Friday, November 1, 2019

अनगढ़ा "अतुकान्त"

(1)@

सजे परिधान
बिंदी .. लाली ..
पायल .. चूड़ियाँ ..
इन सब का
रहता ध्यान बस ...
सजन के आने तक ...

पर रहता भला
होश किसे
इन सबका
अपने सजन के
आग़ोश में
मदहोश हो जाने पर ...

होगे होश में
और हुनरमंद भी
ऐ दुनिया वालों तुम
तो अपना ...
'बहर' .. 'रदीफ़' .. 'काफ़िया' ..
सजाओ जी भर कर .. पर ...

हूँ मदहोश मैं भी
आग़ोश में
अपने सजन के
तो मुझे ऐ होशमंदों !
अनगढ़ा "अतुकान्त"
बिखराने दो .. बस ...

(2)@

जानाँ ! ...
गढ़ता रहा
अनवरत तुझे
मैं अपनी
"अतुकान्तों" में ...

और ...
पढ़ती रही
ख़ुद को
अक़्सर तुम
"ग़ज़लों" में ...

8 comments:

  1. जानाँ ! ...
    गढ़ता रहा
    अनवरत तुझे
    मैं अपनी
    "अतुकान्तों" में ...
    क्या प्रस्तुति है वाह! आपका जवाब नहीं सर!

    ReplyDelete
    Replies
    1. हार्दिक आभार आपका ...

      Delete
  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति

    ReplyDelete
    Replies
    1. हार्दिक आभार आपका ...

      Delete
  3. मेरे blog पर भी आए
    http://babanpandey.blogspot.com

    ReplyDelete
  4. मन के सूक्ष्म गहन भावों को उकेरना आपकी लेखनी की विशिष्टता है।

    ReplyDelete