इन उदासी भरे पलों में आओ कुछ रुमानियत जीते हैं ..
मायूसी भरे लम्हों में यूँ कुछ सकारात्मक ऊर्जा पीते हैं ..
आओ ना !... ( कोरोना की दहशत और लॉकडाउन की मार्मिक अवधि में ... ). #(१) हर पल तुम :-
गूँथे आटे में ज़ब्त
पानी की तरह
मेरे ज़ेहन में
हर पल तुम
रहते हो यहीं
चाहे रहूँ मैं जहाँ ...
लोइयाँ काटूँ जब
याद दिलाती हैं
अक़्सर तुम्हारी
शोख़ी भरी
गालों पर मेरे
काटी गई चिकोटियाँ ...
पलकें मूँदी हों
या कि खुली मेरी
घूमती रहती है
छवि तुम्हारी
मानो गर्म तेल में
तैरती इतराती पूड़ियाँ ...
#(२) तट-सा मन मेरा :-
निर्झर से सागर तक
किसी और की होकर
शहर-शहर गुजरती
बहती नदी-सी तुम
बहती धार-सा
प्यार तुम्हारा ...
छूकर गुजरती धार
उस अजनबी शहर के
तट-सा मन मेरा
बहुत है ना .. जानाँ !
भींग जाने के लिए
आपादमस्तक हमारा ...
" हेलो .. सर ! एक वेब सीरीज बनने वाली है .. आप इसमें ... चाय वाले चाचा का रोल किजिएगा .. !? " - लगभग एक साल पहले एक दिन शाम के लगभग 8.15 बजे आम दिनचर्या के अनुसार ऑफिस से आकर फ्रेश हो कर अगले रविवार को होने वाले एक ओपेनमिक (Openmic) के पूर्वाभ्यास करने के दौरान ही बहुत दिनों बाद ओपेनमिक के ही युवा परिचित 18 वर्षीय आदित्य द्वारा फोन पर यह सवाल सुन रहा था।
उसके सवाल में एक हिचक की बू आ रही थी। उसके अनुसार शायद एक मामूली चाय वाले के अभिनय के लिए मैं तैयार ना होऊं। पर मेरा मानना है कि अभिनय तो बस अभिनय है, चाहे वह किसी मुर्दा का ही क्यों ना करना हो।
" हाँ ! ... क्यों नहीं ... कब और कहाँ आना है शूटिंग के लिए ... और स्क्रिप्ट ? " - मन ही मन सोच रहा था .. अंधे को और क्या चाहिए .. बस दो आँख ही तो।
" वो सब आपको बतला देंगे , अभी पूरे 5 एपिसोड में से 3 और 5 वाले का स्क्रिप्ट आपको व्हाट्सएप्प पर भेज दे रहे हैं .. जिनमें आपका रोल है। आप देख लीजिएगा। "
" देख लीजिएगा " का मतलब था - खुद से उस चाय वाले पात्र का चरित्र को समझना, उसका परिधान और रूप सज्जा सब कुछ खुद को ही तय करना था।
फिर एक दिन शाम में ही आदित्य का फिर से फ़ोन आया - " सर ! परसों सन्डे है और आप सुबह 5.00 बजे आ जाइएगा NIT, Patna वाले गाँधी घाट पर गंगा किनारे ही शूटिंग करेंगे। "
मैं सुबह 4.15 बजे ही घर से नहा-धोकर लगभग 10 किमी की दूरी तय कर के गंतव्य पर नियत समय पर 5.00 बजे तक पँहुचने के लिए निकल पड़ा। इस विधा के जानकार बतलाते हैं कि धूप निकलने के पहले सॉफ्ट लाइट में फोटोग्राफी अच्छी आती है। 5.30 तक भी जब किसी का अता-पता नहीं चला घाट किनारे तो आदित्य को फ़ोन मिलाया। तब पता चला कि फ़िल्म के मेन हीरो साहब अभी जस्ट सो कर उठे हैं। आधे-एक घन्टे में तशरीफ़ ला रहे हैं। ये हम भारतीयों की एक आदत-सी है, समय पर मतलब एक-आध घन्टे विलम्ब से ... मानो अपना भारतीय रेल।
खैर ! सुबह का समय, गंगा का किनारा, पौ फटती सुबह, मोर्निंग वॉक करते लोग, कुछ स्वर्ग की मनोकामना में गंगा-स्नान करते लोग ... कुछ NIT, Patna के युवा छात्र-छात्राओं की चहलकदमियाँ ... पड़ों पर पक्षियों का कलरव ... मतलब कुल मिला कर उन लोगों का देर करना खल नहीं रहा था। इन सब के अवलोकन के साथ-साथ बीच-बीच में अपना डॉयलॉग कभी स्क्रिप्ट का प्रिंट देख कर तो कभी मन ही मन मुँहजुबानी दुहरा रहा था।
सभी आए .. सब से परिचय हुआ .. एक फोटोग्राफर सह निर्माता, दूसरा नायक, तीसरा सह-कलाकार .. इन तीनों से पहली बार मिल रहा था। चौथा इन सब से मिलाने वाला आदित्य। शूटिंग चालू हुई .. एक ही दिन में 3रे और 5वें - दोनों एपिसोड जिनमें मेरा अभिनय था ..दो कलाकारों के साथ .. वह आज ही हो जाना था, क्योंकि रविवार के अलावा मुश्किल होता है मेरे लिए समय साझा करना।
सब ठीक-ठाक हो गया। फिर दो-तीन दिन ऑफिस से आने के बाद देर रात खा-पी कर निर्माता के घर में बने स्टूडियो के लिए जाना पड़ा -डबिंग करने के लिए। मंचन और अभिनय का अनुभव तो था पर डबिंग का जीवन का यह पहला अनुभव था। बहुत रोमांचक लग रहा था फ़िल्म रिकॉर्डिंग में चल रहे होठों के अनुसार डॉयलॉग बोलना .. बार-बार रिटेक के बाद फाइनल होना। इस तरह पाँचों एपिसोड अगले हर शनिवार के पहले डबिंग के बाद अंततः पूरा किया जाता क्योंकि पाँच शनिवार तक लगातार उसका प्रसारण किया गया।
पर कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। एक दिन आदित्य का फिर फ़ोन आया - " सर ! अशेष सर ( इस नाटक के रचनाकार ) को समय नहीं है, आप स्क्रिप्ट लिखिएगा ? अंकित सर( निर्माता ) इसका एक और एपिसोड बना कर विस्तार देना चाहते हैं और इसका हैप्पी एंडिंग (सुखान्त ) करना चाहते हैं। उस में आपका भी रॉल रहेगा। फिर आना होगा NIT घाट आपको सुबह-सुबह अगले रविवार। "
" ठीक है भाई .. कोशिश करता हूँ ... "
फिर क्या था 6ठे एपिसोड के स्क्रिप्ट का 60% लिखा, कम से कम अपने सीन वाले संवाद के लिए। फिर सब कॉन-कॉल एक रात जुड़े , सब ने script (सम्वाद) का लेखन सुना। सब ने हामी भरी और फिर वही सिलसिला 6ठे एपिसोड के लिए एक रविवार के सुबह गंगा के गाँधी-घाट किनारे ही रिहर्सल और शूटिंग एक साथ .. फिर रात में डबिंग और फाइनली प्रसारण ...
मतलब 3- 5 मिनट के चाय वाले चच्चा वाले पात्र के अभिनय के लिए इतना पापड़ बेलना पड़ता है ... बिना मेहनत मिलता भी क्या है ... है ना !?
फिलहाल लॉकडाउन के लम्हों में इस छः एपिसोडों में बने इस वेब-सीरीज का मजा लीजिए ...
हाँ ... याद है ना !? ... 3रे, 5वें और 6ठे एपिसोड में मैं भी हूँ ... कड़क चाय वाले चच्चा (चाचा) के रूप में ...
( सारे के सारे 6 एपिसोड आपके सामने है .. बस आप अपनी सुविधानुसार या समयानुसार एक ही साथ या अलग-अलग समय पर देख लीजिएगा .. पर देखिएगा जरूर .... ).
अपनी 22-23 वर्षों की घुमन्तु नौकरी के दौरान हर साल-दर-साल फाल्गुन-चैत्र के महीने में सुबह-सुबह कभी रेलगाड़ी में धनबाद से
बोकारो होते हुए राँची जाने के दरम्यान दौड़ती-भागती रेलगाड़ी के दोनों ओर तो कभी बस में बैठ कर राँची से टाटा या कभी बस से ही कभी टाटा से चाईबासा तो कभी देवघर से दुमका जाते हुए रेलगाड़ी या बस की खिड़की पर अपनी कोहनी टिकाए हुए मन में सप्ताह-पन्द्रह दिनों तक के लिए परिवार वालों से .. अपनों से दूर रहने का दर्द लिए हुए और अजनबी शहरों में अजनबियों के साथ मिल कर काम के लक्ष्य हासिल करने की कई नई योजनाएँ लिए हुए अनेकों बार पलाश के अनगिनत पत्तियाँविहीन वृक्ष-समूहों पर पलाश, जिसे टेसू भी कहते हैं, के लाल-नारंगी फूलों को निहारने का और इन पर मुग्ध होने का मौका मिला है।
किसी रात राँची से धनबाद लौटते हुए रेलगाड़ी के धनबाद की सीमा रेखा में प्रवेश करते ही वर्षों से झरिया के सुलगते कोयले खदानों से
उठती लपटें नज़र आती और दहकते अंगारों के वृन्द नज़र आते। फिर सुबह के पलाश के फ़ूलों का रंग और रात के दहकते कोयलों का रंग का एक तुलमात्मक बिम्ब बनता था तब मन में। उन 23 सालों का सफ़र और बाद का लगभग 5 साल यानी 28 सालों बाद आज उसे शब्द रूप दे पा रहा हूँ ...तो वे सारे पल चलचित्र की तरह जीवंत हो उठे हैं ...
( वैसे आपको ज्ञात ही होगा कि यह पलाश अपने झारखण्ड का राजकीय फूल है। )
Amity University में अध्ययनरत जनसंचार (Mass Communication) की एक छात्रा द्वारा लिपिबद्ध की गई और स्वयं उसके खुद के लिए बनाए गए अपने College के एक Project work के तहत उसी की बनाई एक Google Drive Film - " पर्ची " के लिए मेरे अभिनय का एक प्रयास ... फिल्मांकन के दिन तब तो लॉक-डाउन नहीं था, बस उस एक रविवार के दिन का 9 से 10 घंटे लगे थे इस 3 मिनट की फ़िल्म के लिए। स्क्रिप्ट की सिटिंग रिहर्सल, डॉयलॉग याद करना, सहकलाकार को निर्देशन, रिटेक, दृश्य के अनुसार पोशाक का परिवर्तन ... मतलब कास्टिंग से The End तक ... सब कुछ एक ही दिन के 9 से 10 घंटे में ... उसी छात्रा की एक सहेली के घर, दूसरी किसी सहेली का कैमरा और कैमरा उसी छात्रा के एक बाल-मित्र ( Boy Friend ) के हाथ में ..
एक और ख़ास बात ... इस Google Drive Film को आप लोगों की सुविधा के लिए इसे Youtube Chhanel में परिवर्तित कर के "पाँच लिंकों का आनंद" ब्लॉग टीम की यशोदा जी ने अपने Youtube Channel - Yashoda Agrawal पर साझा करके मदद कीं हैं।
बस 3 - 4 मिनट ही आपका क़ीमती समय चाहिए ... तो बस ... शुरू हो जाइए ...
आज Lock Down के 7वें दिन अगर आपके पास समय हो तो ... आप थोड़ा समय दीजिए और ... 1989 में हुए भागलपुर दंगे के बाद उस घटना के आधार पर काल्पनिक स्वरचित लिपि के आधार पर 2018 में स्वएकलअभिनित Youtube Film - "मुआवज़ा" को ... इस एकलअभिनय के पागल चरित्र का रूप-सज्जा और पोशाक भी स्वयं का ही किया हुआ है ...
अब मत कह दीजिएगा कि ... अपने मुँह मियां मिट्ठू ...☺
बस अब अपना 7-8 मिनट क़ीमती समय मुझे साझा कीजिये ना .. बस यूँ ही ...
( इस उपर्युक्त यूट्यूब की लिंक के अलावा नीचे की लिंक वाली नीली लकीर से कुछ बड़ी फ़िल्म चलेगी ... ).
अनायास अनचाहे रूप से वैश्विक स्तर पर आई कोरोना नामक वायरस वाली विपदा या यूँ कहें विश्व वायरस युद्ध ने पूरे विश्व को एक मंच पर ला खड़ा किया है या यूँ कहें कि ला पटका है।
अमीर-गरीब के भेद, उच्च-नीच के भेद, जाति-धर्म के बँटवारे, देश-विदेश की सीमा-रेखाएँ, मन्दिर-मस्जिद-गुरूद्वारे-चर्च की असीम महिमाएँ ... इन सब को झुठला कर केवल और केवल सफाई, सावधानी, सामाजिक दूरी, लॉकडाउन और .. और अन्ततः विज्ञान के दरवाजे पर ला खड़ा कर दिया है। अस्पताल और वहाँ होने वाली जाँच, इलाज इत्यादि सभी ही/भी तो विज्ञान की ही देन है।
या यूँ कहें कि सत्यता से रू-ब-रू करवा दिया है। क़ुदरत या प्रकृति के बाद विज्ञान ही सबसे बलवान है .. बाकी सारी मिथक या मिथ्या वाली कोरी कल्पना बेमानी है।
किसी भी दुष्ट देश या समाज की विषाक्त सोचों के परिणाम से उपजे क़हर से लड़ने में हमारे-आपके हौसलों के साथ-साथ क़ुदरत और क़ुदरत से उपजा विज्ञान ही मदद कर पाता है।
ऐसे मौके पर इन से जुड़ी तीन भूली-बिसरी पुरानी बातों की यादें कौंधती है दिमाग में अनायास ही ...
(१) # पहली :-
पहली भूली-बिसरी बात की याद आती है ... हाई स्कूल में अर्थशास्त्र विषय के तहत पढ़ाया गया एक अध्याय " माल्थस जनसंख्या सिद्धान्त " जिसे यूनाइटेड किंगडम के सामजिक अर्थशास्त्री - माल्थस जी की 1779 में लिखी "जनसंख्या के सिद्धान्त" नामक किताब से ली गई थी।
जिसमें विश्लेषण किया गया है कि संसाधनों की उपलब्धता से जनसंख्या की वृद्धि होती है और वो भी ज्यामितीय या गुणोत्तर अनुपात में होता है। संसाधनों से समसामयिक मतलब मूलतः प्राकृतिक संसाधनों से था। उनके मतानुसार जनसंख्या एवं संसाधनों की अनुपात की तीन अवस्थाएं होती हैं।
1. जब संसाधन उस समय की जनसंख्या से अधिक हो
2. जब संसाधन और जनसंख्या दोनों लगभग समान हो
3. जब संसाधन के तुलना में जनसंख्या अधिक हो
इनमें से तीसरी अवस्था में जनसंख्या वृद्धि एक भयावह चुनौती बन कर सामने आती है। तब प्रकृति जनसंख्या को पूर्ववत लगभग संसाधन के समान करने या नियंत्रित करने के लिए युद्ध, प्राकृतिक आपदा, भुखमरी या महामारी द्वारा उपाय करती है।
वैश्विक स्तर पर कालान्तर में हालांकि माल्थस के सिद्धान्त को अस्वीकृत कर दिया गया।
(२) # दूसरी :-
दूसरी भूली-बिसरी बात की याद आती है .. अभी हाल ही में गुजरे वैश्विक रंगमंच दिवस के अवसर पर कि कभी विख्यात रहे रंगमंच कलाकार और नास्तिक डॉ श्रीराम लागू जी के वर्षों पुराने हमारे कॉलेज के जमाने में दिए गए दो वक्तव्य -
(१) " मैं ईश्वर को नहीं मानता, मुझे लगता है कि समय आ गया कि ईश्वर को रिटायर कर दिया जाए। " और ...
(२) " लोग कहते हैं कि भगवान ने इंसान को बनाया है; पर मैं मानता हूँ कि इंसान ने भगवान को बनाया है। "
आपको शायद ही यह ज्ञात हो कि वे अपने मन और रूचि की आवाज़ सुनकर आँख-नाक-गला के सर्जन वाले अपने जमे-जमाए पेशे को छोड़ कर अपने 42 वर्ष की उम्र में लगभग 1969-70 के आसपास पूर्णरूपेण मंच और फ़िल्म से जुड़ गए थे।
फिर साथ ही जर्मनी के महान दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे की प्रसिद्ध उक्ति की भी याद आती है कि -
" ईश्वर की मृत्यु हो गई है। "
साथ ही उनका कथन भी गूँजता है कि -
" व्यक्ति को रूढ़ियों का नहीं श्रेष्ठ पुरुषों का अनुकरण करना चाहिए। "
(३) # तीसरी :-
तीसरी भूली-बिसरी बात की याद आती है ... फ़रवरी 1997 में प्रदर्शित फ़िल्म - " यशवंत " में समीर जी का लिखा और आनन्द श्रीवास्तव का संगीतबद्ध किए हए गाने की , जिसे गाया था - नाना पाटेकर जी ने। इसे फिल्माया भी गया था नाना पाटेकर जी के धाँसू अभिनय के साथ। हम में से अधिकांश लोग गाने के बोल पर कम धुनों पर ज्यादा ध्यान देते हैं। वैसे गज़लप्रेमी लोग विशेष कर गाने के बोल पर ध्यान देते हैं।
इसकी अतुकान्त पंक्तियों पर आज भी नज़र दौड़ाएंगें तो शायद आज भी आप इसकी समानुभूति से हाँफने और काँपने लगें शायद .. आपकी इन पंक्तियों को टटोलती नज़र शायद भींग जाए ...
तो आइए एक बार पढ़ते हैं .. फिर इस गाने को साझा किए गए लिंक पर सुनते भी हैं ...
"एक मच्छर, एक मच्छर साला आदमी को हिजड़ा बना देता है
एक खटमल पूरी रात को अपाहिज कर देता है
एक मच्छर साला आदमी को हिजड़ा बना देता है
मत आओ मेरे पास रहने दो मुझे अकेला
लड़ने दो मुझे अपनी लड़ाई
कभी न कभी तो झूठ का
गाला घोंटेगी सच्चाई
लेकिन साला एक मच्छर आदमी को हिजड़ा बना देता है
सुबह घर से निकलो
भीड़ का एक हिस्सा बनो
शाम को घर जाओ
दारू पीओ
और सुबह तलक फिर एक बार मर जाओ
क्यों कि आत्मा और अंदर का इंसान मर चूका है
जीने के घिनौने समझौते कर चुका है
साला एक मच्छर आदमी को हिजड़ा बना देता है
ऊँची दुकान फीके पकवान
खद्दर की लंगोटी
चाँदी का पीकदान
सौ में से अस्सी बेईमान
फिर भी मेरा देश महान
टोपी लगाये मच्छर कहता है
देश के लोगों में
समता की भावना आ रही है
इसीलिए तो बड़ी मछली
छोटी को खा रही है
हमारे चुने हुए कुत्ते
हमे ही खाते हैं
हमारे हिस्से की रोटियाँ
आपस में बाँटते हैं
अमानुष गंध से भरी उनकी
आवाज से नंगे रस्ते काँपते है
कल पैदा हुए बच्चे
एक सांस लेते हुए हाँफते हैं
शैतानों की नाजायज औलाद
तहलका मचा रही है
और हम हम भगवान के
चहेते जानवर इंसान
ज़िन्दगी को गाली बनाये बैठे हैं .. क्या करें?
साला एक मच्छर आदमी को हिजड़ा बना देता है
गिरो सालों .. गिरो, गिरो, गिरो , लेकिन गिरो तो
उस झरने की तरह जो पर्वत की ऊंचाई से
गिर के भी अपनी सुंदरता खोने नहीं देता
जमीन के तह से मिल के भी
अपने अस्तित्व को नष्ट नहीं होने देता
लेकिन इतना सोचने के लिए
वक़्त है किसके पास
साला एक मच्छर आदमी को हिजड़ा बना देता है
मंदिर-मस्जिद की लड़ाई में मर गये लाखों इंसान
धर्म और मजहब के नाम पर
हो गए हजारों कुर्बान
जिस ने अन्याय के विरोध में बाली को मारा
रावण को मौत के घाट उतारा
पुण्य को पाप से उभारा
मुझे उस राम की तलाश है मगर
लगता है इस युग के
राम को आजीवन वनवास है
क्यों कि आदमी को हिजड़ा बना देता है ये मच्छर
जिसका कीचड़ों में घर है
नालियों में बसेरा है
इसकी पहचान
ये है कि .. ये न तेरा है .. न मेरा है
ये मच्छर हिजड़ा बना देगा
हिजड़ा बना देगा
कभी शैतान आएंगे
मेरे दरवाजे पर दस्तक देंगे
जहाँ की तलाशी लेंगे
फिर जल उठेंगे
उस वक़्त मैं डरूँगा नहीं
अपने शरीर को ढाल
हाथ को तलवार बनाऊँगा
एक न एक दिन तो
तुम मेरा हाथ चूमोगे
आज मुझे बदनाम करो नीलाम करो
नीलामी के लिए क्या है मेरे पास
बस जलते हुए आँसुओ का शैलाब
मगर तुम्हारी आखिरी गोली पर
मेरे दो साँसों के बीच का ठहराव
तुम्हें फ़ोकट में दूँगा
क्यों कि सालों एक मच्छर ने तुम्हें हिजड़ा बना दिया है...
फिलहाल आज घोषित 21 दिनों के लॉक डाउन का छठा दिन है ..अभी लॉकडाउन की इस अवधि में इस गाने का आंनद (?) लीजिए ...
अब ये मत कह दीजिएगा कि ... ये सर्वविदित कुतर्की .. हँसुआ के बिआह आ खुरपी के गीत गा रहा है ...
हाँ ... इस गीत के तर्ज़ पर कुमार विश्वास और राहत इंदौरी के नकल करने वाले कुछ नकलची रचनाकार बेशक़ पेरौडी गा कर ताली बटोर सकते हैं - " एक (साला) वायरस पूरे विश्व को निकम्मा बना देता है ..." ... ...