पसीने केवल मजदूरों के ही नहीं,
अय्याशों के भी यों बहा करते हैं।
हाथापाई ही तरबतर नहीं करती।
रूमानी पलों में भी हम भींगते हैं।
सताते तो हैं लकड़ी के चूल्हे मगर,
आधुनिक चौके भी कब छोड़ते हैं?
बहने का बस इन्हें बहाना चाहिए,
कसरतों से भी यों बह निकलते हैं।
सूख भी जाएं कड़ी धूप में सागर,
मजबूरों के पसीने नहीं सूखते हैं।
चाहे हो वातानुकूलित कमरा भी,
जुर्म धराए तो माथे से छलकते हैं।
भेदभाव ना जाति-धर्म में और ये
ना करते हैं अच्छे-बुरे में कभी भी।
पसीने पसीने होते हैं बलात्कारी,
बलात्कृत के भी पसीने छूटते हैं।
यूँ तो कई तरह के होते हैं पसीने,
आँसू-से खारे मजदूरों के पसीने,
प्रेमी-प्रेमिकाओं के गुलाब जल के
बोतलों-से यों ये शायद गमकते हैं।
अचानक सामना हो कभी मौत से,
या जो चोरी से प्रेमी बाँहों में भर ले;
झरोखों से झाँकती पटरानियों-से,
उत्सुक ये रोम छिद्रों से हुलकते हैं।
पसीना बहाता कभी कोई आदमी,
तो कोई ख़ून पसीना है एक करता,
पसीना पसीना हो जाता है आदमी,
एक अदद घर तभी चला करते हैं।
धर्मालयों में विराजमान विधाता से
माँग के सुखी जीवन की भीख भी;
यूँ तो ज़लज़लों, जिहादी धमाकों,
सुनामियों से हमारे पसीने छूटते हैं।
बच्चों की जननी माँ के भी तो ..
बहते हैं यूँ प्रसव पीड़ा में पसीने।
उधर किसी मय्यत की ख़ातिर,
क़ब्र खोदने वाले भी भींगते हैं।
अय्याशों के भी यों बहा करते हैं।
हाथापाई ही तरबतर नहीं करती,
रूमानी पलों में भी हम भींगते हैं।
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 01-07-2021को चर्चा – 4,112 में दिया गया है।
ReplyDeleteआपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
धन्यवाद सहित
दिलबागसिंह विर्क
जी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteसूख भी जाएं कड़ी धूप में सागर,
ReplyDeleteमजबूरों के पसीने नहीं सूखते हैं।
चाहे हो वातानुकूलित कमरा भी,
जुर्म धराए तो माथे से छलकते हैं।
वाह!!!
क्या बात...पसीने के भी कितने प्रकार हैं...चिलमिलाती धूप में महासागर सूखे मजदूर और भी पसीना पसीना और जुर्म पकड़े जाने पर वातानुकूलित कमरे में भी डर से पसीना पसीना...
पसीने पर बहुत ही लाजवाब विश्लेषणात्मक सृजन।
जी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteपसीने के प्रकार बहुत ही खूबसूरती से व्यक्त किए है आपने, सुबोध भाई।
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteसही लिखा आपने पसीने के भी कई रूप होते हैं।अद्भुत सृजन आदरणीय।
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteकितनी गहन सोच और कैसी दृष्टि , मजदूर के पसीने से बात शुरू कर आपने किस किस के पसीने छुड़वा दिए ।
ReplyDeleteआपके मन में एक ही समय में कितने लोगों के चेहरे आ रहे होंगे । मजदूर का कहर पसीना तो प्रेमी प्रेमिका का गुलाब जल जैसा पसीना ।
और पसीना कब और कैसे छूट जाता है इसका भी वर्णन ।
बलात्कारी और बलात्कृत दोनो को ही आता है पसीना ।
कितना पढूँ और कितना समझूँ ? हर बार नया अर्थ आ जाता है सामने ।
झकझोर देने वाली रचना ।
जी ! नमन संग आभार आपका .. चूँकि आप स्वयं एक सिद्धहस्त रचनाकार हैं, इसीलिए आप ऐसा कह/सोच पायीं कि - "आपके मन में एक ही समय में कितने लोगों के चेहरे आ रहे होंगे।" ...
Deleteसच में .. आज सुबह ही एक बिम्ब आया मन में और लगा कि यह तो रह ही गया इस रचना में .. कि ...
"बच्चों की जननी माँ के भी तो
बहते हैं प्रसव पीड़ा में पसीने।
उधर किसी मय्यत की ख़ातिर,
क़ब्र खोदने वाले भी भींगते हैं।" ..
इसे भी सोच रहा हूँ कि संशोधन कर के जोड़ दूँ .. बस यूँ ही ...
ये बस यूँ ही आपका बहुत ज़ोरदार होता है ।
Deleteबिल्कुल संशोधन कीजिये । बेहतरीन अभिव्यक्ति है ।
जी ! .. ☺ ये तो .. बस यूँ ही ... होता है .. शायद ...
Deleteकहर * खारा
ReplyDeleteजी !
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