'रिप्लेसमेंट' ...
तो है यूँ
अंग्रेजी का
एक शब्द मात्र,
हिंदी में
कहें जो
अगर तो ..
प्रतिस्थापन,
जिनसे यूँ तो
होता है
बेहतर ही
कभी भी
हमारा जीवन .. शायद ...
'रिप्लेसमेंट' हो
चाहे घर के
पुराने 'फ़र्नीचरों' का
या हो मामला
पूरे किसी पुराने
घर का भी
या फिर हो
भले ही ख़र्चीले
शल्य चिकित्सा से
गुर्दे या दिलों के
या फिर घुटनों के
'रिप्लेसमेंट' का,
मिलता है जिनसे
उन बीमारों को
नया जीवन .. शायद ...
कई बार
साथ समय के
बदलते समाज में
किसी विधवा के
भूतपूर्व पति का
'रिप्लेसमेंट'
या फिर
किसी विधुर की
मृत पत्नी का
'रिप्लेसमेंट',
अक़्सर ही ..
बसा देता है
इनका सूना
घर-आँगन,
उजड़ा जीवन .. शायद ...
पतझड़ में
पियराए पत्तों के
'रिप्लेसमेंट' के बाद
किसी बसंत
या हेमंत के मोहक
बदलते रंगत हों,
या पुरानी बिछिया
या किसी पायल के
बदले में मनपसंद
नयी जोड़ी से 'रिप्लेसमेंट',
या फिर कलाइयों में
पुरानी चूड़ियों से
हरी-हरी, नयी-नयी
चूड़ियों के 'रिप्लेसमेंट' से
हो सजता सावन .. शायद ...
पर कुछ रिश्ते
होते हैं
ऐसे भी दुर्लभ,
जो अक़्सर
'रिप्लेसमेंट' या
प्रतिस्थापन वाले
दिल से भी
होते नहीं हैं
प्रतिस्थापित
यानी अंग्रेजी में
कहें तो
'रिप्लेसड' ...
सारा जीवन .. बस यूँ ही ...
बस यूँ ही ....
ReplyDeleteनहीं हो पाते
रिप्लेसड
कुछ दुर्लभ रिश्ते
जिन्हें दुर्लभ
नहीं समझा जाता
कर सकते हैं
ज़िन्दगी में
बहुत कुछ रिप्लेस
लेकिन माता - पिता और
अपने ही बच्चों का रिश्ता
नहीं हो सकता रिप्लेस ।
जब कि
जीवनसाथी हो जाते हैं
कभी इच्छा से कभी मजबूरी से ।
ये रिप्लेसमेंट ,
कभी तो ज़िन्दगी
आसान करता है
तो कभी
यूँ ही सिरदर्दी
मिल जाती है व्यर्थ ही ।
बस यूँ ही .....
आपका लिखा बिल्कुल अलग ही होता है ।
जैसे गहन शोध कर लिखा गया हो ।
सुंदर अभिव्यक्ति ।
रचना/विचार को विस्तार देने के लिए धन्यवाद आपका .. आप ने माता-पिता या बच्चों के रिश्ते के बारे में जो कहा है, वो बिलकुल सही है .. पर कई दफ़ा आये दिन, यही रिश्ते भी बेमानी होते दिखते हैं .. ख़ून के रिश्तों से ज़्यादा मज़बूत पकड़ भावनात्मक रिश्तों की होती है .. शायद ... मेरी धारणा उन "कुछ रिश्तों" के लिए है/थी, कि जिनको 'रिप्लेस' नहीं किया जा सकता है ..बस यूँ ही ...
Deleteआपने सही कहा । मैं अभी अपने इर्द गिर्द ही देख रही थी ।
Deleteभावनात्मक रिश्तों का जुड़ाव अलग अलग व्यक्ति के साथ अलग अलग गहराई लिए होता है ।
यदि किसी व्यक्ति विशेष के साथ रिश्ते की बात है तो वो अलग सोच है । मैंने केवल रिश्तों को ले कर सोचा था ।
भावनात्मक रिश्तों की पकड़ ज्यादा मजबूत होती है , इसमें कोई शक नहीं ।
जी ! ...
Deleteये दुर्लभ रिश्ते
ReplyDeleteरिप्लेस तो नहीं होते
बस छोड़ दिये जाते हैं
और यह एहसास
होता है तब
जब खुद
बनते हैं माता पिता
और वक़्त के साथ
उनको भी
दिया जाता है छोड़ ।
पुनः कुछ और पंक्तियों को जोड़ना, मानो इस विचार/रचना के बेजान शब्दों में भी आपकी जानभरी भावनात्मक जुड़ाव की चुग़ली करती प्रतीत हो रही हैं .. आप सही ही कह रही हैं, पर मैं थोड़ा अलग सोचता हूँ कि बिना भावनात्मक जुड़ाव के किसी भी Biological Parents या Biological Children को Replace किया जा सकता है .. केवल "Biological Relations" होने से ही उन रिश्तों को बिना भावनात्मक जुड़ाव के, एक सड़ी-गली लाश को ढोने के जैसी ही है .. शायद ...
Deleteजो हमारे सुख-दुःख में साथ दे, वही बेहतर Replacement हो सकता है, भले ही वह अनाथ आश्रम के लोग ही क्यों ना हों ...
अपनों के लिए मेरी परिभाषा, मेरी एक पुरानी रचना/विचार की पहली चंद पंक्तियाँ :-
"अपना तो कोई
व्यक्ति विशेष होता नहीं,
जो दे दे सहारा,
लगता तो है अपना वही।
स्नेह,प्रेम,श्रद्धा की ही
बंधन होती अटूट है,
सगे वो क्या जिनमें
बस .. फूट ही फूट है।" .. बस यूँ ही ...
सामाजिक चलन में
Deleteफूट ही फूट
होते हुए भी
खुद ही टूटना है
हर सहारा बस
यूँ ही छूटना है ,
अनाथ को भी मैंने
वक़्त पड़ने पर
अजनबी बनते देखा है ,
खैर
जो दुर्लभ हैं रिश्ते
वो सबके जीवन में हों
ये ज़रूरी तो नहीं
लेकिन ऐसे रिश्तों के बिना
इंसान को
विरक्त होते देखा है ।
बस यूँ ही 😄😄😄😄
इस रचना की तह तक पहुँच पाई । यदि यूँ संवाद नहीं होता तो आधी अधूरी ही गहराई नाप पाते ।
सच में .. आज तो विश्वमोहन जी की मोहक बातों के अनुसार हमारी रचना/विचार वाली पंक्तियों,संवाद के तहत आपकी जोड़ी गयी इत्ती सारी भावपूर्ण पँक्तियों, दोनों आपस में एक दूसरे का 'रिप्लेसमेंट' बनती रहीं .. बस यूँ ही ... 😂😂
Deleteहमारे लिए तो आपकी मूल कविता का रेप्लेस्मेंट आपके और संगीता जी के संवाद से हो गया। बस यूँ ही ......!
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ..
Delete😃😃 आज आपकी पारखी नज़र ने उपर्युक्त 'रिप्लेसमेंट' देख ही लिया .. बस यूँ ही ...
बहुत सुंदर सृजन
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteजो रिप्लेसेड नही होता वही तो जिने का सहारा होता है कभी कभी। कभी चेहरे पर मुस्कान लाता तो कभी आंखों में आँसु ,जो भी हो ये रिश्ते होते बहुत मजबूत है मेरा ऐसा मानना है।
ReplyDeleteजी ! शुभाशीष संग आभार आपका ...
Deleteबहुत बढ़िया सुबोध जी। रचना तो विचारणीय है ही पर संगीता दीदी की जुगलबंदी ने जो रचना में निहित विचारों और मर्म को जो विस्तार दिया है वो सराहना से परे है। निश्चित रूप से दो गुणिजनों के संवाद से साहित्य रसिकों को बहुत कुछ मिलता है जिसकी अनुभूति गूंगे के गुड़ जैसी होती है। आप दोनों विद्वत जनों का हार्दिक अभिनंदन और आभार🙏💐💐🌷💐
ReplyDeleteजी! नमन संग आभार आपका .. अब आप "विद्वत जन" कह कर, कम से कम मुझे तो "बुद्धिजीवियों" की टोली में मत शामिल कीजिये .. बस यूँ ही ...🙏🙏
ReplyDelete(सच कहूँ तो आज पहली बार आप से सुन/सीख रहा हूँ ये लाजवाब मुहावरा - "गूंगे का गुड़" .. अच्छा लगा ..).