Saturday, June 1, 2019

डायनासोर होता आँचल (एक आलेख).


प्रथमदृष्टया शीर्षक से आँचल के बड़ा हो जाने का गुमान होता है, पर ऐसा नहीं है। दरअसल आँचल के डायनासोर की तरह दिन-प्रतिदिन लुप्तप्रायः होते जाने की आशंका जताने की कोशिश कर रहा हूँ।
हम अक़्सर रचनाओं में, चाहे किसी भी विधा में लिखी गई हो, ख़ासकर पुराने समय की रचनाओं में और फ़िल्मी गानों में तो जो स्वयं में रचना का एक विधा है , "आँचल" की महिमा की प्रचुरता है।
चाहे माँ की ममता का मासूमियत महकाना हो या फिर प्रेमिका के प्रेम की पराकाष्ठा दर्शाना हो ... हर में समान रूप से समाहित है - आँचल। अब चाहे वह माँ का हो , प्रेमिका का या फिर बहन या पत्नी का।
अगर माँ का आँचल मन को शान्ति और सुकून देता है तो बहन का बचपन में खेल-खेल में खींच कर छेड़ने में ... प्रेमिका या पत्नी का मादकता से भरने में। व्रत-पूजा या इबादत में ऊपर वाले से इसे फैला कर दुआ लेने में या फिर नेगाचार में भी इसकी महत्ता है ही।कहीं-कहीं गाँव-देहात या शहर में भी कुछ लोग अपना या अपने से छोटे का नाक साफ़ करने में भी उपयोग में लाते हैं। वैसे मैं इस नाक साफ करने वाली बात की चर्चा नहीं करता तो भी मेरी ये आलेख अधूरी नहीं रह जाती। फिर भी ...
हर रूप में इसके अलग - अलग रंग लहराते हैं।
सचिन देव बर्मन जी की "मेरी दुनिया है माँ तेरे आँचल में ...." से लेकर वहीदा रहमान जी की  'गाइड' वाली " काँटों से खींच कर ये आँचल "... तक में आँचल का महत्व झलक ही जाता है।
अम्मा के गोद में आँचल के छाँव तले किसी अबोध का दुग्धपान करना या कराना आज भी आंचलिक क्षेत्र में , वह भी सार्वजनिक स्थल पर , एक आम दृश्य होता है। भूख से अपने बिलखते- बिलबिलाते संतान को माँएं इसी विधि से तुरंत तृप्त कर देती हैं।
भूखा अबोध शीघ्र ही तृप्त होकर खुश होकर खेलने लगता है या फिर चैन की नींद सो जाता है। उस पल एक हल्की-सी मुस्कान की परत माँ की पपड़ायी होंठों को सुशोभित कर जाती है।

कुछ कहने के पहले मैं स्पष्ट कर दूँ कि मैं पर्दाप्रथा , चाहे बुर्क़ा हो या घुँघट, का कतई पक्षधर नहीं हूँ।

बस आँचल के लुप्तप्रायः होने की चिन्ता जो सता रही है, उसका उल्लेख कर रहा हूँ। उस क्रम में मेरी दकियानूसी होने की छवि नहीं बननी चाहिए ... बस ... वर्ना मुझे बुरा भी लग सकता है। है कि नहीं !?
हाँ ... तो मैं आँचल के लुप्तप्रायः होने की चर्चा और चिन्ता दोनों ही कर रहा था। कहीं- कहीं तो किसी अबोध को धूप के तीखापन से बचाने के लिए आधुनिक (परिधान से, विचार का पता नहीं) माँ को अपने लेडीज़ रुमाल (जो कि प्रायः छोटा ही होता है ) से सिर ढंकते देखा है।
आज के आधुनिक शहरीकरण के मेट्रो संस्कृति के तहत दुपट्टाविहीन सलवार-समीज़ और जीन्स-टीशर्ट वाले परिधानों ने आँचल जैसे निरीह को मिस्टर इण्डिया बना दिया है यानि गायब ही कर दिया है।
कुछ दशकों बाद कहीं हमें अजायबघरों के किसी नए आलमीरा में शीशे के अंदर प्रदर्शित किये गए मुग़लों और अंग्रेजों के अंगरखे के बगल में ही कहीं आँचल भी सजा कर नेपथलीन की गोली के साथ रखा हुआ देखने के लिए मिल ना जाए कहीं। हाल ही में सपरिवार पटना के संजय गांधी जैविक उद्यान में घूमने के दौरान एक बाड़े में गिद्ध के एक जोड़े को देख मैं हतप्रभ रह गया था। कारण - बचपन में गंगा किनारे ख़ासकर शमशान घाटों के आसपास बहुतायत में इनका झुण्ड दिख जाता था। आज हमारी सभ्यता से जैसे करोडों वर्ष पहले अस्तित्व में रहने वाले डायनासोर लुप्त हो चूके हैं।
फिर हमारी भावी पीढ़ी अपने बचपन से बुढ़ापे तक  के सफ़र में आँचल के अलग-अलग रूप से वंचित रह जाएंगे ना !?
आइए एक प्रयास अपने घर से ही शुरू करते हैं ताकि आँचल को डायनासोर बनने यानि लुप्तप्रायः होने से बचाया जा सके। है ना !?

6 comments:

  1. व्वाहहहहह
    बढ़िया आलेख
    सच में...
    सादर...

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  2. इस आलेख का आपको अच्छा लगना मुझे भी अच्छा लगा ...सच्ची..☺

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  3. समय के गर्त में जिन्दा रहेगा महसूस कराता रहेगा अपनी उपस्थिति :)

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    1. जी आदरणीय ! एक पुरतत्वेत्ता को मिली अतित की थाती की तरह ....

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  4. बहुत सुंदर लेख आदरणीय सुबोध जी , जिसकी सराहना के लिए शब्द नहीं मेरे पास | आंचल की तुलना डायनासोर से देख , एकबारगी मेरे मन में विचार कौंधा डायनासोर फिल्म के विशालकाय डायनासोर का !पर आँचल का डायनासोर सरीखा विलुप्त प्राय होने के कगार पर खडा होना पढ़ा , तब तात्पर्य समझ में आया | भारतीयता और संस्कारों का अप्रितम प्रतीक , बहुआयामी आँचल आधुनिकता की कुत्सित दौड़ में धीरे धीरे अपना अस्तित्व खो देने के कगार पर है | हर आधुनिका युवती [ जिनमें मेरी बिटिया भी शामिल है ] आंचल की अप्रासंगिकता के अनेक उदाहरण और कुतर्क देने को आतुर है | मेरी बिटिया को तो मैं उसका महत्व काफी हद तक समझाने में सफल हुई पर अक्सर कोई भी इस विषय को सिरे तक सुलझाने में सफल नहीं हो पाता | आधुनिकता की अंधी दौड़ जो ठहरी !!!!!!! जो दुपट्टा ओढ़ा तो तुरंत आंटी जी का लेबल लगना तय ! पर ये सच है सामाजिक जीवन हो या सांस्कृतिक महत्व का विषय या फिर फ़िल्मी विशुद्ध भारतीय नायिका आँचल के बिना उसका श्रृंगार अधूरा है | साहित्य से लेकर फिल्मो में आँचल ने अपने खूब जलवे बिखेरे | पर उसका डायनासोर होना बहुत दुखद रहेगा | इसके मिस्टर इंडिया बनने से पहले . हम माँ -बहनों को ही अगली पीढ़ी को इसका महत्व समझाना होगा ताकि इसका अस्तित्व सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में बना रहे औए नवजात भी इसकी स्नेहिल छाया से कदापि वंचित ना रहे क्योकि हमारी पिछली पीढ़ियों ने तो इसे खूब जतन और सुघड़ता से सम्भाला है और हमारी पीढ़ी भी उस परम्परा को निभाने के प्रयास में बहुत सफल रही है पर | आगे प्रयास जरूरी है | | हार्दिक शुभकामनायें इस सुंदर सुप्त भावनाओं को जगाने का प्रयास करते आलेख के लिए |

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    1. हार्दिक शुक्रिया आपका , आभार भी ... मेरी रचना की एक सारगर्भित यथोचित विश्लेषण के लिए ..दरअसल कम तकनीकी जानकारी के कारण कोई भी प्रतिकिया की notifications नहीं मिल पाता है।
      जब कभी फ़ुर्सत में अपने पोस्ट को दुहराता हूँ तो इन पर नज़र पड़ती है।

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