Thursday, April 30, 2020

मेरी ख़ातिर गाओ ना पापा ...



● (अ) ख़ासकर गर्मी की छुट्टियों की दुपहरी में :-
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Storytelling यानी हिन्दी में जिसे कहानीकारी कहते हैं। हाँ , यही कहते हैं इस विधा को। जिसमें Storyteller अर्थात कहानीकार अपनी बात प्रभावी तरीके से कहता है।
कहानीकारी आज की युवा पीढ़ी के लिए ओपन मिक (Open Mic ) के मंच से रूबरू या यूट्यूब के माध्यम से इंटरनेट के माध्यम से अपने दर्शकों को कोई भी कहानी, घटना, संस्मरण या आपबीती संवेदनशील और जीवंत तरीके से कहने के लिए या यूँ कहें कि श्रोता या दर्शक के दिल में उतरने के लिए एक सशक्त माध्यम है।
कहानीकारी या Storytelling संज्ञा भले ही नयी युवा पीढ़ी को नयी लग रही हो पर बात पुरानी है। मोबाइल और टी वी के आने से पहले तक के बाल या युवा पीढ़ी के लिए अपने-अपने बुजुर्गों द्वारा रातों में या छुट्टी के दिनों में ख़ासकर गर्मी की छुट्टियों की दुपहरी में भावपूर्ण सुनाई गई राजा-रानी की कहानियाँ या जातककथाएं कहानीकारी ही तो थी। जिसमें कई दफ़ा हम डरते भी थे, रोते भी थे, हँसते-हँसते लोटपोट भी होते थे। किसी चलचित्र की तरह कहानी का पात्र और घटनाएँ आँखों के सामने से गुजरती हुई महसूस होती थी।
हिन्दी विकिपीडिया के अनुसार कहानीकारी (Storytelling) कहानियाँ बनाने व सुनाने की समाजिक व सांस्कृतिक क्रिया होती है। हर संस्कृति की अपनी कहानियाँ होती हैं, जिन्हें मनोरंजन, शिक्षा, संस्कृति के संरक्षण और नैतिक सिद्धांतों के प्रसार के लिये सुनाया जाता है। कहानियों और कहानिकारी में कथानक, पात्रों, घटनाओं और दृष्टिकोणों को बुनकर प्रस्तुत किया जाता है।


● (ब) सारे मर्द भोंकार पार कर रोने लगते हैं :-
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वैसे तो एक-दो और भी सदियों पुराने सशक्त उदाहरण हैं इस कहानीकारी के। वैसे इसे कहानीकारी कहने से शायद किसी की धार्मिक भावना आहत हो। तो इसको कहानीकारी जैसी कह सकते हैं। प्राचीनकाल में मनीषीजन अपने भक्तसमूह या भक्तवृंद को श्लोकों के माध्यम से मुँहजुबानी कथा के तौर पर ही तो सुनाया करते होंगे शायद।
पर शामे गरीबा तो इसका जीता-जागता उदाहरण है।
चूँकि हमारे पापा 90 के दशक में लगभग आठ वर्षों तक बिहार के सीवान जिला के हुसेनगंज प्रखंड में बिहार सरकार के मुलाज़िम थे, तो प्रायः छुट्टियों में वहाँ जाने और वहाँ की जिन्दगानी से रूबरू होने का मौका भी मिलता था। वहाँ के कुछ मूल निवासी तथाकथित शिया मुसलमानों से गहरी दोस्ती हो गई थी, तो हम दोनों एक दूसरे के त्योहारों और पारिवारिक या सामूहिक आयोजनों में बिंदास पारिवारिक सदस्य की तरह एक दूसरे के घर आते-जाते थे। तब आज की तरह कोई भेद-भाव नहीं होता था हमारे बीच। वैसे तो इंशा अल्लाह आज भी नहीं है। वहीं मुझे शामे गरीबा में शरीक होने का मौका मिला था।
मोहर्रम के समय कर्बला में ताजिया दफन करने के बाद शिया आबादी वाले इलाकों में शामें गरीबा की मजलिस आयोजित की जाती है। इस दौरान लोग बिना फर्शे अजा बिछाए खाक पर बैठ कर खिराजे अकीदत पेश करते हैं। मजलिस के दौरान चिराग गुल कर दिए जाते हैं। इस दौरान करबला का वाकया सुनाया जाता है। 
इन की मान्यता के अनुसार दस मोहर्रम को इमाम हुसैन को उनके 71 साथियों के साथ यजीदी फौज ने शहीद कर दिया और उसके बाद यजीदी फौज ने ख्यामे हुसैनी में आग लगा दी, जिससे ख्यामे हुसैनी के बच्चे सहम गए तथा यजीदी फौज ने इमाम हुसैन की बहन व नवासी ए रसूल जनाबे जैनब व अन्य औरतों की चादरें छीन लीं तथा शाहदते इमाम हुसैन के बाद यजीदी फौज ने इमाम हुसैन के छः  माह के बेटे हजरत अली असगर की कब्र खोदकर हजरत अली असगर के तन व सिर जुदा कर दिया तथा इमाम हुसैन की चार साल की बेटी जनाबे सकीना के गौहर छीन लिए थे।
शामे गरीबा की मजलिस में शाहदते इमाम हुसैन व असीरा ने कर्बला का बयान सुनकर अजादारों की आँखें नम हो जाती हैं। इसे सुनकर  उपस्थित जनसमूह विशेषकर सारे मर्द भोंकार पार कर रोने लगते हैं।
                                     तात्पर्य यह है कि कर्बला की शहादत को इतनी शिद्दत से कही जाती है कि सुनने वाला उस दृश्य में डूब कर ग़मगीन हो कर रोने लगता है। तो ये है ताकत कहानीकारी की।
                                    

● (स) मेरे सामने खड़ी मेरी बेटी मुझ से कह रही है :-
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हमने भी एक प्रयास किया है कहानीकारी की एक स्क्रिप्ट लिखने की और कहने/पढ़ने/अभिनीत करने की भी। इसे लिखते वक्त मैं स्वयं को उस बेटी का पिता महसूस कर रहा था। लिखते वक्त लग रहा था कि मेंरे सामने खड़ी मेरी बेटी मुझ से कह रही है ये सारी बातें। वही सारी बातें स्क्रिप्ट में उतर कर आई है। ना जाने क्यों आँखें बार-बार नम हो जा रही थीं हमारी।
                           गत वर्ष 07.04.2019 को एक Open Mic में युवाओं के बीच इसे पढ़ा भी था। जिसे उन लोगों ने यूट्यूब पर उपलोड भी किया था। इस कहानी/घटना में एक बेटी अपने ग़मगीन, ख़ामोश .. मौन पापा से अपनी बात कह रही है। पापा के मौन की वजह और बेटी की बातें या मनुहार का कारण आपको इस की स्क्रिप्ट से या वीडियो से पता चल जाएगा। इसके स्क्रिप्ट के साथ वो वीडियो भी संलग्न है आप लोगों के लिए।


● (द) मैं चीख़ती तो .. आप आते ना पापा? .. आते ना पापा?..
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 ( कहानीकारी का मूल स्क्रिप्ट :-)
" पापा ! .. आज फिर से एक बार मेरी ख़ातिर गाओ ना पापा। जो मेरे बचपन में अक़्सर मेरे लिए गाया करते थे आप - ' मेरे घर आई एक नन्हीं परी ... ' ... आप .. ख़ामोश क्यों हो पापा ? आपकी लाडली परी के पर क़तर दिए गए हैं इसीलिए ? बोलो ना पापा ! 
याद है पापा, जब पहली बार अपने कपड़े पर ख़ून के धब्बे देख कर कितनी डर गई थी मैं। कितनी घबरायी हुई स्कूल से घर आई थी मैं। पर जब माँ ने समझाया कि बेटा ! ये तुम्हारे बच्ची से बड़ा हो जाने का संकेत है। भगवान ने हम औरतों को ही तो ये अनमोल तोहफ़ा दिया है। हम मानव नस्ल की रचयिता हैं। हम पीढ़ी दर पीढ़ी की रचना करते हैं बेटी। तब मैं बहुत गर्व महसूस कर रही थी। आप कुछ बोल नहीं रहे थे। केवल मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। मैं कितना शरमा रही थी तब आप से। है ना पापा? रोज़ प्यार से आपके गले लगने वाली आपकी लाडली आपके सामने आने से भी क़तरा रही थी।
पर उस दिन तो ... उन चारों ने मिल कर नंगा ही कर दिया था पापा। पूरी तरह नंगा। मैं कितना शरमायी थी पापा। "

" याद है एक बार मेरी ऊँगली कट गई थी। ख़ून बह रहा था और मैं जोर-जोर से रो रही थी। आप दौड़े-दौड़े आनन-फानन में गलती से Dettol की शीशी ले आये थे मेरे पास ... मैं और भी जोर से रोने लगी थी। फिर आपको अपनी भूल की एहसास हुई थी और आप दुबारा जाकर Savlon की बोतल ले कर आये थे, क्योंकि आपको पता था पापा कि Dettol से आपकी लाडली बिटिया को बहुत जलन होती है। पर घर में तो रखना पड़ता है ना। कारण .. माँ को इसकी महक पसंद है।
पर उस दिन तो ना Dettol था और ना Savlon .. सिर्फ़ .. ख़ून .. दर्द .. और मैं ... मैं किस तरह झेल रही थी पापा ...। पर .. उन चारों को कोई एहसास नहीं था मेरे दर्द का। होता भी भला कैसे ? वे चारों भी तो उसी समाज की पैदाइश थे ना पापा, जहाँ बलि और क़ुर्बानी के नाम पर मासूमों का ख़ून बहाया जाता है। उस बलि और क़ुर्बानी के वक्त उन्हें उन निरीह मासूम पशुओं की चीख कहाँ सुनाई देती है भला? उनकी मौत और ख़ून पर जश्न मनाते हैं ये समाज वाले। मैं तो कम से कम ज़िन्दा हूँ ना पापा .. पर कतरी परी की तरह ही सही .. पर ज़िन्दा हूँ ना पापा? गाओ ना पापा -' मेरे घर आई एक नन्हीं परी .... ' "

" याद है ना पापा .. एक रात पढ़ते वक्त मेरे study table पर छत्त से छिपकली टपक पड़ी थी। मैं कितनी जोर से चीख़ी थी। याद है ना पापा ? आप दूसरे कमरे से शायद अपना favorite T.V. show .. रजत अंकल वाली 'आप की अदालत' .. वो भी अपने favorite artist पंकज कपूर की अदालत छोड़ कर दौड़े-दौड़े आये थे और मिनटों मुझे गले से लगाए रखे थे। ताकि उस वक्त मेरा डर और heart beat दोनों कम हो।
पर उस दिन .. उस दिन तो चीख भी नहीं पाई थी पापा। उन चारों ने पूरी तरह जकड़ रखा था। एक ने मेरे दोनों हाथ .. एक ने दोनों पैर .. एक ने जोर से मुँह दबा रखा था और एक ........... बहुत दर्द हो रहा था पापा .... चारों ने बारी-बारी से आपस में अपने जगह बदले और मैं ... चारों बार तड़पी .. बस तड़पी पापा ... चीख भी नहीं पा रही थी पापा। मेरी हालत का अंदाजा नहीं लगा सकते आप .. उस से अच्छा माँ के गर्भ में ही मुझे मार देते पापा।
मैं चीख़ती तो .. आप आते ना पापा? .. आते ना पापा?.. आप .. आप आते ना पापा? मैं चीख़ती .. आप आ जाते .. फिर मैं बच जाती ना पापा .. आँ ?
आप ठीक ही कहते हैं - ये भगवान नहीं होता। "

" माँ !! अब आप भी मान लो पापा की बात कि भगवान नहीं होता है। भगवान या अल्लाह केवल इंसान के बनाए धर्मग्रथों और मंदिर-मस्जिदों में होता है। फिल्मों और टी वी सीरियलों में होता है। अगर सच में होता तो मुझे बचा लेता ना माँ उन वहशी दरिंदों से? बचा लेता ना ? "

" है ना पापा ? बोलो ना पापा। गाओ ना पापा .. प्लीज .. एक बार .. बस एक बार .. अपनी पर कटी परी के लिए - ' मेरे घर आई एक नन्हीं परी, एक नन्हीं परी .. एक नन्हीं परी ...' "                       
********************************************** आप इसे पढ़िए या देखिये या दोनों ही कीजिए। पर बतलाना मत भूलियेगा कि इस वीडियो ने आपकी आँखों को नम किया या नहीं ... 🤔🤔🤔

◆ वीडियो ( Video ) ◆ :-



14 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 30 एप्रिल 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. जी ! नमन आपको और आभार भी मेरी रचना/विचार को मान देने के लिए ...

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  2. सुन्दर वीडियो प्रस्तुति।

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    1. जी ! नमन सर ! आभार आपका ...
      ( अब स्वामी जी मत कहिएगा 😢 ).

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  3. हमें आपके मुख से ही इसे सुनकर अपनी आँखें नम कर चुके हैं। मर्मस्पर्शी प्रस्तुति।

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  4. जी ! नमस्कार ! आभार आपका रचना के मर्म को एहसास करने के लिए ...

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  5. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (04 मई 2020) को 'बन्दी का यह दौर' (चर्चा अंक 3691) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    *****
    रवीन्द्र सिंह यादव

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    1. जी ! आभार आपका मेरी रचना को अपने मंच पर साझा कर के मान देने के लिए ...

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  6. कहानी कहने की कला पर सहज,सरल शब्दों में लिखा गया भूमिका की तरह संस्मरण पाठकों से सीधा संवाद करता हुआ मन पर सहज अधिकार कर रहा है।

    आपके स्वरचित रचना का वीडियो अनेक बार देख चुके है आपके विचार और भावों ने हर बार निःःशब्द कर दिया।
    समाज के वीभत्स चेहरे का कड़वा सच बेबाकी से रखना आपके क़लम की खासियत है।
    लिखते रहिये क्योंकि बेफ्रिक गूँगे हुये समाज को बीच में झकझोरना पड़ेगा तभी शायद कुछ आवाज़ प्रतिकार और परिवर्तन के लिए चीख सके।

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    1. जी ! नमस्कार ! आभार आपका इस रचना/विचार तक आने और इसे अपने फेसबुक पर भी साझा करने के लिए ... बाक़ी .. आपकी विश्लेषणात्मक प्रतिक्रिया आपकी ज़र्रानवाज़ी ही है ... शायद ..

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  7. इसे पढ़ना और सुनना हमारे लिए इतना दुष्कर हो रहा है तो जिन बेटियों पर यह बीतता होगा, उनके और उनके माता पिता की क्या मनःस्थिति होगी ? बस यही कह सकती हूँ कि ऐसी घटनाएँ कत्ल से भी भयावह हैं। निर्भया के दोषियों का फैसला जिस रात आना था, मैं पूरी रात नहीं सोई थी। सुबह जब तक फाँसी की खबर आ गई तब ही मन शांत हुआ।

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    1. जी ! आभार आपका इस रचना/विचार तक आने के लिए ... सच में हमें ऐसी घटनाओं के लिए सहानुभूति की जगह समानुभूति को अनुभव करना पड़ेगा, तभी इसके विरुद्ध हमारे कदम बढ़ेंगे ... शायद ..

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