Saturday, February 5, 2022

खुरपी के ब्याह बनाम क़ैद में वर्णमाला ... भाग-३ (अन्तिम भाग).

(i) खुरपी के ब्याह में हँसुए का गीत : -
अब आज "खुरपी के ब्याह बनाम क़ैद में वर्णमाला ... भाग-३" में गत भाग-२ में साझा किए गए ग्राफ़युक्त चित्रों के आधार पर "क़ैद में वर्णमाला" की बतकही को आगे बढ़ाते हैं और इसी बहाने लीक से हट कर खुरपी के ब्याह में हँसुए का गीत गाते हैं .. बस यूँ ही ... 
इन ग्राफ़युक्त चित्रों में .. आपका तो पता नहीं, पर मेरे लिए तो चौंकाने वाली बात है या यूँ कहें कि .. स्वीडन, कनाडा इत्यादि जैसे देशों के नाम और उनके पाठकों की संख्या भी हैं। नहीं क्या ? मुझे तो बहुत ही विस्मयकारी लगा। पहले हम स्वीडन की ही बात करते हैं। 
वैसे तो सर्वविदित है, कि स्वीडन देश यूरोपीय महाद्वीप में स्थित है और स्टॉकहोल्म शहर जैसी राजधानी वाले इस देश की मुख्य भाषा और राजभाषा, दोनों ही स्वीडिश है। यूँ तो ज्यादातर यहाँ बसे हुए विदेशी मूल के लोग नगण्य संख्या में हैं। मुख्यतः सीरिया, फिनलैंड, इराक, पोलैंड, ईरान और सोमालिया आदि जैसे देशों के लोग बसे हुए हैं, पर कुछ भारतीय भी हैं, जो अनुमानतः ज्यादातर हिंदी भाषी ही होने चाहिए .. शायद ...
अब उपरोक्त आंकड़े में जो स्पष्ट रूप से दिख रहा है, कि जिस किसी भी चिट्ठाकार के 'ब्लॉग' से यह 'स्क्रीन शॉट' (Screen shot), जिस दिन भी लिया गया होगा ; उसके विगत सात दिनों में (Last 7 days) उस ब्लॉग विशेष को झाँकने वाले भारत के छः सौ पाठकों की तुलना में स्वीडन के पाठकों की तादाद छः हजार (6K) दिख रही है। अगर गौर किया जाए तो .. भारतीय पाठकों की तुलना में ठीक-ठीक दस गुणा। 
पर ऐसे में .. मन में एक सवाल उठता है, कि लगभग एक सौ पैंतीस करोड़ से भी ज्यादा जनसंख्या वाले देश- भारत की तुलना में उस एक करोड़ से कुछ ही ज्यादा आबादी वाले, जहाँ हिंदी पढ़ने-जानने वाले अगर भारतीय हैं भी, तो बहुत ही कम ; स्वीडन देश में फिर अचानक हिंदी भाषी ब्लॉग पढ़ने वाले पाठकों या पाठिकाओं की बाढ़-सी क्यों और क्योंकर आयी होगी भला ? 
यूँ तो स्वीडन में भी कई विश्वविख्यात लेखक हुए है, जिनमें से अब तक सात लोगों को नोबेल पुरस्कार का सम्मान भी मिल चुका है। पर फिर मन में सवाल आता है कि .. इन नोबेल पुरस्कार विजेताओं में से अगर आज कई लोग जीवित भी होंगे और स्वीडिश भाषी होने के साथ-साथ अगर उन्हें हिंदी भाषा आती भी होगी, तो इन से पाठकों की इतनी ज्यादा संख्या बढ़ने की संभावना नहीं बनती है। फिर अचानक हिंदी भाषी ब्लॉग पढ़ने वाले पाठकों की बाढ़-सी भारत से ज्यादा स्वीडन में क्यों और क्योंकर भला आ गयी होगी ? 
अगर आप में से किन्हीं सुधीजन को इस विषय में मालूम हो, तो मुझे भी इस की यथोचित वजह से अवगत अवश्य करवाइएगा। वैसे उपरोक्त आंकड़े के अनुसार, अमेरिका के दो सौ सत्ताईस पाठकों की संख्या तो फिर भी समझ में आती है .. शायद ...

(ii) बेरंग हाथ भी नहीं : -
अब मुख्य बिन्दु पर आते हैं। अगर इन विदेशियों में से कोई लिखने वाले (तथाकथित साहित्यकार) अपनी देशी भाषा (जो हमारे लिए निश्चित रूप से विदेशी भाषा ही है और अंजान भी) के साथ-साथ हमारी हिंदी भाषा को भी किसी दुभाषिया की तरह जानते होंगे, तो वह तो हमारी टुच्ची बतकही को तो नहीं, परन्तु आप जैसे प्रबुद्ध लोगों की रचनाओं को बहुत ही आसानी से अपनी भाषा में अनुवाद करके, अपने नाम से प्रकाशित कर या करवा सकते हैं। या फिर राम (तथाकथित) जाने, कि वहाँ के सात नोबेल पुरस्कार विजेताओं में से ही किसी एक या दो-तीन ने हमारे यहाँ के किसी तथाकथित बहुत ही पुराने दिग्गज चिट्ठाकारों की ही किसी भी नायाब रचना का अपनी स्वीडिश भाषा में भाषांतर या लिप्यंतरण कर के ही नोबेल पुरस्कार झटक लिया हो। 
मतलब .. ये हम नहीं कह रहे या दावा कर रहे हैं, कि वे लोग ऐसा किये ही होंगें या करेंगे ही, बल्कि इसकी एक प्रबल सम्भावना बनती भर है। दूसरी तरफ ना तो हमें उनकी भाषा की और ना ही उनकी लिपि की भी जानकारी है, जो हम उन्हें रंगे हाथ पकड़ पायेंगे, कि वहाँ पर, हमारी टुच्ची बतकही की तो कदापि नहीं पर, आप दिग्गज़ों में से किसी एक की भी रचना की चोरी या डकैती कर ली गई हो या आगे भविष्य में होने की संभावना हो तो भी .. शायद ...
अजी साहिब ! विदेशों में ही क्यों .. अपने ही देश के अन्य वैसे राज्यों में, जहाँ की लिपि देवनागरी से बहुत ही भिन्न हैं ; विशेष कर दक्षिण भारत की। अब अगर वहाँ भी कोई अपनी भाषा के अलावा हिंदी भी जानने-समझने और लिखने-पढ़ने वाले दुभाषिए जैसे हों, तो उन लोगों से भी ऐसी चोरी या नक़ल की संभावना बनती हैं। हम तो तब भी नहीं पकड़ सकेंगे उनको, रंगे हाथ तो क्या, बेरंग हाथ भी नहीं। वैसे ये सब मेरी टुच्ची सोच-समझ की कोरी कल्पना भर भी हो सकती है .. बस यूँ ही ...

(iii) बेचारी सदियों से घेरे में घिरी : -
मगर .. अगर एक बार के लिए उपर्युक्त नक़ल या चोरी की सम्भावना को सच मान लिया जाए, तो फिर आप में से कई लोगों की "सर्वाधिकार सुरक्षित" या "©" वाली महान रचनाओं में से कोई एक-दो ही सही, विश्व की किसी विदेशी भाषा में या अपने ही देश के अन्य राज्य की अंजान भाषा में किसी दुभाषिए की तरह अनुवाद कर के वहाँ कोई छपवा ले या उसी के आधार पर कहीं कोई नोबेल पुरस्कार लपक ले तो ? उन अंजान भाषाओं की जानकारी नहीं होने के कारण हम-आप उन्हें कैसे पकड़ पायेंगे भला ? पकड़ पायेंगे क्या ? शायद .. नहीं ?  और अगर "हाँ" तो, वह विधि हमको भी तनिक बतलाने का कष्ट कीजियेगा आप सभी लोग, जो अपनी-अपनी बेशकीमती रचनाओं के साथ-साथ "सर्वाधिकार सुरक्षित" या "©" के फुदने लटकाते हैं .. बस यूँ ही ... 
ज़्यादातर रचनाओं के साथ रचनाकारों के नाम प्रायः © वाले चिन्ह के साथ ही देखने के लिए मिलते हैं। किसी-किसी 'ब्लॉग' पर तो एक टिप्पणीनुमा अनुच्छेद भी चिपका हुआ देखने/पढ़ने के लिए मिलता है यदाकदा। कहीं-कहीं तो विशुद्ध हिंदी में बजाप्ता कनिष्ठ कोष्टक में "सर्वाधिकार सुरक्षित" या "स्वरचित रचना" का भी 'टैग' या एक फुदना लटका रहता है। गर्वोक्ति के लिए "स्वरचित रचना" वाली 'टैग' तो समझ में आती है, पर ये "सर्वाधिकार सुरक्षित" वाला फुदना हास्यास्पद लगता है, ख़ासकर स्वीडन में या भारत के ही अन्य राज्यों में किसी दुभाषिये साहित्यकार द्वारा इसके गलत इस्तेमाल करने वाली संभावनाओं के मामले में। वैसे इसका अर्थ तो हमें भी समझ में आता ही है, कि © का मतलब .. उन रचनाकार की रचनाओं की 'कॉपीराइट' (Copyright) उनके पास है .. अगर विशुद्ध हिंदी में कहें तो प्रतिलिप्याधिकार या सर्वाधिकार सुरक्षित हैं। 
परन्तु विश्वस्तर पर अन्य भाषाओं में भाषांतर या लिप्यंतरण कर के, हमारी अपनी चुरायी गई रचना को हम अगर पकड़ नहीं सकते, तो फिर ये  "सर्वाधिकार सुरक्षित" या "©" वाले फुदने अपनी रचनाओं में भला किस के लिए ? केवल अपनी भाषा- हिंदी जानने वाले लोगों के लिए ? ये तो वही बात हो गयी कि अक़्सर देखने में आता है, कि कई मोहतरमा पूरे शहर घुम आती हैं बुर्क़े को अपने 'हैण्ड बैग' में रख के और मुहल्ला-घर आते ही 'हैण्ड बैग' से निकाल कर खुद को बुर्क़े से ढाँक लेती हैं या फिर कई घूँघट वाली बहुएँ 'मल्टीप्लेक्स-मॉल' तो घुम आती हैं बिना घूँघट के और घर आते ही घूँघट काढ़ लेटी हैं, वैसे हम बताते चलें कि हम किसी बुर्क़े या घूँघट के पक्षधर कतई नहीं हैं जी,
हम तो केवल यह कहना चाह रहे हैं, कि जब विश्व के विदेशों के या अपने ही देश के अन्य राज्यों के तथाकथित चोरों से अपनी रचना की चोरी नहीं पहचान या पकड़ सकते तो इस "सर्वाधिकार सुरक्षित" या "©" वाले फुदने केवल अपने ही हिंदी भाई-बंधुओं के लिए क्यों लगाना भला ? सवाल नहीं दाग़ रहे हम। ना , ना, हम केवल बात को समझना चाह रहे हैं .. बस यूँ ही ...
दूसरी तरफ अब अगर किसी विदेशी या देशी अन्य राज्यों के साहित्यकार को इस तरह की चोरी-सह-डकैती कर के ख़ुशी मिलती भी है, नाम मिलता भी है, तो क्या बुराई है इसमें भला ? हमने भी तो कभी उनकी चाय, तो कभी चाऊमीन, कभी पिज्ज़ा-बर्गर, तो कभी इडली-डोसा चुरा-चुरा कर अपनी कुल्हड़ें-प्यालियों और थालियों-कटोरियों को सजा कर अपनी गर्दनें अकड़ायी ही हैं। कभी चुरा कर किसी के अचकन-शेरवानी, तो किसी के पतलून, कोट-टाई से हमने अपने परिधानों की शान भी बढ़ाई ही है .. है ना ? ( ये एक विशुद्ध कुतर्क हो गया है .. शायद ... है ना ? 😃😃😃 )
और फिर .. हम तो "वसुधैव कुटुम्बकम्" के बैनर-पोस्टर वाले हैं ही। कोई चुराया भी तो, है तो अपने परिवार का ही अंग या अंश, फिर भला बिदकना कैसा ? दूसरी ओर हम लाउडस्पीकर पर , बीच-बीच में आयी गैस वाली अपनी लम्बी डकार की आवाज़ के साथ, गीता का सार वांचने वाले लोग भी तो हैं ही, कि "खाली हाथ आये हैं और खाली हाथ वापस चले जाना है। जो आज तुम्हारा है, कल और किसी का था, परसों किसी और का होगा। तुम इसे अपना समझ कर मग्न हो रहे हो। बस यही प्रसन्नता तुम्हारे दु:खों का कारण है।" ऐसे में अपनी रचना चुराए जाने से दुःखी या क्रोधित मन वाले मौकों के लिए, आपके मन की शांति के लिए गीता के सार की इन अनमोल पंक्तियों को भी मन ही मन में दुहराने से भी हमारा-आपका कल्याण हो सकता है .. शायद ... कि "तुम्हारा क्या गया, जो तुम रोते हो? तुम क्या लाए थे, जो तुमने खो दिया? तुमने क्या पैदा किया था, जो नाश हो गया? न तुम कुछ लेकर आए थे, बल्कि जो लिया, यहीं से लिया। जो दिया, यहीं पर दिया। जो लिया, इसी/उसी (तथाकथित) भगवान से लिया। जो दिया, इसी/उसी को दिया।" सच भी तो है, कि जो भी लिखा शब्दकोश से उधार लिया या चोरी किया, फिर जो उन्होंने चुराया और हमारी ही चोरी के माल को अपना नाम दे दिया, तो फिर हमें इन सब से परेशान क्यों होना भला ! है कि नहीं ? (ये एक और विशुद्ध कुतर्क हो गया है .. शायद ... 😀😀😀)

(iv) पिया मिलन की आस : -
ऐसे में 'कॉपीराइट' (Copyright) वाली संकेतात्मक चिन्ह - © में अंग्रेजी वर्णमाला वाली C बेचारी सदियों से घेरे में घिरी, क़ैद में चीख़-चीख़ कर कहती जान पड़ती है, कि तथाकथित राम-कथा - रामायण के अनुसार, लक्ष्मण रेखा से घिरी सीता माता को आखिरकार रावण हरण (अपहरण) कर के लंका ले ही गया, तो जब तथाकथित भगवान राम की धर्मपत्नी सीता माता किसी लक्ष्मण रेखा में सुरक्षित ना रह पायीं तो, हम अदना-सी 'सी' (C) कैसे सुरक्षित रह सकती है इस गोल घेरे में भला .. शायद ...
तथाकथित राम और रामायण से एक और घटना याद आयी कि बेचारे तुलसीदास जी और वाल्मीकि जी के घोर परिश्रम वाले रामायण की 'कॉपीराइट' का उल्लंघन रामानंद सागर साहब ने तो किया ही और ना ही उन लोगों को कोई 'रॉयल्टी' मिली .. शायद ... 
यूँ तो अनगिनत उदाहरण हैं तथाकथित 'कॉपीराइट' उल्लंघन के, पर एक और मज़ेदार उल्लंघन की चर्चा कर ही दूँ यहाँ। आपने भी तो सुना ही होगा कि नए या पुराने फ़िल्मी गानों या ग़ज़लों में धड़ल्ले से दो निम्न पंक्तियों को इस्तेमाल किया जाता है -
"कागा सब तन खाइयो, चुन-चुन खाइयो मांस,
दोइ नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस।"
जिन्हें उपलब्ध जानकारियों के अनुसार अमीर ख़ुसरो जी के गुरु- निज़ामुद्दीन औलिया जी के भी गुरु- बाबा फ़रीद उर्फ़ हजरत ख्वाजा फरीद्दुद्दीन गंजशकर जी, जिन्हें भारतवर्ष में चिश्ती सम्प्रदाय का संस्थापक माना जाता है, ने लगभग हजार साल पहले इसे अपनी आवाज़ और सूफ़ी अंदाज़ में गाया होगा .. शायद ...
पर आज इस रचना के साथ ना तो 'कॉपीराइट' और ना ही 'रॉयल्टी' जैसी कोई बात नज़र आती हैं। हो सकता है .. उन्होंने भी मेरी तरह अपनी रचनाओं में "सर्वाधिकार सुरक्षित" या "©" या फिर "स्वरचित रचना" वाला फुदना ना लटकाया हो, उसी का यह खामियाज़ा भुगत रहे हों .. बस यूँ ही ... 😧😧😧

(v) चलते-चलते ... : -
यूँ तो सर्वविदित है कि 23 अप्रैल को मनाया जाने वाला "विश्व पुस्तक दिवस" (World Book Day) को हम "विश्व पुस्तक और प्रकाशन अधिकार दिवस" (World Book & Copyright Day) या किताबों का अंतरराष्ट्रीय दिवस (International Day of Book) के नाम से भी जानते हैं ; जिसको यूनेस्को यानि "संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन" (UNESCO - United Nations Educational, Scientific and Cultural Organization) द्वारा तय की गई तारीख 23 अप्रैल' 1995 को सर्वप्रथम मनाया गया था। अलग से कोई भी प्रतिलिप्यधिकार दिवस (Copyright Day) नहीं मनाया जाता है। यह "विश्व पुस्तक और प्रकाशन अधिकार दिवस" में ही समाहित होता है।
यूँ तो अपने देश में "प्रतिलिप्यधिकार अधिनियम, 1957" (The Copyright Act, 1957) कानून के तहत साहित्यिक रचनाओं, नाट्य रचनाओं, संगीत रचनाओं, कलात्‍मक रचनाओं, चलचित्र रचनाओं और ध्‍वनि रिकार्डिंग से सम्बंधित निर्माणों को सुरक्षा प्रदान की जाती है .. शायद ... 
वैसे हमें और विशेष जानकारी तो नहीं इसके बारे में। यह बतकही को हम वर्तमान "दिवसों" की होड़ में गत वर्ष, 2021 में, ही 23 अप्रैल को इस 'वेब' पन्ने पर चिपकाते, पर गत वर्ष अप्रैल के पहले सप्ताह से ही कोरोनाग्रस्त होने के कारण विस्तारपूर्वक लिख भी नहीं पाए थे, तो इसीलिए चिपका भी नहीं पाए थे .. बस यूँ ही ...

1 comment:

  1. सुबोध भाई, मैं ने फेसबुक पे तो कई बार अपनी रचनाये दूसरों को बिल्कुल वैसी की वैसी खुद के नाम से पोस्ट करते देखा है। मैं ने टिप्पणी कर दी कि ये रचना मेरी है। इसके अलावा क्या कर सकती थी।
    आपने स्वीडन में हिंदी पढ़ने वाली बतबजो बोली है तो वो लोग हिंदी कैसे पढ़ते है ये तो मुझे नहीं पता। लेकिन आपका लेख पढ़ कर मैं ने अपने पेजव्यूज देखे तो पता चला कि स्वीडन में मेरे ब्लॉग के अभी तक 57.7K पेजव्यूज है। लेकिन भारत मे ज्यादा है 3.5 M।
    खैर बाकि मुझे कुछ नहीं पता।

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