Monday, September 2, 2019

"एक सवाल पुरखों से" . ( तीज के बहाने - एक कविता ) ...

अपने सुहाग की दीर्घायु और
मंगलकामना करती हुई
तीज-त्योहार मनाने के बहाने
सम्प्रदाय विशेष की सारी सुहागिनें
निभाती हैं पुरखों की परम्परा और
विज्ञान की मानें तो बस अंधपरम्परा
साथ ही चौबीस वर्षों से
लाख रोकने पर भी
इसी समाज का एक अंग -
मेरी धर्मपत्नी भी मेरी बातों
और सोचों की कर के अवहेलना ...

मीठे-सोंधे मावा-सी अपनी
अनकही कई बातें जो
अपने मन की पूड़ी में बंद कर
गढ़तीं हैं यथार्थ की गुझिया
और अपनी दिनचर्या की
मीठी-मीठी लोइयों को
ससुराल की दिनचर्या के
काठ वाले साँचे में ढालने जैसी
थापती हैं साँचे पर ठेकुआ

कभी गर्म तवे या फिर कढ़ाई से
या कभी-कभी पकौड़ियाँ
या मछली तलते समय
गर्म तेल के छींटों से
अपनी हथेलियों या बाहों पर
कलाई से केहुनी तक उग आये
अनचाहे जले के कई दागों को
मेंहदी रच-रच के छुपाती हैं
कर के तीज-त्योहार का बहाना

सोचती हुई कि कभी-कभार ही सही
तीज-त्योहार में ही सही
साल भर संभाल कर रखे हुए संदूकों
या फिर ड्रेसिंग-टेबल के दराजों से
निकाले और खोले गए
शादी की सिन्दूरी रात वाले
काठ के सिंधोरे की तरह
काश ! ... कभी-कभार ही सही
निकाल पातीं ... खोल पातीं ...
सबके सामने बस बेधड़क
मन का कुछ अनकहा-अनजिया सपना

पर हर साल ... एक ही सवाल ...
अपनी धर्मपत्नी से तीज की शाम
आप सबों से भी है इस साल कि ...
"बचपन में होश सँभालने के बाद से
वैसे तो मेरे जन्म के पहले से ही
अपनी शादी वाले साल ही से
अम्मा हर साल तीज "सहती" थीं
आज पिछले बारह सालों से
काट रहीं हैं विधवा की दिनचर्या
क्यों भला !???...
कोई भी बतलाओ ना जरा !!!!!!!! ...

पड़ोस की "शबनम" चाची आज भी तो
खुश हैं पापा के उम्र के खान चाचा के साथ
बिना किसी भी साल तीज किये हुए
और वो "मारिया" आँटी भी तो
जो लगभग हैं अम्मा के उम्र की
जॉन अंकल के साथ जा रहीं चर्च
बिना नागा हर रविवार .. लगातार
बिना मनाए कभी भी तीज-त्योहार
क्यों भला !???...
कोई भी बतलाओ ना जरा !!!!!!!! ...

चलते-चलते मुझ बेवकूफ़ का
और एक सवाल पुरखों से कि
क्यों नहीं बनाए आपने एक भी
परम्परा पूरे वर्ष भर में ... जिसमें
पुरुष-पति भी अपनी नारी-पत्नी की
दीर्घायु और मंगलकामना की ख़ातिर
करता हो कोई तीज-त्योहार !??? ...

Sunday, September 1, 2019

सबक़ (एक कविता).

अपने घर ...  एक कमरे के
किसी कोने में उपेक्षित-सा पड़ा
अपने स्कूल के दिनों का
जर्जर-सा शब्दकोश
अपने सात वर्षीय बेटे के लिए
मढ़वाने पँहुचा था एक शाम
एक जिल्दसाज की दुकान

देखा वहाँ पुस्तकों की ढेर में
सफ़ेद से मटमैले हो चुके
बेहद पुराने-से
मढ़ने के लिए रखे हुए
साथ-साथ ... रामायण और कुरान

फेरता कम्पकंपाता हाथ
पूरी तन्मयता के साथ
वही बूढ़ा जिल्दसाज
जिन पर था लगा रहा
तूतिया मिली हरी गाढ़ी
लेई एक-समान

अनायास कहा मैंने -
" ज़िल्दसाज़ चचाजान !
काश ! दे पाती सबक़
आपकी ये छोटी-सी दुकान
उन दंगाईयों की भीड़ को
जो बाँट कर इंसान
बनाते हैं ... हिन्दू और मुसलमान ...




{ ना तो मैं कोई स्थापित रचनाकार हूँ, ना ही साहित्य या व्याकरण का दंभी ज्ञाता या पुरोधा हूँ। बस "शौकिया" लिखता हूँ। अतः आप सभी से अनुरोध है कि मेरी रचना की अशुद्धियाँ , मसलन - वर्तनी, लिंग, नुक़्ता, अनुस्वार में कोई भूल रह जाए तो ... '"उसे क़ुदरत द्वारा "स्टीफन विलियम हॉकिंग" को रचते समय की गई भूल की तरह स्वीकार कर लीजिये। शब्दों की भावना पढ़िए , उसकी अपंगता की खिल्ली मत उड़ाइए।"" } ...

Friday, August 30, 2019

चन्द पंक्तियाँ - (१४) - बस यूँ ही ...

(1)* नंगे अहसास
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हर अहसासों को
शब्दों का पोशाक
पहनाया जाए
ये जरुरी तो नहीं ...

कुछ नंगे अहसास
जो तन्हाई में
बस 'बुदबुदाए'
भी तो जाते हैं ...

(2)* रंगीन कतरनों में
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दर्जियों के
दुकानों से
रोज़ सुबह
बुहार कर
बिखेरे गए
सड़कों पर
बेकार
रंगीन
कतरनों में ...
अक्सर
ढूँढ़ता हूँ
पंख कतरे
अधूरे
बिखेरे
रंगीन
सारे सपने अपने ...

(3)* ज़ीने-सी
        ---------

आजकल एक
"ज़ीने"-सी
"जीने"
लगे हैं
शायद हम ...

अक़्सर तुम्हारे
अहसासों में
कभी 'उतर'
आता हूँ मैं ...

कभी 'चढ़'
आती हो
मुस्कुराती हुई
ख़्यालों में
मेरे तुम ...

Thursday, August 29, 2019

चन्द पंक्तियाँ - (१३) - बस यूँ ही ...

(1)#  कुछ रिश्ते होते हैं ...
 
कुछ रिश्ते होते हैं
माथे से उतार कर
बाथरूम की दीवारों पर
चिपकाई गई लावारिस
बिंदी की तरह

या कभी-कभी
तीज-त्योहारों या
शादी-उत्सवों के बाद
लॉकरों में सहेजे
कीमती गहनों की तरह

या फिर कभी
चेहरे या शरीर के
किसी अंग पर टंके हुए
ताउम्र मूक तिल या
मस्से की तरह

पर कुछ रिश्ते
बहते हैं धमनियों में
लहू की तरह
धड़कते है हृदय में
धड़कन की तरह
घुलते हैं साँसों में
नमी की तरह
मचलते हैं आँखों में
ख्वाबों की तरह
होते हैं ये रिश्ते टिकाऊ
जो होते है बेवजह ...
है ना !?...



(2)#  मन का भूगोल

भूगोल का ज्ञान -
पृथ्वी का एक भाग थल
तो तीन भाग जल
यानि इसके एक-चौथाई भाग जमीन
और तीन-चौथाई भाग है जलमग्न ...
मतलब जल के भीतर की दुनिया
अदृश्य पर बड़ी-सी ...

ठीक मानव तन की दुनिया
और मन की दुनिया की तरह ...
 तन की दुनिया दृश्य ... पर छोटी ...
दूसरी ओर मन की दुनिया अदृश्य ...
पर अथाह, अगम्य, अनन्त, विशाल
बड़ी ... बहुत बड़ी .... बहुत-बहुत बड़ी ...


है कि नहीं !!!?...

Wednesday, August 28, 2019

चन्द पंक्तियाँ - (१२) - बस यूँ ही ...

(१)* कपूर-बट्टियाँ

यथार्थ की पूजन-तश्तरी में
पड़ी कई टुकड़ों में बँटी
धवल .. निश्चल ..
निःस्पन्दित .. बेबस ..
तुम्हारे तन की कपूर-बट्टियाँ

अनायास भावनाओं की
बहती बयार संग बहती हुई
तुम्हारे मन की कपूरी-सुगन्ध
पल-पल .. निर्बाध .. निर्विध्न ..
घुलती रहती है हर पल ..
निर्विरोध .. निरन्तर ..
मेरे मन की साँसों तक

हो अनवरत सिलसिले जैसे
तुम्हारे तन की कपूर-बट्टियों के
मन की कपूरी-सुगन्ध में
होकर तिल-तिल तब्दील
मेरे मन की साँसों में घुल कर
सम्पूर्ण विलीन हो जाने तक ...

(2)*अक़्सर परिंदे-सी

हर पल ...
मेरे सोचों में
सजी तुम
उतर ही आती हो
अक़्सर परिंदे-सी
पर पसारे
मेरे मन के
रोशनदान से
मेरे कमरे के
उपेक्षित पड़े मेज़ पर
बिखरे कागज़ों पर

और ...
लोग हैं कि ..
बस यूँ ही ...
उलझ जाते हैं
कविताओं के
भाव और बिम्ब में

और तुम ...!!
सच-सच बतलाओ ना !
तुम्हें तो इस बात का
एहसास  है ना !??? ...



Saturday, August 24, 2019

दोनों प्रेम-प्रदर्शन में शिला ...

समान है दोनों में शिला
पर एक सफ़ेद क़ीमती
मकराना की शिला
तो दूसरी गहलौर के
पहाड़ की काली शिला

समान हैं दोनों में बाईस वर्ष
पर एक में जुड़वाता
बीस हज़ार मज़दूरों से
सम्पन्न बादशाह शाहजहाँ और
दूसरे में तोड़ता एक अकेले
अपने दम पर विपन्न मज़दूर
दिहाड़ी वाला दशरथ माँझी

एक अपनी कई बेगमों में
एक बेगम - मुमताज़ महल की
लम्बी बीमारी के दौरान किए
अपने वादे के लिए
उसके मरने के बाद
बनवाया यादगार .. नायाब और
सात अजूबों में एक अजूबा
मक़बरा ताजमहल जुड़वा कर शिला
जिसे निहारते पर्यटक रोज-रोज
देकर एक तय शुल्क देने के बाद

दूसरा अपनी इकलौती पत्नी
साधारण-सी फ़ाल्गुनी देवी के
पहाड़ के दर्रे से गिरकर मरणोपरान्त
स्वयं से किया एक 'ढीठ' वादे के साथ
अपनी छेनी-हथौड़े के बूते ही रच डाली
दो प्रखण्डों के बीच दूरी कम करती
एक निःशुल्क सुगम राह सभी
ख़ास से लेकर आमजनों के लिए

दो-दो प्रेम-प्रदर्शन ...दोनों प्रेम-प्रदर्शन में शिला
एक में जुड़ती शिला ... तो एक में टूटती शिला
एक सम्पन्न बादशाह तो एक विपन्न मजदूर ...
शिला जुड़वाता बादशाह तो तोड़ता मज़दूर
दोनों ही अपनी-अपनी चहेती के मरणोपरान्त
क्यों मुझे लग रहा बादशाह होता हर तरह से
एक अदना मज़दूर के प्रेम-प्रदर्शन से परास्त !?




Friday, August 23, 2019

चन्द पंक्तियाँ - (११) - बस यूँ ही ...

(1)@

गाहे- बगाहे गले
मिल ही जाते हैं
साफिया की
अम्मी के
बावर्चीखाने से
बहकी ज़ाफ़रानी
जर्दा पुलाव की
भीनी ख़ुश्बू और .....
सिद्धार्थ के अम्मा के
चौके से
फैली चहुँओर
धनिया-पंजीरी की
सोंधी-सोंधी सुगन्ध ...

काश !!! मिल पाते
साफिया और
सिद्धार्थ भी
इन ख़ुश्बू और
सुगन्ध की तरह
धर्म-मज़हब से परे
गाहे-बगाहे...

(2)@

हरसिंगार के
शाखों पर
झाँकते
नारंगी-श्वेत
फूल के
स्वतन्त्र सुगंध सरीखे
चहकती तो हो
हर रोज़ कहीं दूर ....
आँखों से ओझल ...

पर... महका जाती हो
मेरी शुष्क साँसों को ...
और सहला जाती हो
अपने मौन मन से
मेरे मुखर मन को
चुपके से, हौले से
बिना शोर किए ....

(3)@

साहिब !
आपका अपनी
महफ़िल को
तारों से
सजाने का
शौक़ तो यूँ
लाज़िमी है ...
आप चाँद
जो ठहरे

हम एक
अदना-सा
बन्जारा ही
तो हैं ...
एक अदद
जुगनू भर से
अपनी शाम
सजा लेते हैं ...