Sunday, August 24, 2025

थूक पुराण .. आक् .. थू ...

बचपन-जवानी में पढ़े गए जीवविज्ञान को सही आधार मान लें तो हमारे भोजन को चबाने और उसे पचाने में भी अहम भूमिका निभाने वाली .. हमारे मुँह में बनने वाली .. प्राकृतिक लार हो या फिर व्यसन के तौर पर पान, तम्बाकू या गुटखा खाने-चबाने के कारण बनने वाली पीक हो ; मतलब .. लार एवं पीक .. दोनों ही .. सर्वविदित है कि हिंदी व्याकरण के अनुसार स्त्रीलिंग हैं .. पर वही लार या पीक जब हमारे मुँह से बाहर निकल आएँ तो, पुरुष प्रधान समाज में घर से बाहर स्वच्छंद घूमने वाले पुरुषों की तरह, हिंदी व्याकरण के अनुसार पुल्लिंग बन कर थूक कहलाते हैं .. है ना ?

हिंदी व्याकरण के अनुसार थूक वाले कई मुहावरे भी सर्वविदित हैं .. मसलन - थूक कर चाटना, थूक उछालना, थूक बिलोना, थूक लगाकर छोड़ना, थूक लगाकर रखना, चाँद पर थूकना, आसमान पर थूकना और कुछ कहावतें भी हैं कि .. आसमान की तरफ़ थूकने पर अपने ही ऊपर गिरेगा या थूक में सत्तू (भुने हुए चने का आटा, जिससे मूल रूप से बिहारी व्यंजन - लिट्टी बनायी जाती है।) सानना इत्यादि।

हमने शायद ही कभी ग़ौर किया हो कि .. हम सभी जीवनपर्यंत जाने-अंजाने स्वयं के साथ-साथ अन्य .. कई अपनों और परायों तक के भी थूकों को अंगीकार करते रहते हैं।

मसलन - (१) अगर हम ऑनलाइन पेमेंट और नोट गिनने वाली मशीनों से किसी के घोटाले वाले नोटों के बंडलों की दिन-रात एक करके की जाने वाली गिनती की बातों को छोड़ दें, तो अगर गर्मी का मौसम रहा तो .. कई लोगों द्वारा अपने अंगूठे से माथे का पसीना पोंछ कर या फिर अन्य मौसम या मौक़ा रहा तो अपनी तर्जनी को जीभ पर स्पर्श करा कर " राम, दु, तीन, चार, पाँच .. " मतलब "एक, दो, तीन, चार, पाँच .. " बोलते हुए .. काग़ज़ी रुपयों को गिनने की प्रक्रिया वाले दृश्यों को हम सभी ने कई बार नहीं भी तो .. कम से कम एक-दो बार तो अवश्य ही देखा होगा। चाहे वो रुपए किसी विक्रेता-क्रेता के आदान-प्रदान के दौरान के हों, किसी मालिक-मज़दूर के बीच पारिश्रमिक के रूप में देन-लेन के हों या फिर .. किसी कन्या के लाचार पिता जी की जीवन भर की जमा-पूँजी को दहेज़ के रूप में वर पक्ष को समर्पित किए गए हों।

अगर हम में से किसी ने वास्तव में उपरोक्त दृश्यों को नहीं भी देखे होंगे तो .. उम्मीद करते हैं कि .. "दिल" फ़िल्म में अनुपम खेर जी को आमिर खान के कंजूस पिता और हजारी प्रसाद नामक कबाड़ी के अभिनय के दौरान या श्वेत-श्याम फ़िल्मों के दौर में बनिया-सेठ बने कन्हैया लाल जी को तो देखा ही होगा .. पसीने या थूक लगा कर रुपयों को गिनते हुए या बही-खाते के पन्नों को पलटते हुए .. शायद ...

अभिनेता सौरभ शुक्ला जी को उनकी अपनी फ़िल्म - "जॉली एलएलबी" में एक न्यायाधीश - जस्टिस सुंदरलाल त्रिपाठी की भूमिका में भी न्यायालय में जमीन पर पालथी मार कर बैठे हुए .. थूक लगा कर पन्ने पलटते हुए शायद आप सभी ने देखा होगा। नहीं क्या ? .. अगर नहीं तो .. अगली बार उपरोक्त इन फिल्मों को देखते वक्त ग़ौर से देखिएगा .. मतलब अवलोकन कीजिएगा .. बस यूँ ही ...

फ़िलहाल तो आप इस निम्न Video में ही 1.35.55 से 1.36.03 के दरम्यान आठ सेकण्ड से भी कम समय में न्यायाधीश साहिब को जमीन पर पालथी मार कर बैठे हुए .. थूक लगा कर दो-दो बार पन्ने पलटते हुए देख सकते हैं।



हमने तो कई मंदिरों और आश्रमों में भी दानस्वरूप रुपए लेकर रसीद देने वालों को थूक लगाकर पावती रसीद के पन्ने पलटते हुए और रुपयों को भी गिनते हुए देखे हैं और हमने अक्सर .. निर्लज्जतापूर्वक उन्हें फ़ौरन टोका भी है। साथ ही मुफ़्त की नसीहत भी दी है उन्हें .. उनके अपने मैनेजमेंट को बोलकर फिंगरटिप मॉइस्चराइजर रखने-रखवाने की। जैसे .. कई दफ़ा मस्जिद की सीढ़ी पर बैठ कर किसी दाढ़ी वाले को बीड़ी पीने के वक्त या फिर सुबह-सुबह पूजन के पश्चात मंदिर से बाहर सपरिवार निकलते ही टीकाधारी तथाकथित पुरुष भक्तगणों को सिगरेट-बीड़ी पीने के समय या गुटखा की पुड़िया फाड़ने पर बिंदास हँसते हुए उपदेशात्मक रोक-टोक करता हूँ।

थूक लगा कर उन सभी रुपए गिनने वालों के उसी थूक सने होने के कारण विषाणुओं से भरे रुपए हमारे जेबों, ब्लाउजों या हमारी तिजोरी तक भी आते-जाते रहते हैं। दूसरी तरफ़ रसीद जैसे काग़ज़ों या रुपयों पर किंचितमात्र उपस्थित अशुद्धियों में लिपटे विषाणु या रोगाणु उन सभी थूक लगा कर काम करने वालों के मुँह में भी अवांछित प्रवेश पाते रहते हैं। मतलब .. अन्योनाश्रय हानि .. शायद ...

(२) विलायतियों की ग़ुलामी में रहने के पश्चात हमने अपना और अपने चहेतों के जन्मदिन पर या अन्य सालगिरह के अवसरों पर या फिर .. कोई विशेष उपलब्धि मिलने पर भी .. हम केक काटकर जश्न मनाने का आडम्बर करते हैं। उसी केक पर सजी हुई जलती मोमबत्तियों को बुझाने का पाखंड भी हम जैसे लोगों  ने, जो किसी सुअवसर पर दीप जलाने वाले लोग हैं, उन्हीं विलायतियों की ग़ुलामी में सीखा है और अपनी अगली पीढ़ी को वो सारे आडम्बर व पाखंड हस्तांतरण करने में गौरवान्वित भी महसूस करते हैं .. शायद ...

पर लब्बोलुआब ये है कि उस केक पर सजी हुई जलती मोमबत्तियों को बुझाने के क्रम में मुँह से फूँक मारने पर हवा के साथ-साथ फूँकने वाले के मुँह के लु'आब के आंशिक छींटों की कशीदाकारी भी केक की क्रीमी लेयर पर हो ही जाती है .. बस यूँ ही ...


(३) किसी अन्य के थूकों को अंगीकार करने के तीसरे स्वरूप को याद करने से पहले दो फ़िल्मी कलाकारों देवेन वर्मा जी और दिनेश हिंगू जी के चुटिले संवाद को निम्न Video में देख-सुन लेते हैं।



"दिनेश हिंगू - तुझे ऐसी किसी चीज़ का नाम मालूम है जिसको एक जगह से हटा के दूसरी जगह रख दो तो उसका नाम बदल जाता है।

देवेन वर्मा - नहीं

दिनेश हिंगू - देख मैं बताता हूँ। बाल, सिर पर बाल कहते हैं, यहाँ भौं कहते हैं, यहाँ पलकें कहते हैं, यहाँ मूँछें कहते हैं, यहाँ हो तो दाढ़ी कहते हैं

देवेन वर्मा - आगे मत जाओ, आगे मत जाओ .."


किसी अन्य के थूकों को अंगीकार करने के तीसरे स्वरूप को अब समझते हैं। जब दो रूमानी शरीर सामाजिक तौर पर क़ानूनी या ग़ैरक़ानूनी तरीके से मिलते हैं तो .. मिलने के क्रम में उनकी आपस में निगाहें, साँसें, दिल के धड़कनों की तरंगें, शरीर के अंग-अंग .. होंठों से होंठ, जिव्हा से जिव्हा, थूक से थूक, उंगलियों- हथेलियों की गुत्थमगुत्थी .. इत्यादि-इत्यादि .. हाँ जी .. इत्यादि-इत्यादि ही बोलकर रुकते हैं .. वर्ना .. ना जाने दोनों रूमानी शरीर के और क्या-क्या आपस में मिलते हैं। मगर देवेन वर्मा जी के तर्ज़ पर .. "आगे मत जाओ, आगे मत जाओ" वाली बात .. हमको रोक दे रही है।


(४) तंदूरी रोटी या अन्य खाद्य पदार्थों में थूक कर खिलाने पर बहत्तर हूरों की कामना करने वाले तथाकथित थूक जिहादियों का एक ख़ास जमावड़ा भी जिम्मेवार है ही इसके लिए .. शायद ...


(५) जादू-टोना या फूँक-फांक के दौरान भी थूक के छींटों से रूबरू होना भी एक आम घटना है। 


पर जो भी हो .. अंततोगत्वा लब्बोलुआब ये है कि ये अपनों के साथ-साथ अन्य के थूकों का जाने-अन्जाने हमारे द्वारा अंगीकार किया जाना हमारे लिए तो धरमनिर्पेक्षता का एक अव्वल उदाहरण है .. शायद ...

परन्तु जज साहिब को तो तथाकथित आवारा कुत्तों के काटने से फैलने वाले खतरों के साथ-साथ ..  कभी फ़ुर्सत मिले तो .. मानवी थूकों से विषाणुओं को फैलाने वाले उन महानुभावों पर भी उनको अपनी पैनी निगाहें डालनी ही चाहिए .. बस यूँ ही ...

Sunday, August 3, 2025

कुछ बतकही बुग्यालों की दरी पर .. बस यूँ ही ...

सर्वविदित है कि परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है और इसी नियम के तहत ब्रह्माण्ड के अन्य पहलूओं की तरह हमारी भाषा एवं लेखन प्रणालियाँ भी विभिन्न कालखंडों में परिवर्तित होती रहीं हैं एवं भविष्य में भी परिवर्तित होती रहेंगी .. शायद ...

यूँ तो आम लोगों को प्रायः अपनी-अपनी भाषा के लिए चिल्ल-पों करने की आदत-सी रही है , परन्तु इन दिनों अपनी-अपनी स्थानीय भाषाओं को लेकर हमारे देश के कई हिस्सों में कुछ ज़्यादा ही कुत्ते-बिल्ली की तरह होने वाली प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष लड़ाई का कोई औचित्य है भी कि नहीं .. मालूम नहीं। "मेरी भाषा, मेरी पहचान" जैसे नारा लगाने वाले कितना सही हैं .. कितना गलत .. ये भी मालूम नहीं। परन्तु भले ही पशुओं में तो कुत्ते को भौं-भौं छोड़ कर म्याऊँ-म्याऊँ बोलते नहीं सुना-देखा गया है। वरन् .. भौं-भौं और म्याऊँ-म्याऊँ के उलट-फेर से उनकी पहचान को तो मिटने की संभावना बन भी सकती है .. पर ये इंसान ..? अगर उपरोक्त बात - "परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है" को आधार मान लें तो .. फिर इंसानों की अपनी-अपनी भाषा के लिए आपसी लड़ाई का क्या मतलब भला ?

ऐसी छोटी-छिछोरी मानसिकता वाले ऐसे छोटे इंसानों की या उनके समुदायों की पहचान तो भाषा विशेष के बिना भले ही मिटे या ना मिटे पर .. उनकी स्वार्थपरता की लौ में इंसानियत अवश्य मिट जाएगी। हम सभी को एकजुट करने वाली हमारी एक समान भाषा यानी .. प्रेम की भाषा की ही बात करनी मानव समाज ही नहीं .. बल्कि समस्त ब्रह्माण्ड के लिए भी बेहतर और लाभप्रद होगी .. शायद ...

जिन साढ़े पाँच सौ से भी अधिक रियासतों को सरदार वल्लभ भाई पटेल जी ने अपने कुशल प्रयास और अथक परिश्रम से जोड़ा था , उन्हें पुनः छह हज़ार में बाँटने का अधम प्रयास कर के ; उनके परिश्रम पर पानी फेरने की कवायत में क्यों जुटे हैं ये छोटी-छिछोरी मानसिकता वाले छोटे लोग ?


वैसे भी तमाम परिवर्तनशील विषयों के लिए रूढ़िवादी या कट्टरपंथी हो कर .. किसी पर धौंस जमाना, अपनी तथाकथित राजनैतिक शक्तियों का अनुचित दुरूपयोग करके सार्वजनिक स्थलों पर किसी को थप्पड़ मारना और साथ ही .. उसका वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर वायरल करने के लिए अपलोड करना और फिर .. पीछे से उनके आकाओं का भौंकना .. सॉरी ! ..  चिल्लाना .. उचित नहीं है .. शायद ...

जबकि उस राज्य विशेष को हिंदी भाषी सिनेमा से ही महत्वपूर्ण राजस्व की प्राप्ति होती है और हिंदी भाषी लोगों की श्रम शक्ति से ही उनका राज्य यथोचित ऊर्जावान बन पाता है। प्रसंगानुकूल एक और बात है कि .. बिहार-झारखंड राज्य में भी भोजपुरी भाषा के लिए कुछ लोगों में मिथ्याभिमान है और वही मिथ्याभिमान हमें अपने अस्थायी प्रव्रजन के दौरान उत्तराखंड राज्य में भी कई लोगों में गढ़वाली भाषा हेतु देखने के लिए मिलता है। जबकि आज प्रसून जोशी जैसे एक लोकप्रिय और प्रसिद्ध व्यक्ति .. जो गढ़वाली होने के बावजूद हिंदी में ही गीत लिखकर - "तुझे सब है पता .. हैं ना माँ ?" .. समस्त भारतवासियों के मन-मस्तिष्क में विस्तार पा सके हैं , जबकि गढ़वाली भाषा में लिख कर उनके लिए ये पाना असंभव ही था .. शायद ...

हमने ये भी देखा है कि देश और समाज की तरह परिवार में भी दो पीढ़ियों के मध्य भिन्न परिवर्तित परिस्थितियों से जनित मानसिकताओं में आपसी मध्यस्थता , सामंजस्य व समन्वय से भी अगर सन्तुलन नहीं बन पाता है , तो अंततोगत्वा समझौता करने से ही परिवार बिखरने से बच पाता है। दो कालखंडों में हुए बदलाव को अगर हम स्वयं भी समय के साथ ना अपनाएं , तब भी हम सभी समय-समाज से स्वयं को पिछड़ा हुआ मान कर मानसिक द्वंद से जूझ रहे होते हैं .. शायद ...

वस्तुतः जो लोग भी लकीर के फकीर हैं, वो सभी वास्तव में ही मानसिक रूप से फकीर प्रतीत होते हैं। उपलब्ध इतिहास को आधार मान कर सुदूर कालखंडों पर एकबारगी हम अपनी पैनी निगाहें दौड़ायें तो .. अपनी-अपनी भाषाओं और लेखन को परिवर्तित होते हुए कई-कई दौरों में हमारे पुरखों ने और हम सभी ने भी जिया और अंगीकार भी किया है। उपलब्ध इतिहास की ही मानें तो .. चित्रलिपि (Pictography & Hieroglyphs) और कीलाक्षर लिपि (Cuneiform) के वर्षों बाद क्रमवार वर्णमाला जैसी प्रणाली का पदार्पण हुआ था ..शायद ...

युगों पूर्व के वार्तालाप या साहित्य का मौखिक स्वरूप कालांतर में वर्णमाला लेखन के रूप में आया। लेखन के भिन्न-भिन्न माध्यम भी कई दौरों से होकर गुज़रे हैं .. लेखन के लिए ताड़ के पत्ते , भूर्ज के पेड़ों के छाल यानी भोजपत्र , पत्थर , मिट्टी (आग में पका कर), ताम्र पट्टी , कपड़े , कागज़ का प्रयोग किया गया है। यूँ तो प्रेमी-प्रेमिकाओं ने मौक़ा पाकर सागर किनारे रेत पर या पहाड़ों की शिलाओं पर भी या फिर अपने चाहने वाले या चाहने वाली की पीठ पर भी अपनी कोमल या खुरदुरी उंगलियों से लेखन किए हैं। और तो और .. समाज में नागरिक भावनाच्युत लोगों ने तो लेखन के लिए , विशेषकर अपना या अपने प्रियतम-प्रियतमा के नाम के लिए , ऐतिहासिक इमारतों या मन्दिरों की दीवारों व वृक्षों के तने तक को भी कुरेदना नहीं छोड़ा है .. शायद ...


इतिहास गवाह है , कि तत्पश्चात मुद्रण यंत्र के आविष्कार के बाद तो लेखन और ज्ञान-प्रसार में मानो एक क्रांति-सी आ गयी थी। मतलब .. लेखन , मुद्रण और फिर टंकण भी .. वक्त के साथ-साथ होते बदलाव में अतीत के कंडे , स्याही वाली कलम , 'लीड पेन' , Typewriter Machine जैसे लेखन यंत्रों से आगे आकर वैज्ञानिक आविष्कारों के फलस्वरूप वर्तमान में तो Computers , Laptops और Mobile Handsets जैसे यंत्र और उनमें उपलब्ध अनेकानेक विदेशी-देशी Apps भी लेखन के माध्यम स्वरूप आज हमारे Working Table पर या हाथों में हैं। काश ! .. हम सभी उपरोक्त Gadgets एवं Apps की तरह इतनी ही सुगमता के साथ विश्व की तमाम भाषाओं को सीख कर उन सभी का भी वैश्वीकरण कर पाते तो .. भाषा की लड़ाई ही खत्म हो जाती .. शायद ...

लब्बोलुआब ये है कि परिवर्तन हमारे जीवन का एक अहम हिस्सा है , जिसे सहज स्वीकार करना ही हमारे जीवन को सरल बनाता है। दूसरी ओर रूढ़िवादिता व कट्टरपंथी, चाहे किसी भी क्षेत्र में हो , इंसान को पंगु ही बनाती है और उससे भी बुरा होता है .. अपनी रूढ़िवादिता से भरी और कट्टरपंथी वाली सोच पर गर्व का अनुभव करना .. शायद ... 

बदलाव का एक और नमूना .. विश्व भर में इकलौता देश है स्पेन , जहाँ पहले केवल कपड़े पर अख़बार छपते थे। पर आजकल अन्य देशों की तरह ही काग़ज़ पर अख़बार छपते हैं। वहाँ पर अब केवल नाममात्र के लिए ही कपड़े वाले अख़बार छापे जाते हैं। वह भी केवल किसी अवसर विशेष के लिए .. शायद ...

बदलाव , परिवर्तन या क्रांतियों के अन्य कई उदाहरणों में से एक ये भी हमारी नज़रों से हो के गुज़रा है , कि हम रेडियो के ज़माने में केवल श्रवण-इंद्री को तृप्त करते हुए "विविध भारती" से प्रसारित होने वाले "गीतों भरी कहानी" नामक कार्यक्रम का लुत्फ़ लिया करते थे, जिसका आज भी प्रसारण होता तो है ; परन्तु "परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है" के तहत हम में से ज़्यादातर लोग अब टेलीविजन के माध्यम से श्रवण और चक्षु जैसी दोनों इंद्रियों की तृप्ति मिलने के कारण रेडियो के बदले टेलीविजन देखना-सुनना अधिक पसन्द करते हैं। आज मनोरंजन के साधनों के रूप में टेलीविजन ही क्यों .. इसके अलावा हमारे Mobile Handsets में Internet के माध्यम से Youtubes , Video Games और Instagram जैसे Apps भी हैं , जिसे यूँ तो सभी आयु वर्ग के लोग अपनी-अपनी रुचि के अनुसार अलग-अलग विषयों के लिए देखते-सुनते हैं , परन्तु .. वर्तमान युवा वर्ग में ये सभी कुछ .. कुछ ज़्यादा ही प्रचलित हैं .. शायद ...

इन्हीं सब बातों-घटनाओं से प्रेरित होकर , हमने केवल शब्दों से परे .. शब्दों के संग-संग दृश्यों की तालमेल के साथ  "विविध भारती" की "गीतों भरी कहानी" के तर्ज़ पर "दृश्यों भरी कविता" की एक परिकल्पना एवं संकल्पना को साकार करने का प्रयास भर किया है। जिनमें अपनी निगाहों को भाने वाले उन तमाम लम्हों का प्रयोग किया है , जिसे हम प्रायः आदतन अपने मोबाइल के कैमरे से मोबाइल की गैलरी में और गैलरी भर जाने पर पेन ड्राइव में एकत्रित करते रहते हैं। अब आज की बतकही को अल्पविराम और आज की हमार दो "दृश्यों भरी कविताएं" .. यानी Visualizations with Visuals या Visuals with Visualizations - "बर्फ़ और बादलों में ..." व "टिकुली चुम्बन की .." बस्स ! .. आपके लिए .. बस यूँ ही ...


१) बर्फ़ और बादलों में ...




२) टिकुली चुम्बन की ...



चलते-चलते एक कड़वी गोली वाली बतकही भी ..
"हद हो गयी यार !" ...



Thursday, March 27, 2025

बिच्छू की चाय .. आय हाय ! -१

आनंद बख़्शी जी के शब्दों को लता जी व उदित जी के युगल स्वरों में अपने संगीत से सजा कर "फ़िल्म दिल तो पागल है" के लिए उत्तम सिंह जी ने हमारे समक्ष एक रूमानी गीत की शक़्ल में परोसा था .. जो आज भी ना जाने कितने प्रेमियों को अपनी प्रेमिकाओं के समक्ष चुहलबाजी करने का अवसर प्रदान करता है .. शायद ... 

उस गाने का बोल है - "भोली सी सूरत आँखों में मस्ती आय हाय ~~~"

आज की बतकही से पहले ये गाना ही सुन लेते हैं .. है ना !

यहाँ एक ग़ौर करने वाली बात ये है कि .. आध्यात्मिक या रूहानी सूफ़ी गीतों को जिस तरह फ़िल्मी दुनिया में रुमानियत का पर्याय बना कर पेश किया जाता रहा है और .. अगर इसके विपरीत उपरोक्त रूमानी गाने को प्रेमिका या लड़की की जगह प्रकृति से जोड़ कर सुना जाए तो .. तो .. आप दोबारा सुनिए और .. आनन्द लीजिए .. प्रकृति का .. बस यूँ ही ...

लब्बोलुआब ये है कि आज की बतकही के शीर्षक वाली "आय हाय" तो .. इस गाने से ही ली गयी है और अब .. "बिच्छू की चाय" वाली बात .. आगे आज की बतकही में ...

गंगा .. तथाकथित आस्तिकों के लिए एक तरफ़ तो माँ हैं .. तो स्वाभाविक है, कि वह पूजनीय भी हैं और उनके लिए पौराणिक कथाओं के अनुसार शिव की जटाओं व राजा भगीरथ से सम्बन्धित भी हैं ; परन्तु दूसरी तरफ़ .. उन्हीं की धाराओ में वो सभी तथाकथित आस्तिक अपने-अपने शहर की नाली- नालाओं के माध्यम से अपने अनगिनत त्याज्य अपशिष्ट या अवांछित पदार्थों के साथ-साथ .. अपशिष्ट पूजन सामग्रियाँ तथा तथाकथित देवी- देवताओं की छोटी- बड़ी, नयी- पुरानी मूर्तियाँ .. गंगा-आरती के समय तथाकथित आस्था के नाम पर अज्ञानतावश या जानबूझकर एक दोने में कुछ फूल व मिलावटी तेल या मिलावटी घी के दीये और साथ ही अपने मृत जनों के दाह संस्कार के उपरांत अवशेष रूपी राख को भी अर्पित- समर्पित करते रहते हैं .. शायद ...

वहीं दूसरी ओर .. नास्तिकों के लिए गंगा केवल और केवल एक नदी है , जिसका आविर्भाव हिमालय की पर्वत शृंखलाओं की बर्फ़ के पिघलने और अन्य कई अलग-अलग स्रोतों वाली कई पहाड़ी सहायक नदियों के संगम से हुआ है। जिसे स्वच्छ रखना वे लोग मानव- धर्म भी मानते हैं। वे लोग नदी को नदी, सूर्य को सूर्य और बरगद- पीपल को भी वृक्ष ही मानते हैं तथा इन सभी के भगवानीकरण करने का और तथाकथित भगवान के मानवीकरण करने का पाखंड कतई नहीं करते हैं  .. शायद ...

ठीक वैसे ही .. अपने आस्तिक परिजनों के साथ एक नास्तिक भी अगर किसी तथाकथित तीर्थयात्रा में शामिल होता है ; तो उसे उस यात्रा .. क्षमा करें .. तीर्थयात्रा के दौरान प्रभु दर्शन से प्राप्त होने वाले पुण्य की कामनाओं से इतर .. विराट प्रकृति के गर्भाशय से जन्मे सौंदर्य जनित सुकून का रसास्वादन कुछ विशिष्ट रूप से आह्लादित करता है .. शायद ...

सर्वविदित है, कि अन्य धर्म- संप्रदाय के लोगों की तरह हिन्दुओं के भी समस्त विश्व में अवस्थित कई तीर्थस्थलों के साथ ही भारत में विशेष धार्मिक मान्यताओं वाले चार धामों - बद्रीनाथ (उत्तराखंड), द्वारकापुरी (गुजरात), जगन्नाथ पुरी (उड़ीसा) तथा रामेश्वरम (तमिलनाडु) के साथ-साथ उत्तराखंड राज्य में भी अवस्थित चार धामों - यमुनोत्री (उत्तरकाशी), गंगोत्री (उत्तरकाशी), केदारनाथ (रुद्रप्रयाग) एवं बद्रीनाथ (चमोली) की भी महत्ता हैं। हालांकि .. विशेष बात ये है कि बद्रीनाथ धाम का नाम दोनों ही श्रेणियों में विराजमान है। 


तो .. आइये .. उत्तराखंड के चार धामों की तीर्थयात्रा से जुड़ी आंशिक बातों को .. एक तथाकथित नास्तिक की दृष्टि से कुछेक अंकों की सचित्र बतकही में विस्तार से झेलते हैं। जिसके तहत आज हम अतिगुणकारी पहाड़ी जड़ी-बूटी (?) की भी बात करेंगे .. बस यूँ ही ...

पर इसके लिए हमें जाना होगा "माना" .. दरअसल उपरोक्त बद्रीनाथ नामक हिंदू तीर्थस्थल से लगभग तीन किमी की दूरी पर अलकनंदा नदी एवं सरस्वती नदी के संगम पर उत्तराखण्ड के चमोली जिले में ही भूगोलवेत्ताओं के अनुसार समुद्र तल से मोटा- मोटी (अनुमानतः) लगभग बत्तीस सौ मीटर यानी लगभग साढ़े दस हज़ार फ़ीट ऊपर एक गाँव अवस्थित है - माना / माणा (Mana)। 

अगर हम इस गाँव के नाम से जुड़ी किंवदंती को अपनी आँखें मूँदे मान लें, तो उस किंवदंती के अनुसार तथाकथित शिव भगवान के माणिक शाह नामक एक परम भक्त व्यापारी के नाम से इस गाँव का नाम माणा रखा गया है। लोगों के बीच एक ऐसी भी मान्यता है कि माणा जाने वाला हर व्यक्ति, विशेषकर तथाकथित भक्तगण, माणिक शाह की भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शिव द्वारा मिले वरदान के फलस्वरूप अमीर हो जाता है .. शायद ...

चीन के क़ब्ज़े वाले तिब्बत की सीमा से लगे माना दर्रा से लगभग पच्चीस- छ्ब्बीस किमी पहले यह माणा गाँव आज भारत का पहला गाँव है ; जिसे लगभग दो- तीन वर्ष पहले तक भारत का आख़िरी गाँव बोला जाता था ; परन्तु अपने देश के वर्तमान प्रधानमंत्री द्वारा इसका विशेषण "आख़िरी" से "पहला" में परिवर्तित कर दिया गया है। जिसके फलस्वरूप "सीमा सड़क संगठन" (Border Roads Organization - BRO) के सौजन्य से इस गाँव की शुरुआत में "भारत का प्रथम गाँव माणा" लिखा हुआ एक बड़ा-सा 'बोर्ड' टँगा हुआ दिखता है। 

जो भी लोग दोनों श्रेणियों के चार धामों की यात्रा के तहत या केवल और केवल बद्रीनाथ की तीर्थयात्रा के लिए आते हैं, तो वो लोग यहाँ भी अवश्य ही पधारते हैं। आस्तिकों के लिए तो यहाँ के मुख्य आकर्षण हैं - भीम पुल, व्यास गुफा, गणेश गुफा, सरस्वती धाम और केशव प्रयाग यानी अलकनंदा नदी व सरस्वती नदी के संगम जैसे पौराणिक कथाओं से जोड़े गए तथाकथित कई तीर्थस्थल ; पर .. नास्तिकों के लिए तो होती हैं मन को लुभाती .. केवल और केवल .. प्राकृतिक सौन्दर्य से लबरेज़ नैसर्गिक दृश्यावली .. शायद ...














































आस्तिक परिजनों के साथ-साथ हम भी औपचारिक रूप से उपरोक्त तथाकथित धार्मिक- पौराणिक स्थलों के तथाकथित "दर्शन" करने के पश्चात जगह- जगह उन्हीं बाज़ारों की दुकानों में बीस-बीस रुपए के बदले बिक रहे 'ग्रीन टी' के और "केदार कड़वी" के भी छोटे- छोटे 'पैकेट्स' हमने ख़रीद लिए थे। हालांकि वहाँ की दुकानों में हाथों से ऊन द्वारा बुने हुए विभिन्न प्रकार के गर्म परिधानों का भी अपना एक अनूठा आकर्षण दिखा।




लगभग सभी दुकानदार (ज़्यादातर दुकानदारीन) अपनी शारीरिक बनावट, मुखमंडल व वेशभूषा से तिब्बती लोग ही लग रहे थे। शायद भयवश पलायन करके यहाँ आकर बसे या बसाए गए विस्थापित तिब्बती। वैसे भी उत्तराखंड में देहरादून सहित कई क्षेत्रों में विस्थापित तिब्बतियों के ठिकाने और .. स्वाभाविक है, कि उनकी जनसंख्या भी ठीक-ठाक ही कह सकते है। वैसे तो माणा में वेशभूषा व नाक-नक्श के आधार पर हम कह सकते हैं कि कुछेक दक्षिण भारतीय परिवार भी वहाँ बसे हुए हैं।












अब उपरोक्त धार्मिक- पौराणिक स्थलों की परिचर्चा किसी भावी अंक में .. फ़िलहाल तो हम चाय विशेष की "चुस्की" लेते हैं। उपरोक्त माणा के स्थानीय बाज़ारों में अवलोकन करते हुए .. तभी "भारत का प्रथम गाँव माणा" के तर्ज़ पर ही "भारत की पहली चाय की दुकान" वाले 'बोर्ड' लगे .. कई सारी दुकानों पर दृष्टि पड़ती है। 




कहीं तो .. अभी भी पुरानी सोच के मुताबिक़ "भारत की आख़िरी चाय की दुकान" वाली तख़्ती भी दिखती है। मानो जैसे .. आज एलईडी के युग में भी हम अपनी पुरानी परम्पराओं का निर्वाह करते हुए दीए जलाते ही नहीं, वरन् दीयों की संख्या की होड़ करके 'गिनीज़ बुक' में अपना नाम दर्ज़ करवाने की बात बड़े ही गर्व के साथ कहते हैं .. शायद ...





ख़ैर ! .. अभी दीये को दरकिनार करके .. अपनी बतकही को चाय पर ही केन्द्रित करते हैं। तो .. कई सारी चाय की दुकानों को देख-देख कर .. अब ऐसे में चाय की लत ना भी हो, तो पीने की उत्कंठा जाग ही जाती है। वैसे भी चाय हमारे देश में अंग्रेज़ों द्वारा लाए जाने के पश्चात शायद इकलौता धर्मनिरपेक्ष पेय पदार्थ का पर्याय है। जिससे तथाकथित आस्तिक व नास्तिक दोनों ही अपनी जिह्वा और मन .. दोनों को तृप्त करके तात्कालिक स्फूर्ति की अनुभूति प्राप्त करते हैं। और हाँ .. वो लोग भी नहीं चूकते हैं इसकी चुस्की लेने में , जिनको अँग्रेजी बोलने में तो मानसिक ग़ुलामी नज़र आती है, परन्तु .. अँग्रेजों द्वारा लायी गयी चाय की चुस्की में नहीं .. शायद ...

ख़ैर ! .. अभी आम चाय पुराण त्याग कर माणा वाली भारत  की पहली चाय दुकानों में से किसी एक दुकान से पी गयी चाय की बात करते हैं। तो .. बिना चीनी और दूध की चाय पीने वाला .. मुझ जैसा इंसान भी वहाँ की 'ग्रीन टी' खरीद कर स्वाद चखा। उसका एक अलग ही स्वाद था .. मानो उसमें अदरक के साथ-साथ अजवाइन भी मिलायी गयी हो। पूछे जाने पर दुकान में चाय बनाने वाली भी चाय में अजवाइन मिले होने के लिए हाँ में हाँ मिलायी। जबकि उसकी बात में सत्यता नहीं थी। शायद वह भाषा के कारण मेरे सवाल को समझ ही नहीं पायी होगी .. शायद ...

दरअसल माणा के बाज़ार से हमारे द्वारा खरीदी गयी 'ग्रीन टी' की 'पैकेट्स' और वहाँ वाली भारत की प्रथम चाय की दुकान से पी गयी 'ग्रीन टी' .. दोनों ही 'ग्रीन टी' थी ही नहीं .. वह तो उस से भी बढ़ कर .. अतिगुणकारी एक अलग ही बिच्छू की चाय थी / है .. शायद ...

अब तो .. आज बस इतना ही .. उस बिच्छू की चाय और बद्रीनाथ व माणा से जुड़ी आँखों देखी अन्य बतकही "बिच्छू की चाय .. आय हाय !-२" में .. बस यूँ ही ...