Sunday, May 26, 2019

चन्द पंक्तियाँ (१) ... - बस यूँ ही ....

(1)#
उस शाम
गाँधी-घाट पर
दो दीयों से
वंचित रह गई
गंगा-आरती

जो थी नहीं
उस भीड़ में
कौतूहल भरी
तुम्हारी दो आँखें
मुझे निहारती

(2)#
एक चाह कि ...
बन स्वेद
तुम्हारी
रोमछिद्रों से
निकलूँ मैं
और
पसर जाऊँ
बदन पर
तुम्हारे
ओस के बूँदों
की तरह .....

(3)#
बूँद- बूँद
नेह तुम्हारे
हर पल
हर रोज
हो जाते हैं
विलीन
रेत-से पसरे
मन की
प्यास में मेरे

और ... मैं ....
तिल-तिल तुम में....

(4)#
रही होगी तुम्हारी
कोई मज़बूरी
हमारा तो बस ...
था पक्का प्यार ही

बतलाते रहे हैं
जमाने को अक़्सर ...
जिसे आज तक
उम्र की नादानी

(5)#
सारी-सारी रात
खामोश
हरी दूब-सा
तुम्हारा मन ...

तुम संग
आग़ोश में तुम्हारे
ओस की बूँदों-सा
मेरा मन ...

10 comments:

  1. रचना के लिए बेहतरीन जैसे विशेषण के लिए धन्यवाद आपका ...

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  2. गहन एहसासों से रचा अनुपम जज्बाती सृजन।
    अप्रतिम।

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  3. 'अप्रतिम' जैसा विशेषण रचना को देकर प्रोत्साहित करने के लिए हार्दिक धन्यवाद !!!

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  4. बेहतरीन रचना

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  5. शुक्रिया आपको !!

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  6. आपकी लिखी रचना "साप्ताहिक मुखरित मौन में" शनिवार 1 जून 2019 को साझा की गई है......... "साप्ताहिक मुखरित मौन" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. प्रतिक्रिया में विलम्ब के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ .... आपका हार्दिक धन्यवाद "सप्ताहिक मुखरित मौन" के 1 जून 2019 के अंक में मेरी रचना साझा करने के लिए.....☺

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  7. आकंठ अनुरागरत मन के स्नेहिल भाव आदरणीय सुबोध जी | सभी क्षणिकाएं शानदार हैं | हार्दिक शुभकामनाएं|

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  8. आपकी सराहना और प्रोत्साहन के लिए हार्दिक धन्यवाद !!
    दरअसल समयाभाव के कारण कम आता हूँ ब्लॉग पर। इसलिए प्रतिक्रिया में विलम्ब के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ ....

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