दिखते हैं अक़्सर,
पारदर्शी काँच के बने
'पेपरवेट' के भीतर।
सम्भालते पल-पल, हर पल,
जीवन के तलपट से भरे
रोज़नामचा के पन्ने
वर्षों से पड़े मेज पर।
शाश्वत नहीं, नेह-से मेरे,
ना रोज़नामचा के पन्ने,
ना ही बुलबुले 'पेपरवेट' के .. शायद ...
पर उतने भी नहीं नश्वर
जितने वो सारे बुलबुले,
जो अनगिनत थे तैरते
कुछ पल के लिए हवा में
हमारे बचपन में
खेल-खेल में,
रीठे के पानी में
डूबो-डूबो कर
पपीते के सूखे पत्ते की
डंडी से बनी
फोंफी को फूँकने से .. बस यूँ ही ...
वो असंख्य बुलबुले,
ना शाश्वत, ना ही नश्वर,
बस और बस होते थे
और आज भी हैं होते,
वैसे ही के वैसे, पर
'पपरवेट' के
बुलबुले से इतर,
क्षणभंगुर ..
वो सारे के सारे ..
हे प्रिये ! ...
तेरे नेह के जैसे .. शायद ...
चंद बुलबुले
ReplyDeleteदिखते हैं अक़्सर,
पारदर्शी काँच के बने
'पेपरवेट' के भीतर।
गहन विचार
आभार
सादर वंदे
जी ! .. सुप्रभातम् सह नमन संग आभार आपका ...🙏
Deleteवाह... बहुत सुन्दर
ReplyDeleteजी ! .. नमन संग आभार आपका ...
Deleteनेह का बुलबुला... जितनी भी बार पढ़ रहे नया भाव मन को छू रहा ।
ReplyDeleteगहन भाव लिए गूढ़ अभिव्यक्ति।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २ फरवरी २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
जी ! .. नमन संग आभार आपका .. .
Deleteशायद नहीं पक्का
ReplyDeleteजी ! .. नमन संग आभार आपका ...
Deleteपपरवेट' के
ReplyDeleteबुलबुले से इतर,
क्षणभंगुर ..
वो सारे के सारे ..
हे प्रिये ! ...
तेरे नेह के जैसे .. शायद ...
वाह…बहुत खूब
जी ! .. नमन संग आभार आपका ...
Deleteप्रिये का नेह क्षणभंगुर !
ReplyDeleteबुलबुले सा !
गहन अभिव्यक्ति
वाह!!!
जी ! .. नमन संग आभार आपका ...
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