जैसे हमारी ज़िंदगी का हर पल, हर दिन, मनोरंजक ही हो .. ये आवश्यक तो नहीं। वैसे ही हर रील (या बतकही) में मनोरंजन ही हो .. ये ज़रूरी नहीं। हम प्रायः अपनी रीलों में अपनी मसल्स और मेकअप ठूंस -ठूंस कर या फिर ऊटपटांग हरकतों से भरी छिछोरे मनोरंजन वाली रील सोशल मीडिया पर परोसने के आदी हैं और बहुतायत में लोग देखने के भी। पर हमने अभी- अभी देखा कि .. उसी सोशल मीडिया ने हमारे पड़ोसी राष्ट्र में तख़्तापलट कर दिया।
सर्वविदित है कि अंग्रेज़ी वर्णमाला की जो आख़िरी Z है, उसी Z वाली Z या Z+ सुरक्षा .. अपने देश में सुरक्षा देती है बड़े बड़े नेताओं और मंत्रियों को। परन्तु पड़ोसी राष्ट्र की उसी Z वाली .. Gen-Z पीढ़ी ने अपने पूरे देश को तहस- नहस करने में कोई भी कसर नहीं छोड़ी है। बल्कि अपने देश के नेताओं- मंत्रियों को दौड़ा- दौड़ा कर मारा भी और देश छोड़कर बाहर जाने या देश में ही कहीं गुमनाम स्थान में छुपने के लिए लाचार कर दिया। भले ही तथाकथित तौर पर वो सभी के सभी भ्रष्टाचार या भाई- भतीजावाद के शिकार रहे हों।
ऐसे परिदृश्य में .. बांग्लादेश हो या नेपाल .. दोनों ही एक से लगे। जिसने ये पुनः साबित कर दिया कि उग्र भीड़ की .. ना तो कोई जाति होती है और ना ही कोई धर्म। बस्स .. लूटपाट, लूटखसोट, आगजनी, मारपीट, नारेबाजी, हत्या इत्यादि- इत्यादि और बलात्कार भी, जो .. इस भीड़ ने नहीं की। पर टेलीविजन पर ही सही .. जो भी तस्वीरें दिखीं .. वो घिनौनी और भयावह भी थीं .. शायद ...
फिर .. ख़बरों के आँकड़ों के अनुसार वहाँ के 25 कारगारों से लगभग 15000 से भी अधिक क़ैदियों का भाग जाना व लगभग 560 अपराधियों का हिरासत से भाग निकलना और इन सभी का उसी आम समाज में पुनः ग़ैरक़ानूनी तरीके से वापस आ जाना .. उस समाज- देश के साथ- साथ बिना पासपोर्ट व वीजा के ही आवागमन वाले पड़ोसी देश होने के नाते हमारे देश के लिए यानी हमारे लिए भी संभवतः खतरनाक ही है।
किसी उचित माँग को भी अनुचित और हिंसात्मक तरीके से माँगी जाए तो .. इसे जुर्म ही कहा जाना चाहिए और वहीं .. अगर अनुचित माँग को अनुचित तरीके से माँगा या फिर जबरन या साजिशन मनवाया जाता है, तो उसे आतंकवाद कहा जाता है .. शायद ...
ऐसी मनहूस घड़ियों में रोम के जलने वाले दिन के नीरो की, मैनहट्टन परियोजना के तहत परमाणु बम के आविष्कार वाले दिन की, जर्मनी की लोककथा The Pied Piper of Hamelin (द पाइड पाइपर ऑफ हेमलिन) यानी बांसुरीवाला और चूहे की कहानी की भी और .. .. अपनी so called आज़ादी वाले दिन के बंटवारे की .. एक साथ यादें ताज़ी हो जाती हैं। जिनमें एक तरफ़ कुछ पाने की ख़ुशी तो .. दूसरी तरफ़ बहुत कुछ गुम हो जाने की टीस। एक तरफ़ सोशल मीडिया ऐप्स की पाबंदी के विरोध से पाबंदी का हट जाना और दूसरी तरफ़ .. उस विरोध या विद्रोह में देश की ढांचा का जल जाना। वो भी हैवानियत भरी निम्नस्तरीय लूटखसोट के साथ .. मानो .. चंगेजी ख़ून दौड़ रही हों उन सभी की रगों में .. शायद ...
वैसे भी अग्नि वेदी , हवनकुंड, चूल्हा , चिता जब एक या कुछ लोग जलाते हैं, तो किसी का नुकसान नहीं होता ; परन्तु .. जब एक उग्र भीड़ किसी ज़िन्दा इंसान, घर, मोहल्ला, शहर को जलाती है तो .. बहुत कुछ खो जाता है .. जल जाता है .. गुम हो जाता है .. आम जनजीवन, शिक्षा, आपातकालीन उपचार, व्यापार, रेहड़ी, दिहाड़ी .. सबकुछ ठप हो जाते हैं .. थम जाते हैं .. एक स्पंदनहीन मृत देह की तरह .. शायद ...
ये आंदोलन शहर को बिना जलाए और बिना लूटे भी किया जा सकता था। 9 सितंबर को जलने के बाद आज देखने पर ऐसा लग रहा है .. मानो पूरे शहर, पूरे राष्ट्र के मुँह पर कालिख पोती हुई है। और फिर .. इसकी भरपाई भी तो so called Gen-Z के कामगार या व्यापारी अभिभावक रूपी आम जनता की गाढ़ी कमाई से लिए गए टैक्सों से ही तो की जाएगी ना ? .. शायद ...
[ सभी उपरोक्त Pics 'आजतक' के सौजन्य से. ]