अगली बतकही के पूर्व .. किसी फ़िल्म के मध्यांतर स्वरुप हमारे एक Openmic में participation का Vedio .. ज्यों का त्यों .. बस आपके लिए .. बस यूँ ही ...🙂
अगली बतकही के पूर्व .. किसी फ़िल्म के मध्यांतर स्वरुप हमारे एक Openmic में participation का Vedio .. ज्यों का त्यों .. बस आपके लिए .. बस यूँ ही ...🙂
आज की बतकही शुरू करने से पहले .. अगर सम्भव हो, तो .. दो मिनट का औपचारिक ही सही .. श्रद्धांजलि स्वरुप स्वाभाविक नम आँखों के साथ खड़े होकर मौन धारण कर लें हम सभी .. "अतुल सुभाष" के लिए ; क्योंकि हम और हमारे तथाकथित समाज के तथाकथित बुद्धिजीवियों को समाज की ऐसी विसंगतियों के विरोध में अपने आक्रोश के साथ चीखने की फ़ुर्सत तो है ही नहीं ना .. शायद ...
आज की बतकही :-
गत बतकही "कहाँ बुझे तन की तपन ... (१)" के अंतर्गत बाल कवि बैरागी जी के रूमानी शब्दों को कमायचा जैसे राजस्थानी लोक वाद्य यंत्र की आवाज़ के साथ फ़िल्मी गीत के रूप में सुन कर रोमांच- रोमांस से झंकृत- तरंगित होने के पश्चात आज .. इस "कहाँ बुझे तन की तपन ... (२)" में एक अन्य विलक्षण प्रतिभा वाले अद्भुत रचनाकार के बारे में अपनी बतकही के साथ पुनः उपस्थित ...
प्रसंगवश .. एक तरफ़ .. हम प्रायः देखते हैं , कि हर वर्ष साप्ताहिक या पाक्षिक मनाए जाने वाले हिंदी दिवस के पक्षधर और पुरोधा बने फिरने वाले बहुसंख्यक हिंदी भाषी बुद्धिजीवी गण भी .. अपनी दिनचर्या वाली बोलचाल की भाषा- बोली में अन्य भाषाओं के शब्दों का धड़ल्ले से किए गए घालमेल के बिना तो वार्तालाप कर ही नहीं पाते हैं और .. सर्वविदित भी है, कि अन्य भाषाओं के घालमेल किए गए वो सारे के सारे शब्द प्रायः यहाँ बलपूर्वक आए आक्रांताओं या उनमें से कई छल-बलपूर्वक बन बैठे आक्रांता शासकों की भाषाओं से ही प्रभावित होते रहे हैं .. शायद ...
दूसरी तरफ़ .. कुछेक भजनों एवं दोहे-चौपाइयों को छोड़ कर हिंदी फ़िल्मी दुनिया के अधिकांश गीतों के सृजन की कल्पना बिना उर्दू शब्दों के करना .. किसी शहरी 'मॉल' के प्रांगण में जुगनुओं की चमक दिख जाने की कल्पना करने जैसी ही है .. शायद ...
परन्तु .. उपरोक्त विषम परिस्थितियों में भी अगर कोई विलक्षण प्रतिभा विशुद्ध हिंदी शब्दों के संयोजन से एक कालजयी फ़िल्मी गीत रच जाए और वो भी .. पंजाबी व उर्दू भाषी होने के साथ- साथ पंजाबी फ़िल्मों का एक सफल गीतकार होने के बावजूद। जिनको तब हिंदी लिखने तक नहीं आती थी, तो उन्होंने हिंदी भाषा को बहुत ही तन्मयता के साथ सीख कर आत्मसात किया था। उनकी उस तन्मयता के बारे में उनके उस विशुद्ध हिंदी शब्दों के संयोजन वाले फ़िल्मी गीत को सुनने से पता चलता है। तब तो .. ऐसे में उन्हें मन से नमन करने में कोताही बरतनी उस रचनाधर्मिता का अनादर ही होगा .. शायद ...
विशुद्ध हिंदी शब्दों के संयोजन से सजे उस कालजयी फ़िल्मी गीत को हम इस बतकही के अंत में सुनेंगे भी। उससे पहले उनकी और भी अन्य महत्वपूर्ण उपलब्धियों का अवलोकन कर लेते हैं। वैसे भी तो प्रायः .. साहित्यिक क्षेत्र के कई पुरोधा गण फ़िल्मी गीतकार को एक साहित्यकार मानते ही नहीं हैं , जबकि किसी भी गीत या भजन का सृजन भी किसी रचनाकार के मानसिक- हार्दिक गर्भ से जन्मी एक कविता से ही होता है .. शायद ...
अंग्रेज़ों के शासनकाल में जन्में .. बहुत कम उम्र में ही स्कूल की पढ़ाई के दौरान तत्कालीन स्वतन्त्रता संग्राम के दौर में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ क्रांतिकारी गीत लिखकर .. वह कांग्रेस के जलसों और सभाओं में उन्हें सुनाते- सुनाते कांग्रेस पार्टी के सक्रिय सदस्य बन गए थे। नतीजतन अंग्रेज़ी सिपाहियों द्वारा गिरफ़्तार कर के उन्हें कारावास में रखा तो गया था , परन्तु उनकी कम उम्र होने के कारण उन्हें जल्द ही रिहाई भी मिल गयी थी।
उन दिनों स्वतंत्रता दिवस वाले विभत्स विभाजन ने उन्हें अत्यंत मर्माहत किया था। परन्तु कुछ ही दिनों बाद अपने जीविकोपार्जन के लिए मुम्बई (तत्कालीन बम्बई) आने के बाद उनके क्रांतिकारी विचारों वाले तेवर ने सामाजिक सरोकार वाली विचारधाराओं से सिक्त होकर एक ऐसे गीत का सृजन किया, कि उनके उस गीत को इंदिरा गाँधी वाली कांग्रेस सरकार की ओर से .. तत्कालीन तथाकथित स्वतन्त्र भारत में भी कुछ दिनों की पाबंदी झेलनी पड़ी थी।
जबकि कांग्रेस सरकार ने ही पहले "गरीबी हटाओ" और "रोटी, कपड़ा और मकान" का नारा दिया था। परन्तु .. कुछ ही माह बाद देश में कांग्रेस सरकार द्वारा आपातकाल लागू करने और फ़िल्म "किस्सा कुर्सी का" की 'रील' जलाने जैसे दुःसाहस भरे कृत्यों वाले कलंक का टीका उस सरकार के माथे पर सुशोभित हुआ था। फ़िल्म "रोटी, कपड़ा और मकान" का सामाजिक सरोकार वाला वह गीत आपको भी याद होगा ही .. शायद ...
जिसका एक अंतरा कुछ यूँ था, कि ...
" एक हमें आँख की लड़ाई मार गई
दूसरी तो यार की जुदाई मार गई
तीसरी हमेशा की तन्हाई मार गई
चौथी ये ख़ुदा की ख़ुदाई मार गई
बाक़ी कुछ बचा तो महंगाई मार गई .. "
इस गीत के मुखड़े के साथ-साथ इसके हर अंतरे में तत्कालीन महंगाई की पीड़ा सिसकती नज़र आती है .. शायद ...
भले ही कभी .. या आज भी समाज शास्त्र के पाठ्यक्रम के अनुसार मानव जीवन की मूलभूत आवश्यकताएँ रोटी, कपड़ा और मकान है, परन्तु .. इसके बावजूद परोक्ष रूप से आज की मूलभूत आवश्यकताएँ 'मोबाइल' , 'नेट' और 'सोशल मीडिया' हो गयीं हैं .. शायद ...
किसी भी अमीर या ग़रीब के बेटे- बेटियों की पारम्परिक शादी- विवाह के दरम्यान उनकी बारात व विदाई के अवसर पर इनकी लिखी रचनाओं पर आधारित गीतों का बजना .. आज भी वहाँ उपस्थित लोगों को क्रमशः झुमा और रुला देता है .. बस यूँ ही ...
पारम्परिक बारात के समय झुमाने वाला गीत -
" आज मेरे यार कि शादी है .. आज मेरे यार कि शादी है
अमीर से होती है , गरीब से होती है
दूर से होती है , क़रीब से होती है
मगर जहाँ भी होती है, ऐ मेरे दोस्त !
शादियाँ तो नसीब से होती है ...
आज मेरे यार कि शादी है .. आज मेरे यार कि शादी है "
और विदाई के वक्त शिद्दत से रुलाने वाले उस गीत का एक अंतरा -
" सूनी पड़ी भैया की हवेली
व्याकुल बहना रह गई अकेली
जिन संग नाची, जिन संग खेली
छूट गई वो सखी सहेली
अब न देरी लगाओ कहार
पिया मिलन की रुत आई
चलो रे डोली उठाओ कहार, पिया मिलन की रुत आई ..."
प्रत्येक वर्ष "फ़िल्मफ़ेयर" अंग्रेज़ी पत्रिका की ओर से भारतीय सिनेमा को सम्मानित करने वाले प्रायोजित "फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार समारोह" के तहत गत सत्तर वर्षों से दिए जाने वाले कई श्रेणियों के फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों में से एक - "सर्वश्रेष्ठ गीतकार फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार" उन्हें दो- दो बार अलग- अलग वर्षों में मिला था।
एक "सर्वश्रेष्ठ गीतकार फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार" तो 1971 में "पहचान" फ़िल्म के एक गीत के लिए , जिसका एक अंतरा निम्न है -
" धर्म- कर्म, सभ्यता- मर्यादा, नज़र ना आई मुझे कहीं
गीता ज्ञान की बातें देखो, आज किसी को याद नहीं
माफ़ मुझे कर देना भाइयों, झूठ नहीं मैं बोलूंगा
वही कहूँगा आपसे, जो गीता से मिला है ज्ञान मुझे
कौन- कौन कितने पानी में, सबकी है पहचान मुझे
सबसे बड़ा नादान वही है, जो समझे नादान मुझे ..."
और दूसरा "सर्वश्रेष्ठ गीतकार फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार" 1973 में "बेईमान" फ़िल्म के एक गीत के लिए मिला था , जिसका एक अंतरा है -
" बेईमान के बिना मात्रा होते अक्षर चार
ब से बदकारी, ई से ईर्ष्या, म से बने मक्कार
न से नमक हराम समझो हो गए पूरे चार
चार गुनाह मिल जाएँ होता बेईमान तैयार
अरे उससे आँख मिलाए, क्या हिम्मत है शैतान की
जय बोलो बेईमान की , जय बोलो , ओ बोलो !
जय बोलो बेईमान की, जय बोलो ..."
हालांकि काका हाथरसी जी की एक कालजयी रचना के शीर्षक - "जय बोलो बेईमान की" से इस गीत के मुखड़ा का प्रेरित होने का भान तो होता है , परन्तु इन दोनों रचनाओं के अंतराओं में बहुत ही अंतर है।
अंग्रेज़ शासित भारतवर्ष में तत्कालीन पंजाब जिले के फ़िरोज़पुर में 13 अप्रैल 1925 को उन महान रचनाकार - "बरकत राय मलिक" का जन्म हुआ था , जो बाद में हिंदी फ़िल्मी दुनिया में अग्रसर होने के पश्चात अपने स्वजनों की राय पर अपना नाम "वर्मा मलिक" रख लिए थे। वह एक क्रांतिकारी विचारों वाले रचनाकार थे। वैसे भी फ़िरोज़पुर को "शहीदों की धरती" भी कहते हैं , जो तथाकथित स्वतंत्रता दिवस के दिन हुए विभत्स विभाजन के दौरान पाकिस्तान में शामिल होने के बजाय, बच कर .. नेहरू जी के प्रयास से भारत में ही रह गया था।
उनके लिखे तमाम फ़िल्मी गीतों की लम्बी फ़ेहरिस्त में से कुछ मनमोहक गीतें निम्नलिखित हैं -
(१)
" बस्ती बस्ती नगरी नगरी, कह दो गाँव-गाँव में,
कल तक थे जो सिर पर चढ़े, वो आज पड़े हैं पाँव में …"
(२)
" अरे हाय हाय ये मजबूरी, ये मौसम और ये दूरी,
मुझे पल-पल है तड़पाए, तेरी दो टकियाँ दी नौकरी,
वे ~ मेरा लाखों का सावन जाए …"
(३)
" तेरे संग प्यार मैं नहीं तोड़ना,
चाहे तेरे पीछे जग पड़े छोड़ना …"
(४)
" पंडितजी मेरे मरने के बाद, बस इतना कष्ट उठा लेना,
मेरे मुँह में गंगाजल की जगह, थोड़ी मदिरा टपका देना…"
(५)
" एक तारा बोले तुन तुन, क्या कहे ये तुमसे सुन सुन,
बात है लम्बी मतलब गोल, खोल न दे ये सबकी पोल,
तो फिर उसके बाद, एक तारा बोले, तुन तुन … "
(६)
" ओ, मेरे प्यार की उमर हो इतनी सनम,
तेरे नाम से शुरू, तेरे नाम पे ख़त्म… "
(७)
" मैंने होठों से लगाई तो, हंगामा हो गया,
मुझे यार ने पिलायी तो हंगामा हो गया ..."
(८)
" आय .. हाय ...
कान में झुमका, चाल में ठुमका, कमर पे चोटी लटके,
हो गया दिल का पुर्ज़ा-पुर्ज़ा, लगे पचासी झटके,
हो~~ तेरा रंग है नशीला, अंग-अंग है नशीला ... "
सबसे क़माल की बात तो ये है, कि सम्भवतः ये पहले ही गीतकार / रचनाकार रहे होंगे, जिन्होंने "कान में झुमका, चाल में ठुमका... " वाले अपने रूमानी मनचले-से फ़िल्मी गीत में "दिल के टुकड़े- टुकड़े" कहने के लिए .. "दिल का पुर्ज़ा- पुर्ज़ा " शब्द को पहली दफ़ा व्यवहार में लाया होगा .. शायद ...
पर .. एक सबसे दुःखद बात तो ये है , कि उनकी इतनी सारी विलक्षण प्रतिभाओं के बाद भी .. जब चौरासी वर्ष की आयु में 2009 में उनका निधन हुआ था , तो उन्हें कहीं भी 'मीडिया' में स्थान नहीं मिला था। मगर वहीं किसी 'वायरल' "...(?)... चौधरी" जैसी फुहड़ नृत्यांगना की मृत्यु हो जाए, तो वही 'मीडिया' अपनी तथाकथित 'टीआरपी' के लिए सारा दिन उसे दिखलाती रहेगी। यही है हमारे तथाकथित समाज और तथाकथित 'मीडिया' का मानसिक स्तर .. शायद ...
ख़ैर ! .. जो अपने वश में नहीं, उनका कैसा शोक मनाना भला .. आइए उन महान हस्ती के मानसिक- हार्दिक गर्भ से जन्मी विशुद्ध हिंदी शब्दों के संयोजन वाली उस कविता को एक कालजयी फ़िल्मी गीत के तौर पर .. लगभग तिरपन साल पुराने इस गीत के मुखड़े एवं इसके एक- एक अंतरा को मिलकर ध्यानपूर्वक सुनते हैं और उनमें अन्य भाषाओं के कोई भी एक शब्द तलाशने का प्रयास करते हैं .. जो शायद है ही नहीं इसमें .. तो .. तन्मयता के साथ सुनिए .. वर्मा मलिक जी के शब्दों को .. बस यूँ ही ...
इस बतकही के शेष-अवशेष को हम "कहाँ बुझे तन की तपन ... (३) में साझा करने का प्रयास करेंगे और .. ऐसी ही एक अन्य विलक्षण बहुमुखी प्रतिभा को जानेंगे- सुनेंगे .. बस यूँ ही ...
हमारी बतकही का मक़सद स्वज्ञान या शेख़ी बघारते हुए लोगों को कुछ बतलाना या जतलाना नहीं होता, वरन् स्वयं ही को जब पहली बार किसी नयी जानकारी का संज्ञान होता है और वह हमें विस्मित व पुलकित कर जाता है, तो उसे इस पन्ने पर उकेर कर सहेजते हुए संकलन करने का एक तुच्छ प्रयास भर करते हैं हम .. बस यूँ ही ...
साथ ही .. आशा भी है, कि जो भी इसे पढ़ पाते हैं, उन्हें भी अल्प ही सही पर .. रोमांच की अनुभूति होती होगी ; अगरचे वो पहले से ही सर्वज्ञानी ना हों तो.. शायद ...
उपरोक्त श्रेणी की ही है .. आज की भी बतकही, कि .. इस समाज में तथाकथित जाति-सम्प्रदाय की तमाम श्रेणियों की तरह ही अक्सर लोगबाग ने रचनाकारों को भी वीर रस के कवि-कवयित्री, श्रृंगार रस के कवि-कवयित्री इत्यादि जैसी कई श्रेणियों में बाँट रखा है। जबकि ऐसे कई सारे उदाहरण मिल जाते हैं, जिनसे किसी भी साहित्यकार या रचनाकार की रचनाधर्मिता को किसी श्रेणी विशेष से बाँध पाना उचित नहीं लगता है।
इस बतकही के तहत हमें सबसे पहले मध्य प्रदेश के तत्कालीन मंदसौर जिले से विभक्त होकर बने वर्त्तमान नीमच जिले में अवस्थित मनासा नामक शहर जाना होगा, भले ही कल्पनाओं के पंखों के सहारे अभी जाना पड़े, जिसने बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न नन्द रामदास जैसे रचनाकार को अपनी मिट्टी से रचा था। जिन्हें हम आज बाल कवि बैरागी के नाम से ज़्यादा जानते हैं।
वह कवि और राजनीतिज्ञ के साथ-साथ फिल्मी दुनिया के गीतकार भी थे। राजनीतिज्ञ के रूप में तो उनका राज्य सभा के सांसद से लोकसभा के सांसद तक का पड़ाव तय करते हुए कैबिनेट मंत्री तक का सफ़र रहा था।
इस तरह की चर्चा करते हुए, अभी अटल जी अनायास परिलक्षित हो रहे हैं। हालांकि वह जनसामान्य के बीच कवि के रूप में थोड़ा कम और राजनीतिज्ञ के रूप में थोड़ा ज़्यादा विख्यात हैं। दूसरी तरफ़ .. बैरागी जी कवि के रूप में थोड़ा ज़्यादा प्रख्यात हैं, तो राजनीतिज्ञ के रूप में थोड़ा कम .. शायद ...
एक तरफ़ तो वह लिखते हैं, कि -
" मुझको मेरा अंत पता है, पंखुरी-पंखुरी झर जाऊँगा
लेकिन पहिले पवन-परी संग, एक-एक के घर जाऊँगा
भूल-चूक की माफ़ी लेगी सबसे मेरी गंध कुमारी
उस दिन ये मंडी समझेगी किसको कहते हैं खुद्दारी
बिकने से बेहतर मर जाऊं अपनी माटी में झर जाऊँ
मन ने तन पर लगा दिया जो वो प्रतिबंध नहीं बेचूँगा
अपनी गंध नहीं बेचूँगा- चाहे सभी सुमन बिक जाएँ। "
वहीं दूसरी तरफ़ बच्चों के लिए बच्चा बन कर भी लिखते हैं , कि -
" पेड़ हमें देते हैं फल,
पौधे देते हमको फूल ।
मम्मी हमको बस्ता देकर
कहती है जाओ स्कूल। "
वही बाल कवि बैरागी जी देशभक्ति और बाल गीत वाली तमाम प्रतिनिधि रचनाओं से परे एक विशेष फ़िल्मी रूमानी गीत रच जाते हैं, जिसे आज भी सुनने पर वह मन को रोमांच- रोमांस से झंकृत- तरंगित कर जाता है .. शायद ...
वैसे तो इसकी विस्तारपूर्वक सारी जानकारी 'यूट्यूब' या 'गूगल' पर भी उपलब्ध है ही। पर प्रसंगवश केवल ये बतलाते चलें, कि राजस्थानी पृष्ठभूमि पर बनी फ़िल्म होने के कारण वहाँ के प्रचलित "राग मांड" पर इस गीत का संगीत आधारित है और इसमें अन्य कई भारतीय वाद्ययंत्रों के साथ-साथ वहाँ के मांगणियार समुदाय के लोगों द्वारा बजाए जाने वाले एक तार से सजे "कमायचा" नामक लोक वाद्ययंत्र का भी इस्तेमाल किया गया है ; ताकि इस गीत को जीने (केवल सुनने वाले को नहीं) वाले श्रोताओं को अपने आसपास रूमानी राजस्थानी परिदृश्य परिलक्षित हो पाए।
अब .. प्रसंगवश यह भी चर्चा हम करते ही चलें, कि उपलब्ध इतिहास के अनुसार उस "नीमच" (NEEMUCH = NIMACH)) जिला के नाम की उत्पत्ति अंग्रेजों के शासनकाल में वहाँ स्थित तत्कालीन "उत्तर भारत घुड़सवार तोपखाना और घुड़सवार सेना मुख्यालय" (North India Mounted Artillery and Cavalry Headquarters - NIMACH) के संक्षेपण (Abbreviation) से हुई है। जहाँ आज स्वतन्त्र भारत में "केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल" (CRPF) के आठ रंगरूट प्रशिक्षण केन्द्रों में से एक रंगरूट प्रशिक्षण केन्द्र है। ये "रंगरूट" शब्द भी अंग्रेजी के रिक्रूट (Recruit) शब्द का ही अपभ्रंश है।
अब तो .. इस बतकही के शेष-अवशेष को हम "कहाँ बुझे तन की तपन ... (२) में साझा करने का प्रयास करेंगे और .. ऐसी ही एक अन्य विलक्षण बहुमुखी प्रतिभा को जानेंगे- सुनेंगे। तब तक .. फ़िलहाल तो .. हम सभी मिलकर बाल कवि बैरागी जी के शब्दों और मधुर संगीत में पगे उस गीत के बोलों को और "कमायचा" की आवाज़ को सुनकर कुछ देर के लिए ही सही .. पर भाव- विभोर हो ही जाते हैं ... बस यूँ ही ...
अब आज इस बतकही के आख़िरी और तीसरे भाग "दो टके का दो टूक ... (३)" में .. यहाँ .. जो कोई भी पधारे हैं, उनके धैर्य को मन से नमन .. बस यूँ ही ...
सर्वविदित है, कि "दुम दबाकर भागना" एक मुहावरा है, परन्तु गत वर्ष दिवाली के दिन सुबह- सुबह मुझे इसे अक्षरशः सत्य होते हुए भी देखने का अवसर मिला था ; जब हम उस दिन प्रतिदिन की तरह सुबह, बल्कि दिवाली (12 नवम्बर 2023, रविवार) सह रविवारीय अवकाश के साथ-साथ आसपास में फ़ैली तथाकथित त्योहार की उमंग की तरंग में डूबे .. विशेषतौर से उस अवकाश के दिन आदतन एक बड़े बर्त्तन में सुसुम और सामान्य दिनों से भी ज़्यादा दूध लेकर घर से निकल कर मुहल्ले के नुक्कड़ तक गए थे ; जहाँ ठंड के कारण सड़क के किनारे मुहल्ले भर की गली के कुत्तों का (Street Dogs) (और कुत्तियों का भी) जमावड़ा लगा रहता है और वे वहाँ नर्म- नर्म पहाड़ी धूप की गर्माहट का आनन्द लेते हुए , प्रायः वहीं सड़क पर पसरे मिलते हैं।
हमारे वहाँ तक जाने के क्रम में अभी उनकी और हमारी दूरी लगभग बीस-पच्चीस मीटर ही शेष रही होगी, तभी आसपास किसी अदृश्य स्थल पर किसी अतितरंगित प्राणी ने दिन के उजास में ही दिवाली की तथाकथित परम्परा को निभाते हुए .. अतितीव्र ध्वनि वाले पटाख़े को आग दिखा दिया होगा, तो .. .. .. .. . ले लोट्टा !!! .. हम हक्का- बक्का देखते ही रह गए और .. श्वानों की टोली हमारे हाथ में दूध से भरे बर्त्तन को देखने के बाद भी वहाँ से अचानक पल भर में लुप्त हो गई और ... और तो और .. प्रायः भूख लगने पर सुबह- शाम हमारे घर के दरवाज़े पर आकर मुख्य द्वार के लोहे के फ़ाटक को अपने पँजों से ज़ोर-ज़ोर से हिला कर अपने आगमन का संकेत देने वाला "जैकी" और मुहल्ले के कुछेक परिवारों का चहेता "जैकी" .. अपने सभी प्रेमियों के समक्ष प्रेम- प्रतिक्रिया स्वरूप अपनी दुम हिलाने वाला "जैकी" भी उन सभी के साथ ही अपनी दुम दबा कर बहुत ही तेज़ी से भाग रहा था। उसे बार-बार बुलाने पर भी वह हमारे पास नहीं आया और ना ही रुका।
ख़ैर ! .. बाक़ियों का तो कोई अपना बसेरा- ठिकाना नहीं है, तो आसपास उचक-उचक कर तलाशने पर भी उन लोगों का तो कुछ भी पता नहीं चल पाया .. ना जाने सारे अपनी जान बचा (?) कर कहाँ छुप गए थे। पर बड़ी मुश्किल से कुछ ही दूरी पर उसी टोली का एक चितकबरा कुत्ता मिला, जो हिम्मत कर के कुछ ही दूरी पर जा कर दूध की उम्मीद में ठिठक गया था ; तो उसको दूध पिलाने के बाद "जैकी" के स्थायी ठिकाने की ओर जाना हमको उचित लगा , जहाँ वह एक निम्न मध्यम परिवार के घर में रहता है .. जो हमारे घर (किराए के मकान) से कुछ ही दूरी पर है। बाज़ाब्ता उसके लिए उन लोगों ने अपने घर के बरामदे में एक स्थायी खाट लगा रखी है। वहाँ पहुँच कर, बाहर से ही "जैकी~ जैकी~" की आवाज़ लगाते ही वह खाट से उतर कर हमारे सामने आ गया और सामने ही आदतन एक-दो बार साष्टांग दण्डवत् करने के बाद वह पेट भर दूध पी लिया। कुछ शेष छोड़ भी दिया।
हर बार इनमें एक ख़ास गुण दृष्टिगोचर होता है, कि ये लोग केवल अपना पेट भरने तक ही खाते- पीते हैं, पर हम इंसानों की तरह पेट की जगह अपना मन भरने तक अपने पेट में कोंचते नहीं हैं .. शायद ...
उस वक्त आदतन उसको सहलाते- थपथपाते समय हमको उसकी धुकधुकी काफ़ी तीव्र महसूस हो रही थी। इतने दहशत में उसे महसूस करके तत्काल हमारा मन द्रवित हो गया था। मन विचलित भी अवश्य हुआ था, कि अभी-अभी तो ये अपने स्थान से ही लुप्त हुए हैं, पर .. अगर .. आतिशबाज़ी की यूँ ही अति होती रही तो .. हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी समाज- शहर भर से ये लुप्त और फिर .. विलुप्त भी तो हो सकते हैं। ऐसी विषम परिस्थिति में आज की बतकही के तथ्य को धैर्यपूर्वक समझना ही होगा .. शायद ...
सर्वप्रथम तो आतिशबाज़ी कभी भी पर्यावरण के लिए न्यायसंगत रही ही नहीं है , क्योंकि सामान्यतः सामान्य पटाख़ों में बारूद और अन्य ज्वलनशील रसायन ही तो होते हैं, जो जलाए जाने पर फट कर शोर और रोशनी पैदा करते हैं। साथ ही भारी मात्रा में वायु और ध्वनि प्रदूषण फैलाते हैं। और पर्यावरण की सुरक्षा के बिना हम सुरक्षित रह भी नही सकते हैं .. शायद ... हालांकि तथाकथित "ग्रीन पटाख़ों" में हानिकारक रसायन ना के बराबर होते हैं, जिससे वायु प्रदूषण कम होता है।
अधिकांश लोगों का प्रायः मुद्दा होता है, कि अन्य त्योहारों के लिए आपत्ति नहीं जतायी जाती, फिर दिवाली के लिए ही दोहरी मानसिकता क्यों ? यूँ तो "दोहरी मानसिकता" कहीं भी गलत है .. घर- परिवार में, समाज में, देश में, हर जगह .. परन्तु मालूम नहीं हम दिवाली के अलावा अन्य वायु प्रदूषण फ़ैलाने वाले किस त्योहार की बातें करते हैं भला .. पर यूँ तो .. केवल त्योहार ही क्यों भला .. लोग तो शादी- विवाह के मौक़ों पर, अपने मनपसन्द क्रिकेट टीम के जीतने पर, किसी मनपसन्द राजनीतिक दल के जीतने पर, कोई बड़ा केस-मुक़दमा (उचित या अनुचित तरीके से भी) जीतने पर, तथाकथित नववर्ष के अवसर पर भी पर्यावरण के लिए सर्वदा हानिकारक पटाख़े यहाँ जलाए ही जाते हैं .. शायद ...
यूँ तो धूम्रपान से , मिलावट वाले पेट्रोल को प्रयोग करने वाले वाहनों से निकले धुएँ से भी वायु प्रदूषण होता ही रहता है। कुछ वर्षों से तो कुछ राज्यों में पराली (पुआल) जलाने से भी वायु प्रदूषण फ़ैलने की चर्चाएँ आम हैं .. शायद ...
दूसरी तरफ़ हमने ये भी ग़ौर किया है , कि दशहरे के दौरान तथाकथित रावण दहन के दरम्यान भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से आतिशबाज़ी की जाती है, पर उसका भी अमूमन विरोध नहीं होता .. कोई आपत्ति नहीं जतायी जाती क्योंकि .. दिवाली के मौके पर घर-घर में जलाए जाने वाले पटाख़ों की तरह उस तथाकथित रावण के पुतले घर-घर में नहीं जलाए जाते, बल्कि वह तो पूरे शहर भर में या फिर गाँव-मुहल्ले में केवल एक ही जलाया जाता है, पर .. यूँ तो एक नहीं .. तीन-तीन होते हैं पुतले- तथाकथित रावण, कुंभकर्ण और मेघनाथ के पुतले भी .. प्रदूषण की सम्भावनाएँ तो तब भी बनती हैं, परन्तु तुलनात्मक रूप से कम ही बन पाती हैं, क्योंकि दिवाली के दौरान तो कुछेक पर्यावरण समर्थक जागरुक घर- परिवारों को छोड़ कर आतिशबाज़ी प्रायः धड़ल्ले से घर-घर में जलायी जाती है .. शायद ...
आपको शायद ये कुतर्क लगे, पर .. अब तर्क हो या कुतर्क .. हमारी समझ में जो आ रहा है, वह साझा कर रहे हैं, कि इसके पीछे के इस गणित को समझना होगा , कि अगर एक मुहल्ले में किसी एक 'साउंड बॉक्स' पर भजन, ग़ज़ल या रूमानी गाना भी बज रहा हो तो .. कानों में मिठास घोलता महसूस होता है और 'साउंड बॉक्स' की जगह दस- बीस या पचास- सौ बड़े वाले 'डी जे बॉक्स' या 'लाउडस्पीकर' बजने लग जाएँ, तो वही भजन- ग़ज़ल कान को कर्कश लगने लगेगा, जिसे हम ध्वनि प्रदूषण की पराकाष्ठा भी कह सकते हैं। आप मानते हैं इस बात को, तो हम अपनी बात आगे बढ़ाएँ .. बढ़ाएँ ना ? ...
अब तनिक अपने देश भारत की जनसंख्या के गणित को समझ लेते हैं। उपलब्ध वर्तमान आँकड़ों के मुताबिक शायद भारत की जनसंख्या के लगभग 70-80% लोग हिन्दू धर्म, 16-20% इस्लाम, 2% ईसाई, 2% सिक्ख और 1% बौद्ध धर्म के अनुयायी बसते हैं। मतलब 70-80% हिन्दू जो दिवाली का त्योहार मनाते हैं और 20% अपने मनाने वाले अन्य त्योहार में पटाखे जलाते होंगे .. शायद ...
अब हम तनिक ग़ौर करें, कि 70-80% आबादी द्वारा की गयी आतिशबाज़ी से फैले प्रदूषण और 20% द्वारा फैलाए गए प्रदूषण समान होंगे क्या ? (आज के संदर्भ में उपरोक्त आँकड़े उन्नीस- बीस भी हो सकते हैं .. शायद ... 🙏)
हालांकि आतिशबाज़ी जिस किसी भी मौके पर होती हो, एक बुद्धिजीवी और जिम्मेवार नागरिक ना सही, एक अच्छे और नेक इंसान होने के नाते हम सभी को इसका विरोध करना ही चाहिए .. शायद ... वैसे हम तो किसी भी मौक़े पर पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाली आतिशबाज़ी को उचित नहीं मानते हैं .. बस यूँ ही ...
वैसे भी बारूदों और आतिशबाज़ी का इतिहास बहुत प्राचीन नहीं है .. शायद ... तो .. धर्मानुसार भी इसका सम्बन्ध हमारे पुरखों की परम्पराओं से भी जोड़ना उचित नहीं है। साथ ही इनसे परेशान होने वाले गली के लावारिस कुत्तों, गायों, बन्दरों या अन्य चौपायों के साथ-साथ पेड़ों पर विश्राम कर रहे पक्षियों को ना जाने .. जाने-अंजाने कितनी ही नाना प्रकार की मानसिक और शारीरिक यातनाएँ झेलनी पड़ती हैं .. शायद ...
पर इन सबसे अन्तर किसको पड़ता है भला .. जिस सभ्य समाज में धर्म के नाम पर पशुओं की बलि-क़ुर्बानी जायज़ हो, जिस सभ्य मानव-समाज में स्वादिष्ट व्यंजन के लिए जीव-हत्या गर्वोक्ति होती हो .. तो ऐसे में .. ऐसे लोगों के लिए उपरोक्त हमारी दो टके का दो टूक वाली बतकही बेमानी है .. शायद ...
अगर इस बेकार की बतकही से आज के बाद आतिशबाज़ी ना जलाने के लिए कुछेक सम्वेदनशील मानव का हृदय- परिवर्तन हो जाए .. एक नेक मन का हृदय- परिवर्तन हो जाए .. तो .. दिवाली तो .. सदियों से हर वर्ष आने की तरह अगले साल भी आएगी .. हम रहें ना रहें .. आगे भी आती ही रहेगी तो .. इस वर्ष ना सही .. हम अपनी भावी पौध- पीढ़ी को कुछ इस तरह मानसिक- हार्दिक रूप से सींचे की भावी दिवाली सालों-दर-साल प्रकाशोत्सव ही बन कर रहे .. प्रदूषणोत्सव में तब्दील होने से बच जाए .. ताकि हम सहर्ष अपनों को प्रदूषणोत्सव के स्थान पर सदैव प्रकाशोत्सव की शुभकामनाएँ प्रेषित कर सकें .. बस यूँ ही ...
नहीं तो .. .. हम तो फ़िलहाल .. कबीर जी के निम्न दोहे को दोहरा कर ही अपने मन को कम-से-कम ढाढ़स दे देंगे, कि ...
" कबीरा तेरी झोपड़ी गलकटियन के पास,
जैसी करनी-वैसी भरनी, तू क्यों भये उदास। "
अब आज इतना ही .. फिर मिलते हैं .. अपनी अगली बतकही "कहाँ बुझे तन की तपन ... (१)" के साथ .. बस यूँ ही ...
अब आज इस बतकही के शेष-अवशेष को "दो टके का दो टूक ... (२)" में हम जानते-समझते हैं, कि एक अन्य अद्भुत मान्यताओं के तहत इसी धरती पर रहने वाला तथाकथित हिंदूओं का एक समुदाय दीपावली को बिना पटाख़ों के कैसे मनाता है भला ! .. बस यूँ ही ...
दरअसल पूरे वर्ष भर किसी भी धर्म-सम्प्रदाय द्वारा अपनी-अपनी आस्था के अनुसार मनाया जाने वाला कोई भी त्योहार या धार्मिक अनुष्ठान प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से समस्त समष्टि को जोड़ने का ही कार्य करता है .. शायद ...
अब यदि ऐसे अवसर पर समष्टि को तोड़ने का या फिर निज पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने का कोई भी कृत्य होता हो, तो ऐसे कृत्य कम से कम हमारे पुरखों द्वारा तो हमें विरासत -स्वरूप कतई नहीं सौंपे गए होंगे। निश्चित रूप से पुरखों की थाती के अपभ्रंश रूप ही ये सारे के सारे नहीं भी, तो .. अधिकांश अपभ्रंश प्रचलन हमारे वर्तमान समाज में प्रचलित हैं .. शायद ...
ऐसे विषयों पर हमारे बुद्धिजीवी समाज के प्रबल प्रबुद्ध गण भी सकारात्मक विश्लेषण करने की जगह प्रायः अंधानुकरण करने में ही स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते देखे जाते हैं। नतीजतन हाल ही में बीती दिवाली के मौके पर इस वर्ष ही नहीं, वरन् हर वर्ष दो खेमों में बँटे लोग आतिशबाज़ी के पक्ष और विपक्ष में टीका-टिपण्णी करते हुए दिखते तो हैं, परन्तु हल के नाम पर .. वही ढाक के तीन पात .. शायद ...
जबकि हमारे पड़ोस के कट्टर हिंदूवादी देश - नेपाल में पूरी तरह से आतिशबाज़ी प्रतिबंधित है। इस से सम्बन्धित किसी भी सामग्री-उत्पाद के उत्पादन और विपणन पर भी रोक है। वैसे तो तस्करी या अन्य किसी जुगाड़ से चोरी-छिपे वहाँ पटाख़ों का उपलब्ध होना, बिकना और जलाना एक अलग ही बात है , जो है तो वहाँ के कानून के अनुसार एक दंडनीय अपराध ही।
ख़ुदा-ना-ख़्वास्ता .. हमारे देश-समाज में धर्म-परम्परा की आड़ में अगर कुछ विनाशकारी या हानिकारक परम्पराएँ हैं भी तो .. उन्हें प्रतिस्थापित करना भी हमारा ही धर्म है। इनमें बलि प्रथा , जल्लीकट्टू , दिवाली के दिन पिंजड़े में बंद उल्लू का दर्शन , दशहरे में पिंजड़े में बंद नीलकंठ पक्षी का दर्शन , मृत्युभोज , बकरीद के दिन तथाकथित क़ुर्बानी जैसी अंधपरम्पराएँ भी शामिल हैं। वैसे भी कोई भी धर्म व्यष्टि संगत के साथ-साथ समष्टि संगत भी होनी ही चाहिए .. शायद ...
यूँ तो हम लोगों ने अपनी दिनचर्या में जाने-अंजाने नाना प्रकार के अनगिनत प्रतिस्थापन कर रखे हैं .. न जाने हमने कब पजामे से धोती को और पतलून से पजामे को प्रतिस्थापित किया है। भाषा-बोली के मामले में भी संस्कृत से लेकर पालि, प्राकृत, अवहट्ट, पुरानी हिन्दी, अपभ्रंश हिन्दी तक में कई प्रतिस्थापन किए हैं। अब हम भाषा- बोलियों में, परिधानों में, खान-पानों में, पकवानों में निरन्तर अनेकों प्रतिस्थापन किए हैं , तो धार्मिक परम्पराओं में भी एक- दो सकारात्मक परिवर्तन- प्रतिस्थापन करके कोई गुनाह तो नहीं ही करेंगे ना हम ? .. शायद ...
हमारे पड़ोसी देश नेपाल में भी दिवाली मनाई तो जाती है, पर भिन्न तरीके से और भिन्न मान्यताओं के साथ। वहाँ तथाकथित राम आगमन वाली कोई मान्यता है ही नहीं , बल्कि वहाँ तथाकथित लक्ष्मी व विष्णु के पूजन वाली मान्यता है और .. सबसे विशेष बात तो ये है, कि दीपावली के दिन पालतू ही नहीं, बल्कि गली के सभी कुत्तों की भी पूजा की जाती है। बाज़ाब्ता उन्हें साफ़-सुथरा कर के गुलाल, दही व अक्षत् के मिश्रण का टीका उनके माथे पर लगा कर और फूलों की माला पहना कर लोग उनकी आरती उतारते हैं। फिर उन्हें उनके मनपसन्द व्यंजनों को भरपेट खिलाया जाता है।
जबकि हमारे यहाँ तो कुत्तों के दसियों मुहावरे दोहरा- दोहरा कर उन्हें ताउम्र हेय दृष्टि से देखकर हम कोसते रहते हैं। मसलन - धोबी का कुत्ता, ना घर का, ना घाट का / सराय का कुत्ता / दहलीज़ का कुत्ता / अपनी गली में कुत्ता भी शेर होता है / कुत्तों को घी हज़म नहीं होता / अँधी पीसे, कुत्ता खाए / कुत्ते की दुम, टेढ़ी की टेढ़ी / कुत्ते की तरह पेट पालना / कुत्ते की ज़िंदगी जीना / कुत्ते की मौत मरना / कुत्ते की तरह दुम दबा कर भागना / कुत्ते की तरह दुम हिलाना / ऊँट चढ़े पर कुत्ता काटे / पुचकारा कुत्ता सिर चढ़े / सीधे का मुँह कुत्ता चाटे / कुत्ते डोलना / हाथी चले बाज़ार, कुत्ता भौंके हजार / बासी बचे न कुत्ता खाय / घर जवांई कुत्ते बराबर / भौंकने वाले कुत्ते कभी काटते नहीं / कुत्ते को हड्डी प्यारी / कुत्ते की तरह दुम हिलाना / खौरही कुतिया, मखमली झूल / अपने कुत्तों को बुलाओ इत्यादि -इत्यादि।
उपरोक्त सारे मुहावरे तो सर्वविदित हैं, पर प्रसंगवश दोहरा कर हम में से ज़्यादातर लोगों की अपनी दोहरी मानसिकता को दोहराने की कोशिश भर कर रहे हैं, कि एक तरफ़ तो हमारे यहाँ क्रमशः कुत्ते और चूहों को तथाकथित भैरव एवं गणेश की सवारी मानने की मान्यताएँ हैं ; तो दूसरी तरफ़ हम चूहों को जान से मारने व अपने-अपने घरों से भगाने के विभिन्न तरीके अपनाते हैं तथा कुत्तों के लिए हमारी मानसिक कलुषिता को दर्शाने के लिए हमारे व्याकरण में उपलब्ध उपरोक्त कहावतें ही पर्याप्त हैं .. शायद ...
ख़ैर ! .. बतकही हो रही है नेपाल की दिवाली की, जिसे वहाँ "तिहार" कहा जाता है , जो पाँच दिनों तक मनाई जाती है। हमारे देश में जिस दिन छोटी दीपावली मनाते हैं, वहाँ कौओं की पूजा की जाती है, जिसे "काग तिहार" कहते हैं तथा हमारे यहाँ जिस दिन दिवाली मनाते हैं, वहाँ "कुकुर तिहार" मनाते हुए कुत्तों की पूजा की जाती है। जिसके पीछे हमारी तरह उनकी भी कई तथाकथित धार्मिक लोक मान्यताएँ हैं। इसी दिन "नरक चतुर्दशी" नामक त्योहार भी मनाया जाता है।
फिर तीसरे दिन "गाय तिहार" व लक्ष्मी पूजा की जाती है , जो हमारे देश के गोवर्धन पूजा व लक्ष्मी पूजा से मेल खाती है। इसी क्रम में चौथे दिन "गोरू तिहार" व "महा पूजा" होता है, जिसके तहत बैलों और परिवार के वृद्धों की पूजा की जाती है तथा अगले दिन यानि पाँचवे दिन "भाई टीका" नामक त्योहार मनाते हैं , जो हमारे देश में मनाए जाने वाले भैया दूज ता भाई पोटा की तरह ही है।
इस प्रकार "तिहार" केवल रोशनी का ही त्योहार नहीं है, बल्कि यह जीवन, प्रकृति, जानवरों और पारिवारिक बंधनों का उत्सव है। यह कौवे, कुत्ते, गाय और बैलों की पूजा द्वारा मनुष्यों और जानवरों के बीच के रिश्ते के मजबूत बंधन को दर्शा कर उनका सम्मान करता है। यह प्रकृति और आध्यात्मिकता के बीच एक गहरा संबंध विकसित करता है और लोगों को अपने पर्यावरण के साथ भी सद्भाव की महत्ता की याद दिलाता है।
'सोशल मीडिया' से पता चला है, कि इस वर्ष हमारे देश में भी छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर में पुराने बस स्टैंड स्थित एक कुत्ता केंद्र में बड़ी संख्या में कुत्तों की पूजा करके "कुकुर तिहार" मनाया गया है। यह छोटा ही सही, पर यह सकारात्मक प्रयास हमारे मानव समाज के लिए अनुकरणीय है .. शायद ...
अब इस बतकही के शेष-अवशेष को हम "दो टके का दो टूक ... (३)" में साझा करते हैं और अगर .. आप हमारी तरह बेवकूफ़ हैं व हमारी बतकही को झेलने का धैर्य रखते हैं, तो .. गत वर्ष की दीपावली की एक संवेदनशील घटना- दुर्घटना की अनुभूति पढ़ने आ सकते हैं या फिर ... 🙏
आज हम उपलब्ध इतिहास की मानें, तो कभी कंदराओं में रहने वाले नग्न आदिमानव भले ही क़बीलों में बँटे हुए, तब अपनी उत्तरजीविता के लिए आपस में युद्धरत रहा करते थे। परन्तु उन क़बीलों से वर्तमान क़ाबिल हो जाने तक का एक लम्बा सफ़र तय करने के बाद भी आज तो और भी ज़्यादा ही अन्य कई सारे आपसी दृष्टिकोणों वाले मतभेद जनित वर्चस्व की प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से आपसी लड़ाई में वो निरन्तर तल्लीन दिखाई देते हैं .. शायद ...
चाहे वो मामलात धर्म-सम्प्रदाय के हों, पर्व-त्योहार के हों, जाति-क्षेत्र के हों, जीवनशैली के हों .. हर क्षेत्र में, हर पल .. जनसमुदाय खेमों में बँटा हुआ दिखता है। इस वर्ष दीपावली जैसे त्योहार में भी हमारा तथाकथित बुद्धिजीवी एवं तथाकथित सनातनी समाज दो-तीन अलग-अलग हास्यास्पद मामलों में .. विवादास्पद रूप से दो गुटों में बँटा हुआ दिखा है .. शायद ...
पहले मामले में .. एक गुट, जो अपने तर्क की बुनियाद पर 31 अक्टूबर को दीपावली मनाने की बातें कह रहा था, तो दूसरा गुट 1 नवम्बर को मनाने की पैरवी कर रहा था। दूसरे मामले में एक तरफ़ आज भी तथाकथित बुद्धिजीवियों का एक वर्ग यह मानता है, कि धनतेरस-दीपावली के दौरान उल्लू दिख जाने से सालों भर घर में लक्ष्मी आतीं हैं और दूसरा वर्ग वह .. जो तथाकथित रूप से नास्तिक या फिर अल्पज्ञानी कहलाता है, वह इस मान्यता को एक सिरे से नकार देता है। उसी प्रकार तथाकथित धनतेरस के दिन अपनी हैसियत के अनुसार एक वर्ग कुछ धातु , सोना-चाँदी व उससे बने गहनों से लेकर एल्युमीनियम-स्टील तक के बर्त्तन या साईकिल से लेकर कार तक , की खरीदारी करने से अपने-अपने घर में सालों भर तथाकथित लक्ष्मी आगमन की बात मानता है ; तो वहीं दूसरा वर्ग धनतेरस के अवसर पर तथाकथित भगवान धन्वंतरि को स्वास्थ्य व औषधि- अमृत का देवता मान कर उनकी पूजा करता है।
फिर .. तीसरे मामले में .. एक गुट धर्म-त्योहार एवं सभ्यता- संस्कृति की आड़ में आतिशबाज़ी के प्रयोग का पक्षधर बना हुआ था, तो दूसरा गुट आतिशबाज़ी से फ़ैलने वाले वायु प्रदूषण के साथ-साथ ध्वनि प्रदूषण के परिणामस्वरूप पर्यावरण की क्षति की बात करते हुए इसके विरोध में कई तरह के तर्क दे रहा था। अमूमन ऐसा हर वर्ष ही होता है। एक तरफ़ कई राष्ट्रीय स्तर के समाचार चैनल वाले अपनी तथाकथित टीआरपी (टेलीविजन रेटिंग पॉइंट) के लालच में बहुसंख्यक जनसैलाब की अपभ्रंश व रूढ़िवादी सोचों वाली मान्यताओं की हाँ में हाँ मिलाते हुए, आतिशबाज़ी से पर्यावरण को कम हानि होंने की बात बतला कर आतिशबाज़ी को सही ठहरा रहे थे।
ये वही संचार के साधन हैं, जो अपने माध्यम से हमारे घरों में, हमारी हैसियत के मुताबिक उपलब्ध सस्ते से सस्ते और महँगे से महँगे टी वी पर .. नर-नारी को पहनने के लिए हमारे बाज़ारों में उपलब्ध एक 'ब्रांडेड' चड्ढी-बनियान की बिकवाली वाले विज्ञापन में एक युवा द्वारा एक पिता से उसकी बेटी को भगा कर ले जाने की बात मोबाइल फ़ोन पर .. बड़े ही आराम से .. करते हुए दिखलाते हैं .. वो भी हमारी युवा संतानों के मस्तिष्क में .. बड़े ही आराम से .. भागने-भगाने जैसी असंवैधानिक प्रक्रिया को दिखलाते हुए .. शायद ...
दूसरी तरफ़ .. बिना किसी लाग-लपेट के .. इसी चार नवम्बर को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति अभय श्रीनिवास ओका ने प्रतिबंध आदेशों के बावजूद दिल्ली में दीपावली के अवसर पर अधिकांश लोगों द्वारा आतिशबाज़ी किए जाने पर दिल्ली सरकार और पुलिस आयुक्त को भी जवाब तलब किया है। साथ ही उन्हें 2025 में पटाख़ों की बिक्री और उपयोग को प्रभावी ढंग से रोकने के लिए उनकी अपनी योजनाओं के साथ एक सप्ताह में हलफ़नामा दायर करने का भी आदेश दिया है।
इस मामले की गंभीरता न्यायमूर्ति के इस वक्तव्य से और भी स्पष्ट हो रही है, कि "अगर उन प्रतिबंध आदेशों को कड़ाई से लागू नहीं किया गया तो स्थिति अराजक हो सकती है।" उनका ये भी कहना था, कि "भारत सरकार द्वारा "वायु प्रदूषण अधिनियम" में 1 अप्रैल, 2024 से संशोधन करते हुए, इसके दंडात्मक प्रावधान को हटा कर, केवल जुर्माना भरने तक का ही प्रावधान कर देने से उल्लंघनकर्ताओं का भय और भी ज़्यादा कम हो गया है।
सर्वोच्च न्यायालय का मानना है, कि कोई भी धर्म ऐसी किसी भी गतिविधि को प्रोत्साहित नहीं करता है, जिससे प्रदूषण पैदा होता है। अगर इस तरह से पटाख़े जलाए जाते हैं, तो इससे नागरिकों के स्वास्थ्य के मौलिक अधिकार पर भी असर पड़ेगा।"
कई समाचार पत्रों में तो ये भी टिप्पणी आयी, कि "दिल्ली में पटाख़ों पर प्रतिबंध लगाने वाले कई आदेश दीपावली के दौरान धुएँ में समा गए हैं।" दिवाली से पहले भी दिल्ली सरकार द्वारा दिए गए एक हलफ़नामे के अनुसार केवल दिवाली के दौरान पटाख़ों पर प्रतिबंध लगाए जाने और शादी व चुनाव समारोहों के दौरान प्रतिबंध नहीं लगाए जाने पर भी सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली सरकार से जवाब तलब किया है। स्वाभाविक है, कि दिवाली के साथ-साथ बारातों, जन्मदिन समारोहों, चुनाव या क्रिकेट मैच की जीत वाले समारोहों में भी आतिशबाज़ी को प्रतिबन्धित करनी चाहिए और उससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण ये है, कि सरकार जो भी प्रतिबंध आदेश लगाती है, उसे कड़ाई से लागू भी होनी चाहिए।
अगर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति अभय श्रीनिवास ओका देश की राजधानी - दिल्ली के लिए आतिशबाज़ी के कारण भावी अराजक स्थिति की बात कर रहे हैं ; तो ये बात कमोबेश समस्त देश ही नहीं , वरन् .. समस्त विश्व या .. यूँ कहें , कि .. सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के लिए भी उतनी ही घातक होने वाली कड़वी सच्चाई है .. शायद ...
आज (12.11.2024) .. अभी (रात के 9.12 बजे) .. इस बतकही के कुछ अंश को लिखते वक्त भी उत्तराखंड का एक विशेष त्योहार - इगास बग्वाल के अपभ्रंश स्वरुप के तहत आस-पड़ोस से जलते हुए तेज़ पटाख़ों की आवाज़ें आ रहीं हैं। इस त्योहार के बारे में हमने गत वर्ष "उज्यालू आलो, अँधेरो भगलू" ... के अन्तर्गत आदतन विस्तारपूर्वक बतकही की थी .. बस यूँ ही ...
अब इस बतकही के शेष-अवशेष को हम "दो टके का दो टूक ... (२)" में साझा करते हैं और समझते हैं, कि एक अन्य अद्भुत मान्यताओं के तहत इसी धरती पर रहने वाले एक तथाकथित हिंदू समुदाय ही दीपावली को बिना पटाख़ों के कैसे मनाते हैं भला ! ..
व्यंजन भी तो फिर .. परोसे उसने अनेक प्रकार के।
पर पास बैठे, करे बातें कुछ देर, हम रहे इंतज़ार में,
चलते वक्त मिले खाने के सौग़ात भी तो अख़बार में।
आज की उपरोक्त चार पंक्तियों वाली बतकही .. मन के पन्ने पर क्यों पनपी, कब पनपी, कहाँ पनपी, कैसे पनपी .. इन सब से परे .. हम अभी तो .. हमारी मूल बतकही की ओर अग्रसर होते हैं .. बस यूँ ही ...
एक उपलब्ध अनुमानित आँकड़े के अनुसार भारत में प्रतिदिन अख़बारों की लगभग करोड़ों प्रतियाँ मुद्रित होती हैं और इनमें से लाखों प्रतियाँ आज भी प्रायः समोसे, जलेबियों, कचौड़ियों, कचड़ी-पकौड़े, रोटी, पराठे, नान, कुलचे, भटूरे, कतलम्बे, बन टिक्की, झालमुड़ी, घुघनी, वड़ा पाव, 'टोस्ट-आमलेट' जैसे व्यंजनों को 'पैक' करने में या परोसने में, ख़ास कर सड़क के किनारे ठेले पर बिकने वाले भोजन के लिए, 'स्ट्रीट फूड वेंडर्स' (Street Food Vendors) द्वारा धड़ल्ले से उपयोग की जाती हैं।
जबकि "भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (Food Safety and Standards Authority of India = FSSAI)" तो "खाद्य सुरक्षा और मानक (पैकेजिंग) विनियम, 2018" के तहत समस्त देश के हम उपभोक्ताओं और खाद्य विक्रेताओं को आगाह करते हुए आग्रह कर चुका है, कि पके खाद्य पदार्थों की 'पैकिंग', भंडारण या परोसने के लिए या फिर उपरोक्त तले हुए खाद्य पदार्थों से अतिरिक्त तेल को सोखने के लिए भी अख़बारों यानि समाचार- पत्रों के पन्नों का उपयोग हमें नहीं करनी चाहिए।
क्योंकि .. इस संस्थान के अनुसार समाचार-पत्रों में व्यवहार की जाने वाली स्याही में सीसा और भारी धातुओं जैसे कुछ ऐसे विषैले रसायन होते हैं ; जो समाचार-पत्रों में परोसे गए या लपेटे गए खाद्य पदार्थों के जरिए मानव शरीर में प्रवेश कर के विभिन्न प्रकार की घातक बीमारियों को उत्पन्न कर सकते हैं।
साथ ही .. समाचार-पत्रों के वितरण के दौरान उसको प्रायः विभिन्न पर्यावरणीय परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है, जिनके कारण वे बैक्टीरिया, वायरस या अन्य रोगजनकों द्वारा संदूषित हो सकते हैं। जिनमें परोसा या लपेटा गया भोजन संभवतः खाद्य जनित गंभीर बीमारियों का वाहक बन सकता है।
वैसे भी हमारे जैसे आम लोग तो आम दिनों में या त्योहार विशेष के मौकों पर भी .. अपने मुहल्ले में नित्य आने वाले नगर निगम के सफ़ाईकर्मियों तक को भी .. कुछ भी खाने के सौग़ात समाचार-पत्रों के पन्नों या रद्दी काग़ज़ों में लपेट कर नहीं देते ; पर आज भी कई घरों के लोग या तो अपनी नासमझी के कारण या त्योहारों के दिन दिनभर उनके घर आए मेहमानों के जूठन को निपटाने के ख़्याल से भी या फिर सामने वाले को कमतर आँकते हुए भी .. खाने के सामान को जैसे-तैसे समाचार-पत्रों के पन्नों या रद्दी काग़ज़ों में लपेट कर दे देते हैं .. शायद ...
लब्बोलुआब ये है, कि हमें इस प्रकार से किसी को भी कमतर नहीं आँकना चाहिए और भूले से भी .. किसी को भी अख़बार के पन्नों में खाने के सामान नहीं देने चाहिए और किसी का जूठन तो कतई नहीं .. बस यूँ ही ...
क्योंकि अगर .. सामने वाला कोई भी आपको स्नेह, प्रेम या श्रद्धा और आदर की दृष्टि से देखता है, तो फिर .. आप से एक करबद्ध निवेदन है, कि आप उसके विश्वास को मत तोड़िए, ताकि उसे ये महसूस ना हो कि वह आपके घर गलत समय पर आकर उसने कोई गलती कर दी है .. शायद ...
क्योंकि .. अगर सामने वाला आपसे .. आपका विषैला सौग़ात (?) बिना कुछ बोले .. हँस कर स्वीकार कर लेता है, तो .. वो कोई बुड़बक, बकलोल, बकचोंधर या बकलण्ड यानि मूर्ख इंसान थोड़े ही ना है !!! .. शायद ...
जब कि दूसरी तरफ़ .. यही सरकार अपने देश में रोहिंग्या समुदाय के लोगों की होने वाली घुसपैठ का कड़ा विरोध करती रहती है और उन्हें खदेड़ने के लिए आमादा भी रहती है। चाहे उनकी घुसपैठ का उद्देश्य मजबूरीवश विस्थापन का हो या आतंकवाद से प्रेरित हो। जबकि वोट बैंक के निजी स्वार्थवश कई अन्य राजनीतिक दलों का उन्हें परोक्ष रूप से समर्थन ही मिलता रहता है। फलस्वरूप इस मामले में केन्द्र में वर्तमान सत्तारूढ़ सरकार को कई विपक्षी राजनीतिक दलों के द्वारा अनुचित विरोध का निरन्तर सामना करना पड़ता है .. शायद ...
यूँ देखा जाए तो .. तसलीमा जी और रोहिंग्या लोगों के समान सम्प्रदाय से जुड़े होने के बावजूद दोनों के साथ हमारी वर्तमान सरकार द्वारा किये जाने वाले बर्ताव में अन्तर का कारण है .. दोनों के हमारे देश में यहाँ आने के उद्देश्य में अन्तर का होना .. शायद ...
एक तरफ़ तसलीमा नसरीन, तारिक़ फ़तह, सलमान रुश्दी, कलबुर्गी, गोविंद पंसारे, नरेन्द्र अच्युत दाभोलकर, भगत सिंह, कबीर इत्यादि जैसे लोग, जो धर्म-सम्प्रदाय या समुदाय से तटस्थ होकर, उनकी बुराईयों के लिए बेबाक बयानबाजी करने में तनिक भी नहीं हिचकते हैं ; तो दूसरी तरफ़ शिवानी जी, इस्मत चुग़ताई, सआदत हसन मंटो जैसे लोग भी थे या हैं, जो तत्कालीन सामाजिक कुरीतियों पर चोट करते हुए तनिक भी नहीं सहमते। और तो और .. कभी मीराबाई, तो कभी अमृता प्रीतम जैसी महान आत्माएँ अपने-अपने प्रियतम से हुए मन के जुड़ाव की बेबाक बयानी में कहीं भी .. कभी भी .. कोताही नहीं बरतती हैं .. शायद ...
खास बात तो ये है, कि इनमें अधिकांश लोग लेखन या पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं। परन्तु उन तुकबंदियों वाले और 'पैरोडीनुमा' लेखन से तो कतई नहीं, जिसे आज अधिकांश लोग अपनी उपलब्धि मानते हुए .. अपनी गर्दन को अकड़ाते नज़र आते रहते हैं .. शायद ..
वैसे भी ग़ौर करने वाली बात ये है, कि किसी भी कालखंड में, किसी भी समाज, प्रान्त या देश भर में तसलीमा नसरीन या सआदत हसन मंटो जैसे लोग विरले ही मिलते हैं। जिन्हें प्रायः भेड़चाल वाली भीड़ द्वारा एक सिरे से नकार दिया जाता है तथा उन्हीं भेड़चाल वाली भीड़ द्वारा ऐसे विरले बेबाक बयानबाजी करने वालों के विचारों वाले मार्ग या मार्गदर्शन में अनगिनत अड़चनें लगायी जाती हैं। जिनके फलस्वरूप प्रायः उन्हें उन भेड़चाल वाली भीड़ से प्रायः फ़तवा, कारावास, निर्वासन या हत्या तक जैसी अनुचित प्रतिक्रियाएँ झेलनी पड़ती हैं .. शायद ...
कभी सत्येंद्र नाथ बोस जी जैसे लोग भी हुए थे और आज भारतीय चलचित्र जगत के जॉन अब्राहम व अमोल पालेकर जैसे लोग भी हैं, जो बेबाक बयानबाजी तो नहीं करते ; परन्तु भेड़चाल वाली भीड़ के लिए ये लोग तथाकथित नास्तिक कहे / माने जाने वाले लोग हैं।
हमें हमारे पूर्वजों से विरासत में मिली शास्त्रार्थ वाली परंपराओं वाले भारत देश में भी ऐसे किसी विषय पर तर्कसंगत तथ्यात्मक विचार विमर्श करने की जगह लोग अक्सर सामने वाले का उपहास करते हुए .. अन्ततः उसको चुप करा देते हैं। हँसी आने के साथ-साथ अफ़सोस भी तो तब होता है, जब आज सहज उपलब्ध सामाजिक माध्यम (Social Media) के स्रोतों पर होने वाले तथ्यात्मक वार्तालाप के दौरान तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा यदाकदा 'अन्फ्रेंड' (Unfriend) कर दिए जाने वाली टपोरी धमकी दी जाती है या फिर .. कर ही दी जाती है .. शायद ...
सर्वविदित है, कि सन् 1993 ईस्वी में बांग्लादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन जी का उपन्यास "लज्जा" पहली बार बांग्ला भाषा में प्रकाशित हुआ था ; जिसमें एक काल्पनिक कहानी ना होकर .. तत्कालीन बांग्लादेश में बचपन से उनकी आँखों देखी और उनके द्वारा जी गयी नारकीय ज़िन्दगी का बखान है। उसमें वहाँ की साम्प्रदायिकता और महिला अधिकारों को कुचले जाने की घटनाओं के साथ- साथ एक समुदाय विशेष के कट्टरपंथियों व चरमपंथियों की वास्तविक आलोचना की गयी है।
हम सभी ने भी तो .. अभी हाल ही में इसी वर्ष अगस्त महीने में उन सभी के प्रत्यक्ष प्रमाण-स्वरुप वहाँ के आरक्षण विरोधी छात्र आंदोलन की आड़ में एक समुदाय विशेष के कट्टरपंथियों व चरमपंथियों द्वारा घटित .. मन को विचलित करने वाली उन्हीं सारी भयावह घटनाओं वाले दृश्यों को किसी डरावने वृत्तचित्र की तरह दूरदर्शन के तमाम समाचार 'चैनलों' के माध्यम से देखा है।
बांग्लादेश की तत्कालीन प्रधानमंत्री बेग़म खालिदा जिया जी की सरकार ने उनकी उस "लज्जा" के साथ-साथ अन्य कई किताबों को भी प्रतिबन्धित कर दिया था। फिर वहाँ के कट्टरपंथियों व चरमपंथियों द्वारा उनके लिए फ़तवा जारी कर दिए गए थे। जिससे कुछ दिनों तक उनको वहीं गुप्त रूप से भूमिगत रहना पड़ा था और अंततोगत्वा बांग्लादेश छोड़ना पड़ा था। तब से लेकर आज तक तसलीमा जी निर्वासन में ही हैं।
हालांकि बाद में बेग़म शेख हसीना जी के शासनकाल में भी उन्हें वही सारे विरोध झेलने पड़े थे। बांग्लादेश और एक समुदाय विशेष वाले अन्य कई देशों में भी भले ही आज भी "लज्जा" प्रतिबन्धित है ; परन्तु सन् 1993 ईस्वी के बाद के वर्षों से लेकर आज तक में "लज्जा" के अंग्रेजी व हिंदी के अलावा अन्य कई भाषाओं में अनगिनत संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।
निर्वासन के पश्चात तसलीमा जी शुरू के लगभग दस वर्षों तक अलग-अलग समय में अलग-अलग देशों - स्वीडन, जर्मनी, फ्रांस और अमेरिका में रहीं और सन् 2004-05 ईस्वी में वह भारत आकर कोलकाता शहर में रहने लगीं ; ताकि वह अपने स्वदेश से दूर रह कर भी अपनी स्वदेशी सभ्यता व संस्कृति की अनुभूति पश्चिम बंगाल की राजधानी में रह कर कर सकें।
लेकिन सन् 2007 ईस्वी में भारत में पुनः उनका विरोध बढ़ने लगा था। उस समय पश्चिम बंगाल में बुद्धदेव भट्टाचार्य मुख्यमंत्री थे और केंद्र में मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री। मतलब .. केंद्र में यूपीए (UPA) की सरकार थी और पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की।
उसी दौरान समुदाय विशेष के कट्टर गुटों ने तसलीमा जी को भारत से निकालने की अनुचित माँग करते हुए .. जगह- जगह पर अनेक हिंसक विरोध-प्रदर्शन किए थे ; जिन कारणों से उनको कोलकाता छोड़ कर पहले तो दिल्ली और फिर उसके बाद लगभग तीन माह के बाद दोबारा अमेरिका जाना पड़ा था। अमेरिका से पुनः वह सन् 2011 ईस्वी में भारत लौटीं और तब से अब तक वह भारत में ही रह रहीं हैं। हालांकि उनके पास स्वीडन की नागरिकता है, पर उन्हें भारत में ही सुकून मिलता है और इसीलिए वह फ़िलहाल भारत की राजधानी नई दिल्ली में रह रही हैं।
तसलीमा जी अपनी किताबों और बेबाक बयानों की वजह से आज भी भारत, बांग्लादेश समेत दुनियाभर के समुदाय विशेष के कट्टरपंथियों व चरमपंथियों की आँखों की किरकिरी बनी हुई .. उनके निशाने पर रहती हैं।
मसलन - अभी हाल ही में उन्होंने एक सामाजिक माध्यम (Social Media) पर अपने एक 'पोस्ट' में लिखा / कहा है, कि - "बांग्लादेश में हर कोई झूठ बोल रहा है। सेना प्रमुख ने कहा कि हसीना ने इस्तीफ़ा दे दिया है। राष्ट्रपति ने कहा कि हसीना ने इस्तीफ़ा दे दिया है। यूनुस ने कहा कि हसीना ने इस्तीफ़ा दे दिया है। लेकिन किसी ने भी त्यागपत्र नहीं देखा है। त्यागपत्र भगवान की तरह है, हर कोई कहता है कि यह वहाँ है, लेकिन कोई भी यह नहीं दिखा सकता या साबित नहीं कर सकता कि यह वहाँ है।"
वैसे तो ग़ौर करने वाली उनकी सभी खास अनुकरणीय व सराहनीय कृत्यों में से एक सबसे खासमखास है, कि कुछ वर्षों पूर्व ही उन्होंने अपने सम्प्रदाय या समुदाय के कठमुल्लाओं की परवाह किए बिना, भेड़चाल वाली भीड़ से परे हट कर स्वेच्छा से एक निर्णय लिया है और सामाजिक माध्यम (Social Media) पर इसकी घोषणा भी कीं हैं, कि वह स्वयं के मरणोपरान्त दफ़न होना नहीं चाहती हैं। बल्कि वह अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स / AIIMS), नई दिल्ली के चिकित्सा अनुसंधान विभाग को अपना देहदान कर चुकी हैं।
यूँ तो अभी हाल ही में हमारे भारत की वर्तमान सरकार की एक और उदारता देखने / सुनने के लिए मिली है, जब हाल ही में बांग्लादेश की पदच्युत प्रधानमंत्री - शेख हसीना जी के बांग्लादेश से जान बचाकर भारत भाग आने के बाद से आज तक यहाँ किसी गुप्त स्थान पर उनको सुरक्षित शरण मिली हुई है।
लब्बोलुआब यही है, कि तसलीमा नसरीन जी के निवास अनुज्ञा-पत्र (Residence Permit) के नवीकरण (Renew) हो जाने से .. उनकी "लज्जा" की लाज आज रह गयी है .. बस यूँ ही ...
आज की बतकही की शुरुआत करने के पहले आप को मन से नमन !
ईंटें भी बड़े ही कमाल की चीज़ हैं। स्थान परिवर्तन के साथ-साथ इनकी संज्ञा बदल जाती है। एक समान ईंटें, कहीं मन्दिर, कहीं मस्जिद, कहीं गुरुद्वारा, तो कहीं गिरजाघर। कहीं विद्यालय, महाविद्यालय, पुस्तकालय, सचिवालय, तो कहीं देवालय, मदिरालय बन जाती हैं .. बस यूँ ही ...
एक तरह की ही हवाएँ भी .. जब गुलाब की फुलवारी से होकर आती हैं, तो हमारी साँसों को गुलाब की सुगंध से सुगन्धित कर जाती हैं और महुआ के बागान से गुजरती हुई आती है, तो हमारी साँसें महुआ के महक से महमहा जाती है।
ठीक वैसे ही .. एक बिन्दु .. हम फ़िल्म अभिनेत्री बिन्दु जी बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि सामान्य बिन्दु की चर्चा कर रहे हैं। इन ईंटों और हवाओं की तरह जब उसी एक ही बिन्दु का हम अपनी मातृभाषा में इस्तेमाल करते हैं, तो उसे "अनुस्वार" कहते हैं, उर्दू में "नुक़्ता", गणित में दशमलव या सामान्य बिन्दु और अँग्रेजी में तो .. 'फुल स्टॉप' .. शायद ...
पर हमारी बतकही का अभी 'फुल स्टॉप' नहीं हुआ है। अभी तो आगे भी बातें करनी है, कि हमारी हिंदी भाषा में "अनुस्वार" के अलावा "चन्द्रबिन्दु" का भी हम इस्तेमाल करते हैं और देखते हैं, कि इनके अलग-अलग इस्तेमाल से शब्द के अर्थ बदल जाते हैं। जैसे - अगर अनुस्वार के साथ "अंगना" लिखने पर, इसका मतलब स्त्री होता है और अगर चन्द्रबिन्दु के साथ "अँगना" लिखा गया तो .. अर्थ हो जाता है, आँगन यानी Courtyard ...
तो इन्हीं दो अलग-अलग अर्थ वाले दो शब्दों से जुड़ी दो पँक्तियों वाली हमारी आज की मूल बतकही है, कि -
साहिब ! ये दौर भी भला आज कैसा गुजर रहा है ?
अंगना तो हैं घर में हमारे, पर .. वो अँगना कहाँ है ?
फिर मिलेंगे नए-नए शब्दों वाली बतकही के साथ .. तब तक के लिए पुनः .. आपको मन से नमन ... .. बस यूँ ही ...
हम सभी प्रतिवर्ष 6 October को "विश्व सेरेब्रल पाल्सी दिवस" मनाते हैं। वैसे तो इस दिवस की शुरुआत सन् 2012 ईस्वी में हुई थी, परन्तु यह बीमारी सदियों पुरानी है। जिसका इलाज आज भी समस्त विश्व में उपलब्ध नहीं है। भले ही हमारे वैज्ञानिक चाँद व मंगल तक को लाँघ आए हों और .. सूरज तक पहुँचने की कोशिश कर रहे हों, पर इतने उन्नत विज्ञान, ख़ासकर चिकित्सा विज्ञान, के बावजूद .. यह बीमारी अन्य असाध्य रोगों की तरह आज तक .. अब तक लाइलाज है।
इस बीमारी से ग्रस्त बच्चों के साथ-साथ उनके परिवार के समस्त संलिप्त सदस्यों को भी ताउम्र मानसिक, शारीरिक एवं आर्थिक अतिरिक्त पीड़ा से प्रभावित रहना पड़ता है।
परन्तु इन बीमारियों और बीमारों से जुड़ी हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी समाज में कई गलत अवधारणाएँ व्याप्त हैं। उन्हीं अवधारणाओं पर कुठाराघात करती हुई, हमारी दो पंक्तियों वाली बतकही, उन सभी सेरेब्रल पाल्सी अथार्त मस्तिष्क पक्षाघात से ग्रस्त बच्चों को और उनके साथ समस्त संलिप्त परिवार के सदस्यों को समर्पित है .. बस यूँ ही ...
ग्रस्त तमाम बीमारियों के बीमारों को, भोगने की बात कहने वाले बुद्धिजीवियों, उन बीमारों को बतला कर, उन्हें जतला कर, उनके पाप कर्मों का फल, उनके पूर्व जन्मों का फल ।
सोचो रूढ़िवादियों, (क्षमा करें, बुद्धिजीवियों !) इहलीला हुई समाप्त जिन सभी की कोरोनाकाल में, जिस कारण से भी हो चाहे, था वो सब विज्ञान या पाप कर्मों का ही फलाफल ?
तो सबसे पहले आप देखिए-सुनिए .. उपरोक्त 'वीडियो' को, जिसमें गत रविवार, 22.09.2024 को रात आठ बजे प्रसार भारती के अंतर्गत आकाशवाणी देहरादून द्वारा प्रसारित लगभग पन्द्रह मिनट वाले साप्ताहिक कार्यक्रम - "काव्यांजलि" में हमारी एकल बतकही (चार कविताओं के एकल काव्य पाठ) को .. बस यूँ ही ...
उपरोक्त 'वीडियो' की 'रिकॉर्डिंग' व 'एडिटिंग' का सारा श्रेय जाता है .. मेरी भतीजी - "श्रेया श्रीवास्तव" को, जो 'रेडिओ स्टेशन' में 'रिकॉर्डिंग के दिन तो मेरे साथ ही थी .. देहरादून में अपने सपरिवार होने के कारण और कल रात वह लखनऊ से कार्यक्रम प्रसारण के दौरान अपने 'मोबाइल' से सम्पूर्ण कार्यक्रम के 'ऑडियो-वीडियो' की 'रिकॉर्डिंग' व तत्पश्चात् 'एडिटिंग' करके मुझे 'व्हाट्सएप्प' पर उपरोक्त 'वीडियो' भेज दी .. जो आपके समक्ष है, श्रेया के ही सौजन्य से .. बस यूँ ही ...
चलते-चलते .. उपरोक्त चारों बतकही में सबसे ताज़ातरीन बतकही है - "खुरचा हुआ चाँद" .. जो .. जाने-अंजाने में .. दरअसल .. वास्तव में .. 'रेडिओ स्टेशन' में जिस दिन दोपहर में 'रिकॉर्डिंग' होनी थी, उसी दिन सुबह-सुबह जागने के बाद ही स्वतःस्फूर्त शैली में बिस्तर छोड़ने के पूर्व ही पूर्ण होता चला गया था .. बस यूँ ही ...
तो आप ही के लिए ...
खुरचा हुआ चाँद ...
आज ...
सुबह की पोटली में,
क्षितिज की एक छोर से,
उचकता, उभरता, ऊँघता-सा
मद्धिम सूरज, दिखा कुछ-कुछ कुतरा हुआ-सा .. शायद ...
दिखी परकटी हवा,
बलात्कृत अल्हड़ नदियाँ,
कहीं-कहीं से कतरी हुई धरती,
सागर .. किसी गिरहकट का सताया हुआ-सा .. शायद ...
शाम की गठरी में
दिखा खुरचा हुआ चाँद,
अलोप लगे कुछ तारों के कंचे भी,
भटकती आत्माएँ विलुप्त जुगनुओं की यहाँ-वहाँ.. शायद ...
सिकड़ी में जकड़ी सुगंधें,
दिखी बिखरी ठठरियाँ फूलों की,
टकले दिखे सारे के सारे जंगल भी,
मानव दिखे ग़ुलाम-हाट में, रोबोट बने क्रेता-विक्रेता.. शायद ...
बन गए अल्पसंख्यक, मानव सारे,
बाद भी यहाँ जनसंख्या-विस्फोट के,
सत्ता सारी धरती की, हाथों में रोबोट के,
मानवी कोखों में भ्रूण, रोबोट-शुक्राणु है बो रहा .. शायद ...
तभी अज़ान की और,
पूजन की घंटियों की आवाज़ें,
पड़ोस के अलार्म व कुकर की आवाज़ें,
लोगों की आवाजाही की आवाज़ें, गयीं नींद से मुझे जगा.. शायद ...
साथ-साथ नींद के,
सुबह के सुनहरे सपने भी,
बिखर गए काँच की किरिच की तरह,
वही तो सोचूँ, कि हम मानवों का ब्रह्माण्ड भला ऐसा हो सकता है क्या ?
नहीं ना ? .. शायद ...
【 विशेष - आपको उपरोक्त बतकही के एक अनुच्छेद में पढ़ने के लिए मिला होगा - "बलात्कृत अल्हड़ नदियाँ", परन्तु आकाशवाणी की अपनी कुछ विशेष हदों के कारण उसी बतकही के वाचन में आपको सुनने के लिए मिलेगा - "शोषित अल्हड़ नदियाँ" .. बस यूँ ही ...
वैसे तो हम इसे "अपहृत अल्हड़ नदियाँ" भी बोल या पढ़ सकते हैं, क्योंकि .. बलात्कृत, शोषित व अपहृत .. तीनों ही विशेषणों में आपसी तालमेल है .. कारण .. बलात्कार भी एक अपहरण है और अपहरण भी बलात्कार ही है, अगर बलात्कार के संकुचित अर्थ से परे उसके विस्तृत अर्थ पर ग़ौर की जाए तो .. और .. दोनों ही दुर्घटनाओं में .. पीड़ित हो या पीड़िता .. दोनों ही का समान शोषण होता है .. शायद ... .. नहीं क्या ? ... 】🙏
पर महकती तो है मुस्कान घर-घर में, दो अलग-अलग ख़ूनों के संगम से, पनपे नन्हें फ़रिश्ते की।
उपरोक्त दो पंक्तियों के साथ आज की बतकही की शुरुआत (और अन्त भी .. शायद ...) करते हुए, इसकी अगली श्रृंखला में आप सभी से अपनी भी एक बात कह लेते हैं .. .. आगामी रविवार, 22 सितम्बर 2024 को रात आठ बजे प्रसार भारती के अंतर्गत आकाशवाणी, देहरादून से प्रसारित होने वाले पन्द्रह मिनट के कार्यक्रम - "काव्यांजलि" में ध्वनितरंगों के माध्यम से मेरी एकल बतकही के दौरान होने वाली है .. हमारी और आपकी एक संवेदनात्मक मुलाक़ात .. बस यूँ ही ...
अब .. आज चलते-चलते .. अपने साथ-साथ कुछ .. कुछ-कुछ अपने परिवेश की भी बतकही कर ली जाए .. .. विगत मंगलवार को सुबह मुहल्ले में आसपास नित्य विचरने वाले तथाकथित 'स्ट्रीट डॉग' .. मने .. कुत्ते-कुत्तियाँ को रोज़ की तरह 'बिस्कुट' या दूध-रोटी देने पर, वो सभी अपना-अपना मुँह घुमा कर, पड़ोस की कुछेक चहारदीवारियों के किनारे पड़ी जूठी हड्डियों की ओर तेजी से लपक लिए और उनको चबाने में मशग़ूल हो गए। हड्डियाँ भी तादाद में दिखीं थीं। स्वाभाविक है, कि एक दिन पहले की रात ही में आसपास के लोगों द्वारा इतने सारे माँस भक्षण किये गए होंगे। एक जगह तो बकरे (या बकरी) की और एक जगह मुर्ग़े (या मुर्गी) की हड्डियाँ पड़ी हुई जान पड़ती थीं .. शायद ...
यहाँ देहरादून में वर्तमान प्रवास के दौरान आसपास में एक-दो लोग .. जो लोग पहाड़ी-मैदानी में भेद किए बिना .. हमसे बातचीत करते हैं, उनसे तहक़ीक़ात की गई, तो मालूम हुआ, कि विगत मंगलवार से ही हमारे सभ्य-सुसंस्कृत समाज में हर वर्ष माना जाने वाला या मनाया जाने वाला तथाकथित पितृ पक्ष का आरम्भ हुआ है। इसीलिए पितृ पक्ष और नवरातरा (नवरात्रि) में क्रमशः पन्द्रह व नौ यानी कुल चौबीस दिनों तक लगातार धार्मिक मान्यताओं के अनुसार मांसाहार वर्जित होने के कारणवश .. चौबीस दिनों तक शाकाहारी व सात्वीक रहने की बाध्यता के कारण .. उन धार्मिक चौबीस दिनों के आरम्भ होने के एक दिन पहले तक तो .. यानी विगत सोमवार की रात तक मांसाहारी लोगों द्वारा मन भर या दम भर माँस भकोसा गया है।
ख़ैर ! .. पितृ पक्ष और नवरात्रि क्यों मनायी जाती है .. कब मनायी जाती है .. और इसका क्या महत्व है .. इन सब की चर्चा ना करते हुए .. बस्स ! .. समाज के उन तमाम मनीषियों से .. बुद्धिजीवियों से .. केवल और केवल .. एक ही सवाल है, कि .. पितृ पक्ष के पन्द्रह दिनों और इसके तदनंतर नौ दिनों की नवरात्रि के कुल चौबीस दिनों के आरम्भ होने के दो-तीन दिन पहले से ही और एक दिन पहले की देर रात तक इतना अत्यधिक मात्रा में मांसाहार का उपभोग लोगबाग क्यों करते हैं भला ?
जिसका प्रमाण .. मुहल्ले भर में कुछ चहारदीवारियों के आसपास विगत मंगलवार की सुबह में .. सोमवार की रात तक खाए गए मांसाहार की अवशेष पड़ी जूठी, चूसी-चबायी हड्डियाँ थीं। वैसे तो अगर .. विज्ञान की बात मानें, तो बकरे के माँस को मानव के पाचन तंत्र में पच कर अपशिष्ट निकलने तक में बारह से चौबीस घन्टे का समय लग सकता है। परन्तु हम सभी अगली सुबह .. सुबह-सुबह नहाने के क्रम में सिर (बाल) धोकर नहा लेने के बाद स्वयं को एकदम पाक-साफ़ मान लेते हैं .. शायद ...
अगर उपरोक्त विधियों से हम पाक-साफ़ होने वाली बात को सही व सच मान भी लें, तो भी .. ये बात नहीं पच पाती है, कि तीन सौ पैंसठ दिनों में कुछ ही दिनों के लिए ही लोग पाक-साफ़ होने या रहने की चेष्टा क्यों करते हैं भला ? और तो और .. उन पाक-साफ़ रहने वाले विशेष दिनों के समाप्त होने के बाद भी तो पुनः मांसाहार के लिए हमलोग बेतहाशा टूट पड़ते है .. शायद ...
ये तो वही बात हुई, कि धूम्रपान या मद्यपान या फिर दोनों ही करने वाले किसी युवा विद्यार्थी को जब ये पता चलता है, कि उस के अभिभावक उसके अध्ययन के दौरान उससे मिलने के लिए उसके छात्रावास तक या किराए के कमरे तक आने वाले हैं, तो उनके आने के एक दिन पहले अपने व्यसनानुसार मन भर धूम्रपान या मद्यपान या फिर दोनों ही करके .. अपने धूम्रपान व मद्यपान के सारे साजोसामान उनसे छुपा कर रख देता है और फिर उनके जाने पर भी, जाते ही वह युवा विद्यार्थी उतनी देर या उतने दिनों की भरपाई (?) करते हुए .. छूट कर धूम्रपान या मद्यपान या फिर दोनों ही करता है, क्योंकि उस दौरान तो उस युवा विद्यार्थी को अपना धूम्रपान व मद्यपान का व्यसन मज़बूरन बन्द रखना पड़ता है .. शायद ...
हम लोगों की भी मनःस्थिति इन चौबीस दिनों में कुछ-कुछ या ठीक-ठीक .. धूम्रपान या मद्यपान या फिर दोनों ही व्यसन करने वाले उस युवा विद्यार्थी की तरह ही होती है .. नहीं क्या ?
आगामी रविवार, 22 सितम्बर 2024 को रात आठ बजे प्रसार भारती के अंतर्गत आकाशवाणी, देहरादून से प्रसारित होने वाले पन्द्रह मिनट के कार्यक्रम - "काव्यांजलि" में पुनः मिलते हैं हमलोग .. बस यूँ ही ...
सुना है, कि आज शिक्षक दिवस है।
तो ऐसे पावन अवसर पर हमारे समाज के सभी सवैतनिक एवं अवैतनिक शिक्षकों को श्रद्धापूर्वक सादर नमन। परन्तु उन धर्म गुरुओं को तो कतई नहीं, जो हमारे समाज में सदियों से भावी पीढ़ियों के सामने अंधविश्वास एवं पाखण्ड परोसते आ रहे हैं।
यूँ तो सवैतनिक गुरुओं को हम हमारे विद्यालयों, महाविद्यालयों व अन्य शिक्षण संस्थानों में पाते हैं, परन्तु अवैतनिक गुरु तो हमारे जीवन में पग-पग पर, पल-पल में मिलते हैं।
चाहे वो अभिभावक के रूप में हों, सगे-सम्बन्धियों के रूप में हों, सखा-बंधुओं के रूप में हों या प्रेमी-प्रेमिका के रूप में या फिर शत्रु के रूप में।
वैसे तो हम इन दिवसों के पक्षधर कतई नहीं, क्योंकि जो हमारे जीवन की हमारी दिनचर्या में पग-पग पर, पल-पल में शामिल हैं, उन्हें एक दिवस की हद में बाँधना उचित नहीं है .. शायद ...
ख़ैर ! .. ऐसे अवसर पर हम बचपन से कबीर के इस दोहे को दोहराते आएँ हैं, कि ...
" गुरु गोविंद दोउ खङे, काके लागूं पांय,
बलिहारी गुरु आप की, गोविंद दियौ बताय। "
परन्तु कबीर के उस दोहे से हमें हमेशा वंचित रखा गया, जिसमें कबीर आगे कहते हैं, कि ...
" गुरु गोविन्द दोऊ एक हैं, दुजा सब आकार।
आपा मैटैं हरि भजैं, तब पावैं दीदार। "
पुनः सभी सवैतनिक एवं अवैतनिक शिक्षकों को श्रद्धापूर्वक सादर नमन .. बस यूँ ही ...
जला चुके साल-दर-साल, बारम्बार, मुहल्ले-मैदानों में, पुतलों को रावण के, था वो व्यभिचारी।
पर है अब, बारी-बारी से, निर्मम बलात्कारियों व नृशंस हत्यारों को, जबरन ज़िंदा जलाने की बारी।
वर्ना, होंगी आज नहीं तो कल, सुर्ख़ियों में ख़बरों की, माँ, बहन, बेटी या बीवी, हमारी या तुम्हारी।
यूँ तो आज बाज़ारों से राखियाँ बिकेंगी, खरीदी जाएंगी, बाँधी-बंधवाई भी जायेंगी, हर तरफ़ है ख़ास तैयारी।
मुर्दों के ठिकानों को, अक़्सर सजदा करने वाले, पर बुतपरस्ती के कट्टर दुश्मन।
घर नहीं "राहुल आनंद" का, जलाया है उन्होंने गीत- संगीत, नृत्य- साहित्य का चमन।
नालन्दा जैसी धरोहर व विरासत को हमारी, राख करने वाले, बलवाई बख्तियार खिलजी
और लुटेरे चंगेज़ का कॉकटेल बहता रगों में उनकी,भाता ही नहीं उन्हें दुनिया का अमन।
सर्वदा रहे अदृश्य
पूजे की थाली से,
प्रसाद के रूप में।
रहे नदारद सदा
घर में अमीरों के,
जूस के रूप में।
है मगर ये सिक्त
सोंधी सुगंध से,
स्निग्ध स्वरूप में।
अंग-अंग रसीला,
बिल्कुल तुम-सा
कोआ कटहल का।
"असाध्य दंतहीन दंश ... (१)" वाली गत बतकही में हम सभी ने देखा, कि समीर माथुर द्वारा .. अपनी दिनचर्या के तहत उस दिन सुबह-सुबह 'स्ट्रीट डॉग्स' को सामान्य दूध-रोटी देने के बजाय .. एक दिन पहले अपने घर आए मेहमानों के स्वागत में बने 'नॉन वेज' व्यंजनों की कुछ चूसी-चबाई, बची-खुची, जूठी हड्डियाँ ही परोसे जाने पर .. उन्हीं कुत्तों में से एक कुत्ते ने मांसाहार के कारण उनकी दायीं हबक (हथेली) को किस तरह हबक लिया था .. बस यूँ ही ...
अब आज उसी बतकही के दूसरे भाग - "असाध्य दंतहीन दंश ... (२)" में प्रसंगवश समीर माथुर से जुड़ी अतीत की दो अन्य घटनाओं (कहानियों को नहीं) को दोहराते हैं, जो यहाँ बतलाना नितांत आवश्यक है .. तो आगे .. पहले .. पहली घटना बकते हैं .. बस यूँ ही ...
एक बार समीर माथुर के एक पड़ोसी का एक रिश्तेदार .. फ़िलहाल "पड़ोसी का एक रिश्तेदार" ही कह रहा हूँ, क्योंकि .. समीर माथुर के किसी रिश्तेदार से सम्बंधित जातिवाचक संज्ञा की भी बात करने भर से ही तदनुसार उनके व्यक्तिवाचक संज्ञा वाले रिश्तेदार विशेष को .. उस कही गयी बातों को अपने लिए मान कर .. समीर माथुर से मुँह फुलाने का एक सुनहरा अवसर मिल जाता हैं।
हाँ तो .. फिलहाल उनके किसी "रिश्तेदार" की जगह उनके एक "पड़ोसी के एक रिश्तेदार" को ही इस घटना का पात्र मानते हुए ... ... समीर माथुर के एक पड़ोसी और उस पड़ोसी के रिश्तेदार की ही बात करते हैं, तो ... ... एक बार उनके उस पड़ोसी की एक बच्ची का पाँचवा जन्मदिन मनाया जा रहा था, जहाँ हम भी सपरिवार आमंत्रित थे। ऐसे सुअवसर पर वहाँ उस बच्ची के एकलौते मामा जी भी सपरिवार मेहमान के रूप में पधारे हुए थे।
'केक' कटने और बँटने के बाद रात्रिभोज यानी भोजन में 'वेज' पुलाव, मूँग दाल की कचौड़ी, शाही पनीर, परवल 'फ्राई', बूँदी रायता, पापड़, तसमई और गर्मागर्म गुलाबजामुन के साथ-साथ 'आइसक्रीम ब्रिक' के टुकड़ों को भी मेहमानों के समक्ष परोसा गया था।
भले ही आयुर्वेदिक दृष्टिकोण से खाने का उपरोक्त संयोजन अस्वास्थ्यकर हो, पर ऐसे आयोजन-प्रायोजन के अवसरों पर आयुर्वेदिक आहार तालिका के मापदंडों के निर्देश किसे याद रह पाते हैं भला ! .. स्वघोषित घोर सनातनी लोग भी अपनी दिनचर्या में योग और आयुर्वेद को किंचित् मात्र भी समाहित करते नहीं जान पड़ते हैं .. शायद ...
मानो .. जैसे कि धूम्रपान के व्यसन से ग्रसित लोगबाग सिगरेट के डिब्बों पर या विज्ञापनों में कैंसर से ग्रस्त वीभत्स चेहरों को लाख बार देखने के बावज़ूद अपनी बुरी लत को नहीं छोड़ पाते हैं .. शायद ...
अब तक पड़ोस की उस बच्ची के जन्मदिन का रात्रिभोज समापन के क़रीब था। सभी लोग अंत में 'आइसक्रीम' खाते हुए आपसी गपशप में तल्लीन थे। तभी उस बच्ची के आये हुए मेहमान मामा जी वहाँ उपस्थित समस्त परिजनों को सपरिवार औपचारिक प्रणाम-नमस्ते करते-स्वीकारते .. 'रिटर्न गिफ़्ट' को भी सम्भालते-सहेजते अपने घर जाते-जाते .. हँस कर बच्ची की 'मम्मी' यानी अपनी छोटी बहन को सम्बोधित करके बोलते हुए गए, कि ...
" बीनू ! .. मजा नहीं आया आज की 'पार्टी' में .. केवल घास-फूस खिला के टरका दी तुम .. हमलोगों को .. है ना ? .. बिना "हड्डी" ('नॉन वेज') के .. 'पार्टी' में मजा आता है क्या ? .."
बच्ची के मामा जी तो हँसते-हँसते ये बोल कर चले गए, परन्तु उस रात बच्ची की 'मम्मी' का रोते-रोते बुरा हाल हो गया था। स्वाभाविक ही/भी था, क्योंकि .. बातों-बातों में पता चला था, कि उपरोक्त परोसे गए सारे शाकाहारी व्यंजनों की फ़ेहरिस्त बच्ची की 'मम्मी' के स्वयं अकेले का .. दिनभर के परिश्रम व लगन का ही परिणाम था .. सिवाय गुलाबजामुन और 'आइसक्रीम ब्रिक' के, जो कि बाज़ार से बना-बनाया 'रेडीमेड' आया था।
अब दूसरी घटना को भी समीर माथुर के आत्म संस्मरण कहने की भूल ना तो .. हम करेंगे और ना ही आप समझने की भूल कीजियेगा। इस दूसरी घटना के पात्र को भी समीर माथुर के "एक अन्य पड़ोसी के मामा-मामी" को ही मान कर विस्तार देते हैं।
हाँ .. तो .. एक दिन उस पड़ोसी के मामा-मामी उनके यहाँ दोपहर के भोजन के लिए आमंत्रित थे। शायद रविवारीय अवकाश का दिन रहा होगा। उस दिन उस सुअवसर पर मैं आमंत्रित तो नहीं था, पर बाद में एक दिन वह पड़ोसी स्वयं ही उस दिन वाली घटना से जन्मी अपने मन की व्यथा मुझ से साझा कर रहे थे, कि .. एक दिन दोपहर में उनके द्वारा दिए गए आमंत्रण को पाकर, उनके मामा- मामी के उनके घर आने के बाद अन्य सारी औपचारिकताओं के पश्चात .. उन दोनों के समक्ष जब दोपहर का भोजन 'डाइनिंग टेबल' पर पेश किया गया, तब .. उनके सेवानिवृत्त मामा जी मुस्कुराते हुए सर्वप्रथम .. अतिविशेष शोरबेदार सब्जी से भरे कटोरे में 'टेबल स्पून' से टटोलते हुए पूछ बैठे थे, कि ..
" क्या बना है ? .. म-ट-न है क्या ? "
तब उनके मेजबान भांजा यानी समीर माथुर के पड़ोसी ने आदरपूर्वक उत्तर दिया था, कि ..
" नहीं .. मामा जी .."
तभी मामी जी मुस्कुराते हुए बोल पड़ीं थीं, कि ..
" तब .. जरूर 'चि-के-न' बना होगा ? .. है ना ? .. "
पुनः समीर माथुर के पड़ोसी यानी उन मामा-मामी के भांजा को उत्तरस्वरुप बोलना पड़ा था, कि ..
" नहीं मामी जी .. 'चिकेन' भी नहीं है .. "
तभी तपाक से पुनः मामा जी ..
" तब तो जरूर 'फ़िश करी' या फिर 'एग करी' .."
तभी समीर माथुर के पड़ोसी की धर्मपत्नी रसोईघर से दो प्रकार के गर्मागर्म तले पापड़ों और तिसियौरी (तीसी यानी अलसी और मसूरदाल से बनने वाली बिहार की एक प्रकार की बड़ी, जिसे तेल में तल कर खाया जाता है) से भरी एक तश्तरी लिए 'डाइनिंग टेबल' की ओर आती हुई .. उन दोनों मामा-मामी जी की ऊहापोह को विराम देते हुए बोल पड़ी थी, कि ..
" नहीं मामा जी .. 'मटन' नहीं, मटर-पनीर की सब्जी बनाए हैं .. "
इतना सुनने-जानने के बाद उन दोनों यानी मामा-मामी के मुँह अनायास उदास-निराश जैसे हो गए थे। मानो घड़ी की साढ़े छः बजे की सुइयों की तरह लटक गए हों। जबकि उनके समक्ष खाने के लिए मटर-पनीर की शोरबेदार सब्जी के अलावा चना दाल का तड़का, बासमती चावल का शुद्ध देसी घी में पका जीरा 'फ्राइड राइस' के साथ-साथ सत्तू की कचौड़ी या विकल्प में सत्तू भरी रोटी, मसालेदार गोभी 'फ्राई', मूली-गाजर-टमाटर के सलाद, तले हुए दो तरह के पापड़, तिसियौरी के अलावा 'यू ट्यूब' पर देख कर बनाया गया .. मीठा ज़र्दा पुलाव व गाजर का हलवा .. यूँ तो मीठे व्यंजन विशेष रूप से मामी जी के लिए ही बने थे, क्योंकि मामा जी को मधुमेह की शिकायत है। हालाँकि दो-चार चम्मच वे भी चख ही लिए थे .. दोनों ही मीठे व्यंजनों- मीठा ज़र्दा पुलाव और गाजर के हलवा में से। हँसते हुए ये कह कर कि .. " आज रात में दो 'पॉइंट' ज्यादा इन्सुलिन ही लेना पड़ेगा ना .. ले लेंगे .. पर सब व्यंजनों का स्वाद तो चखना ही पड़ेगा ना .."
इधर मामा जी की हसरत भरी नज़रें खानों के बीच जिस बेसब्री से अपने मेहमाननवाजी में 'मटन-चिकेन' या 'फ़िश-एग' तलाश करने के बाद भी .. ना मिलने पर .. निराशा से भर गयीं थीं .. साथ में मामी जी की भी .. तो उधर .. समीर माथुर के पड़ोसी और उनकी धर्मपत्नी को इतनी सारी तैयारी करने के बाद भी आत्मग्लानि की अनुभूति हो रही थी .. शायद ...
थाली से उनके मुँह तक निवाले ले जाने वाले हाथों की गति धीमी-सी ही रही थी। वो तो शुक्र है, कि .. हँस के या फिर .. रो के-गा के .. जैसे भी हो .. थाली में वो लोग जूठन नहीं छोड़े, वर्ना .. मांसाहारी भोजन में विशेष चाव रखने वाले कई लोग तो परोसे गए शाकाहारी भोजन को गिंज-मथ के और कुछ लोग तो उन व्यंजनों को बिना छुए ही .. उस शाकाहारी भोजन को घास-फूस की संज्ञा देकर .. बस यूँ ही ... बेमन से जूठन छोड़ देते हैं।
समीर माथुर के पड़ोसियों के रिश्तेदारों से जुड़ी उपरोक्त दोनों घटनाओं के आलोक में हमने पाया, कि कई मांसाहारी मानवों की मांसाहार के लिए कितनी ज्यादा आसक्ति व मंत्रमुग्धता है, तो .. फिर भला मांसाहारी पशुओं का आसक्त व मंत्रमुग्ध होना तो स्वाभाविक ही है .. है ना ?
सबसे मजेदार पक्ष तो ये है, कि यही मांसाहार के आसक्त लोग सालों भर किसी वार विशेष .. जैसे- मंगलवार, वृहष्पतिवार या .. कोई-कोई शनिवार को या फिर .. भर माह सावन में या दस दिनों तक नवरातरा (नवरात्रि) या एकादशी-पूर्णिमा के दिन .. दुनिया के सबसे बड़े वाले शाकाहारी मानव होने का ढोंग करेंगे। मानो पेटा (PETA) के 'प्रेसिडेंट' वही हैं .. शायद ...
इन पेटा (PETA) के तथाकथित स्वघोषित 'प्रेसिडेंट' जन की उपरोक्त दिनों की स्वाद लोलुपता भरी बेचैनी की एक बानगी भी प्रसंगवश बहरहाल देख ही लेते हैं।
किसी एक साल समीर माथुर के एक अन्य पड़ोसी (समीर माथुर के नहीं) के मंझले मामा जी भी सपरिवार छठ (बिहार में सूर्य उपासना से जुड़ा चार दिवसीय एक महिमामंडित व्रत) मनाने के लिए उन पड़ोसी के घर आए हुए थे। व्रत-अनुष्ठान के आख़िरी व चौथे दिन सुबह ही, जैसाकि अमूमन होता है, समापन हो जाने के बाद और प्रसाद ग्रहण करने के बाद मामा जी अपनी रसना के रस को लगभग सुड़कते हुए अपने भांजे यानी समीर माथुर के पड़ोसी से बोले कि -
" अब तो .. आज शाम तक सब 'गेस्ट' लोग चले ही जायेंगे, तो .. क्यों ना .. दोपहर में 'मटन' बनवाओ .. सभी का "मुख शुद्धिकरण" (उनकी भाषा में किसी निरामिष व्रत-त्योहार के बाद 'नॉन भेज' को उदरग्रस्त करने की प्रक्रिया है ये) हो जाएगा .."
उसी पड़ोसी की मामी जी - " हाँ जी ! .. ढेर दिन हो गया मन को रोके हुए .. ले आइए 'मटन' .. चाहे 'चिकेन' .. कुच्छो (कुछ भी) ले आइए .. "
पड़ोसी के मामा जी - " ना - ना .. ना 'मटन', ना 'चिकेन' .. व्रत-पूजा के बाद तो मछली से ही 'नॉन भेज' शुरू करना चाहिए .." - ऐसा कह रहे थे, मानो किसी गीता-ग्रंथ में ऐसा लिखा गया हो।
ख़ैर ! .. उपरोक्त दोनों घटनाओं से इतना तो पता चल ही गया, कि मांसाहारी पशुओं की तरह मांसाहारी मानवों में भी मांसाहार के प्रति सम्मोहन, आकर्षण, स्वाद लोलुपता भरी पड़ी है .. शायद ...
लेकिन .. मांसाहारी पशुओं का मांसाहार के प्रति सम्मोहन होना तो स्वाभाविक है, परन्तु मानव .. जिसके आहार के इतने सारे शाकाहारी विकल्प की उपलब्धता होने पर भी मांसाहार के प्रति अतिविशेष सम्मोहन कायम रहना .. उन्हें तरजीह देना .. एक अचरज का ही विषय है। तभी तो स्वजनों के मृत देह को दफ़नाने या जलाने वाले मांसाहारी स्वाद लोलुपों की .. मृत पशु-पक्षियों के तेल-मसालों में 'मैरीनेट' करके पकाए गए व्यंजनों से .. क्षुधा पूर्ति हो रही है .. शायद ...
फ़िलहाल तो .. इतनी ज्यादा बतकही बहुत है, मेरे द्वारा मांसाहार के रूप में आपका दिमाग़ खाने के लिए .. शायद ...
अब आइये मूल बतकही के पात्र - समीर माथुर का हालचाल भी जान लेते हैं .. बस यूँ ही ...
अब जब मानव के खाने की मात्रा और गति .. दोनों ही मांसाहार परोसे जाने पर बढ़ जाते हैं, तो मांसाहारी पशु तो फिर भी पशु ही हैं। प्रतिदिन लावारिस कुत्ते-कुत्तियों को कटोरे में दूध-रोटी खिलाने के बाद समीर माथुर उनके सामने से कटोरों को समेट कर व धोकर .. नियमित रूप से सहेज कर यथोचित स्थान पर रख देते हैं। हाथ से ही एक-एक कर कौर के रूप में 'बिस्कुट' भी खिलाते हैं। उस रोज भी सुबह-सुबह वे उन सभी के लिए परोसी गयी .. गुज़रे हुए कल के दिन अपने घर आए हुए कुछ विशेष मेहमानों की खातिरदारी में परोसे गए .. मुर्ग़े व मछलियों के 'नॉन वेज' व्यंजनों की चूसी-चबाई, बची-खुची, जूठी .. कुछ हड्डियाँ उन सभी के खा लेने पर .. उनके सामने से बर्तनों को उठाने के क्रम में .. एक कुत्ते ने मांसाहार के सम्मोहन में बर्त्तन को चाटना नहीं छोड़ना चाहता था, तो प्रतिरोध में घुड़कने के क्रम में बर्त्तन को उठाने के लिए बढ़ी हथेली पर आशातीत हबक लिया था।
उसके नुकीले दाँतों के चुभन-खरोंच से हथेली के ऊपर-नीचे पाँच-छः जगहों से तीव्र गति से रक्त प्रवाह बहने लगा था। हल्की-सी चीख़ भी निकल गयी थी। फ़ौरन घर में उपलब्ध "सुथॉल" लगा कर .. उनके व उनकी धर्मपत्नी श्रावणी सहाय द्वारा रक्त प्रवाह को रोकने का भरसक प्रयास किया गया था। तभी तो वह सुबह -सुबह आनन-फ़ानन में मुहल्ले के ही एक 'क्लीनिक' में जाकर 'एंटी रेबीज इंजेक्शन' लिए थे।
इंसान कई बार सामने वाले का मन रखने के लिए सामने वाले की रूचि में अपनी रूचि का दिखावा करता तो है, पर .. कभी-कभी अपने मन की बातों को सामने वाले के सामने रखने के लिए दूसरों के वक्तव्यों का या किसी अवसर विशेष का सहारा लेते हुए अपनी सहमति- असहमति प्रायः जतला ही देता है।
अभी ऐसा ही अवसर श्रावणी सहाय को मिल गया है, समीर माथुर को सुबह एक कुत्ता के काट लेने भर से। यूँ तो रोज उन कुत्तों के लिए रोटियाँ बनाना .. दूध सुसुम-सुसुम गर्म करना .. वही करतीं हैं। पर .. समीर माथुर की रूचि व ख़ुशी भर के लिए .. अपने मन से नहीं, तो .. आज सुबह एक कुत्ते को खिलाते वक्त उसके काट लेने से श्रावणी सहाय को समीर माथुर से भविष्य में प्रतिदिन कुत्ते को ना खिलाने की बात कहने का मौका मिल गया है। जिन्हें पहले से ही मजबूरी में .. बिना अपने मन के भी .. उनका मन रखने के लिए मजबूरीवश उनको सहयोग करनी पड़ जाती थी।
श्रावणी सहाय - " अब कोई जरूरत नहीं है जी .. रोज-रोज कुत्ता-बिल्ली करने का .. बहुत हो गया .. कैसा भुगतना पड़ रहा है अभी .. आपको .. "
समीर माथुर - " तुमको तो बस्स ! .. अपने मन की बात कहने का मौक़ा भर मिलना चाहिए। फिर तो अपनी मर्ज़ी थोपने में तनिक भी देरी नहीं करती हो तुम .. अब तुम्हें हमारे सफ़ेद बाल भी अच्छे नहीं लगते हैं, तो .. तुम चाहती हो कि .. तुम्हारी तरह हम भी अपने बाल 'डाई' करें .. है ना ?"
श्रावणी सहाय - " हाँ जी .. सही में .. जरा भी ठीक नहीं लगता है .. "
समीर माथुर - " हाँ .. वही तो ! .. वही तो कह रहे हैं कि .. जो अपने मन की बात तुम सीधे-सीधे नहीं बोल पाती हो तो .. किसी-किसी का हवाला दे कर अपने मन की बात मुझ पर थोपोगी तुम .. अब कहोगी, कि बगल वाली भाभी बोल रहीं थी, कि अच्छा नहीं लग रहा है .. भईया को बोलिए .. अपना बाल रंगेंगे .. "
श्रावणी सहाय- " हम झूठ थोड़े ही ना बोले हैं जी .. बोलिएगा तो उनसे पूछवा देंगे आपको .."
समीर माथुर - " छोडो भी .. मुझे नहीं चाहिए .. किसी का 'सर्टिफिकेट' .. हमारी जीवन शैली के लिए .. फिर कभी कहोगी, कि शाहरुख खान और सलमान खान भी तो अपना-अपना बाल रंगता ही है ना जी .. आयँ ! .. "
श्रावणी सहाय - " हाँ जी ! .. रंगता ही तो है .. तभी ना जवान लगता है जी .. "
समीर माथुर - " जवान लगना और जवान होना .. दो अलग.अलग बातें हैं जी .. बाल रंगने से कुछ नहीं होता जी .. बस .. मन जवान होना चाहिए .. "
श्रावणी सहाय- " आप तो हर बात में ही .. अपना कुतर्क करने लग जाते हैं .. जाइए .. जैसे रहना है, रहिए .. हम नहीं बोलेंगे आपको .. कुछ भी .. "
समीर माथुर - " ना-ना .. बोलो .. बोलते रहा करो .. हमारे ज्ञान की वृद्धि होती रहती है इससे .. और .. अभी जो तुम ज्ञान दे रही थी ना .. कुत्ता-बिल्ली नहीं करने का .. "
श्रावणी सहाय - " हाँ .. सही ही तो बोल रहे हैं आपको .."
समीर माथुर - " कुछ भी सही नहीं बोल रही हो तुम .. एक कुत्ता काटा .. वो भी अंजाने में .. उसको लगा था, कि हम उसके खाने का बर्त्तन हटा रहे हैं। वो भी .. वो काटा नहीं था, बस .. घुड़का था .. झटके से हम ही अपनी हथेली वहाँ से हटाए तो .. उसके दाँत की खरोंच लग गयी थी .. "
श्रवणी सहाय - " जैसे भी हो .. लग गयी ना ? .. लग गया ना ढाई-तीन हजार की चपत ? .. "
समीर माथुर - " तुमको तो मेरे घाव से ज्यादा .. पैसे की फ़िक्र है, पर .. पैसा तो .. कहते हैं ना कि .. हाथ का मैल भर है और वैसे भी .. मान लिया कि .. कुत्ते ने वैसे तो अंजाने में काटा है, पर .. मान लिया कि जानबूझ कर काटा है, पर .. उसका तो उपचार है .. इंजेक्शन' (सुई) भी है; पर .. तुम ये बतलाओ, कि .. स्वजन जो जानबूझ कर .. मतलब .. जानते-सुनते अपनी बोली के बाण से मानसिक रूप से हमें प्रताड़ित कर के पीड़ा प्रदान करते हैं .. उन असाध्य दंतहीन दंश का कोई उपचार है क्या ? फिर भी .. इनसे रिश्ते हम तोड़ पाते हैं क्या ? नहीं ना ? .. फिर कुत्ते को .. "
श्रावणी सहाय चुप्पी का लबादा ओढ़े रसोई मकी ओर चली गयी हैं, क्योंकि उनका 'प्रेशर कुकर' .. पक रहे चना दाल के लिए चार सीटी बजा चुका है और समीर माथुर 'बाथरूम' में चले गए हैं नहाने, क्योंकि उनके काम पर जाने का समय हो चला है .. शायद ...
अंत में .. हम पुनः दोहरा रहे हैं, कि उपरोक्त बतकही की दोनों घटनाओं को समीर माथुर के आत्म संस्मरण कहने की भूल ना तो .. हम करेंगे और ना ही आप समझने की भूल कीजियेगा .. बस यूँ ही ...
" लगवा लिए 'इंजेक्शन' ? .. और .. क्या बोले 'डॉक्टर' साहब ? "
समीर माथुर .. जिनकी दिनचर्या में यूँ तो .. सुबह-सुबह किसी भी तरह का 'बिस्कुट' खाना शामिल नहीं है ; क्योंकि उनका मानना है, कि सारे के सारे 'मल्टिग्रेन' वाले या 'रागी' तक से बने होने के दावे करने वाले 'बिस्कुटों' में भी प्रायः पचास प्रतिशत से भी ज्यादा तो मैदा ही होता है और .. आयुर्वेदिक परामर्शों के अनुसार मैदा, सफ़ेद नमक, चीनी इत्यादि जैसे निषिद्ध वस्तुओं का वह अपने आहारों में अमूमन इस्तेमाल नहीं होने देते हैं।
पर .. चूँकि चिकित्सकीय दृष्टिकोण से .. सुबह-सुबह खाली पेट में या यूँ कहें, कि बासी मुँह रह कर 'इंजेक्शन' नहीं ली जानी चाहिए, तो ऐसे में .. मज़बूरीवश चार 'पीस' 'क्रीम क्रैकर' 'बिस्कुट' ही खा कर, अभी उनको तत्काल सुई लेने के लिए आनन-फ़ानन में मुहल्ले के ही एक दवा दुकान से उचित दवाएँ लेते हुए, मुहल्ले के ही एक 'क्लिनिक' में जाना पड़ा था। अभी-अभी वह वहीं से 'इंजेक्शन' लगवा कर वापस घर आए हैं और आते ही उनकी धर्मपत्नी- श्रावणी सहाय अपनी तरफ़ से भरसक सहानुभूति जतलाते हुए .. उनसे यही दो उपरोक्त प्रश्न उत्सुकतावश पूछ बैठी हैं, कि ..
" लगवा लिए 'इंजेक्शन' ? .. और .. क्या बोले 'डॉक्टर' साहब ? "
वैसे तो अभी सुबह के लगभग साढ़े आठ ही बजे हैं। पर बाहर चल रही धधकती गर्म हवा और तीखे धूप से उबल-भून कर घर आते ही 'फुल स्पीड' में 'सीलिंग फैन' को चालू कर के उसके नीचे उसकी तेज हवा में बैठते हुए समीर माथुर अपनी धर्मपत्नी को प्रत्युत्तरस्वरुप बोल रहे हैं -
" कुछ नहीं .. बोलेंगे क्या भला ! .. एक "टेट्वैक" का और एक "रैबीवैक्स एस" का 'इंजेक्शन' अभी दिए हैं .. बारी-बारी से दोनों बाजूओं में .. बाकी .. और भी पाँच 'एंटी रेबीज इंजेक्शन' लेनी है .. अलग-अलग दिनों के अंतराल पर .."
श्रावणी - " मतलब ? "
समीर - " मतलब क्या ? .. मतलब दूसरी सुई आज से तीन दिनों बाद, फिर तीसरी सात दिनों बाद, फिर चौथी .. "
श्रावणी - " अच्छा .. अच्छा .. समझ गए .. समझ गए। और .. डॉक्टर साहब .. खाने-पीने में भी कोई परहेज़ बोले हैं क्या ? "
समीर - " हाँ .. खाने में तो नहीं, पर पीने में .. बोले हैं कि .. "ड्रिंक" नहीं करनी है। "
श्रावणी - " वो तो .. आप वैसे भी नहीं करते हैं जी। "
समीर - " हाँ तो .. बस्स .. मतलब कोई भी परहेज़ नहीं करनी है .. और हाँ .. लाल मिर्ची का 'पाउडर' है क्या घर में ? .. थोड़ा देना .. "
समीर माथुर के घर की रसोई में लाल मिर्च नाममात्र ही इस्तेमाल की जाती है। वो भी उनकी धर्मपत्नी- श्रावणी सहाय जी की बरज़ोरी से और वो भी .. कश्मीरी लाल मिर्च .. कभी-कभार, किसी-किसी आए-गए अतिथियों के स्वागत में बनायी गयी रसोई में रंग लाने के लिए। दो-तीन महीने में कभी एक बार सौ ग्राम कश्मीरी लाल मिर्च के 'पाउडर' का डिब्बा आ गया घर में, तो काम चल जाता है। बाकी तो .. पाचन तंत्र के स्वास्थ्य के मद्देनज़र हरी मिर्च ही उनकी रसोई में प्रयोग की जाती है। इसीलिए वह अपनी धर्मपत्नी से लाल मिर्च के 'पाउडर' की उपलब्धता के लिए ऐसी शंका से भरा सवाल कर रहे हैं।
श्रावणी - " हाँ .. है .. दे रहे हैं .. पर उसका क्या .. "
समीर - " उसका .. डॉक्टर साहब बोले हैं, कि जहाँ-जहाँ काटा है, वहाँ-वहाँ नल के पानी की तेज धार में रगड़-रगड़ कर साबुन से पाँच-दस मिनट तक धो लीजिएगा और उसी जगह पर मिर्ची भी रगड़ कर धो दीजिएगा .."
श्रावणी - " ओ ! .. अच्छा ! .. मतलब एक तो काटे का दर्द और .. ऊपर से साबुन-मिर्ची से भी आपको परपराएगा .. वो अलग .. "
समीर - " अरे .. ये जानकारी तो 'स्कूल' में 'कोर्स' की किताबों में भी पढ़ायी गई थी .. प्राथमिक उपचार के तहत; पर सुबह .. घबराहट के कारण दिमाग़ में ये बात एकदम से नहीं आ पायी थी।"
श्रावणी - " अच्छा ! "..
समीर - " वैसे भी हमलोग अपने 'स्कूल-कॉलेज' के दिनों में पढ़ी-पढ़ायी बातों को अपने जीवन में कितना ही व्यवहार में ला पाते हैं भला ? हम लोग अपनी पढ़ाई को केवल अच्छे अंकों से 'पास' करने का एक माध्यम भर मानते हैं, ताकी .. कोई भी एक प्रतियोगी परीक्षा 'पास' करके .. ऊपरी आमदनी वाली किसी भी एक सरकारी नौकरी को पा जाना ही मानो .. हमारे जीवन का एकमात्र लक्ष्य हो जैसे। फिर उसके बाद तो .. किताबी बातें आयीं-गयीं हो जातीं हैं। "
श्रावणी - " कितना लगा (रुपया) ? " - किसी भी 'मिडिल क्लास फैमिली' की आर्थिक तंगी वाली चिंताओं से भरा एक आम-सा सवाल।
समीर - " दोनों 'इंजेक्शन' के लगभग चार सौ और पचास रुपए के हिसाब से दोनों (सुई) को लगाने के सौ रुपए .. आगे भी .. अगली पाँचों सुइयों के लिए हर बार लगभग चार-साढ़े चार सौ रुपए का ख़र्च .. "
श्रावणी - " एक बात बोलें जी ? .. अब से ना .. इन सब से दूर ही रहा कीजिए। क्या जरूरत है सुबह-शाम खाना खिलाने की इन लावारिस कुत्ते-कुत्तियों को। और भी तो बहुत सारे लोग हैं जी .. मुहल्ले भर में .. इन सब को खिलाने वाले। कैसा ! .. अभी एक शारीरिक कष्ट हो गया आपको .. बैठे- बिठाए .. वो भी सुबह-सुबह। ऊपर से .. सब मिलाकर ढाई-तीन हजार की चपत लगेगी .. सो अलग .. ना जाने किसका मुँह देख कर आज सुबह उठे थे आप .. "
समीर - " धत् ! .. मौका मिला नहीं, कि .. ऊटपटाँग बातें बकने लगती हो तुम .. कितनी बार कहते हैं, कि मेरे सामने इस तरह की ऊल-जलूल दकियानूसी बातें मत किया करो .. पर तुम .. " - फिर बोझिल माहौल को कुछ हल्का करने की सोच कर मुस्कुराते हुए - " तुम्हारा ही तो मुँह देखकर उठते हैं जी रोज और .. आज भी ... "
दरअसल .. कुछ 'स्ट्रीट डॉग', जिनके लावारिस होते हुए भी प्रायः हर मुहल्ले में समीर माथुर जैसे एक या अनेक पालनहार होते हैं, जो स्वतः उनका दायित्व निभाते हैं; जिनसे कुछ को मन की शांति मिलती है और कुछ के लिए पुण्य कमाने का एक माध्यम बनता है। वहीं दूसरी तरफ़ .. कुछ पड़ोसियों के पाले हुए पालतू, पर अपनी गर्दन में बिना 'चेन' वाले पट्टे लपेटे हुए खुले में विचरने वाले कुत्ते; जो अपने तथाकथित पालनहार मालिक के होने के बावज़ूद लावारिस बने मुहल्ले भर में इधर-उधर मुँह मारते फ़िरते हैं। जो गाहे-बगाहे किसी-किसी फेरी वाले या साइकिल-स्कूटी सवार या फिर विशेष लिबासों वाले भिखमंगों को देखकर बेतहाशा भौंकते रहते हैं। मुहल्ले से बाहर के कुत्ते-कुत्तियों को अपने इलाके से गुज़रने पर भौंक -भौंक कर उनको खदेड़ना तो इनका जन्मसिद्ध अधिकार होता ही है।
यूँ तो समीर माथुर की दिनचर्या में शामिल है .. मुहल्ले भर में ऐसे ही विचरते कुत्ते-कुत्तियों को सुबह-शाम दूध-रोटी या 'अरारोट बिस्कुट' खिलाना। परन्तु आज दूध-रोटी या 'अरारोट बिस्कुट' की जगह सुबह-सुबह उन सभी के लिए .. गुज़रे कल के दिन अपने घर आए हुए कुछ विशेष मेहमानों की खातिरदारी में परोसे गए मुर्ग़े व मछलियों के 'नॉन वेज' व्यंजनों की कुछ चूसी-चबाई, बची-खुची, जूठी हड्डियाँ ही उनके बर्तनों में परोस दिए थे।
अब 'कैनाइन' दाँतों वाले मांसाहारी पशुओं को अगर मांस-हड्डियाँ परोस दी जाएँ, तो मांसाहारी भोजन के सम्मोहन में उनके खाने की गति व चाव दोनों ही तीव्र हो जाते हैं। वैसे तो ये सिद्धांत केवल कुत्तों पर ही नहीं, वरन् मांसाहारी इंसानों पर भी लागू होता है।
किसी मांसाहारी परिवार में कोई मांसाहारी मेहमान आएँ और उनके स्वागत में 'नॉन वेज' ना बने, ऐसा हो ही नहीं सकता। बशर्ते .. मानने वालों के लिए उस दिन कोई विशेष हिंदू वार या कोई एकारसी (एकादशी) -पूर्णिमा या फिर नवरात्रि जैसा दिन ना हो। फिर तो .. मेज़बान प्रायः मेहमान पर अपना प्रभाव जमाने के लिए 'ग्रेवी' वाले या 'फ्राई' 'चिकेन' के 'लेग पीस' के साथ-साथ पेटी (मछली के पेट के कटे हुए टुकड़े) वाली 'फ्राई फ़िश' परोसने में कोई कोताही नहीं बरतते हैं। वर्ना मांसाहारी मेजबान भी केवल शाकाहारी व्यंजनों-भोजन को खिलाए जाने पर अपनी तौहीन समझते हैं।
ऐसे में मेजबान-घर के सदस्यों को भी, जो प्रतिदिन शाकाहारी भोजन मन मार के उदरग्रस्त करते हैं, उन्हें मेहमान के बहाने 'नॉन वेज' खाने का सुअवसर मिल जाता है। ठीक वैसे ही, जैसे .. किसी बच्चे को सेहत का हवाला देकर समोसा खाने से मना करने वाले अभिभावकों की भी विवशता हो जाती है, जब मेहमानों के आने पर उनके लिए बाज़ार से मंगवाए गए गर्मागर्म समोसे में से बच्चों को खाने से नहीं रोक पाते हैं और बच्चे उन सुअवसरों का आराम से आनन्द लेते हैं। और तो और .. ऐसे अवसरों पर ही मुहल्ले भर के लावारिस कुत्ते-कुत्तियों और बिल्लियों को भी चूसी-चबाई, बची-खुची, जूठी हड्डियों से उनके मुँह के स्वाद को "सोंधाने" का सुनहरा अवसर मिल जाता है।
अभी सोच रहा हूँ, कि प्रसंगवश समीर माथुर के साथ जुड़ी अतीत की दो घटनाओं (कहानियाँ नहीं) को दोहराउँ ? .. क्योंकि उन्हें यहाँ दोहराना .. कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। तो आगे .. पहली घटना बकते हैं .. परन्तु आज नहीं .. बल्कि .. "असाध्य दंतहीन दंश ... (२)" (अंतिम) में पुनः मिलते हैं .. बस यूँ ही ...