Thursday, August 15, 2019

मैं घाटा से बच गई ! - ( एक लघुकथा - रक्षाबंधन के बहाने )....

किसी एक रक्षाबन्धन वाले दिन की एक रात फ़ोन ... स्वाभाविक है मोबाइल ... पर दो बहनों की ... शादीशुदा बहनों ... की वार्तालाप का एक अंश ...

वाणी - " शेफ़ाली ! पुट्टू भईया को राखी बाँध कर लौट कर घर आ गई क्या !? "
शेफ़ाली - " नहीं दी' (दीदी) अभी रास्ते में ही हैं। भाभी के ज़िद्द के कारण रात का भी खाना खा कर लौटना पड़ा। "
वाणी - " अकेली हो !? "
शेफ़ाली - " नहीं तो, इनके साथ ही हैं। छठा महीना चल रहा है ना ! ऐसे में ये अकेला नहीं छोड़ते हमको। पब्लिक ट्रांसपोर्ट नहीं लेने देते। इस चक्कर में आज इनके बिज़नेस का काफी नुक्सान भी हुआ , पर  ... फिर भी खुद से कार ड्राइव करके ले गए और अभी साथ ही लौट रहे। "
वाणी - " तुमको तो पता ही है कि मैं ... तुम्हारे जीजा जी के सीवियर वायरल फीवर के कारण नहीं आ सकी। बहुत अफ़सोस हो रहा । साल में एक बार तो आता है ना ये त्योहार। पता नहीं ... अगले साल कौन रहे, कौन ना रहे, है कि नहीं !? "
शेफ़ाली - " धत् दी' आप भी ना ... मरे आपके दुश्मन ... अच्छा हुआ आप नहीं गईं ..."
वाणी - " ऐसा क्यों बोल रही है रे ...क्या हुआ !? कुछ हुआ है क्या !?? "
शेफ़ाली - " और नहीं तो क्या .. होना क्या है दी !? अब इतनी मँहगाई में  ... जोड़ो ना ... एक सौ बीस रुपए की राखी, साढ़े चार सौ में आधा किलो काजू की बर्फ़ी ... वो भी शुगर फ्री वाली .. अक्षत्, रोली साथ में ... भाभी के लिए सावन के नाम पर चूड़ी- बिंदी अलग से ... इसका भी  डेढ़, पौने दो सौ पकड़ ही लो ... फिर 'इनकी' दिन भर की दुकानदारी का नुक़सान ... साठ किलोमीटर जाना और साठ किलोमीटर आना ... उसका 'तेल' जला सो अलग ..अब जोड़ लो 'टोटल' खर्चा ...
वाणी - " हाँ .. वो तो है ...  पर ये सब छोड़, ये सब तो होता ही है इतना-इतना खर्चा रे । पहले ये तो बतला कि  पुट्टू भईया ने दिया क्या राखी के बदले में ... आयँ ...!?"
शेफ़ाली - " वही तो रोना है दी' ... केवल पाँच सौ रूपये का नोट ... भाभी बोली ... कुछ भी अपने मन का ले लीजिएगा शेफ़ाली जी ... बड़का ना ... ले लीजिएगा (मुँह बिचकाते हुए)... !!!
एकदम मूड ऑफ हो गया दी' ... अच्छा हुआ आप नहीं गईं ..."
वाणी - " हाँ रे ! ठीक ही कह रही है तू ... अच्छा हुआ ये बीमार हो गए , इनके बहाने मैं घाटा से बच गई ...अच्छा काट फोन, अब 'ये' जाग गए हैं , बुला रहे... मैं जा रही ... सी यू ... टेक केअर "
शेफ़ाली - " सी यू .. दी ' ! कल सुबह और डिटेल में इनके मार्केट जाने के बाद बात करते हैं ... ठीक है ना !? ...टेक केअर दी' ... जाओ जीजू का ख्याल रखो ... हाँ ....".

16 comments:

  1. क्या बहनें आजकल इतनी व्यवहारिक(खराब) हो
    गई हैं .. अच्छा व्यंग्य । राखी और स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं :-)

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    1. महोदया ! आपको भी हार्दिक शुभकामनाएं दोनों सुअवसर के लिए ... बहनों के बारे मैं कुछ भी नहीं कह रहा ... बस यूँ ही ...

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  2. चंद लोगोंं की बदलती मानसिकता की तराजू से आप हर बहन की भावना को नहीं रख सकते।
    बहन-भाई के पवित्र और अमूल्य प्रेम का सही अर्थ उनसे जानने की कोशिश करियेगा जिन बहनों के भाई नहीं।
    जिन भाइयोंं की कलाई सूनी होती है। होंगे आपके पास जीवन के कड़वे अनुभव पर कभी रिश्तों की मिठास महसूस
    भी होती होगी न..।
    व्यापारिक मानसिकता पर बढ़िया लघुकथा।

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    1. रचना तक आने के लिए आभार आपका ...पर आपने ये कैसे अनुमान लगा लिया भला कि ये मेरे जीवन का ही अनुभव होगा !?
      आप तो स्वयं रचनाकार हैं, अभी-अभी आपने भी एक सैनिक भाई की कविता रची है। पर मुझे जहाँ तक पता है, आपके कोई सैनिक भाई नहीं हैं। आप विरह और रुमानियत भी लिखती हैं। सब क्या आपके अनुभव हैं!? ...नहीं ना !?
      कुछ कल्पनाएँ भी होती हैं रचना में। ये वही हो सकता है ना।
      जीवन के मिठास हो या कड़वापन , जो भी मन तक पहुँच/बींध जाए वही रचना का रूप ले लेता है।

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  3. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में शुक्रवार 16 अगस्त 2019 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. ओहो !!! यशोदा जी !आपने तो मेरी रचना साझा करने की बात कर के मेरा मन खुश कर दिया।
      मैं तो मायूस था कि शायद मैं कुछ ज्यादा ही तीखा यथार्थ लिख दिया हूँ ... लोगबाग हिक़ारत से पढ़ रहे होंगे ... पर खैर ....

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  4. सुबोध जी ,सही में आपने तीखा यथार्थ लिखा है ,हो सकता है , सौ में से दस ऐसी मानसिकता वाली बहनें भी होती हों...।

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  5. शुभा जी ! ये यथार्थ जिया तो नहीं पर .. अपने इर्द-गिर्द मेरे आँख-कान ने ऐसी मानसिकता को स्पर्श भर सचमुच में किया है ...
    (मेरे रचना के किरदार अक़्सर यथार्थ ही होते हैं और कोशिश होती है कि'जस का तस' ही रख दूँ)

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  6. ऐसे लोग भी निश्चित रूप से होते हैं सुबोध जी ! आपने एक कटु यथार्थ को बड़ी सटीक अभिव्यक्ति दी ! लेकिन समय शायद सही नहीं चुना ! रक्षाबंधन के पर्व पर अक्सर महिलायें अत्यधिक भावुक हो जाती हैं और अपने भाई व मायके वालों के प्रति उनके मन में अगाध प्रेम उमड़ता है ! उनके हृदय पर इस तीखे व्यंग से अवश्य आघात हुआ होगा ! रक्षाबंधन के इतर आपकी इस कथा का कदाचित अधिक स्वागत होता ! ऐसा मेरा मानना है ! आप कृपया अन्यथा न लें !

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    1. साधना जी ! आपकी समालोचनायुक्त प्रतिक्रिया आह्लादित कर गई, उल्टा अन्यथा लेने जैसा कुछ है ही नहीं ना।
      अक़्सर "कई लोग" रचनाकार के ओहदे या चेहरे देख कर ब्लॉग के पोस्ट पर आते हैं या आकर भी प्रतिक्रिया नहीं देते हैं, पर आप तो एक नए ब्लॉगर के पोस्ट तक आईं और यथोचित प्रतिक्रिया भी दीं, जो मन को छू गया।
      अब आपके "मानना" पर आते हैं। दरअसल अगर ये लघुकथा रक्षाबंधन के इतर दिनों में आती तो इतना ज़्यादा मन को नहीं मथती शायद, ये मेरा मानना है। रही बात व्यंग्य की , तो अगर किसी चोर के बारे में व्यंग्य दिन में लिखा जाए या रात में, बुरा तो चोर को ही लगना है।
      जो बहने अपने भाई के लिए स्नेहिल समर्पित हैं उन्हें तो आघात नहीं होना चाहिए ना ...शायद।
      मैं शायद आपका आदर करते हुए या खुश रखने के लिए आपकी बातों के समर्थन में "हाँ" लिखता, पर तर्क करने की मेरी गन्दी आदत है।
      मेरे तर्क में कोई गलती हुई हो तो इंगित जरूर कीजियेगा।
      अच्छा मार्गदर्शन होगा मेरा। सादर नमन आपको !

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  7. अधिकतर यही सच है आजकल... गरीब या कन्जूस भाईयों की कलाई सूनी ही समझो...मुझे ये समझ नहीं आता कि राखी भी बहने मंहगी क्यों लेती हैं ...चाँदी की राखी ! अब प्रेम से लिया है तो भरपाई भाई से क्यों...
    ये देने लेने का सिस्टम मुझे तो रास नहीं आता
    यथार्थ उकेरा है आपने....बहुत सटीक...।
    हाँ चन्द भाई बहन बहुत ही प्रेम और संवेदना के साथ मिलते हैं राखी में काश उनकी संख्या में बढोतरी हो और सबकी झोली इतनी भर जाय कि ये लेनदेन और स्वार्थ की जरूरत न हो

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    1. "ये देने लेने का सिस्टम मुझे तो रास नहीं आता"- आपने मन की बात कह डाली महोदया!
      मुझे तो शादी-विवाह के आडम्बरों में चार चाँद लगाता "नेवता-पेहानी"(उपहार) भी नहीं सुहाता। जिसमें दिया गया कपड़ा एक नेवता से दूसरे नेवता तक घूमता रहता है बस।
      घर में आए अतिथितियों द्वारा दिया गया उपहारस्वरूप रुपया भी नहीं सुहाता। "बदलइया" में फिर उनके घर जाओ तो उनके बच्चों को दो।
      मैं तो अपने बेटे की शादी में "उपहार के साथ प्रवेश वर्जित" कार्ड पर छपवाने वाला हूँ और होटल के बाहर तख़्ती लगवाने वाला हूँ।
      सच में लोग भगवान् पर "श्रद्धा-सुमन" की जगह डाली से टूटा "सुमन" चढ़ाने के अभ्यस्त हो गए हैं। इसलिए स्नेह-प्रेम को उपहार की कीमतों से मापते हैं।
      बेड़ा गर्क हो आधुनिक व्यापार का जो वेलेंटाइन डे के नाम पर प्यार को भी उपहारों से नापना सीखा रहे हैं।
      हम भी कामना करते हैं कि बस हर रिश्ते में यथोचित स्नेह-प्यार-श्रद्धा और संवेदना का ही आलम्बन हो ।
      प्रतिक्रिया के लिए आभार आपका !

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  8. समसामयिक सत्य के समीप।

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  9. शानदार लेखन

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