Thursday, June 3, 2021

राजा आप का .. तड़ीपार ... (भाग-१).

कुछ-कुछ ऊहापोह-सा है कि ... आज हम अपनी बतकही शुरू कहाँ से शुरू करें ? ... वैसे अगर हम वर्तमान परिवेश की बातें करें, तो ऐसे में परिहास का मि. इंडिया (Mr. India- एक फ़िल्म का नाम) हो जाना यानी मि. इंडिया की तरह अदृश्य हो जाना स्वाभाविक ही है .. शायद ...। क्योंकि जब आज का परिवेश परेशानियों के दौर से गुजर रहा हो, तो ऐसे में परिहास का गुजारा हो भी तो भला क्योंकर ? ..  ख़ैर ! .. बातों-बातों में फ़िल्म मि. इंडिया के ज़िक्र होने से ये ख़्याल आ रहा है कि क्यों ना .. मनोरंजन के साधनों में से एक साधन - फ़िल्मों की ही कुछ फ़िल्मी बातें कर ली जाएं। शायद .. आज के इस तनावग्रस्त अवसाद भरे क्षणों को कुछ राहत ही मिल पाए .. बस यूँ ही ...

आपने कभी भी किसी गाने के ऐसे मुखड़े को सुना या गाया-गुनगुनाया है क्या ? -

"जो हाल है मस्ती में, कौन है रंजिश, बेहाल बेचारा दिल है" -

शायद .. आपका जवाब "ना" हो और .. अगर आपका जवाब सच्ची-मुच्ची "ना" है, तो आप बिलकुल सही हैं। क्योंकि लगभग अपनी किशोरावस्था के बाद जब सन् 1985 ई. में "गुलामी" नाम की फ़िल्म अपने शहर के सिनेमा हॉल में आयी थी, तो उसके जिस गीत का मुखड़ा हम टीनएज (Teenage) के आख़िरी पड़ाव यानी उन्नीसवें साल में किसी तरह टो-टा कर (अनुमान लगा कर) गुनगुनाने या गाने की भूल भरी कोशिश कर रहे थे .. उस के बारे में बहुत सालों के बीत जाने के बाद जानकारों से जान पाया कि दरसअल उस गीत का मुखड़ा फ़ारसी भाषा में लिखा गया है और अंतरा हिन्दी में। उस लोकप्रिय गीत का वह फ़ारसी मुखड़ा कुछ यूँ है :-

"ज़े-हाल-ए-मिस्कीं, मकुन-ब-रन्जिश, बहाल-ए-हिज्र बेचारा दिल है" 

जिसका हिन्दी मतलब भी उन्हीं जानकारों से ही कुछ यूँ ज्ञात हुआ था कि :-

"मुझे रंजिश से भरी इन निगाहों से ना देखो क्योंकि मेरा बेचारा दिल जुदाई के मारे यूँ ही बेहाल है।"

इस फ़िल्म का यह गीत काफी लोकप्रिय हुआ था; जो कि राग भैरवी पर आधारित था। जिसके संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल थे और गायिका-गायक थे लता मंगेशकर और शब्बीर कुमार। जिसको फ़िल्मी पर्दे के लिए मिथुन चक्रवर्ती, अनीता राज और हुमा खान के साथ राजस्थान की पृष्ठभूमि में फ़िल्माया गया था। हुमा क़ुरैशी मत समझ लीजिएगा, क्योंकि उनका तो जन्म ही उपलब्ध स्रोतों के अनुसार सन् 1986 ई. में हुआ था। आधिकारिक तौर पर इस लोकप्रिय गीत के गीतकार सम्पूर्ण सिंह कालरा उर्फ़ जाने-माने गुलजार साहब हैं। 
किसी गीत में इस तरह से मुखड़ा फ़ारसी में और अंतरा अन्य भाषा में रचने का एक अनूठा प्रयोग साहित्य जगत में शायद पहली बार नहीं किया था गुलज़ार साहब ने। बल्कि सदियों पहले तेरहवीं-चौदहवीं सदी (1253 - 1325) के दरम्यान ही सूफ़ी गीतों के रचयिता और एक अच्छे संगीतज्ञ अबुल हसन यमीनुद्दीन उर्फ़ अमीर ख़ुसरो जी ने, जिन्हें हिन्द का तोता और मुलुकशुअरा (राष्ट्रकवि) भी कहा गया है, फ़ारसी और ब्रज भाषा के सम्मिश्रण से एक अद्भुत और अनूठी रचना रची थी। इस पूरी रचना में पहली पंक्ति फ़ारसी में है, जबकि दूसरी पंक्ति ब्रज भाषा में .. जो आज भी एक मील का पत्थर प्रतीत होता है .. शायद ...
यूँ तो इस अनन्त ब्रह्माण्ड का एक अल्पांश भर ही है हमारी पृथ्वी .. जिस पर बसे हम इंसानों द्वारा अनुमानतः छः हजार से भी ज्यादा बोलने-लिखने वाली उपलब्ध भाषाओं को किसी भी एक व्यक्ति विशेष के लिए बोल-सुन पाना या जान-समझ पाना असम्भव ही होता होगा या यूँ कहें कि .. वास्तव में असम्भव ही है .. शायद ...
केवल एक भाषा मात्र ही क्यों .. वैसे तो विश्व भर में उपलब्ध विज्ञान या सामान्य ज्ञान के अलावा और भी विभिन्न प्रकार की कई-कई तकनीकों व ज्ञानों की जानकारी का दायरा भी इस ब्रह्माण्ड की तरह ही असीम-अनन्त जान पड़ता है। जितना भी हम जान-सीख जाएँ, पर हम अपनी गर्दन अकड़ाने के लायक नहीं बन सकते हैं कभी भी। क्योंकि हम ताउम्र अपनी अन्तिम साँस तक जितना कुछ भी जान-सीख पाते हैं ; वो सब विश्व के समस्त ज्ञान-भंडार की तुलना में नगण्य ही जान पड़ता है। सम्भवतः प्राकृतिक रूप से भी विश्व के सम्पूर्ण ज्ञान को जान-समझ पाने की माद्दा हम में से किसी एक व्यक्ति विशेष के पास है भी नहीं .. शायद ...
ऐसे में .. अक़्सर जो बुद्धिजीवी लोग "मेरी भाषा - तेरी भाषा" जैसी बातें करते रहते हैं या हिन्दी-अंग्रेजी के सम्बन्ध में वैमनस्यता का राग अलापते रहते हैं या फिर जिनको आवश्यकतानुसार भी दूसरी भाषा का किया गया प्रयोग एक घुसपैठ की शक़्ल में दिखता है या दूसरी अन्य भाषओं के प्रयोग से अपनी भाषा का अस्तित्व खतरे में जान पड़ता है; उन सभी महानुभावों की सोच पर तरस खाने के लिए अमीर ख़ुसरो जी की यह रचना ही काफ़ी है  .. शायद ...

ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल, (फ़ारसी)
दुराये नैना बनाये बतियां | (ब्रज)
कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऎ जान, (फ़ारसी)
न लेहो काहे लगाये छतियां || (ब्रज)

शबां-ए-हिजरां दरज़ चूं ज़ुल्फ़
वा रोज़-ए-वस्लत चो उम्र कोताह,
(फ़ारसी)
सखि पिया को जो मैं न देखूं
तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां || (ब्रज)

यकायक अज़ दिल, दो चश्म-ए-जादू
ब सद फ़रेबम बाबुर्द तस्कीं,
(फ़ारसी)
किसे 
पड़ी है जो जा सुनावे

पियारे पी को हमारी बतियां || (ब्रज)


चो शमा सोज़ान, चो ज़र्रा हैरान

हमेशा गिरयान, बे इश्क आं मेह | (फ़ारसी)
न नींद नैना, ना अंग चैना
ना आप आवें, न भेजें पतियां || (ब्रज)

बहक्क-ए-रोज़े, विसाल-ए-दिलबर
कि दाद मारा, गरीब खुसरौ |
 (फ़ारसी)
सपेट मन के, वराये राखूं
जो जाये पांव, पिया के खटियां ||
 (ब्रज)

इस रचना की शुरू की चार पँक्तियों -

ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल,
दुराये नैना बनाये बतियां ।
कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऐ जान,
न लेहो काहे लगाये छतियां ।।

- का अर्थ इसके जानकारों के अनुसार है :-

"आँखें फेर कर और बातें बना के मेरी बेबसी को नजरअंदाज मत करो। जुदाई की तपन से जान निकल रही है। ऐसे में तुम मुझे अपने सीने से क्यों नही लगा लेते ?"

कुछ जानकारों के अनुसार गुलज़ार साहब के मन को उस लोकप्रिय गीत के मुखड़े के लिए अमीर ख़ुसरो जी की वर्षों पुरानी इसी रचना ने कुछ हद तक या शायद बहुत हद तक अभिप्रेरित किया था।
ख़ैर ! .. इन बातों में जो भी सच्चाई हो ..  फ़िलहाल बात हो रही है फिल्मों के बहाने, अंजान भाषा या शब्दों की .. जिनके अर्थ नहीं जान पाने से उनका अर्थ और भाव नहीं जान पाते हैं हम। अपनी भाषा से इतर अन्य भाषाओं की जानकारी नहीं होने की कुछ ऐसी ही विवशता होती रहती हैं, कभी न कभी हमारे जीवन में हमारे साथ।
परन्तु उस दौर में (1998 में गूगल के आने के पहले तक) अनसुलझे सवालों को सुलझाने के लिए गूगल नामक कोई सहज-सुलभ माध्यम उपलब्ध नहीं था।  जिस से पलक झपकते ही किसी भी तरह की जानकारी प्रायः हासिल की जा सकती हो। तब तो जिस भाषा का शब्दकोश पास में नहीं होता था, तो उस भाषा के किसी भी अंजान शब्द का अर्थ जानने के लिए हमें अपने अभिभावक, शिक्षक या मुहल्ले के किसी अभिभावकस्वरुप जानकार व्यक्ति पर ही निर्भर होना पड़ता था।

एक बार एक और ऐसा ही अंजाना शब्द पल्ले पड़ा था, जिसका अर्थ पहली बार में पल्ले नहीं पड़ा था ; जब वह शब्द सुना था। वह भी तब, जबकि सन् 1993 ईस्वी में फ़िल्म ग़ुलामी की तरह ही संयोगवश मिथुन चक्रवर्ती की ही एक फ़िल्म आयी थी - " ...... " ... ख़ैर ! .. अब उस फ़िल्म और उस से जुड़े अंजाने शब्द की बातें "राजा आप का .. तड़ीपार ... (भाग-२)." के लिए छोड़ते हैं और अगली बार मिलते हैं .. बस यूँ ही ...

(तब तक आप नीचे साझा किए गए लिंक से फ़ारसी मुखड़े वाले उस लोकप्रिय गीत से रूबरू हो लीजिए , अगर समय हो तो .. 

"ज़े-हाल-ए-मिस्कीं, मकुन-ब-रन्जिश, बहाल-ए-हिज्र बेचारा दिल है").








4 comments:

  1. Replies
    1. जी ! नमन संग आभार आपका ...

      Delete
  2. सारगर्भित लेखन । सादर शुभकामनाएं ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी ! नमन संग आभार आपका ...

      Delete