हिन्दूओं की धार्मिक मान्यता के अनुसार प्रत्येक वर्ष कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को तुलसी विवाह किया जाता है। इस तथाकथित मान्यता के अनुसार ही इस दिन ऐसा करना-कराना अत्यधिक शुभ होता है और घर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। साथ ही मान्यता यह भी है कि इस दिन तुलसी विवाह कराने से, जिस घर में बेटी ना भी हो तो, कन्यादान जितना पुण्य मिलता है। कहा तो ये भी जाता है, कि इसके एक दिन पहले चार मास तक सो कर विष्णु देव के जागने के बाद तथाकथित आस्थावान धर्मी लोगों के घरों में शुभ और मांगलिक कार्य शुरू हो जाते हैं।
तुलसी चौरा या तुलसी के गमले की मिट्टी में ही एक गन्ना लगा कर, उस पर लाल चुनरी से मंडप सजाने का एक तथाकथित पूजन विधान है। दूध में भिंगोए हल्दी लगे शालिग्राम पत्थर को भी उसी गमले में रखने का भी विधान है। साथ ही तुलसी के पौधे और गन्ने के मंडप पर भी हल्दी के लेप लगाने के भी। पर प्रायोगिक रूप से प्रायः हर घरों में यह देखने के लिए मिलता है, कि लोग लाल कपड़े से पौधे को पूरी तरह लपेट कर ढकते हुए उसका दम घोंटने में कोई भी कसर नहीं छोड़ते हैं .. शायद ...
छठी से लेकर दसवीं कक्षा तक में पढ़ने वाले तमाम विद्यार्थियों को ज्ञात है, कि तमाम पेड़-पौधों की हरी पत्तियाँ अपने 'क्लोरोफिल' नामक वर्णक की उपस्थिति में सूर्य-प्रकाश के सहयोग से हवा के कार्बनडाइऑक्साइड गैस और मिट्टी के जल के द्वारा कार्बोहाइड्रेट नामक अपना भोज्य पदार्थ का निर्माण करती हैं और इस प्रक्रिया में ऑक्सीजन गैस बाहर निकालती हैं। इस प्रकाश संश्लेषण नामक प्रक्रिया के तहत बने कार्बोहाइड्रेट तो तमाम पेड़-पौधों को जीवित रहने के लिए आवश्यक तो है ही और ऑक्सीजन गैस हम मानव सहित धरती के समस्त प्राणियों के जीवित रहने के लिए।
पर हमारा तथाकथित आस्थावान बुद्धिजीवी समाज यह सब जानकर भी धर्मान्धता में सब दरकिनार कर देता है और तभी तो इस अवसर पर तुलसी के पौधे को लाल चुनरी से इस क़दर ढक देता है कि विष्णु-तुलसी के तथाकथित विवाह के नाम पर बेचारे तुलसी के मासूम पौधे का दम ही घुंट जाता होगा .. शायद ...
दूसरी तरफ हम फ़िलहाल तथाकथित "कन्यादान" करने से मिलने वाले तथाकथित पुण्य या पाप के विषय पर तो मनन-चिंतन को दरकिनार ही कर दें, उस से पहले तो "कन्यादान" शब्द की ही सार्थकता और औचित्यता पर गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है .. अगर आज भी हमारा बौद्धिक समाज "कन्यादान" जैसे शब्द पर आपत्ति नहीं जताता है, तो लानत है ऐसे बुद्धिजीवी समाज पर। इस संदर्भ में तथाकथित सभ्य समाज के इस बौद्धिक विकलांगता को बौद्धिक विकलांगता के वर्गीकृत चार वर्गों में से तीसरे और चौथे वर्गों - "गंभीर" और "गहन" की श्रेणी में रखी जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी .. शायद ... नहीं क्या ? हाय री ! .. बौद्धिक विकलांगता .. वाह !!! ...
आज के शीर्षक से आप भ्रमित ना हों, हम अपनी बतकही में आपके समक्ष कुछ भी ऐसा-वैसा अश्लील नहीं परोसने वाले .. शायद ...
गत दिनों मैंने "बस यूँ ही ..." नामक अपनी एक कहानी प्रसार भारती के तहत आकाशवाणी, देहरादून के माध्यम से पढ़ी थी। जिसे बहुत से अपने शुभचिन्तक लोग अपने-अपने मोबाइल में उनके भिन्न 'Android' होने के कारण 'App' - "Newsonair" को नहीं 'Download' कर पाने की वजह से उस कहानी का प्रसारण नहीं सुन पाए थे। अफ़सोस भी हुआ था, दुःख भी। तो आज उसकी 'रिकॉर्डिंग' यहाँ साझा कर रहे हैं। पर यह कहानी केवल और केवल आर्थिक रूप से मध्य या निम्न-मध्य वर्ग के लोगों को सुनने के लिए है और .. आर्थिक रूप से उच्च वर्ग के लोगों के लिए सुनना पूर्णरूपेण निषेध है .. बस यूँ ही ... सोच रहा हूँ कि .. उन्हें बुरी लग जाए कहानी की बातें .. शायद ...
पर उस से पहले एक महान और भले ही शारीरिक रूप से दिवंगत हो चुके .. फिर भी अपनी रचनाओं में आज भी अजर-अमर, जिनके इसी माह जन्मदिन पर विश्व भर में उनके चाहने वालों द्वारा विभिन्न तरीकों से उन्हें याद भी किया गया है .. बस यूँ ही ...
हमारे समाज, ख़ासकर तथाकथित बुद्धिजीवी समाज में भी, व्याप्त तमाम कुरीतियों वाले दुर्गन्धित कचरों के ढेर को तथाकथित संस्कृति नामक सुगन्धित पैरहन से ढक कर या फिर पुरखों की थाती नामक चाँदी के वरक़ से ढक कर ढोने वालों की भीड़ तब भी थी और आज भी है, जो भले ही नहीं पचा पाती हो .. सआदत हसन मंटो जी की थाती को और उन थाती को किसी 'ए सर्टिफिकेट' वाली फ़िल्मों की श्रेणी में रखकर भले ही आँकती हो और .. और तो और .. मानसिक रूप से अश्लील इसी तथाकथित समाज के कई लोगों ने जो बाह्य रूप से सभ्य-सुसंस्कृत वाला लिहाफ़ ओढ़े हुए थे और आज भी हैं .. उनकी भीड़ ने भी मंटो जी की कहानियों में अश्लीलता की बू आने की बातें करके, उनके द्वारा वर्जनाओं को तोड़ने की हिमाक़त करने की बातें करके और उनके द्वारा भाषायी मर्यादाओं के खंडन करने की बातें कर-कर के .. उन पर छदम् आरोप लगा कर उन को छह बार अदालत जाने के लिए मजबूर किया, जिनमें से तीन बार हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के अनचाहे और विभत्स बँटवारे से पहले और तीन बार बँटवारे के बाद .. लेकिन अफ़सोस ... एक भी बार उन पर आरोपित मामला साबित नहीं हो पाया।
एक तरफ तो ये समाज, जो यदा-कदा स्वयं भी मानसिक रूप से लम्पट होकर, हर उस लम्पट को सिर-आँखों पर चढ़ा कर रखता है, जो इसी मुखौटेधारी समाज की तरह ताउम्र शराफ़त के पैरहन पहने सभ्य-सुसंस्कृत बने रहने की औपचारिकता भर करता है।
दूसरी तरफ समाज को समय से पहले पनपी कोई भी बात कृत या कृति, किसी अनब्याहता के गर्भवती हो जाने की तरह ही, सहजता से स्वीकार्य नहीं है। कभी ऐसा ही हुआ होगा, 1970 में राजकपूर जी की फ़िल्म "मेरा नाम जोकर" के साथ, समय से बहुत पूर्व फिल्माए गए गूढ़ दर्शन को हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी समाज की भीड़ ने उस वक्त सिरे से नकार दिया, परन्तु विदेशों में धूम मचाने और कई पुरस्कारों को हासिल करने के बाद हमारे देश-समाज के लोगों ने उसे हाथों-हाथ लिया। इसी तरह ही नकारा गया होगा कभी मंटो जी को। तब की क्यों कहें, आज भी स्वयं को पाक-साफ़ दर्शाने के लिए कई लोग मंटों जी के नाम और कृतियों की चर्चा से परहेज़ या गुरेज़ करते नज़र आते थे या हैं, भले ही तब उनके बिस्तर या तकिए के नीचे दबायी-छुपायी 'डेबोनियर' अंग्रेजी पत्रिका रखी मिलती थीं या आज अकेले में बिस्तर पर पड़े-पड़े उनकी नज़रें अश्लील 'यूट्यूब' या अन्य 'सोशल मीडिया' पर गड़ी रहती हों .. शायद ...
जब तक हम या हमारी युवा पीढ़ी मंटो जी को तन्मयता से पढ़ेंगी नहीं, तब तक यह जान पाना या समझ पाना नामुमकिन है, कि उन दकियानूसी सामाजिक हालातों में भी स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर मंटो जी कितनी प्रगतिशील सोच रखते थे। उन्हीं की अलहदा सोच थी, कि - "औरतें बिक नहीं रहीं, लोग उन्हें धीरे धीरे खरीद रहे हैं ।"
उन्होंने ही उस दौर में भी ये कहने की हिम्मत की, कि "वेश्या का वजूद ख़ुद एक जनाज़ा है, जो समाज ख़ुद अपने कंधों पर उठाए हुए है। वो उसे जब तक कहीं दफ़न नहीं करेगा, उस के मुताल्लिक़ बातें होती रहेंगी।"
अपने बारे में कहते हुए उन्होंने लिखा था, कि "मैं अफ़्साना इसलिए लिखता हूँ, कि मुझे अफ़्साना-निगारी की शराब की तरह लत पड़ गई है। मैं अफ़्साना ना लिखूँ तो मुझे ऐसा महसूस होता है कि मैंने कपड़े नहीं पहने या मैंने ग़ुसल नहीं किया या मैं ने शराब नहीं पी।"
उनकी बेबाक़ी ही कह पायी, कि "अगर आप मेरी बातों को बर्दाश्त नहीं कर सकते .. मतलब .. ज़माना ही ना-क़ाबिल-ए-बरदाश्त है।"
हमारा तत्कालीन या वर्त्तमान बुद्धिजीवी समाज भले ही 'ए सर्टिफिकेट' वाली फ़िल्मों की तरह या उस से भी बदतर श्रेणी में उनकी लेखनी को घसीटता हो, पर उनका बिंदास लेखन उनके बिंदास शख़्सियात की ताकीद करता है।
यूँ तो सर्वविदित है, कि वह एक मुक़म्मल उर्दू लेखक थे, जो अपनी लघु कथाओं - बू, खोल दो, ठंडा गोश्त और चर्चित टोबा टेकसिंह के लिए प्रसिद्ध हुए। कहानीकार होने के साथ-साथ वे फिल्म और रेडिया पटकथा लेखक और पत्रकार भी थे। अपने छोटे से जीवनकाल में उन्होंने बाइस लघु कथा संग्रह, एक उपन्यास, रेडियो नाटक के पाँच संग्रह, अन्य रचनाओं के तीन संग्रह और व्यक्तिगत रेखाचित्र के दो संग्रह लिखे थे, जो समय-समय पर प्रकाशित भी होते रहे थे। इनमें से कई रचनाएँ अन्य कई भाषाओं में अनुवादित भी किए गए हैं।
उन्हें ही क्यों .. तत्कालीन इस्मत चुग़ताई अथार्त इस्मत आपा को भी इस समाज में बुरी नज़रों से देखा गया। दरअसल समाज अपना कुरूप और कुत्सित चेहरा साहित्य या सिनेमा के पटलों वाले आईना पर देख ही नहीं पाता या देखना ही नहीं चाहता .. शायद ...
वैसे तो जन्मदिनों को या दिवसों को मनाने में हम यक़ीन नहीं करते, कारण .. प्रत्येक जन्मदिन के दिन हर प्राणी की आयु से एक वर्ष घटा हुआ होता है, जो एक वज़ह बनती है उदासी की .. पर लोग जश्न मनाते हैं भला क्योंकर .. मालूम नहीं और रही बात दिवस की तो, अगर दिवस को दिनचर्या में शामिल कर लिया जाए, तो फिर दिवसों का क्या करना भला ?
पर 11 मई को सम्पूर्ण विश्व में उनके चाहने या मानने वालों के द्वारा उनके जन्मदिन के उपलक्ष्य में कई कार्यक्रम हर वर्ष आयोजित किए जाते हैं .. तो इसी बहाने उन महान विभूति को शत्-शत् नमन .. काश ! .. हमारा तथाकथित बुद्धिजीवी समाज जो 'डेबोनियर' या 'ए सर्टिफिकेट' वाली फ़िल्म से इतर उन्हें देख पाता, पढ़ पाता, समझ पाता .. बस यूँ ही ...
ख़ैर ! .. अब हमारी बतकही झेलने के उपरांत हमारी कहानी भी सुन लीजिए .. बस यूँ ही ...
साहिबान ! .. मिसरा, बहर, मतला, तख़ल्लुस, मक़ता, काफ़िया और रदीफ़ .. इन सबसे अनभिज्ञ .. ग़ज़ल की सऊर (शऊर) भला क्योंकर होगी मुझ में .. पर मन के बाढ़ को हल्का करने के क्रम में जो बतकही शब्दों के साँचे में ढली है, वो सारी की सारी हूबहू हाज़िर है आपकी नज़र .. पर साहिबान !! .. इस बतकही को मिसरा, बहर, मतला, तख़ल्लुस, मक़ता, काफ़िया और रदीफ़ की नज़रों से कतई ना पढ़ी जाए .. बस और बस .. बतकही को बतकही की तरह सरसरी निग़ाहों से देखी/पढ़ी जाए .. बस यूँ ही ...
चारों तरफ सनसनीखेज़ खबर है,सोया हुआ सारा शहर है।
है मौसम में कनकनी,किस डर से पसीने में सब तरबतर हैं?
लुटी बस्ती, बने अवशेष जले-टूटे घर,सब की टूटी कमर है।
हैं लम्बी कतारें,यतीमों-बेवाओं की, किसने ढाया क़हर है?
रब ने रगों में बहाया,जमीं पे फिर क्यूँ बना लहू का नहर है?
आग लगी यूँ तो जंगल में,पर आना जल्द ज़द में हर घर है।
सर तन से जुदा कर गया वो,अभी तो रात नहीं, दोपहर है।
हैं पूजते कई पत्थर, कोई चोटिल करने को मारता पत्थर है।
सभी भाड़ोती इस धरती के, फिर किस वास्ते मची ग़दर है?
आपसी तनातनी क्यूँ, जग का हर कोना तो रब का घर है?
होड़ बाड़े में क़ैद करने की धर्म-मज़हब के, कैसा जबर है?
कोई हिन्दू या मुसलमां, लापता इंसाँ, किसने रोपी ज़हर है?
मन मारना है हिस्से में मेरे,वो मनमानी करता सारी उमर है।
नुमाइंदे ख़ाक होंगे वो रब के,जिन्हें इंसान की नहीं क़दर है।
सोचों में मेरे आना रुका ना,यूँ पहरा तो तुझ पे हर पहर है।
यूँ डबडबायी तो हैं तेरी आँखें, पर क्यूँ धुंधली मेरी नज़र है?
सूना मन का आँगन,भले ही बनता रहा वो .. हमबिस्तर है।
हमनवा नहीं वो, पर कहने को जीवन-सफ़र में हमसफ़र है।
लेटा नर्म-गर्म बिस्तरों में तन,फिर क्यूँ भला मन दरबदर है?
बंजारा बस्ती के वाशिंदे बता, सोया या मरा हुआ शहर है?
अगर किसी राज्य विशेष में "जुगाड़" और "पैरवी" शब्द आम चलन में हो, तो वहाँ के लोगबाग इन दोनों के मार्फ़त हासिल की गयी छीन-झपट को उपलब्धियों की श्रेणी में सहर्ष सहजता से रख देते हैं और ऐसी छीन-झपट करने वालों को समझदार, सफ़ल और व्यवहारिक का तमग़ा बाँटने में हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी समाज के तथाकथित सुसंस्कारी लोग भी तनिक गुरेज़ नहीं करते, बल्कि लोग इस कृत के लिए शेख़ी बघारते नज़र आते हैं। वैसे तो अब तक वैसे राज्य विशेष के उपरोक्त माहौल को महसूस ही नहीं बल्कि प्रत्यक्ष रूप से जीते-जीते ऐसा लगता रहा, कि मानो सारी दुनिया ही ऐसी है या होती होगी।
परन्तु उत्तराखण्ड की अस्थायी राजधानी देहरादून आने के उपरान्त घर से लगभग महज़ दो-ढाई किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित प्रसार भारती के प्रांगण में जाने के बाद, जहाँ आकाशवाणी और दूरदर्शन एक ही प्रांगण में है, जान पाया कि सारी दुनिया "जुगाड़" और "पैरवी" की क़ायल नहीं है। अनायास हमें ऐसा क्यों लगा, इसकी चर्चा अभी आगे करते हैं।
कुछ अन्य और भी अन्यायपूर्ण घटनाएँ अक़्सर देखने/झेलने पड़ते हैं अपने आसपास कि कई स्थानीय पत्रिकाओं के सम्पादकों की निग़ाह में या कई साहित्यिक संस्थानों में भी अगर आपके-हमारे नाम के आगे-पीछे डॉक्टर (पीएचडी वाले), प्रोफ़ेसर, सरकारी अधिकारी या रिटायर्ड (पेंशनधारी भी) सरकारी अधिकारी लगा हो तो, आपकी-हमारी रचनाएँ भले ही तुकबंदी या पैरोडी हों, फिर भी अमूमन उनको विशेष तरजीह दी जाती है। प्रायः आपकी-हमारी पहचान आपके-हमारे पद से की जाती है, आपकी-हमारी प्रसिद्धि से की जाती है, ना कि आपकी रचनाओं के स्तर और उसकी गंभीरता से। और तो और स्वजाति विशेष या अपने क्षेत्र के होने पर भी विशेष कृपा दृष्टि रखी जाती है। वैसे तो पाया ये भी जाता है, कि सबसे बड़ा ब्रह्मास्त्र है .. किसी का लल्लो-चप्पो कर के अपना काम निकालना, किसी एक के लल्लो-चप्पो से सामने वाले को बस ख़ुश हो जाना चाहिए।
परन्तु इन सभी से परे प्रसार भारती, देहरादून के प्रांगण स्थित आकाशवाणी में अपनी रचनाओं के वाचन/प्रसारण हेतु जाकर कार्यक्रम अधिशासी- श्री दीपेन्द्र सिंह सिवाच जी से पहली बार दिसम्बर'2022 की शुरुआत में मिला तो उन्होंने 30.12.2022 को एक कवि गोष्ठी की रिकॉर्डिंग के दौरान अन्य दो कवयित्रियों और एक कवि के साथ मेरी भी तीन कविताओं के वाचन को मौका दिया था। जिसका प्रसारण 02.01.2023 को रात के 10 बजे से 10.30 बजे तक "कविता पाठ" कार्यक्रम के तहत किया गया था।
यहाँ पर ना तो मेरा पद पूछा गया, ना जाति, ना क्षेत्र और ना ही मुझे किसी भी तरह का लल्लो-चप्पो, जुगाड़ या पैरवी करनी पड़ी। बस .. फॉर्म भर कर रजिस्ट्रेशन की आवश्यक औपचारिकता भर और मेरी बतकही की एक प्रति भी। आकाशवाणी या दूरदर्शन के कुछ प्रतिबंध हैं, जिनके अन्तर्गत बस एक-दो शब्दों को अपनी बतकही से हटानी पड़ी यानि उन पर क़ायदे के मुताबिक सेंसर लगाए गए।
यूँ देखा जाए तो यहाँ जुगाड़, पैरवी, लल्लो-चप्पो जैसी कोई प्रतियोगिता नहीं दिखी; बस हम जैसे हिन्दी भाषी लोगों की प्रतियोगिता है तो यहाँ की स्थानीय भाषाओं से। जिनसे ही सम्बन्धित यहाँ ज्यादातर कार्यक्रम होते हैं। मसलन- गढ़वाली, कुमाऊँनी, जौनसारी भाषाओं में।
ख़ैर ! .. अब आज की बतकही का रुख़ अलग दिशा में मोड़ते हैं .. बस यूँ ही ...
( II ) :-
आगामी शुक्रवार यानि 21.04.2023 को रात आठ बजे आप सभी को मिलवाएंगे हम हमारी "मंझली दीदी" से .. बस यूँ ही ...
आप भी मिलना चाहेंगे क्या ? .. आयँ !! ... कहीं आप सभी शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय जी की "मंझली दीदी" या फिर उस पर आधारित ऋषिकेश मुख़र्जी जी के निर्देशन में बनी श्वेत-श्याम फ़िल्म की तो नहीं सोचने लग गये ?
ना, ना .. हम तो उपन्यास और लघुकथा की मंझली बहन जी यानि मंझली दीदी- "कहानी" की बात कर रहे हैं .. हाँ ! .. और नहीं तो क्या ... अब अगर आपको भी उस कहानी से रूबरू होनी है, तो 21.04.2023/शुक्रवार के पहले अपने जीवन की दिनचर्या वाली आपाधापी के बीच मौका मिले तो .. आप सर्वप्रथम ...
1) अपने Mobile में *Play Store* से *newsonair* App को Download कर लीजिए।
2) फिर उसको Open कर के उसकी दायीं ओर सबसे ऊपर कोने में उपलब्ध दर्जनों भाषाओं के विकल्पों में से *हिन्दी (Hindi)* भाषा वाले Option को Select कर लीजिए।
3) उस के बाद बायीं ओर सबसे ऊपर वाली तीन Horizontal Lines को Click करने पर उपलब्ध Options में से तीसरे Option - *Live Radio* को Select कर लीजिए।
4) इस प्रक्रिया से खुले Web Page को नीचे की तरफ Scroll करते हुए Alphabetically क्रमवार A से U सामने आने पर *U* से *Uttarakhand* आते ही उसके अंतर्गत तीन Options में से एक *Dehradun* को Click कर लीजिए।
5) अब आप फुरसत के पलों में तन्हा-तन्हा या मित्रों के साथ या फिर सगे-सम्बन्धियों के साथ *आकाशवाणी, देहरादून* से प्रसारित होने वाले अन्य मनपसंद कार्यक्रमों का भी लुत्फ़ ले सकते हैं।
( III ) :-
परन्तु अब ऐसा नहीं हो, कि आप प्रसार भारती के अन्य मनोरंजक कार्यक्रम सुनने के चक्कर में, इस आने वाले शुक्रवार यानि 21.04.2023को हमारी मंझली दीदी यानि हमारी कहानी से मिलना आप भूल जाएँ .. आपको तो पूरी तन्मयता के साथ सुन कर जानना ही चाहिए .. ये जानने के लिए कि ...
१) वह कौन सी भाषा है, जो बहुत ही कंजूस है ?
२) किसी लड़की का मायका और ससुराल एक ही शहर में हो, तो क्या-क्या होता है ?
३) दीपू अपने जन्मदिन के केक कटने के पहले ही सो क्यों गया था ?
४) पाँच वर्षीय सोमू के किस सवाल से उसके पापा किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये थे ?
५) जातिवाचक संज्ञा भला कैसे और कब व्यक्तिवाचक संज्ञा बन जाता है ?
६) सोमू के पापा उसकी मम्मी यानि अपनी धर्मपत्नी को "तथाकथित" अर्धांगिनी क्यों कहते हैं भला ?
७) सोमू और उसके पापा के मन में पिछले बीस सालों से हो रहे उथल-पथल को शान्त करने में आप सभी मिलकर कैसे सहयोग कर सकते हैं भला ?
अक़्सर जाने-अंजाने बुद्धिजीवी लोग भी किसी घटित "घटना" को भी "कहानी" कह देते हैं। मसलन- लोग कहते हुए सुने जाते हैं कि - "तुम मेरी दुःख भरी कहानी सुनोगे तो रो पड़ोगे शायद।" जबकि वह अपने जीवन की दुःखद घटनाओं को बतलाना चाहता या चाहती है। पर मेरी कहानी के सन्दर्भ में दरअसल ... "कहानी" में "घटनाओं" का समागम है .. सच्ची कहें तो .. सच्ची घटनाओं का समागम है। आत्मसंस्मरण ही समझ लीजिए .. बस यूँ ही ...
( चित्र साभार - उत्तराखंड के "धाद" नामक संस्था से)
फूलदेई
थका-हारा हुआ-सा
धरे हुए हर आदमी,
अपने-अपने काँधे पर
अपनी-अपनी धारणाओं की लाठी,
बँधी हुई है जिनमें भारी-सी
उनके पूर्वजों की
पैबंद लगी एक गठरी,
है जिनमें सहेजे हुए अनेकों
परम्पराओं, प्रथाओं
और रीति रिवाजों की पोटली।
हर परम्परा,
रीति रिवाज, प्रथा,
जो बने किसी की व्यथा
या हो फिर वो
किसी की भी हंता,
बिसरानी ही चाहिए
शायद उन्हें, जैसे छोड़ी या
छुड़ाई गयी थी सती प्रथा कभी,
और छोड़नी चाहिए आज ही
परम्परा हमें बलि या क़ुर्बानी की भी।
है भला ये यहाँ विडंबना कैसी
उत्तराखंड के पहाड़ों में भी ?
करते तो हैं यूँ बच्चे कृत
पुष्पों के हनन का,
पर कहते हैं सभी कि ..
है फूलदेई* बाल पर्व सृजन का।
हनन को सृजन कहने की,
है भला ये परम्परा भी कैसी ?
बल्कि समझाना चाहिए बच्चों को,
कि लगते हैं सारे पुष्प भले डाली पर ही।
माना .. ब्याही जाती हैं बेटियाँ
भरी आँखों से ख़ुशी-ख़ुशी,
पर है क्यों भला ये
परम्परा कन्यादान की ?
गोया वो बेटियाँ ना हुईं,
हो गईं निर्जीव वस्तु कोई
या फिर कोई निरीह पशु-पंछी।
बेहतर हो अगर रक्तदान को भी
मिल कर कहें रक्तदान नहीं,
बल्कि कहें .. रक्तसाझा हम सभी।
मिथक है या मिथ्या कोई, कि
है जुड़ा दान से तथाकथित पुण्य सारा।
कहें ना क्यों हम, हर दान को साझा
और हर साझा हो कर्तव्य हमारा।
सुलगा कर सारी परम्पराएँ पैबंद लगी
ये दफ़न या दाह संस्कार जैसी,
करने चाहिए मृत शरीर या अंग साझा
ताकि मिले किसी को जीवन या
मिले किसी दृष्टिहीन को आँखों की रोशनी।
साहिब !!! कहिए ना देहसाझा, देहदान को भी .. बस यूँ ही ...
[ फूलदेई* - ब्रह्माण्ड में होने वाली तमाम ज्ञात-अज्ञात भौगोलिक घटनाओं में से एक है - संक्रांति; जिसके तहत कृषि, प्रकृति और ऋतु परिवर्तन का मुख्य कारक - सूरज हर महीने अपना स्थान बदल कर खगोलीय या ज्योतिषीय मानक के अनुसार तय बारह राशियों में से, एक राशि से दूसरे राशि में प्रवेश कर जाता है। यूँ तो सर्वविदित है, कि सौर पथ वाले खगोलीय गोले को बारह समान भागों यानि बारह राशियों में बाँटा गया है और सालों भर इन्हीं राशियों, जिनमें सूर्य प्रवेश करता है, उन्हीं के नाम के आधार पर ही बारह संक्रांतियों का नामकरण किया गया है।
हिन्दू धर्म के लोगों द्वारा संक्रांति को वैदिक उत्सव के रूप में भारत के कई इलाकों में बहुत ही धूम-धाम के साथ मनाया जाता है। यूँ तो पौराणिक मान्यताओं के आधार पर संक्रांति के अलावा भी कई अन्य भौगोलिक घटनाओं .. मसलन - ग्रहण, पूर्णिमा, अमावस्या या एकादशी जैसी तिथियों को भी स्नान-ध्यान, पूजा-अर्चना, दान-पुण्य, मोक्ष-धर्म इत्यादि से जोड़ा गया है।
इन बारह संक्रांतियों में से जनवरी माह में 14 या 15 तारीख़ को पूरे भारत में त्योहार की तरह "मकर संक्रांति" मनाया जाता है, जिसे बिहार-झारखण्ड में "दही-चूड़ा" के नाम से भी जाना जाता है। इसके एक दिन पहले पँजाब-हरियाणा में या अन्य स्थानों पर भी बसे सिखों द्वारा लोहड़ी नाम से त्योहार मनाया जाता है। साथ ही 14 या 15 तारीख़ को ही अप्रैल महीने में "मेषसंक्रांति" को भी त्योहार के रूप में मनाया जाता है। जिसे पंजाब में बैसाखी, उड़ीसा में पाना या महाबिशुबा संक्रांति, बंगाल में पोहेला बोइशाख, बिहार-झारखण्ड में सतुआनी जैसे प्रचलित नामों से जाना जाता है।
इन दो प्रमुख संक्रांतियों के अलावा 14 या 15 तारीख़ को ही जून महीने में "मिथुन संक्रांति" को भारत के पूर्वी और पूर्वोत्तर राज्यों में धार्मिक मान्यताओं के आधार पर पृथ्वी को एक माँ के रूप में मानते हुए, उनके वार्षिक मासिक धर्म चरण के रूप में मनाया जाता है, जिसे राजा पारबा या अंबुबाची मेला के नाम से भी जानते हैं और प्रायः 16 जुलाई को "कर्क संक्रांति" भी कहीं-कहीं मनाया जाता है।
साथ ही प्रायः 16 दिसम्बर को पड़ोसी हिन्दू देश दक्षिणी भूटान और नेपाल में "धनु संक्रांति" को बड़े ही धूम-धाम से मनाते हैं।
परन्तु इन सब से अलग "मीन संक्रांति" को त्योहार के रूप में मनाए जाने की प्रथा के बारे में उत्तराखंड के देहरादून में रहने के दौरान इसी वर्ष अपने जीवन में पहली बार जानने का मौका मिला है। इस दिन फूलदेई, फूल सग्यान, फूल संग्रात या फूल संक्रांति नाम से स्थानीय त्योहार मनाया जाता है। चैत्र माह के आने से सम्पूर्ण उत्तराखंड में अनेक पहाड़ी पुष्प खिल जाते हैं, मसलन - प्योंली, लाई, ग्वीर्याल, किनगोड़, हिसर, बुराँस।
यूँ तो देहरादून के शहरी माहौल में यह त्योहार लुप्तप्राय हो चुका है, परन्तु सुदूर पहाड़ों में इसे आज भी मनाया जाता है। इसे मुख्य रूप से बच्चे मनाते हैं, उन बच्चों को फुलारी कहते हैं। सुबह-सुबह अपने-अपने घरों से टोली में निकले बच्चे खिले फूलों को तोड़ कर एकत्रित करते हैं और घर-घर जाकर दरवाजे पर वर्ष भर की मंगल कामना करते हुए वो तोड़े पुष्पों को रखते जाते हैं। इसमें बड़ों का भी योगदान रहता है। बड़े लोग बच्चों को आशीर्वाद के साथ-साथ त्योहारी के रूप में कुछ उपहार भी देते हैं। इन सारी पारम्परिक प्रक्रियाओं के दौरान फुलारी बच्चे फूल डालते हुए कुमाउँनी में गाते हैं–
“ फूलदेई छम्मा देई ,
दैणी द्वार भर भकार.
यो देली सो बारम्बार ..
फूलदेई छम्मा देई
जातुके देला ,उतुके सई .."
और गढ़वाली में गाते हैं –
" ओ फुलारी घौर.
झै माता का भौंर .
क्यौलिदिदी फुलकंडी गौर .
डंडी बिराली छौ निकोर.
चला छौरो फुल्लू को.
खांतड़ि मुतड़ी चुल्लू को.
हम छौरो की द्वार पटेली.
तुम घौरों की जिब कटेली... "
सनातनी परम्पराओं, प्रथाओं और रीति रिवाज़ों की तरह ही इस भौगोलिक घटना - मीन संक्रांति को भी तथाकथित पौराणिक शिव-पार्वती, नंदी और शिव गणों जैसे पात्रों से जोड़ दिया गया है। एक अन्य मान्यता के मुताबिक इस त्योहार को एक स्थानीय लोककथा के आधार पर प्योंली नामक एक वनकन्या से भी जोड़ कर देखा जाता है। यहाँ विस्तार से इन पौराणिक या लोककथा को लिखना समय की बर्बादी ही होगी .. शायद ... क्योंकि इन सारी मान्यताओं के महिमामंडन का विस्तारपूर्वक उल्लेख गूगल पर उपलब्ध है। ]