Friday, September 13, 2019

'वेदर' हो 'क्लाउडी' और ...

'वेदर' हो 'क्लाउडी' और ...
सीताराम चच्चा का 'डाइनिंग टेबल' 'डिनर' के लिए
गर्मा-गर्म लिट्टी, चोखा और घी से ना हो सजी
भला हुआ है क्या ऐसा कभी !?
हाँ, ये बात अलग है कि ...
गाँव में होते तो ओसारे में उपलों पर सिंकते 
और यहाँ शहर में 'किचेन' में गैस वाले 'ओवन' पर हैं सिंझते
आज रात भी चच्चा का पहला कौर या निवाला
लिए लिट्टी, चोखा और घी का त्रिवेणी संगम
जब बचे-खुचे दाँतों से पीस, लार के साथ मुँह में घुला
तो मुँह से बरबस ही निकला - "वाह रामरती ! वाह !"

ख़त्म होते ही एक लिट्टी, दरवाज़े पर 'कॉलबेल' बजी ...
" ओ मेरी ज़ोहराजबीं, तुझे मालूम नहीं ... "
गैस का 'नॉब' उल्टा घुमा कर रामरती चच्ची दौड़ीं
उधर से रुखसाना भाभीजान का दिया हुआ
लिए हुए लौटीं एक तश्तरी में बादाम फिरनी
जो था क्रोशिए वाले रुमाल से ढका हुआ
अब भला कब थे मानने वाले ये 'डायबीटिक' चच्चा
अब एक लिट्टी भले ही कम खायेंगे
रात में 'इन्सुलिन' का थोड़ा 'डोज़' भले ही बढ़ाएंगे
पर मीठी बादाम फिरनी तो अपनी
धर्मपत्नी की मीठी झिड़की के बाद भी खायेंगे
अहा ! मीठी बादाम फिरनी और वो भी ...
हाथों से बना रुखसाना भाभीजान के
दूसरी लिट्टी भी गप के साथ गपागप खा गए चच्चा
दूसरी बार फिर से 'कॉल बेल' बजी ...
" ओ मेरी ज़ोहराजबीं, तुझे मालूम नहीं ... "
"रामरती ! अब देखो ना जरा ... अब कौन है रामरती !?"
अपने "ए. जी." की थाली में चोखा का परसन डाल
चच्ची दरवाजे तक फिर से दौड़ी
"लो अब ये गर्मागर्म केक आ गया
दे गया है पीटर अंकल का बेटा"
"अरे , अरे ये क्या हो रहा है रामरती , अहा, अहा !!!
अपने 'डिनर' का तो जायका बढ़ता ही जा रहा ..."

अब भला रामरती थीं कब चुप रहने वाली
बस ज्ञान बघारते हुए बोल पड़ीं - "ए. जी. ! देखिए ना !
डाइनिंग टेबल का ये गुलदस्ता
है ना कितना प्यारा
क्योंकि इनमें भी तो साथ है कई फूलों का
गुलाब, रजनीगंधा, कुछ सूरजमुखी और
साथ ही कुछ फ़र्न के पत्तों से सजा ... है ना !?"
"हाँ,सच में ! ठीक ही तो ...
कह रही हो मेरी प्यारी रामरती
आज हिन्दी-दिवस पर मेरी जगह तुम ही
भाषण देने गई क्यों नहीं !?"
"सचमुच ! माना कि हिन्दी वतन के माथे की बिंदी है ...
पर महावर और मेंहदी के बिना तो श्रृंगार अधूरी है,नहीं क्या !?
रामरती ! मेरी प्यारी रामरती !
सभी लोग ऐसा क्यों नहीं सोचते भला
बतलाओ ना जरा !!!"
"ओ मेरी ज़ोहराजबीं तुम्हें मालूम नहीं, तू अभी तक है हंसीं, और मैं जवां, तुझ पे क़ुर्बान, मेरी जान, मेरी जान... मेरी जान ..."



18 comments:

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    1. शुक्रिया रचना की प्रसंशा के लिए ...

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 14 सितंबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. हार्दिक आभार आपका मेरी रचना को साझा करने के लिए ...

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  3. सीताराम चच्चा की स्वादलोलुपता को बहुत ही रोचक और सधे तरीके से इस हास्य रचना में पुरोकर हिंदी की महिमा बढ़ा दी आपने सुबोध जी | गंगा -जमुनी तहजीब भारतवर्ष की पहचान और जान है | बिंदी के साथ महावर और मेंहदी के साथ श्रृंगार की शोभा बढ़ जाती है उसी तरह हिंदी भी अपने आप में दूसरी भाषाओँ को समेट और विराट हो जाती है | | ये रचना हास्य का मकरंद बिखेर मुस्कराने को अनायास विवश करती है | इस हंसती मुस्कुराती रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई देना चाहूंगी बहुत मनभावन है ये इस एकांकी काव्य !!!!!!!

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    1. इसमें चच्चा की स्वादलोलुप्ता तो केवल संकेत मात्र है, दरअसल ये मुख्यतः "वसुधैव कुटुम्बकम्" को चरितार्थ करने के लिए ही है।
      हमारा इस से इतर एक सवाल ये भी है, इस रचना से परे कि अगर हम विदेशी भाषा ऊर्दू को खुद में समाहित कर हिन्दी की बहन बोल सकते हैं तो विदेशी भाषा अंग्रेजी को क्यों नहीं जो पूरे विश्व को एकसूत्र में जोड़ता है ...

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  4. लेकिन मुझे लिट्टी समझ नहीं आया , क्या है सुबोध जी?

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    1. लिट्टी एक नमकीन व्यंजन है जो बिहार(पुराना)-यू पी (पुराना) में प्रचलित है, जो चूरमा-बाटी के बाटी की तरह उपले के आग पर सेक कर पकाया हुआ, पर अंदर में किसी भी भुर्ते वाले मिश्रण को मिला कर भुरभुरा सत्तू (भुने लाल चने का आटा) का मिश्रण भर हुआ।
      https://nishamadhulika.com/2073-litti_chokha_recipe.html
      अब शहरों में इसे माइक्रो वेब या गैस चूल्हे के ओवन पर सेंका जाता है।
      आप गूगल जी का मदद ले सकती हैं, अगर आपके वहाँ सतू मिलता हो तो ...

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    2. हार्दिक आभार सुबोध जी - एक नये व्यंजन का परिचय देने के लिए | हरियाणा में तो मैंने मेरे गाँव में मीठी मोटी रोटी ही देखी है अंगारों पर सिकते -- जिसे रोट कहा जाता है | ये रोट किसी लोक देवता को समर्पित किये जाते हैं , पर मेरी शादी के सालों बाद मैंने एक बार भी नहीं देखा क्योकि जिन दिनों ये पूजा होती है मैं जा नही पाती | सत्तू हमारे यहाँ नये गेहूं की आमद पर सतुवातीज नाम के त्यौहार पर बनाये जाते हैं , जिसके लिए रात में गेहूं भिगोकर रखे जाते हैं और दिन मे इन्हें सुखाकर और भूनकर आटा बनाया जाता है , उसे ही सत्तू कहा जाता है जिसे खांड में घोलकर पीया जाता था पर देखिये ना सालों से मैंने उसे भी नहीं देखा | मेरी ससुराल में सत्तू का चलन नहीं | मैं जरुर एक बार लिट्टी बनाना चाहूंगी -------------------------------------------------

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    3. आप गूगल बाबा की मदद ले सकती हैं। गेहूँ के बदले चने को भून कर उसका आटा बनाते हैं। साथ में बैंगन, टमाटर और आलू का मिश्रित चोखा यानि भुर्ता खाते हैं। गुझिया के जैसा पर गोलाई में सतू का मिश्रण भर कर नमकीन व्यंजन बनता है।
      खांड शायद गुड़ को कहते हैं ना !? ...

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    4. खांड और गुड बिल्कुल अलग होते हैं सुबोध जी।गुड़ माने गगुड़ और खांड माने देशी चीनी 😃🙏

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    5. ओ !! अब समझे ! 🤗🤗 .. उ भी लगभग पौने दू साल बाद ...😂😂😂

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  5. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 11 अगस्त 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. जी ! नमन संग आभार आपका ...

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  6. 😃😃😄 गप के साथ गपागप मीठी बादाम फिरनी गर्म -गर्म केक के साथ लिट्टी,चोखा गपकने वाले सीता राम चच्चा और रामरती चाची के गंगा- जमुनी तहज़ीब वाले पारिवारिक संस्कार पर आधारित ये रोचक और भावपूर्ण शब्द चित्र पर आज फिर से आकर बहुत अच्छा लग रहा है। मुस्कुराती हुई इस रचना के लिए एक फिर बधाई स्वीकार करें।डोर बेल ने रोमांटिक गीत गाकर रचना में एक नया रंग भर दिया है !😃🙏🙏

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  7. जी ! नमन संग आभार आपका ... यशोदा जी और आपके बहाने मुझे भी अपने ब्लॉग के तहखाने में छुपी-दबी अपनी ही बतकही आपकी तरह फिर से पढ़ने का मौका मिला .. आपने गौर नहीं किया ... सीता राम चच्चा और रामरती चाची के केवल गंगा- जमुनी तहज़ीब ही नहीं हैं, उसमें एक "थेम्स" (नदी) (Thames) का भी समन्वय है .. शायद ...

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  8. लिट्टी चौखा पड़ौस के घर घर बँटा होगा फिर प्लेट वापसी में उनके नये व्यंजन...खाना बाँटकर वसुधैव कुटुम्बकम की भावना का रिवाज मैंने भी सुना और देखा है क ई जगह...।
    आपने तो इस पर बहुत ही कमाल का लिखा है..और डोर बैल की धुन !!!
    वाह वाह...।

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    1. जी ! नमन संग आभार आपका .. 'टीवी सीरियल'- "भाभी जी घर पर हैं!" के प्रचलित तकिया क़लाम या संवाद की तरह बोलेन तो आप -"सही पकड़ीं हैं।" .. यह
      विशेष व्यंजनों के आदान-प्रदान का चलन आज भी आस-पड़ोस के दो-चार घरों में चलता रहता है .. अच्छा लगता है .. बस यूँ ही ...

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