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Sunday, July 21, 2024

असाध्य दंतहीन दंश ... (२)


"असाध्य दंतहीन दंश ... (१)" वाली गत बतकही में हम सभी ने देखा, कि समीर माथुर द्वारा .. अपनी दिनचर्या के तहत उस दिन सुबह-सुबह 'स्ट्रीट डॉग्स' को सामान्य दूध-रोटी देने के बजाय .. एक दिन पहले अपने घर आए मेहमानों के स्वागत में बने 'नॉन वेज' व्यंजनों की कुछ चूसी-चबाई, बची-खुची, जूठी हड्डियाँ ही परोसे जाने पर .. उन्हीं कुत्तों में से एक कुत्ते ने मांसाहार के कारण उनकी दायीं हबक (हथेली) को किस तरह हबक लिया था .. बस यूँ ही ...

अब आज उसी बतकही के दूसरे भाग - "असाध्य दंतहीन दंश ... (२)" में प्रसंगवश समीर माथुर से जुड़ी अतीत की दो अन्य घटनाओं (कहानियों को नहीं) को दोहराते हैं, जो यहाँ बतलाना नितांत आवश्यक है .. तो आगे .. पहले .. पहली घटना बकते हैं .. बस यूँ ही ...

एक बार समीर माथुर के एक पड़ोसी का एक रिश्तेदार .. फ़िलहाल "पड़ोसी का एक रिश्तेदार" ही कह रहा हूँ, क्योंकि .. समीर माथुर के किसी रिश्तेदार से सम्बंधित जातिवाचक संज्ञा की भी बात करने भर से ही तदनुसार उनके व्यक्तिवाचक संज्ञा वाले रिश्तेदार विशेष को .. उस कही गयी बातों को अपने लिए मान कर .. समीर माथुर से मुँह फुलाने का एक सुनहरा अवसर मिल जाता हैं।

हाँ तो .. फिलहाल उनके किसी "रिश्तेदार" की जगह उनके एक "पड़ोसी के एक रिश्तेदार" को ही इस घटना का पात्र मानते हुए ... ... समीर माथुर के एक पड़ोसी और उस पड़ोसी के रिश्तेदार की ही बात करते हैं, तो ... ...  एक बार उनके उस पड़ोसी की एक बच्ची का पाँचवा जन्मदिन मनाया जा रहा था, जहाँ हम भी सपरिवार आमंत्रित थे। ऐसे सुअवसर पर वहाँ उस बच्ची के एकलौते मामा जी भी सपरिवार मेहमान के रूप में पधारे हुए थे। 

'केक' कटने और बँटने के बाद रात्रिभोज यानी भोजन में 'वेज' पुलाव, मूँग दाल की कचौड़ी, शाही पनीर, परवल 'फ्राई', बूँदी रायता, पापड़, तसमई और गर्मागर्म गुलाबजामुन के साथ-साथ 'आइसक्रीम ब्रिक' के टुकड़ों को भी मेहमानों के समक्ष परोसा गया था। 

भले ही आयुर्वेदिक दृष्टिकोण से खाने का उपरोक्त संयोजन अस्वास्थ्यकर हो, पर ऐसे आयोजन-प्रायोजन के अवसरों पर आयुर्वेदिक आहार तालिका के मापदंडों के निर्देश किसे याद रह पाते हैं भला ! .. स्वघोषित घोर सनातनी लोग भी अपनी दिनचर्या में योग और आयुर्वेद को किंचित् मात्र भी समाहित करते नहीं जान पड़ते हैं .. शायद ...

मानो .. जैसे कि धूम्रपान के व्यसन से ग्रसित लोगबाग सिगरेट के डिब्बों पर या विज्ञापनों में कैंसर से ग्रस्त वीभत्स चेहरों को लाख बार देखने के बावज़ूद अपनी बुरी लत को नहीं छोड़ पाते हैं .. शायद ...

अब तक पड़ोस की उस बच्ची के जन्मदिन का रात्रिभोज समापन के क़रीब था। सभी लोग अंत में 'आइसक्रीम' खाते हुए आपसी गपशप में तल्लीन थे। तभी उस बच्ची के आये हुए मेहमान मामा जी वहाँ उपस्थित समस्त परिजनों को सपरिवार औपचारिक प्रणाम-नमस्ते करते-स्वीकारते .. 'रिटर्न गिफ़्ट' को भी सम्भालते-सहेजते अपने घर जाते-जाते .. हँस कर बच्ची की 'मम्मी' यानी अपनी छोटी बहन को सम्बोधित करके बोलते हुए गए, कि ...

" बीनू ! .. मजा नहीं आया आज की 'पार्टी' में .. केवल घास-फूस खिला के टरका दी तुम .. हमलोगों को .. है ना ? .. बिना "हड्डी" ('नॉन वेज') के .. 'पार्टी' में मजा आता है क्या ? .."

बच्ची के मामा जी तो हँसते-हँसते ये बोल कर चले गए, परन्तु उस रात बच्ची की 'मम्मी' का रोते-रोते बुरा हाल हो गया था। स्वाभाविक ही/भी था, क्योंकि .. बातों-बातों में पता चला था, कि उपरोक्त परोसे गए सारे शाकाहारी व्यंजनों की फ़ेहरिस्त बच्ची की 'मम्मी' के स्वयं अकेले का .. दिनभर के परिश्रम व लगन का ही परिणाम था ..  सिवाय गुलाबजामुन और 'आइसक्रीम ब्रिक' के, जो कि बाज़ार से बना-बनाया 'रेडीमेड' आया था।

अब दूसरी घटना को भी समीर माथुर के आत्म संस्मरण कहने की भूल ना तो .. हम करेंगे और ना ही आप समझने की भूल कीजियेगा। इस दूसरी घटना के पात्र को भी समीर माथुर के "एक अन्य पड़ोसी के मामा-मामी" को ही मान कर विस्तार देते हैं। 

हाँ .. तो .. एक दिन उस पड़ोसी के मामा-मामी उनके यहाँ दोपहर के भोजन के लिए आमंत्रित थे। शायद रविवारीय अवकाश का दिन रहा होगा। उस दिन उस सुअवसर पर मैं आमंत्रित तो नहीं था, पर बाद में एक दिन वह पड़ोसी स्वयं ही उस दिन वाली घटना से जन्मी अपने मन की व्यथा मुझ से साझा कर रहे थे, कि .. एक दिन दोपहर में उनके द्वारा दिए गए आमंत्रण को पाकर, उनके मामा- मामी के उनके घर आने के बाद अन्य सारी औपचारिकताओं के पश्चात .. उन दोनों के समक्ष जब दोपहर का भोजन 'डाइनिंग टेबल' पर पेश किया गया, तब .. उनके सेवानिवृत्त मामा जी मुस्कुराते हुए सर्वप्रथम .. अतिविशेष शोरबेदार सब्जी से भरे कटोरे में 'टेबल स्पून' से टटोलते हुए पूछ बैठे थे, कि ..

" क्या बना है ? .. म-ट-न है क्या ? "

तब उनके मेजबान भांजा यानी समीर माथुर के पड़ोसी ने आदरपूर्वक उत्तर दिया था, कि ..

" नहीं .. मामा जी .."

तभी मामी जी मुस्कुराते हुए बोल पड़ीं थीं, कि ..

" तब .. जरूर 'चि-के-न' बना होगा ? .. है ना ? .. "

पुनः समीर माथुर के पड़ोसी यानी उन मामा-मामी के भांजा को उत्तरस्वरुप बोलना पड़ा था, कि ..

" नहीं मामी जी .. 'चिकेन' भी नहीं है .. "

तभी तपाक से पुनः मामा जी ..

" तब तो जरूर 'फ़िश करी' या फिर 'एग करी' .."

तभी समीर माथुर के पड़ोसी की धर्मपत्नी रसोईघर से दो प्रकार के गर्मागर्म तले पापड़ों और तिसियौरी (तीसी यानी अलसी और मसूरदाल से बनने वाली बिहार की एक प्रकार की बड़ी, जिसे तेल में तल कर खाया जाता है) से भरी एक तश्तरी लिए 'डाइनिंग टेबल' की ओर आती हुई .. उन दोनों मामा-मामी जी की ऊहापोह को विराम देते हुए बोल पड़ी थी, कि ..

" नहीं मामा जी .. 'मटन' नहीं, मटर-पनीर की सब्जी बनाए हैं .. "

इतना सुनने-जानने के बाद उन दोनों यानी मामा-मामी के मुँह अनायास उदास-निराश जैसे हो गए थे। मानो घड़ी की साढ़े छः बजे की सुइयों की तरह लटक गए हों। जबकि उनके समक्ष खाने के लिए मटर-पनीर की शोरबेदार सब्जी के अलावा चना दाल का तड़का, बासमती चावल का शुद्ध देसी घी में पका जीरा 'फ्राइड राइस' के साथ-साथ सत्तू की कचौड़ी या विकल्प में सत्तू भरी रोटी, मसालेदार गोभी 'फ्राई', मूली-गाजर-टमाटर के सलाद, तले हुए दो तरह के पापड़, तिसियौरी के अलावा 'यू ट्यूब' पर देख कर बनाया गया .. मीठा ज़र्दा पुलाव व गाजर का हलवा .. यूँ तो मीठे व्यंजन विशेष रूप से मामी जी के लिए ही बने थे, क्योंकि मामा जी को मधुमेह की शिकायत है। हालाँकि दो-चार चम्मच वे भी चख ही लिए थे .. दोनों ही मीठे व्यंजनों- मीठा ज़र्दा पुलाव और गाजर के हलवा में से। हँसते हुए ये कह कर कि ..  " आज रात में दो 'पॉइंट' ज्यादा इन्सुलिन ही लेना पड़ेगा ना .. ले लेंगे .. पर सब व्यंजनों का स्वाद तो चखना ही पड़ेगा ना .."

इधर मामा जी की हसरत भरी नज़रें खानों के बीच जिस बेसब्री से अपने मेहमाननवाजी में 'मटन-चिकेन' या 'फ़िश-एग' तलाश करने के बाद भी .. ना मिलने पर .. निराशा से भर गयीं थीं .. साथ में मामी जी की भी .. तो उधर .. समीर माथुर के पड़ोसी और उनकी धर्मपत्नी को इतनी सारी तैयारी करने के बाद भी आत्मग्लानि की अनुभूति हो रही थी .. शायद ...

थाली से उनके मुँह तक निवाले ले जाने वाले हाथों की गति धीमी-सी ही रही थी। वो तो शुक्र है, कि .. हँस के या फिर .. रो के-गा के .. जैसे भी हो .. थाली में वो लोग जूठन नहीं छोड़े, वर्ना .. मांसाहारी भोजन में विशेष चाव रखने वाले कई लोग तो परोसे गए शाकाहारी भोजन को गिंज-मथ के और कुछ लोग तो उन व्यंजनों को बिना छुए ही .. उस शाकाहारी भोजन को घास-फूस की संज्ञा देकर .. बस यूँ ही ... बेमन से जूठन छोड़ देते हैं।

समीर माथुर के पड़ोसियों के रिश्तेदारों से जुड़ी उपरोक्त दोनों घटनाओं के आलोक में हमने पाया, कि कई मांसाहारी मानवों की मांसाहार के लिए कितनी ज्यादा आसक्ति व मंत्रमुग्धता है, तो .. फिर भला मांसाहारी पशुओं का आसक्त व मंत्रमुग्ध होना तो स्वाभाविक ही है .. है ना ?

सबसे मजेदार पक्ष तो ये है, कि यही मांसाहार के आसक्त लोग सालों भर किसी वार विशेष .. जैसे- मंगलवार, वृहष्पतिवार या .. कोई-कोई शनिवार को या फिर .. भर माह सावन में या दस दिनों तक नवरातरा (नवरात्रि) या एकादशी-पूर्णिमा के दिन .. दुनिया के सबसे बड़े वाले शाकाहारी मानव होने का ढोंग करेंगे। मानो पेटा (PETA) के 'प्रेसिडेंट' वही हैं .. शायद ...

इन पेटा (PETA) के तथाकथित स्वघोषित 'प्रेसिडेंट' जन की उपरोक्त दिनों की स्वाद लोलुपता भरी बेचैनी की एक बानगी भी प्रसंगवश बहरहाल देख ही लेते हैं। 

किसी एक साल समीर माथुर के एक अन्य पड़ोसी (समीर माथुर के नहीं) के मंझले मामा जी भी सपरिवार छठ (बिहार में सूर्य उपासना से जुड़ा चार दिवसीय एक महिमामंडित व्रत) मनाने के लिए उन पड़ोसी के घर आए हुए थे। व्रत-अनुष्ठान के आख़िरी व चौथे दिन सुबह ही, जैसाकि अमूमन होता है, समापन हो जाने के बाद और प्रसाद ग्रहण करने के बाद मामा जी अपनी रसना के रस को लगभग सुड़कते हुए अपने भांजे यानी समीर माथुर के पड़ोसी से बोले कि - 

" अब तो .. आज शाम तक सब 'गेस्ट' लोग चले ही जायेंगे, तो .. क्यों ना .. दोपहर में 'मटन' बनवाओ .. सभी का "मुख शुद्धिकरण" (उनकी भाषा में किसी निरामिष व्रत-त्योहार के बाद 'नॉन भेज' को उदरग्रस्त करने की प्रक्रिया है ये) हो जाएगा .."

उसी पड़ोसी की मामी जी - " हाँ जी ! .. ढेर दिन हो गया मन को रोके हुए .. ले आइए 'मटन' .. चाहे 'चिकेन' .. कुच्छो (कुछ भी) ले आइए .. "

पड़ोसी के मामा जी - " ना - ना .. ना 'मटन', ना 'चिकेन' .. व्रत-पूजा के बाद तो मछली से ही 'नॉन भेज' शुरू करना चाहिए .." - ऐसा कह रहे थे, मानो किसी गीता-ग्रंथ में ऐसा लिखा गया हो। 

ख़ैर ! .. उपरोक्त दोनों घटनाओं से इतना तो पता चल ही गया, कि मांसाहारी पशुओं की तरह मांसाहारी मानवों में भी मांसाहार के प्रति सम्मोहन, आकर्षण, स्वाद लोलुपता भरी पड़ी है .. शायद ... 

लेकिन .. मांसाहारी पशुओं का मांसाहार के प्रति सम्मोहन होना तो स्वाभाविक है, परन्तु मानव .. जिसके आहार के इतने सारे शाकाहारी विकल्प की उपलब्धता होने पर भी मांसाहार के प्रति अतिविशेष सम्मोहन कायम रहना .. उन्हें तरजीह देना .. एक अचरज का ही विषय है। तभी तो स्वजनों के मृत देह को दफ़नाने या जलाने वाले मांसाहारी स्वाद लोलुपों की .. मृत पशु-पक्षियों के तेल-मसालों में 'मैरीनेट' करके पकाए गए व्यंजनों से .. क्षुधा पूर्ति हो रही है .. शायद ...

फ़िलहाल तो .. इतनी ज्यादा बतकही बहुत है, मेरे द्वारा मांसाहार के रूप में आपका दिमाग़ खाने के लिए .. शायद ... 

अब आइये मूल बतकही के पात्र - समीर माथुर का हालचाल भी जान लेते हैं .. बस यूँ ही ...

अब जब मानव के खाने की मात्रा और गति .. दोनों ही मांसाहार परोसे जाने पर बढ़ जाते हैं, तो मांसाहारी पशु तो फिर भी पशु ही हैं। प्रतिदिन लावारिस कुत्ते-कुत्तियों को कटोरे में दूध-रोटी खिलाने के बाद समीर माथुर उनके सामने से कटोरों को समेट कर व धोकर .. नियमित रूप से सहेज कर यथोचित स्थान पर रख देते हैं। हाथ से ही एक-एक कर कौर के रूप में 'बिस्कुट' भी खिलाते हैं। उस रोज भी सुबह-सुबह वे उन सभी के लिए परोसी गयी .. गुज़रे हुए कल के दिन अपने घर आए हुए कुछ विशेष मेहमानों की खातिरदारी में परोसे गए .. मुर्ग़े व मछलियों के 'नॉन वेज' व्यंजनों की चूसी-चबाई, बची-खुची, जूठी .. कुछ हड्डियाँ उन सभी के खा लेने पर .. उनके सामने से बर्तनों को उठाने के क्रम में .. एक कुत्ते ने मांसाहार के सम्मोहन में बर्त्तन को चाटना नहीं छोड़ना चाहता था, तो प्रतिरोध में घुड़कने के क्रम में बर्त्तन को उठाने के लिए बढ़ी हथेली पर आशातीत हबक लिया था। 

उसके नुकीले दाँतों के चुभन-खरोंच से हथेली के ऊपर-नीचे पाँच-छः जगहों से तीव्र गति से रक्त प्रवाह बहने लगा था। हल्की-सी चीख़ भी निकल गयी थी। फ़ौरन घर में उपलब्ध "सुथॉल" लगा कर .. उनके व उनकी धर्मपत्नी श्रावणी सहाय द्वारा रक्त प्रवाह को रोकने का भरसक प्रयास किया गया था। तभी तो वह सुबह -सुबह आनन-फ़ानन में मुहल्ले के ही एक 'क्लीनिक' में जाकर 'एंटी रेबीज इंजेक्शन' लिए थे।

इंसान कई बार सामने वाले का मन रखने के लिए सामने वाले की रूचि में अपनी रूचि का दिखावा करता तो है, पर .. कभी-कभी अपने मन की बातों को सामने वाले के सामने रखने के लिए दूसरों के वक्तव्यों का या किसी अवसर विशेष का सहारा लेते हुए अपनी सहमति- असहमति प्रायः जतला ही देता है। 

अभी ऐसा ही अवसर श्रावणी सहाय को मिल गया है, समीर माथुर को सुबह एक कुत्ता के काट लेने भर से। यूँ तो रोज उन कुत्तों के लिए रोटियाँ बनाना .. दूध सुसुम-सुसुम गर्म करना .. वही करतीं हैं। पर .. समीर माथुर की रूचि व ख़ुशी भर के लिए .. अपने मन से नहीं, तो .. आज सुबह एक कुत्ते को खिलाते वक्त उसके काट लेने से श्रावणी सहाय को समीर माथुर से भविष्य में प्रतिदिन कुत्ते को ना खिलाने की बात कहने का मौका मिल गया है। जिन्हें पहले से ही मजबूरी में .. बिना अपने मन के भी .. उनका मन रखने के लिए मजबूरीवश उनको सहयोग करनी पड़ जाती थी।

श्रावणी सहाय - " अब कोई जरूरत नहीं है जी .. रोज-रोज कुत्ता-बिल्ली करने का .. बहुत हो गया .. कैसा भुगतना पड़ रहा है अभी .. आपको .. "

समीर माथुर - " तुमको तो बस्स ! .. अपने मन की बात कहने का मौक़ा भर मिलना चाहिए। फिर तो अपनी मर्ज़ी थोपने में तनिक भी देरी नहीं करती हो तुम .. अब तुम्हें हमारे सफ़ेद बाल भी अच्छे नहीं लगते हैं, तो .. तुम चाहती हो कि .. तुम्हारी तरह हम भी अपने बाल 'डाई' करें .. है ना ?" 

श्रावणी सहाय - " हाँ जी .. सही में .. जरा भी ठीक नहीं लगता है .. "

समीर माथुर - " हाँ .. वही तो ! .. वही तो कह रहे हैं कि .. जो अपने मन की बात तुम सीधे-सीधे नहीं बोल पाती हो तो .. किसी-किसी का हवाला दे कर अपने मन की बात मुझ पर थोपोगी तुम .. अब कहोगी, कि बगल वाली भाभी बोल रहीं थी, कि अच्छा नहीं लग रहा है .. भईया को बोलिए .. अपना बाल रंगेंगे .. "

श्रावणी सहाय- " हम झूठ थोड़े ही ना बोले हैं जी .. बोलिएगा तो उनसे पूछवा देंगे आपको .."

समीर माथुर - " छोडो भी .. मुझे नहीं चाहिए .. किसी का 'सर्टिफिकेट' .. हमारी जीवन शैली के लिए .. फिर कभी कहोगी, कि शाहरुख खान और सलमान खान भी तो अपना-अपना बाल रंगता ही है ना जी .. आयँ ! .. "

श्रावणी सहाय - " हाँ जी ! .. रंगता ही तो है .. तभी ना जवान लगता है जी .. "

समीर माथुर - " जवान लगना और जवान होना .. दो अलग.अलग बातें हैं जी .. बाल रंगने से कुछ नहीं होता जी .. बस .. मन जवान होना चाहिए .. "

श्रावणी सहाय- " आप तो हर बात में ही .. अपना कुतर्क करने लग जाते हैं .. जाइए .. जैसे रहना है, रहिए .. हम नहीं बोलेंगे आपको .. कुछ भी .. "

समीर माथुर - " ना-ना .. बोलो .. बोलते रहा करो .. हमारे ज्ञान की वृद्धि होती रहती है इससे .. और .. अभी जो तुम ज्ञान दे रही थी ना .. कुत्ता-बिल्ली नहीं करने का .. "

श्रावणी सहाय - " हाँ .. सही ही तो बोल रहे हैं आपको .."

समीर माथुर - " कुछ भी सही नहीं बोल रही हो तुम .. एक कुत्ता काटा .. वो भी अंजाने में .. उसको लगा था, कि हम उसके खाने का बर्त्तन हटा रहे हैं। वो भी .. वो काटा नहीं था, बस .. घुड़का था .. झटके से हम ही अपनी हथेली वहाँ से हटाए तो .. उसके दाँत की खरोंच लग गयी थी .. "

श्रवणी सहाय - " जैसे भी हो .. लग गयी ना ? .. लग गया ना ढाई-तीन हजार की चपत ? .. "

समीर माथुर - " तुमको तो मेरे घाव से ज्यादा .. पैसे की फ़िक्र है, पर .. पैसा तो .. कहते हैं ना कि .. हाथ का मैल भर है और वैसे भी .. मान लिया कि .. कुत्ते ने वैसे तो अंजाने में काटा है, पर .. मान लिया कि जानबूझ कर काटा है, पर .. उसका तो उपचार है .. इंजेक्शन' (सुई) भी है; पर .. तुम ये बतलाओ, कि .. स्वजन जो जानबूझ कर .. मतलब .. जानते-सुनते अपनी बोली के बाण से मानसिक रूप से हमें प्रताड़ित कर के पीड़ा प्रदान करते हैं .. उन असाध्य दंतहीन दंश का कोई उपचार है क्या ? फिर भी .. इनसे रिश्ते हम तोड़ पाते हैं क्या ? नहीं ना ? .. फिर कुत्ते को .. "

श्रावणी सहाय चुप्पी का लबादा ओढ़े रसोई मकी ओर चली गयी हैं, क्योंकि उनका 'प्रेशर कुकर' .. पक रहे चना दाल के लिए चार सीटी बजा चुका है और समीर माथुर 'बाथरूम' में चले गए हैं नहाने, क्योंकि उनके काम पर जाने का समय हो चला है .. शायद ...

अंत में .. हम पुनः दोहरा रहे हैं, कि उपरोक्त बतकही की दोनों घटनाओं को समीर माथुर के आत्म संस्मरण कहने की भूल ना तो .. हम करेंगे और ना ही आप समझने की भूल कीजियेगा .. बस यूँ ही ...


Friday, July 19, 2024

असाध्य दंतहीन दंश ... (१)

" लगवा लिए 'इंजेक्शन' ? .. और .. क्या बोले 'डॉक्टर' साहब ? "

समीर माथुर .. जिनकी दिनचर्या में यूँ तो .. सुबह-सुबह किसी भी तरह का 'बिस्कुट' खाना शामिल नहीं है ; क्योंकि उनका मानना है, कि सारे के सारे 'मल्टिग्रेन' वाले या 'रागी' तक से बने होने के दावे करने वाले 'बिस्कुटों' में भी प्रायः पचास प्रतिशत से भी ज्यादा तो मैदा ही होता है और .. आयुर्वेदिक परामर्शों के अनुसार मैदा, सफ़ेद नमक, चीनी इत्यादि जैसे निषिद्ध वस्तुओं का वह अपने आहारों में अमूमन इस्तेमाल नहीं होने देते हैं। 

पर .. चूँकि चिकित्सकीय दृष्टिकोण से .. सुबह-सुबह खाली पेट में या यूँ कहें, कि बासी मुँह रह कर 'इंजेक्शन' नहीं ली जानी चाहिए, तो ऐसे में .. मज़बूरीवश चार 'पीस' 'क्रीम क्रैकर' 'बिस्कुट' ही खा कर, अभी उनको तत्काल सुई लेने के लिए आनन-फ़ानन में मुहल्ले के ही एक दवा दुकान से उचित दवाएँ लेते हुए, मुहल्ले के ही एक 'क्लिनिक' में जाना पड़ा था। अभी-अभी वह वहीं से 'इंजेक्शन' लगवा कर वापस घर आए हैं और आते ही उनकी धर्मपत्नी- श्रावणी सहाय अपनी तरफ़ से भरसक सहानुभूति जतलाते हुए .. उनसे यही दो उपरोक्त प्रश्न उत्सुकतावश पूछ बैठी हैं, कि ..

" लगवा लिए 'इंजेक्शन' ? .. और .. क्या बोले 'डॉक्टर' साहब ? "

वैसे तो अभी सुबह के लगभग साढ़े आठ ही बजे हैं। पर बाहर चल रही धधकती गर्म हवा और तीखे धूप से उबल-भून कर घर आते ही 'फुल स्पीड' में 'सीलिंग फैन' को चालू कर के उसके नीचे उसकी तेज हवा में बैठते हुए समीर माथुर अपनी धर्मपत्नी को प्रत्युत्तरस्वरुप बोल रहे हैं -

" कुछ नहीं .. बोलेंगे क्या भला ! .. एक "टेट्वैक" का और एक "रैबीवैक्स एस" का 'इंजेक्शन' अभी दिए हैं .. बारी-बारी से दोनों बाजूओं में .. बाकी .. और भी पाँच 'एंटी रेबीज इंजेक्‍शन' लेनी है .. अलग-अलग दिनों के अंतराल पर .." 

श्रावणी - " मतलब ? "

समीर - " मतलब क्या ? .. मतलब दूसरी सुई आज से तीन दिनों बाद, फिर तीसरी सात दिनों बाद, फिर चौथी .. "

श्रावणी - " अच्छा .. अच्छा .. समझ गए .. समझ गए। और .. डॉक्टर साहब .. खाने-पीने में भी कोई परहेज़ बोले हैं क्या ? "

समीर - " हाँ .. खाने में तो नहीं, पर पीने में .. बोले हैं कि .. "ड्रिंक" नहीं करनी है। "

श्रावणी - " वो तो .. आप वैसे भी नहीं करते हैं जी। "

समीर - " हाँ तो .. बस्स .. मतलब कोई भी परहेज़ नहीं करनी है .. और हाँ .. लाल मिर्ची का 'पाउडर' है क्या घर में ? .. थोड़ा देना .. "

समीर माथुर के घर की रसोई में लाल मिर्च नाममात्र ही इस्तेमाल की जाती है। वो भी उनकी धर्मपत्नी- श्रावणी सहाय जी की बरज़ोरी से और वो भी .. कश्मीरी लाल मिर्च .. कभी-कभार, किसी-किसी आए-गए अतिथियों के स्वागत में बनायी गयी रसोई में रंग लाने के लिए। दो-तीन महीने में कभी एक बार सौ ग्राम कश्मीरी लाल मिर्च के 'पाउडर' का डिब्बा आ गया घर में, तो काम चल जाता है। बाकी तो .. पाचन तंत्र के स्वास्थ्य के मद्देनज़र हरी मिर्च ही उनकी रसोई में प्रयोग की जाती है। इसीलिए वह अपनी धर्मपत्नी से लाल मिर्च के 'पाउडर' की उपलब्धता के लिए ऐसी शंका से भरा सवाल कर रहे हैं।

श्रावणी - " हाँ .. है .. दे रहे हैं .. पर उसका क्या .. "

समीर - " उसका .. डॉक्टर साहब बोले हैं, कि जहाँ-जहाँ काटा है, वहाँ-वहाँ नल के पानी की तेज धार में रगड़-रगड़ कर साबुन से पाँच-दस मिनट तक धो लीजिएगा और उसी जगह पर मिर्ची भी रगड़ कर धो दीजिएगा .."

श्रावणी - " ओ ! .. अच्छा ! .. मतलब एक तो काटे का दर्द और .. ऊपर से साबुन-मिर्ची से भी आपको परपराएगा .. वो अलग .. "

समीर - " अरे .. ये जानकारी तो 'स्कूल' में 'कोर्स' की किताबों में भी पढ़ायी गई थी .. प्राथमिक उपचार के तहत; पर सुबह .. घबराहट के कारण दिमाग़ में ये बात एकदम से नहीं आ पायी थी।"

श्रावणी - " अच्छा ! "..

समीर - " वैसे भी हमलोग अपने 'स्कूल-कॉलेज' के दिनों में पढ़ी-पढ़ायी बातों को अपने जीवन में कितना ही व्यवहार में ला पाते हैं भला ? हम लोग अपनी पढ़ाई को केवल अच्छे अंकों से 'पास' करने का एक माध्यम भर मानते हैं, ताकी .. कोई भी एक प्रतियोगी परीक्षा 'पास' करके .. ऊपरी आमदनी वाली किसी भी एक सरकारी नौकरी को पा जाना ही मानो .. हमारे जीवन का एकमात्र लक्ष्य हो जैसे। फिर उसके बाद तो .. किताबी बातें आयीं-गयीं हो जातीं हैं। "

श्रावणी - " कितना लगा (रुपया) ? "  - किसी भी 'मिडिल क्लास फैमिली' की आर्थिक तंगी वाली चिंताओं से भरा एक आम-सा सवाल।

समीर - " दोनों 'इंजेक्‍शन' के लगभग चार सौ और पचास रुपए के हिसाब से दोनों (सुई) को लगाने के सौ रुपए .. आगे भी .. अगली पाँचों सुइयों के लिए हर बार लगभग चार-साढ़े चार सौ रुपए का ख़र्च .. "

श्रावणी - " एक बात बोलें जी ? .. अब से ना .. इन सब से दूर ही रहा कीजिए। क्या जरूरत है सुबह-शाम खाना खिलाने की इन लावारिस कुत्ते-कुत्तियों को। और भी तो बहुत सारे लोग हैं जी .. मुहल्ले भर में .. इन सब को खिलाने वाले। कैसा ! .. अभी एक शारीरिक कष्ट हो गया आपको .. बैठे- बिठाए .. वो भी सुबह-सुबह। ऊपर से .. सब मिलाकर ढाई-तीन हजार की चपत लगेगी .. सो अलग .. ना जाने किसका मुँह देख कर आज सुबह उठे थे आप .. "

समीर - " धत् ! .. मौका मिला नहीं, कि .. ऊटपटाँग बातें बकने लगती हो तुम .. कितनी बार कहते हैं, कि मेरे सामने इस तरह की ऊल-जलूल दकियानूसी बातें मत किया करो .. पर तुम .. " - फिर बोझिल माहौल को कुछ हल्का करने की सोच कर मुस्कुराते हुए - " तुम्हारा ही तो मुँह देखकर उठते हैं जी रोज और .. आज भी ... "

दरअसल .. कुछ 'स्ट्रीट डॉग', जिनके लावारिस होते हुए भी प्रायः हर मुहल्ले में समीर माथुर जैसे एक या अनेक पालनहार होते हैं, जो स्वतः उनका दायित्व निभाते हैं; जिनसे कुछ को मन की शांति मिलती है और कुछ के लिए पुण्य कमाने का एक माध्यम बनता है। वहीं दूसरी तरफ़ .. कुछ पड़ोसियों के पाले हुए पालतू, पर अपनी गर्दन में बिना 'चेन' वाले पट्टे लपेटे हुए खुले में विचरने वाले कुत्ते; जो अपने तथाकथित पालनहार मालिक के होने के बावज़ूद लावारिस बने मुहल्ले भर में इधर-उधर मुँह मारते फ़िरते हैं। जो गाहे-बगाहे किसी-किसी फेरी वाले या साइकिल-स्कूटी सवार या फिर विशेष लिबासों वाले भिखमंगों को देखकर बेतहाशा भौंकते रहते हैं। मुहल्ले से बाहर के कुत्ते-कुत्तियों को अपने इलाके से गुज़रने पर भौंक -भौंक कर उनको खदेड़ना तो इनका जन्मसिद्ध अधिकार होता ही है।

यूँ तो समीर माथुर की दिनचर्या में शामिल है .. मुहल्ले भर में ऐसे ही विचरते कुत्ते-कुत्तियों को सुबह-शाम दूध-रोटी या 'अरारोट बिस्कुट' खिलाना। परन्तु आज दूध-रोटी या 'अरारोट बिस्कुट' की जगह सुबह-सुबह उन सभी के लिए .. गुज़रे कल के दिन अपने घर आए हुए कुछ विशेष मेहमानों की खातिरदारी में परोसे गए मुर्ग़े व मछलियों के 'नॉन वेज' व्यंजनों की कुछ चूसी-चबाई, बची-खुची, जूठी हड्डियाँ ही उनके बर्तनों में परोस दिए थे। 

अब 'कैनाइन' दाँतों वाले मांसाहारी पशुओं को अगर मांस-हड्डियाँ परोस दी जाएँ, तो मांसाहारी भोजन के सम्मोहन में उनके खाने की गति व चाव दोनों ही तीव्र हो जाते हैं। वैसे तो ये सिद्धांत केवल कुत्तों पर ही नहीं, वरन् मांसाहारी इंसानों पर भी लागू होता है। 

किसी मांसाहारी परिवार में कोई मांसाहारी मेहमान आएँ और उनके स्वागत में 'नॉन वेज' ना बने, ऐसा हो ही नहीं सकता। बशर्ते .. मानने वालों के लिए उस दिन कोई विशेष हिंदू वार या कोई एकारसी (एकादशी) -पूर्णिमा या फिर नवरात्रि जैसा दिन ना हो। फिर तो .. मेज़बान प्रायः मेहमान पर अपना प्रभाव जमाने के लिए 'ग्रेवी' वाले या 'फ्राई' 'चिकेन' के 'लेग पीस' के साथ-साथ पेटी (मछली के पेट के कटे हुए टुकड़े) वाली 'फ्राई फ़िश' परोसने में कोई कोताही नहीं बरतते हैं। वर्ना मांसाहारी मेजबान भी केवल शाकाहारी व्यंजनों-भोजन को खिलाए जाने पर अपनी तौहीन समझते हैं। 

ऐसे में मेजबान-घर के सदस्यों को भी, जो प्रतिदिन शाकाहारी भोजन मन मार के उदरग्रस्त करते हैं, उन्हें मेहमान के बहाने 'नॉन वेज' खाने का सुअवसर मिल जाता है। ठीक वैसे ही, जैसे .. किसी बच्चे को सेहत का हवाला देकर समोसा खाने से मना करने वाले अभिभावकों की भी विवशता हो जाती है, जब मेहमानों के आने पर उनके लिए बाज़ार से मंगवाए गए गर्मागर्म समोसे में से बच्चों को खाने से नहीं रोक पाते हैं और बच्चे उन सुअवसरों का आराम से आनन्द लेते हैं। और तो और .. ऐसे अवसरों पर ही मुहल्ले भर के लावारिस कुत्ते-कुत्तियों और बिल्लियों को भी चूसी-चबाई, बची-खुची, जूठी हड्डियों से उनके मुँह के स्वाद को "सोंधाने" का सुनहरा अवसर मिल जाता है।

अभी सोच रहा हूँ, कि प्रसंगवश समीर माथुर के साथ जुड़ी अतीत की दो घटनाओं (कहानियाँ नहीं) को दोहराउँ ? .. क्योंकि उन्हें यहाँ दोहराना .. कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। तो आगे .. पहली घटना बकते हैं .. परन्तु आज नहीं .. बल्कि .. "असाध्य दंतहीन दंश ... (२)" (अंतिम) में पुनः मिलते हैं .. बस यूँ ही ...