बस यूँ ही ...
हवा के लिए मन में उठे कुछ अनसुलझे सवाल .. मन को मंथित करते कुछ सवाल .. जिनके उत्तर की तलाश के उपकर्म को आगे बढ़ाते हुुए .. हवा के ही कुछ मुहावरों में पिरो कर ... बस .. एक प्रयोग .. बस यूँ ही ...
" वाह .. वाह ...
वाह्ह्ह्ह् री .. हवा !!! ...
हम मानवों को भला
किस की हवा लग गई ?
बस .. सब की हवा पलट गई
कोई अवतारों की ख़ातिर
तो कोई पैगम्बरों के नाम पर
हवा से लड़ने लगे हैं सभी
समानुभूति की तो सोचो ही मत
सहानुभूति भी तो अब हवा हो गई ...
वाह .. वाह ...
वाह्ह्ह्ह् री .. हवा !!! ...
अनसुलझी पहेली तू सुलझा ना जरा
है क्या बला भला ये रेखा हाथ की,
ललाट पर अंकित किस्मत अनदेखी,
पिछले जन्म की कर्म-कमाई
या फिर इसी जन्म के अपने-अपने
पाप-पुण्य की खाता-बही
जो .. कोई हवा में उड़ रहा यहाँ
और हवा पी कर रह रहा कोई ...
वाह .. वाह ...
वाह्ह्ह्ह् री .. हवा !!! ...
हवा निकाल दे कोई बुद्धिजीवी किसी की
अतः उनके हवा से बातें करने से पहले
सोचा क्यों ना आज तुम्हीं से
बात कर लें हम रूबरू .. आमने-सामने
ऐ री हवा ! .. बतला ना जरा ..
अपनी दास्तान .. अपनी पहचान भला
जाति-धर्म बतला और .. अपना ठौर-ठिकाना
या है तू नास्तिक-अधर्मी या .. कोई बंजारा ? ... "
" हा-हा-हा-हा
वाह्ह्ह्ह्ह् रे मानव ! वाह ..
माना मेरी दिशाएँ हैं बदलती
पर बदली है तूने तो धरती की दशा
मैं तो फक्कड़, घुमक्कड़ .. मेरा क्या
निकलूँ जो कभी फेफड़े से पीटर के
समा जाता हूँ कभी सलमा की साँसों में
तो कभी गुजरूँ नथुनों में नीलेश के
राष्ट्रीय ध्वज हो या झंडा ताज़िया संग मुहर्रम का
या फिर रामनवमी का कोई महावीरी झंडा
एक जैसा ही तो मैं सब को हूँ फहराता
कब किसी सीमा पर रुकता भला मैं मतवाला
अब मेरी जाति-धर्म ..
तू ही बतला ना जरा " ...
" वाह .. वाह ...
वाह्ह्ह्ह् री .. हवा !!! ... "