Wednesday, September 18, 2019

चन्द पंक्तियाँ - (16) - "मादा जुगनूओं के" - बस यूँ ही ...

(1)***

यूँ तो सुना है ...
क़ुदरत की एक
नाइंसाफी कि ...
मादा जुगनूओं के
पंख नहीं होते

ये रेंगतीं हैं बस
उड़ नहीं सकती
नर जुगनूओं की तरह
मनचाहा आकाश में

बस गढ़ सकती हैं
कड़ियाँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी
मायके में पाले सपनों के
पंखों को कतरी गई
आम औरतों की तरह ...

(2)***

आदतें अक़्सर बस
"बदल" जाती हैं
पर "बदलती" हैं
कहाँ भला !?

आकाश में उड़ती
पतंगों से ज्यादा
कटी पतंगों को
देख कर बचपन की
चमकने वाली आँखें

सयानी होने पर
आकाश में चमकते
तारों में नहीं
टूटते तारों में
अपनी इच्छाएं पूरी
होने की चमक
भरती हैं ...

(3)***

वाह री चलन दुनिया की
जीवित बिल्लियों के
राह में गुजरने से
खराब हो जाती है
'जतरा' (जात्रा) इनकी

और किसी के सगे की
मृत देह वाली
गुजरती अर्थी के
देखने से कहते हैं
'जतरा' (जात्रा) बनती ...


Tuesday, September 17, 2019

नायाब छेनी-हथौड़ी

सुबह-सवेरे आज सोचा नहा-धोकर 'लाइफबॉय' से
कुछ नर-मुंड माल-सी फूलों की माला ले
प्रभु विश्वकर्मा  (?) आपकी मूर्तियों पर चढ़ाऊँ
और अपनी ग्यारह साल पुरानी 'ई एम् आई' वाली
अपनी काली-कलूठी हीरो होंडा को धो चमकाऊँ
पर ऊहापोह कुछ बार- बार इस महामूर्ख के मन के
अब क्या करूँ बस रोक रहे ये सब करने से
आप ही निज़ात दिला दो ना प्रभु !!!  इस मूर्खता से

दहकते सूरज से पृथ्वी को छिटकाई होगी
कभी जो आपकी नायाब छेनी-हथौड़ी
प्रभु !!! अब तो ये इनकी मूढ़ता की हद ही हो गई
ना जाने अभी तक 'वर्ल्ड हेरिटेज' या फिर
'गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड' में की गई क्यों नहीं
शामिल आपके उस नायाब अस्त्र को

सुना है आपने तो  दुनिया रची है
पर पृथ्वी की केवल अठारह फीसदी आबादी ही
क्यों ऐसा मानती है भला !?
क्या आपने नहीं बनाया यूरोप और अफ्रीका !?
बनाया तो वे मूर्ख भला ऐसा क्यों हैं मानते नहीं
और अगर नहीं मानते हैं तो आप क्यों नहीं
'सत्यनारायण स्वामी' की तरह ही
उनकी "कलावतियों" के जहाज़ डुबो देते हैं समुद्र में
ये समुंदरें भी तो सुना है शायद आपने ही है खोदी

बड़े बुरे हैं ये पश्चिम वाले ऐसा सुना है
आपको तो पता ही है ... है ना !?
बनाई है सब कुछ ... सारे कल-पुर्जे आपने यहाँ पर
पर कार, रेलगाड़ी, कंप्यूटर सब सारे के सारे
'कार्ल बेन्ज़', 'जेम्स वॉट', 'चार्ल्स बैबेज' के
नाम कर दी बस यूँ ही इन्होंने
जैसे अक़्सर कोई बच्चा बेचारा अपनी मेहनत से
होता है उत्तीर्ण परीक्षा अच्छे अंक लाकर
पर लड्डू प्रभु हनुमान को क्यों है चढ़ती
बच्चा भी सोचने लगता है बेचारा कि
किताब पढ़ने से अच्छा तो पढ़ो रोज
बस प्रभु हनुमान की हनुमान-चालीसा

प्रभु माना आपने रची है धरती की सारी सृष्टि
'कंप्यूटर-मोबाइल' बनाने में क्यों इतनी देर कर दी!?
बनाया होता जो और पहले तो
'जी पी आर एस' की मदद से
राम अपनी सीता को ढूंढ़ने में होती ना आसानी !?
कर पाते ना मान-हानि का दावा पांडव
'वीडियो' 'वायरल' कर अपनी द्रौपदी के चीरहरण के !?
बना होता मोबाइल जो पहले कर पाती ना
सीता राम या लक्ष्मण को 'मिसकॉल' संकट में !?
रची होती आप ने सारे प्रयोगशालाएं जो पहले
तो सीता को ना देनी पड़ती अग्नि-परीक्षा भी
जो उसकी 'मेडिकल-टेस्ट' कर ली गई होती और
'डी एन ए टेस्ट' की 'रिपोर्ट' से कर्ण को मिल पाता ना न्याय !?

आप ही की फैक्ट्री में बनती है ना 'ए के फोर्टी सेवन'
पता है कितनों की साँसों का ये कर लेते हैं हनन
इसकी फैक्ट्री तो प्रभु आपने बंद कर दी होती !!!
प्रभु ! आपने क्यों इतनी देर कर दी !?
प्रभु ! आपने क्यों इतनी देर कर दी !? ...




चन्द पंक्तियाँ - (१५) - "मौन की मिट्टी" - बस यूँ ही ...

@(१)

यूँ तो पता है मुझे ...
तुम्हें पसंद है
हरसिंगार बहुत

पर हर शाम
बैठते हैं हम-तुम
झुरमुटों के पास
बोगनविलिया के

क्योंकि ये बेचारे
दख़ल नहीं देते
तुम्हारे तन-मन की
सोंधी सुगन्धों में ...

@(२)

भावनाओं की
मीठी चाय से भरी
तुम्हारे मन के कुल्हड़ में

अपनापन की नमी से
भींगा हुआ मेरा मन
मेरे ही तन से दूर .... ठीक ...
चाय में अनायास घुले
आधे गीले और ...
हाथ में बचे आधे बिस्कुट-सा

रवा-रवा कर घुलता
तुम्हारी भावनाओं में तैरता
आहिस्ता-आहिस्ता ...
बैठता जा रहा
तुम्हारे मन की तली में ...
ग़ौर से ... जरा देखो ना !!!...

@(३)

मन के ओसारे को
आज फ़ुर्सत के
पलों से बुहार
मौन की मिट्टी से
लीप-पोत कर

अहसासों से तुम्हारे
भरे पलों की
रंगोली सजायी है

सुकून का दीया
जलाने तुम मेरे
मन के ओसारे तक
बस ... आ जाना ...

Saturday, September 14, 2019

"श्श्श्श् ....." अब ख़ामोश हो जाता हूँ ... वर्ना ...

ख़ामोश कर ही दिया जाता है बार-बार
चौक-चौराहों पर मिल समझदारों के साथ
"हल्ला बोल" का सूत्रधार
पर ख़ामोशी भी चुप कहाँ रहती है भला !?
अपने शब्दों में आज भी चीख़ती है यहाँ ... कि ...
"किताबें कुछ कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं"
पूछती है "सफ़दर हाशमी" की आत्मा कि
कब तक ख़ामोश मुर्दे बने जीते रहोगे भला !???
कब तक जीते रहोगे भला!? कब तक !??
बोलो ना ! ख़ामोश क्यों हो !?? बोलो ना जरा !!!

कोख़ हो ख़ामोश लाख मगर 
ख़ामोशी में एक सृष्टि किलकारी भरती है
अक़्सर चुप कराता है मसीहे को ज़माना मगर
उसकी ख़ामोशी तो बारहा चीख़ती है
अब हम ही हुए गूँगे और बहरे ... अपाहिज ...
उस गुम्बद के नीचे खड़े पत्थर की तरह जो
सदियों से भीड़ की आड़ में होने वाली
बलात्कार ... हत्याओं के बाद भी
कुछ बोलता नहीं है ... ख़ामोश खड़ा है ...
क्या ख़त्म हो गए कपड़े "द्रौपदी" के तन में ही सारे
या अगर था भी कभी वो सच में भी तो
आज हम मुर्दों-सा पड़ा है !??
बात यही छेड़ी थी ना तुमने ... ऐ मूढ़ प्राणी !
बस तुम्हारी सोचों को ज़हर के प्याली में डुबो कर
करा दिया गया था ना ख़ामोश तुम को ... पर ...
क्या फ़र्क पड़ता है एक "सुकरात" की ख़ामोशी से
आज भी आवाज़ उसकी "अफ़लातून" और "अरस्तू" में गूंजती है

पौ फटने से पहले बांग देने वाले मुर्गों को हम अक़्सर
हलाल कर देते हमारी नींद में ख़लल की वजह से
आसानी से कह देते हैं "निराला" और "उग्र" को
हम पागल और पृथ्वी की गोलाई को
गैलीलियो के कहने पर नकारते हैं
ख़ामोश पत्थर को पूजना ...
ख़ामोश मुर्दों-सा रहना ... ख़ामोशी का ओढ़े लबादा
सच कहाँ और कब हमें सुझता है !???
"श्श्श्श् ....." अब ख़ामोश हो जाता हूँ ... वर्ना ...
ओढ़ा दिया जाएगा ख़ामोशी का लबादा ...
हाँ .... मुझे भी ख़ामोशी का लबादा ....
ख़ामोशी का लबादा .....

Friday, September 13, 2019

'वेदर' हो 'क्लाउडी' और ...

'वेदर' हो 'क्लाउडी' और ...
सीताराम चच्चा का 'डाइनिंग टेबल' 'डिनर' के लिए
गर्मा-गर्म लिट्टी, चोखा और घी से ना हो सजी
भला हुआ है क्या ऐसा कभी !?
हाँ, ये बात अलग है कि ...
गाँव में होते तो ओसारे में उपलों पर सिंकते 
और यहाँ शहर में 'किचेन' में गैस वाले 'ओवन' पर हैं सिंझते
आज रात भी चच्चा का पहला कौर या निवाला
लिए लिट्टी, चोखा और घी का त्रिवेणी संगम
जब बचे-खुचे दाँतों से पीस, लार के साथ मुँह में घुला
तो मुँह से बरबस ही निकला - "वाह रामरती ! वाह !"

ख़त्म होते ही एक लिट्टी, दरवाज़े पर 'कॉलबेल' बजी ...
" ओ मेरी ज़ोहराजबीं, तुझे मालूम नहीं ... "
गैस का 'नॉब' उल्टा घुमा कर रामरती चच्ची दौड़ीं
उधर से रुखसाना भाभीजान का दिया हुआ
लिए हुए लौटीं एक तश्तरी में बादाम फिरनी
जो था क्रोशिए वाले रुमाल से ढका हुआ
अब भला कब थे मानने वाले ये 'डायबीटिक' चच्चा
अब एक लिट्टी भले ही कम खायेंगे
रात में 'इन्सुलिन' का थोड़ा 'डोज़' भले ही बढ़ाएंगे
पर मीठी बादाम फिरनी तो अपनी
धर्मपत्नी की मीठी झिड़की के बाद भी खायेंगे
अहा ! मीठी बादाम फिरनी और वो भी ...
हाथों से बना रुखसाना भाभीजान के
दूसरी लिट्टी भी गप के साथ गपागप खा गए चच्चा
दूसरी बार फिर से 'कॉल बेल' बजी ...
" ओ मेरी ज़ोहराजबीं, तुझे मालूम नहीं ... "
"रामरती ! अब देखो ना जरा ... अब कौन है रामरती !?"
अपने "ए. जी." की थाली में चोखा का परसन डाल
चच्ची दरवाजे तक फिर से दौड़ी
"लो अब ये गर्मागर्म केक आ गया
दे गया है पीटर अंकल का बेटा"
"अरे , अरे ये क्या हो रहा है रामरती , अहा, अहा !!!
अपने 'डिनर' का तो जायका बढ़ता ही जा रहा ..."

अब भला रामरती थीं कब चुप रहने वाली
बस ज्ञान बघारते हुए बोल पड़ीं - "ए. जी. ! देखिए ना !
डाइनिंग टेबल का ये गुलदस्ता
है ना कितना प्यारा
क्योंकि इनमें भी तो साथ है कई फूलों का
गुलाब, रजनीगंधा, कुछ सूरजमुखी और
साथ ही कुछ फ़र्न के पत्तों से सजा ... है ना !?"
"हाँ,सच में ! ठीक ही तो ...
कह रही हो मेरी प्यारी रामरती
आज हिन्दी-दिवस पर मेरी जगह तुम ही
भाषण देने गई क्यों नहीं !?"
"सचमुच ! माना कि हिन्दी वतन के माथे की बिंदी है ...
पर महावर और मेंहदी के बिना तो श्रृंगार अधूरी है,नहीं क्या !?
रामरती ! मेरी प्यारी रामरती !
सभी लोग ऐसा क्यों नहीं सोचते भला
बतलाओ ना जरा !!!"
"ओ मेरी ज़ोहराजबीं तुम्हें मालूम नहीं, तू अभी तक है हंसीं, और मैं जवां, तुझ पे क़ुर्बान, मेरी जान, मेरी जान... मेरी जान ..."



Thursday, September 12, 2019

"बेनिन" की तरह ...

"तंजानिया" के "ज़ांज़ीबार" में
मजबूर ग़ुलामों से कभी
सजने वाले बाज़ार
सजते हैं आज भी कई-कई बार
कई घरों के आँगनों में,
चौकाघरों में, बंद कमरों में,
बिस्तरों पर, दफ्तरों में ...

गुलामों को बांझ बनाने की तरह
बनाई जाती है बांझ बारहा
उनकी सोचों को, सपनों को,
चाहतों को, संवेदनाओं को,
शौकों को, उमंगों को ...

पर गाहे बगाहे इनमें से कई
अपने मन के झील में
बना कर अपनी भावनाओं का
एक प्यारा-सा घर अलग
बसा लेती हैं
यथार्थ के खरीदारों की
नज़रों से ओझल
एक सुरक्षित दुनिया
ठीक झील में बसे एक गाँव ...
उस अफ़्रीकी "बेनिन" की तरह ...
"वेनिस ऑफ़ अफ्रीका" की तरह ...

Saturday, September 7, 2019

एक कॉकटेल है ज़िन्दगी ...

ऐ ज़िन्दगी !
तू ऊहापोह की गठरी-सी
पता नहीं कितनी परायी
और ना जाने तू कितनी सगी री ...
लगती तो  है तू कभी - कभी
लियोनार्डो दी विंची की मोनालिसा के
होठों-सी रहस्यमयी और अतुल्य, क़ीमती भी
दिखती किसी को मुस्कुराती कभी
तो किसी को दिखती उदास भी ...
गर्भ के गुंजन से शरुआत होने वाली
जन्म से जवानी तक का आरोह और
जवानी से बुढ़ापे तक का अवरोह जो
ख़त्म होती मृत्यु के सम पर
कला और संगीत की तू एक कॉकटेल है ज़िन्दगी ...

संघर्षरत अनगिनत शुक्राणुओं से
मात्र एक अदद ... या कभी-कभी
दो या तीन या फिर उस से भी ज्यादा
शुक्राणु का समान संख्या में
डिम्बवाहिनियों के मुश्किल भरे
रास्ते का गुमनाम सफ़र तय कर
अंडाणु से मिलकर युग्मज बनने तक से
चिता के राख में परिवर्तित होने तक
और इस बीच शुक्राणुओं वाले बुनियादी संघर्ष से
प्रेरित ताउम्र ज़िन्दगी का संघर्षशील रहना
मानो रसायन विज्ञान के असंतृप्त यौगिक का
संतृप्त यौगिक बनने तक का अनवरत
एक अदद "मन के हमसफ़र"-सा उत्प्रेरक का
साथ लिए गतिशील, प्रयत्नशील
एक सफ़र है ज़िन्दगी या यूँ कहें कि है तू
शुक्राणु और अंडाणु के कॉकटेल से बनी
तभी तो ताउम्र एक नशा लिए बीतती है तू ज़िन्दगी
जीव-रसायन विज्ञान की तू एक कॉकटेल है ज़िन्दगी ...

और कभी-कभी प्रतीत होती है तू
बचपन में पढ़े सामान्य-विज्ञान के
चलने वाले अनवरत जल-चक्र की तरह
हाँ .... जल-चक्र जो कभी थमता नहीं
रूकता नहीं... बस चलता ही रहता है
अनवरत चल रही धौंकनी-सी साँसों की तरह
हर पल स्पन्दित हृदय-स्पन्दन की तरह
बस रूप बदलता रहता है अनवरत कर
कभी भौतिक तो कभी रासायनिक परिवर्त्तन
ऐ ज़िन्दगी ! तू भी तो कभी मरती ही नहीं
बस रूप बदलती रहती है
रामलीला के पात्रों की तरह
चलता रहता है तेरा ये सफ़र अनवरत
मेरे पिता से मुझ में और मुझ से मेरे पुत्र में
पिता जी की साँसे, धड़कनें बस होती हैं
हस्तांतरित मुझ में और मुझ से मेरी संतान में
पिता मरते हैं तो बस मरता है देह
रूकती हैं साँसे, धड़कनें, थमता है रक्त-प्रवाह
ज़िन्दगी भला कहाँ मरने वाली !!?
मृत काया भले ही जल जाती चिता पर
जहाँ चटकती हैं च्ट-चटाक कई हड्डियाँ
ना ...ना .. पूरा का पूरा अस्थि-पंजर ही
सिकुड़ती है शिरा और धमनियां
जलते है रक्त, रक्त-मज्जा, मांसपेशियां...
अनगिनत शुक्राणुओं-सी .. अनगिनत कोशिकाएं
झुर्रिदार त्वचा , सौंदर्य-प्रसाधनों से सींचे चेहरे भी
पाचन-तंत्र, तंत्रिका-तंत्र, प्रजनन-तंत्र भी ...
सारे तंत्र-मंत्र, जादू-टोने, झाड़-फूंक,
अस्पताल, डॉक्टर-नर्स, दवाई, आई सी यू,
वेंटीलेटर ...  इन सब को धत्ता बतला कर
बस रूप बदल फुर्र हो जाती है ज़िन्दगी ....
हाँ ... अपनों को बिलखता छोड़ फुर्र ....
पर नहीं ... यहीं कहीं किसी अपने संतान में रूप बदल
संतान के सीने में धड़क रही होती है ज़िन्दगी
और धमनियों में बह रही होती है रक्त बन कर
उतारती है एक परत भर ही तो
साँप के केंचुल की तरह ...
यकीन नहीं हो रहा शायद ! .. है ना !?
दरसअल तीनों विज्ञानों की ..
जीवविज्ञान, रसायन विज्ञान और भौतिक विज्ञान
इन तीनों विज्ञान की तू एक कॉकटेल है ज़िन्दगी
तू बस एक कॉकटेल है ज़िन्दगी
एक कॉकटेल है ज़िन्दगी
हाँ ... कॉकटेल है ज़िन्दगी
है ना ज़िन्दगी !???