घर का स्टार्टर होता है - गर्मागर्म दाल की कटोरी में ऊपर-ऊपर तैरता घी या सलाद और गाँव के पंगत वाले भोज के अंत में परोसी जाने वाली बुँदिया और दही होते हैं - डेज़र्ट .. शायद ...

अब आप भी सोच रहे होंगे कि आज हमने अपनी बतकही की नकारात्मक सारी हदें पार कर के ये क्या बुँदिया , दही की फ़ालतू बकवास किये जा रहा हूँ। तो ख़ैर !... चलिए .. सीधे अब आज की अपनी दो रचनाओं (?) में से पहली "स्टार्टर" के तौर पर पेश करते हैं .. और फिर दूसरी "मेन कोर्स" .. और फिर "डेज़र्ट" .. न, न, "डेज़र्ट" आज नहीं ..  वो फिर कभी .. बस यूँ ही ... :)

(१) तुलसीदल-सा

प्रातः 

किसी

कथा-पूजन*

हेतु

कटे 

फलों-सा

था जीवन

मेरा ,


जानाँ जब से 

हुई तुम

शामिल 

तुलसीदल-सा

तो ये ...

पावन

प्रसाद**

बन गया।

【 * -   तथाकथित 】

【 ** - तथाकथित 】.


(२) रिश्ते यहाँ अक़्सर ...

लड़कियों की 

नुमाईश

और

लड़कों* की 

फ़रमाईश के

प्रतिच्छेदन बिन्दु** पर

ही तो होती हैं 

तय यहाँ

शादियाँ तयशुदा अक़्सर ...


फिर धर्म , 

जाति, उपजाति का

होना समान और

गोत्र का असमान तो

हैं ही शर्तें भी कई ,

होता है 

जिन सब की

छानबीन पर ही

निर्वाह इनका अक़्सर ...


बनते हैं रिश्ते

ऐसे में या ..

होता है फिर

कुलीन-शालीन

व्यापार कोई ?

है ये उधेड़बुन ही ..

ताउम्र ढूँढ़ते हैं 

फिर इनमें ही 

हम रिश्ते यहाँ अक़्सर .. शायद ...

【 *   - लड़के वालों. 】

【 ** - गणितीय ग्राफ में दो रेखाएँ या तलें जहाँ एक दूसरे से मिलती हैं या एक दूसरे को काटते हुए गुजरती हैं उसे प्रतिच्छेदन बिन्दु कहते हैं। मसलन - अर्थशास्त्र में माँग और आपूर्ति की प्रतिनिधित्व करती दो रेखाएँ गणितीय ग्राफ में जहाँ एक दूसरे से मिलती हैं या एक दूसरे को काटते हुए गुजरती हैं ; उस बिन्दु की सहायता से बाज़ार में किसी वस्तु की कीमत प्रायः तय होती है। 】



{ चित्र साभार = छत्रपति शिवाजी महाराज अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र में प्रदर्शित सार-चित्रकारी (Abstract Drawing) से। }.




Saturday, February 6, 2021

बासंती हलचल में ...

 यूँ तो किसी 

चुनावी मौसम के 

रंगबिरंगे पोस्टरों की 

मानिंद मुझे 

अपनी उम्र की

बासंती हलचल में

अपने दिल की

दीवार पर 

है सजाया 

बहुत ख़ूब 

तुमने जानाँ ...


पर .. कहीं 

कर ना देना

मौसम के 

बीतते ही ,

बीतते ही 

किसी चुनाव के

लावारिस-से 

पोस्टरों के 

पीले पड़े

क्षत-विक्षत 

हो जाने जैसा ...




Saturday, January 30, 2021

रामः रामौ रामा: ...

आजकल मुहल्ले या शहर-गाँव में कई-कई लाउडस्पीकरों की श्रृंखला में बजने (?) वाले कानफोड़ू तथाकथित जगराता, जागरण या सत्यनारायण स्वामी की कथा या फिर किसी भी धर्म के किसी भी धार्मिक जलसा में या शादी-विवाह और जन्मदिन के अवसर के अलावा कई दफ़ा तो शवयात्रा में भी बजने वाले निर्गुण के सन्दर्भ में .. बस यूँ ही ...

(१) कबीरा बेचारा ...

दिखा आज सुबह मुहल्ले में 

कबीरा बेचारा बहुत ही हैरान -

कल तक तो बहरे थे यहाँ ख़ुदा, 

हो गया है अब शायद भगवान ...

अब दूसरी रचना ( ? ) बिना बतकही या भूमिका के ही .. बस यूँ ही ...

(२) रामः रामौ रामा: ...

यूँ तो खींच ही लाते हैं एक दिन बाहर

रावण को हर साल पन्नों से रामायण के

और .. मिलकर मौजूदगी में हुजूम की 

जलाते हैं आपादमस्तक पुतले उसके ।


पर अपने शहर का राम तो है खो गया

युगों से किसी मंदिर की किसी मूर्त्ति में 

या शायद मोटे-मोटे रामायण के पन्नों में

या फिर "रामः रामौ रामा:" शब्दरूप में .. शायद ...



Friday, January 29, 2021

चँदोवा ...

किसी का रूढ़िवादी होना भी कई बार हमें गुदगुदा जाता है । ठीक उस 'डिटर्जेंट पाउडर' विशेष के विज्ञापन - " कुछ दाग़-धब्बे अच्छे होते हैं " - की तरह .. शायद ...

यूँ तो ये बात बेकार की बतकही लग रही होगी , पर फ़र्ज़ कीजिये अगर .. हमारी पत्नी या प्रेमिका या फिर हमारा पति या प्रेमी रूढ़िवादी हो और .. हम कभी अपने रूमानी मनोवेग में अपनी तर्जनी भर की तूलिका से प्यार भरी एक मासूम-सी थपकी का रूमानी रंग उनके एक गाल के कैनवास पर आहिस्ता से स्पर्श भर करा दें ; मतलब - उनके एक तरफ के गाल, दायाँ या बायाँ में से अपनी सुविधानुसार कोई भी एक , को छू भर दें और चिढ़ाते हुए दौड़ कर उन से दूर भाग जायें ; फिर ... वो ठुनक-ठुनक कर हमारे पीछे-पीछे पीछा करते हुए बचपन के "छुआ-छुईं" वाले खेल की तरह तब तक दौड़ लगाती/लगाते रहें , जब तक कि हमारी हथेली को ज़बरन पकड़ कर हमारी उँगलियों भर से ही सही अपने दूसरे तरफ वाले गाल को स्पर्श न करवा लें ; ताकि वे अपनी रूढ़िवादी तथाकथित मान्यता/सोच के कारण दुबली/दुबले न हो जाएं कहीं .. तो .. इस तरह इस प्रकार की रूमानी हँसी-ठिठोली में हमारा मन भला गुदगुदायेगा या नहीं ? अगर " नहीं " तब तो उपर्युक्त बतकही आपके लिए वैसे भी बेमानी है और अगर " हाँ " तो बतकही आगे बढ़ाते हैं ...

अब अगर आप इस तरह की रूढ़िवादी मान्यता पर यक़ीन नहीं करते/करती हैं , तब तो कोई बात ही नहीं, पर .. अगर करते/करती हैं तो .. आपके इस यक़ीन के फलस्वरूप यक़ीनन आपके पति/प्रेमी/पत्नी/प्रेमिका को ऐसे किसी अवसर पर कभी-न-कभी ऐसी गुदगुदाहट की अनुभूति अवश्य हुई होगी या फिर ऐसी गुदगुदाहट का मौका बचपन में भी भाई-बहन की आपसी चुहलबाजियों के दरम्यान आया हुआ हो सकता है .. शायद ...

बहुत हो गई बेकार की बतकही .. अब कुछ वर्त्तमान के यथार्थ की बात कर लेते हैं। ये तो सर्वविदित है कि इन दिनों उत्तर भारत ठंड , शीतलहर , बर्फ़ और कोहरे के श्रृंगार से सुसज्जित है। यहाँ गंगा के दक्षिणी तट पर बसे बिहार की राजधानी पटना में बर्फ़बारी के आनन्द का सौभाग्य तो नहीं है, पर .. बर्फ़ीली शीतलहर और कोहरे की परतें जरूर चढ़ी हुई है। यही कोहरे आज की निम्नांकित चंद पंक्तियों वाले इस " चँदोवा ... " को मन के रास्ते वेब-पृष्ठ पर पसरने की वज़ह भी बने हैं .. शायद ... जिस वज़ह को भी आप सभी से साझा करना मुनासिब लगा मुझे .. बस यूँ ही ...

चँदोवा ...

पौष की

बर्फ़ीली

चाँदनी 

रात में

आलिंगनबद्ध 

होने के लिए

जानाँ ...


भला 

आज 

क्यों 

किसी

झुरमुट की 

ओट को 

तलाशना ,


है जब 

सब 

ओर

यहाँ

क़ुदरती

कोहरे का 

चँदोवा तना ...


तो फिर ..

देर किस

बात की

भला , 

बस .. आओ ना ,

आ भी जाओ ना ..

जानाँ ...






Thursday, January 28, 2021

मुँहपुरावन वाली चुमावन ...

एक शाम किसी लार्वा की तरह कुछ बिम्बों में लिपटी चंद पंक्तियाँ मन के एक कोने में कुलबुलाती-सी, सरकती-सी महसूस हुई .. बस यूँ ही ... :-

" मन 'फ्लैट'-सा और रुमानियत आँगन-सी

  सोचें रोशनदानविहीन वातानुकूलित कमरे-सी

  और है हो गई रूहानियत किसी गौरैये-सी ... "

पर उन लार्वा सरीखे उपर्युक्त पंक्तियों को जब अपने मन के डाल पर अपनी सोचों की चंद कोमल पत्तियों का पोषण दे कर, उन्हें उनके रंगीन पँखों को पनपाने और पसारने का मौका दिया तो उनका रूप कुछ इस क़दर विकसित हो पाया ...  :-

मुँहपुरावन वाली चुमावन ...

डायनासोर ही तो नहीं केवल हो चुके हैं विलुप्त इस ज़माने भर से,

जीवन की बहुमंजिली इमारतों में सुकून का आँगन भी अब कहाँ ?


सोचों की रोशनदानविहीन वातानुकूलित कमरों में मानो ऐ साहिब!

अपनापन की गौरैयों का पहले जैसा रहा आवागमन भी अब कहाँ ?


रूहानियत बेपता, रुमानियत लापता, मिलते हैं अब मतलब से सब,

प्यार से सराबोर जीता था मुहल्ला कभी, वो जीवन भी अब कहाँ ?


लाख कर लें गंगा-आरती हम, कह लें सब नदी को जय गंगा माता,

शहर के नालों को गले से लगाकर भला गंगा पावन भी अब कहाँ ?


बढ़ गई है मसरूफ़ियत हमारे रोज़मर्रे में जानाँ कुछ इस क़दर कि ..

रुमानियत भरी तो दूर .. मुँहपुरावन वाली चुमावन भी अब कहाँ ?




Saturday, January 23, 2021

कलात्मक फ्यूज़न ...

यूँ तो देखे हैं अक़्सर हमने

जनजाति महिलाओं के ,

उनके पहने हुए

हसुली के इर्द-गिर्द ,

छाती के ठीक ऊपर

या और भी कई नंगे अंगों पर 

पारम्परिक चित्रों से

सुसज्जित काले-काले गोदने ,

या फिर .. दिख जाते हैं कभी-कभार

सारे के सारे जनसमुदाय ही

आपादमस्तक 

राम-राम गुदवाए हुए

रामनामी नामक छत्तीसगढ़ी 

एक आदिवासी समुदाय विशेष के ,

और हाँ .. अब तो ..

कई-कई बड़ी-बड़ी हस्तियाँ*१ भी 

बनवाते या बनवातीं हैं 

और दर्शाते भी हैं बख़ूबी 

सोशल मिडिया*२ पर

अपने-अपने कई-कई

उभरे और नंगे अंगों पर

मॉडर्न आर्ट*३ वाले रंग बिरंगे रंगीन टैटू*४ 


पर कभी-कभी तो ..

दिख जाते हैं

कलात्मक फ्यूज़न*५

पारम्परिक चित्रों और

मॉडर्न आर्ट*३ वाले

इन गोदने या टैटू*४ के , 

केहुनी से हथेली तक

या कपड़े से बाहर

हुलकते किसी भी अंग पर .. कहीं भी ,

जो उग आते हैं अनचाहे

गर्म सरसों तेल के छींटों से

अक़्सर तलते हुए

मृत मांगुर मछली के टुकड़े

या करारी कचौड़ियाँ

या फिर कुरमुरी पकौड़ियाँ ;

उन महिलाओं के ..

जिनसे पूछे जाने पर कि -

" आप वर्किंग लेडी*६ हैं ? " 

के जवाब में 

झुका कर नज़रें अपनी

कहती हैं प्रायः कि - 

" न .. न .. मैं तो सिम्पली*७ हाउस वाइफ*८ हूँ ... "



【 *१- हस्तियाँ - Celebrities - मशहूर लोग.

   *२ - सोशल मिडिया - Social Media - सामाजिक माध्यम.

   *३ - मॉडर्न आर्ट - Modern Art - आधुनिक कला.

   *४ - टैटू - Tattoo - गोदना. 

   *५ - फ्यूज़न - Fusion - संलयन/सम्मिश्रण.

   *६ - वर्किंग लेडी - Working Lady - कामकाजी महिला. 

   *७ - सिम्पली - Simply - केवल.

   *८ - हाउस वाइफ - Housewife - गृहिणी. 】



 


Sunday, January 17, 2021

हम हो रहे ग़ाफ़िल ...


अब तथाकथित खरमास खत्म हो चुका है। पुरखों के कथनानुसार ही सही, आज भी बुद्धिजीवी लोग कहते हैं कि खरमास में शुभ कार्य नहीं करना चाहिए। अब पुरखों की बात तो माननी ही होगी, नहीं तो पाप लगेगा। ख़ैर ! ... बुद्धिजीवियों के हुजूम के रहते पाप-पुण्य तय करने वाले हम होते कौन हैं भला ? उनकी और पुरखों की बातें आँख मूँद कर मान लेने में ही अपनी भलाई है। नहीं तो अपना अनिष्ट हो जाएगा। तो इसीलिए हमने भी खरमास में लिखना बंद कर दिया था। अब लिखने से भी ज्यादा शुभ कार्य कोई हो सकता है क्या भला ? नहीं न ? पर .. अब सोच रहा हूँ कि खरमास ख़त्म, तो लिखने में कोई हर्ज़ नहीं होनी चाहिए  .. शायद ...

हम भले ही तथाकथित बड़ा आदमी बनने की फ़िराक़ में अपने-अपने स्कूल-कॉलेजों या कोचिंगों में अंक प्राप्ति का लक्ष्य लिए हुए अध्ययन किए गए विज्ञान-भूगोल की सारी बातें ... मसलन- सूरज आग का गोला है और सूरज के साथ-साथ धनु रेखा, मकर रेखा, कर्क रेखा, उत्तरायण, दक्षिणायन जैसे विषय को भूल कर तथाकथित स्वर्ग में स्थान-आरक्षण कराने वाले तोंदिले तिलकधारी यात्रा-अभिकर्ता (Travel Agent) द्वारा किये गए मार्गदर्शन से प्रेरित हो कर हम आस्थावान लोग तथाकथित स्वर्ग की कामना करते हुए सुसभ्य-सुसंस्कृत सनातनी बन कर मकर-संक्रांति के दिन चूड़ा, दही, गुड़, तिल, तिलकुट, खिचड़ी खाने से पहले अपनी-अपनी सुविधानुसार अपने-अपने शहर या गाँव से हो कर गुजरने वाली गंगा जैसी या उस से कमतर किसी बरसाती या पहाड़ी नदी में भी या फिर दो या तीन नदियों के संगम या फिर .. सीधे कुंभ वाले संगम में डुबकी लगाने में तल्लीन हो जाते हों ; परन्तु ... अपनी हर पाठ्यपुस्तक के आरम्भ में छपी हुई भूमिका / Preface वाली परम्परा को नहीं भूल पाते हैं। वो भी हर साल, हर वर्ग की हर पाठ्यपुस्तक के प्रारम्भ में छपी हुई भूमिका दिमाग में कुछ इस तरह पैठ गई है कि अपनी हर रचना के शुरू में भूमिका के नाम पर कुछ-कुछ बतकही करने के लिए हमारी उंगलियाँ अनायास मचल ही जाती हैं .. बस यूँ ही ...

हाँ, इसी संदर्भ में एक और बात बकबका ही दूँ कि ... तथाकथित स्वर्ग के लिए मन मचले भी क्यों नहीं भला ? ... दरअसल तथाकथित सुरा (सोमरस) और सुन्दरी (मेनका) से सुसज्जित स्वर्ग के शब्द-चित्रों को हमारे पुरखों में से उपलब्ध कुछ बुद्धिजीवियों ने बनाया ही इतना मनमोहक, लुभावना और सौंदर्यपूर्ण है .. है कि नहीं ? तो ऐसे में हम भी भला कहाँ चूकने वाले थे, हम भी अपने शहर से हो कर बहने वाली नालायुक्त गंगा के कंगन-घाट पर जाकर डुबकी लगा आये सपरिवार। अब मेनका के कारण अकेले स्वर्ग जाने का तो सोच भी नहीं सकते हैं न ? तो .. सपरिवार जाना पड़ा नहाने। बाक़ी .. उस क्रम में मंत्र-जाप, आरती-पूजन, स्वर्ग के तोंदिले यात्रा-अभिकर्ता और निराला जी के पेट पिचके हुए भिक्षुक यानि राजा राधिकारमण सिंह जी के दरिद्रनारायण को दान-पुण्य करने का निर्वाहन धर्मपत्नी द्वारा किया गया, क्योंकि इस मामले में मैं थोड़ा अनाड़ी या .. यूँ कह सकते हैं कि थोड़ा ज्यादा ही बेवकूफ़ हूँ .. शायद ...

अब अपनी बतकही (भूमिका) को विराम की चहारदीवारी में क़ैद करते हुए , आज की रचना का आरम्भ करने से पहले यह भी तो साझा करना स्वाभाविक ही है कि चूँकि प्रेम से ज्यादा शुभ कुछ हो ही नहीं सकता है .. शायद ... तो इसीलिए .. आज तथाकथित खरमास के बाद वाली शुभ शुरुआत की रचना प्रेम के ओत प्रोत ही होनी चाहिए और इसीलिए है भी आज की दोनों रचनाएँ रूमानी .. शायद ... तो क्यों न मिल कर तनिक रूमानी हुआ जाए .. बस यूँ ही ...

(१) हम हो रहे ग़ाफ़िल ...

मेरे रोजमर्रे के 

हर ढर्रे में 

क़िस्त-क़िस्त कर के,

हो गई हो 

कुछ इस 

क़दर तुम शामिल।


मैं तुझ में हूँ

या तुम 

मुझ में हो,

अब तो ये

समझ पाना

है शायद मुश्किल।


यूँ तो हैं

होशमंद 

हम दोनों ही,

फिर भी भला 

क्यों लग रहा कि

हम हो रहे ग़ाफ़िल।


(२) अक़्सर कविताएं ...

हर बार

वेब-पृष्ठों पर 

चहकने से 

पहले ,

मन की 

जिन तहों में

पनपती हैं 

अक़्सर कविताएं ...


हर पल, हर हाल में,

जानाँ .. 

मचलती रहती हो 

तुम भी वहीं,

चाहे दिन-दोपहरी हो 

या रात अँधेरी ,

या मौसम कोई भी, 

कभी भी आएं या जाएं ...