Tuesday, July 13, 2021

बाबिल का बाइबल ...

इसी रचना/बतकही से :-

"अभी हाल-फ़िलहाल में सोशल मीडिया (इंस्टाग्राम) पर इसके कुछ बयान ने हम सभी का ध्यान बरबस ही अपनी ओर खींच लिया। मन किया ..अगर ये युवा सामने होता तो, उसे गले लगा कर उसे चूम ही लेता .. बस यूँ ही ..."

आज के शीर्षक का "बाइबल" शब्द हमारे लिए उतना अंजाना नहीं है, जितना शायद "बाबिल" शब्द .. वो भी एक व्यक्तिवाचक संज्ञा के रूप में हो तो। अपने पुराने नियमों के 929 अध्यायों और नए नियमों के 260 अध्यायों के तहत कुल 31102 चरणों से सजे बाइबल की सारी बातें भले ही पूरी तरह नहीं जानते हों हम, पर एक धर्मग्रंथ होने के नाते बाइबल का नाम तो कम से कम हमारा सुना हुआ है ही। अजी साहिब ! .. हम पूरी तरह अपने वेद-पुराणों को भी कहाँ जान पाते हैं भला ! .. सिवाय चंद व्रत-कथाओं, आरतियों, चालीसाऔर रामायण-महाभारत जैसी पौराणिक कथाओं के ; फिर बाइबल तो .. फिर भी तथाकथित "अलग" ही चीज है .. शायद ...
ख़ैर ! ... फ़िलहाल हम बाइबल को भुला कर, बाबिल की बात करते हैं। हम में से शायद सभी ने इरफ़ान का तो नाम सुना ही होगा ? अरे ! .. ना .. ना .. हम भारतीय बल्ला खिलाड़ी (Cricket Player) - इरफ़ान पठान की बात नहीं कर रहे ; बल्कि अभी तो हम फ़िल्म अभिनेता दिवंगत इरफ़ान खान की बात कर रहे हैं। हालांकि ये भी अपने जीवन के शुरुआती दौर में क्रिकेट के एक अच्छे खिलाड़ी रहे थे। बाबिल उनके ही दो बेटों में बड़ा बेटा है। लगभग 21 वर्षीय बाबिल, यूँ तो आज की युवा पीढ़ी की तरह सोशल मीडिया पर छाए रहने के लिए अपनी तरफ से भरसक प्रयासरत रहता है। परन्तु अभी हाल-फ़िलहाल में सोशल मीडिया (इंस्टाग्राम) पर इसके कुछ बयान ने हम सभी का ध्यान बरबस ही अपनी ओर खींच लिया। मन किया ..अगर ये युवा सामने होता तो, उसे गले लगा कर उसे चूम ही लेता .. बस यूँ ही ...
यूँ तो सर्वविदित है कि हर इंसान अपने माता-पिता का 'डीएनए' ले कर ही पैदा होता है। अब जिसके पास इरफ़ान जैसे पिता का डीएनए हो, तो उसकी इस तरह की बयानबाज़ी पर तनिक भी अचरज नहीं होता। वैसे इरफ़ान ने भी अपने नाम के माने- बुद्धि, विवेक, ज्ञान, ब्रह्म ज्ञान या तमीज़ को जीवन भर सार्थक किया ही है। अपनी मानसिकता के अनुसार, एक तो वह क़ुर्बानी (बलि) जैसी प्रथा के खिलाफ थे, जिस कारण से वह ताउम्र शुद्ध शाकाहारी थे। सभी धर्मों को समान मानते थे। पाखंड और आडम्बर के धुर विरोधी थे। बाद में उन्होंने अपने नाम के आगे लगे, जाति-धर्म सूचक उपनाम- "खान" को भी हटा दिया था। दरअसल वह वंशावली के आधार पर अपनी गर्दन अकड़ाने की बजाय अपने कामों से सिर उठाना जानते थे। तभी तो क़ुदरत से मिली अपनी जानलेवा बीमारी की वज़ह से अपनी कम आयु में भी देश-विदेश की कई सारी उपलब्धियां अपने नाम कर गए हैं इरफ़ान .. मील के एक पत्थर से भी कहीं आगे .. शायद ...
दूसरी ओर बाबिल की माँ - सुतापा सिकदर भी इरफ़ान की तरह ही, लगभग इरफ़ान की हमउम्र, एनएसडी (NSD / National School of Drama, New ) से अभिनय में स्नातक हैं। चूँकि वह पर्दे के पीछे का एक सक्रिय नाम हैं, इसीलिए शायद यह नाम अनसुना सा लगे; जब कि वह फ़िल्म निर्मात्री (Film Producer), संवाद लेखिका (Dialogue Writer) के साथ-साथ एक कुशल पटकथा लेखिका (Screenplay Writer) भी हैं।
एक तरफ इरफ़ान राजस्थानी मुस्लिम परिवार से और दूसरी तरफ सुतापा एक आसामी हिन्दू परिवार से ताल्लुक़ रखने के बावज़ूद, दोनों ने एनएसडी के कलामय प्रांगण में अपने पनपे प्रेम के कई वर्षों बाद, एक मुक़ाम हासिल करने के बाद ही शादी करने के आपसी वादे/समझौते के अनुसार, सन् 1995 ईस्वी में एक साधारण-सा अन्तरधर्मीय कोर्ट मैरिज (Court Marriage) किया था। तब शायद "लव ज़िहाद" जैसा मसला इतना तूल नहीं पकड़ा हुआ था और ना ही इरफ़ान ने आज के "लव ज़िहाद" की तरह अपना धर्म छुपा कर, सुतापा को बरगलाया था। बल्कि दोनों एक दूसरे की मानसिकता, रुचि, व्यवसाय .. सब बातों से वाकिफ़ थे और धर्म तो ... इनके आड़े आया ही नहीं कभी भी, क्योंकि जो सभी धर्मों को, पंथों को, जाति को .. एक जैसा मानता हो, सब को एक इंसान के रूप में देखता हो, वैसे इंसानों को इस जाति-वाती या धर्म-वर्म के पचड़े में क्यों पड़ना भला ! .. शायद ...
अब बाबिल के सोशल मीडिया पर ध्यान आकर्षित करने वाले बयान की बात करते हैं। अपने किसी "हिन्दू-मुस्लिम करने वाले" दकियानूस प्रशंसक द्वारा यह पूछे जाने पर कि क्या वह मुस्लमान हैं ?,  उसका जवाब भी अपने मरहूम पिता की तरह ही था, कि - " मैं बाबिल हूँ। मेरी पहचान किसी धर्म से नहीं है और वह 'सभी के लिए' हैं। " दरअसल उसने भी अपने पिता की तरह धर्म-जाति सूचक अपने उपनाम को अपने नाम के आगे से हटा दिया है। आगे वह यह कह कर भी अपनी बात पूरी किया , कि - " मैंने बाइबल, भगवत गीता और क़ुरान पढ़ी है। अभी गुरु ग्रंथ साहिब पढ़ रहा हूं और सभी धर्मों को मानता हूँ। हम एक दूसरे की कैसे सहायता कर सकते हैं और दूसरे को आगे बढ़ाने में कैसे मदद करते हैं, यही सभी धर्मों का आधार है। "
वैसे तो गुरु ग्रंथ साहिब का तो सार ही है, कि :-
"अव्वल अल्लाह नूर उपाया कुदरत के सब बंदे,
एक नूर ते सब जग उपजाया कौन भले को मंदे"

वर्तमान में वह ब्रिटेन की राजधानी लंदन के वेस्टमिंस्टर विश्वविद्यालय (University of Westminster, London) से फिल्म अध्ययन में कला स्नातक (Bachelor of Arts) की अपनी पढ़ाई छोड़ कर, अपने मरहूम पिता के जीते जी बुने गए सपनों को पूरा करने के लिए भारतीय फ़िल्मी दुनिया में मशग़ूल हो चुका है। जल्द ही नेटफ्लिक्स (Netflix) और 'मल्टीप्लेक्स' (Multiplex) के पर्दों पर वह अपनी अदाकारी के जलवे बिखेरेगा।
ग़ौरतलब बात ये है कि एक तरफ जहाँ हम अपने जाति-धर्म सूचक उपनामों को जिन कारणों से भी छोड़ना नहीं चाहते, बल्कि स्वार्थ की लेई से चिपकाए फ़िरते हैं ; ताकि या तो एक तबक़े के लोगबाग को या उनकी अगली पीढ़ी दर पीढ़ी को, इसके बिना कहीं आरक्षण से वंचित ना रह जाना पड़े और दूसरे तबक़े की भीड़ इसके बिना अपनी तथाकथित वंशावली की आड़ में अपनी गर्दन को अकड़ाने से कहीं चूक ना जाए। फिर तो उनकी पहचान ही नेस्तनाबूद हो जाएगी शायद। ऐसे में .. "हम श्रीवास्तव 'हईं' (हैं)", "हम कायस्थ" बानी (हैं)", "हम फलां हैं", "हम ढिमकां हैं" ... जैसी बातें बोलने वाली प्रजातियों के लुप्तप्राय हो जाने का भी डर रहेगा। ऐसे दौर में .. मात्र 21 साल के इस एक लड़के की ऐसी सोच वाली बयानबाजी यूँ ही ध्यान नहीं आकृष्ट कर पा रही है .. बस यूँ ही ...
आज की युवा पीढ़ी को बाबिल की इस सोच को निश्चित रूप से अपना आदर्श बनाना चाहिए .. शायद ... आज ना कल, युवा पीढ़ी ही समाज की रूढ़िवादिता की क़ब्र खोद सकती है। वर्ना .. वयस्क बुद्धिजीवी वर्ग तो बस एक दूसरे को कुरेदते हुए, इस सवाल में ही उलझा हुआ है, कि हम अपनी नयी पीढ़ी को क्या परोस रहे हैं !? जब कि यह तो तय करेगी .. आने वाले भविष्य में रूढ़िवादिता के जाल से निकली हुई युवा नस्लें। चहकते हुए यह चर्चा कर के, कि - वाह !!! क्या परोसा है हमारे पुरखों ने !! .. सही मायने में आज रूढ़िवादिता परोसने वालों को तो, भावी नस्लें सदियों कोसेंगी, भले ही वह भविष्य - एक दशक के बाद आए या फिर एक शताब्दी के बाद आए या फिर कई दशकों-शताब्दियों के बाद ही सही .. पर वो भविष्य आएगा जरूर .. शायद ...
अब आज बस इतना ही .. इसी उम्मीद के साथ कि हम ना सही .. हमारी भावी पीढ़ी .. कम से कम .. आज नहीं तो कल .. बाबिल की तरह सोचने लग जाए .. काश !!! .. बस यूँ ही ...










10 comments:

  1. काश , ये जातियों में न बँटे होते तो मनमुटाव कम से कम धर्म के नाम पर न होता ।
    बाबिल के बारे में जान कर अच्छा लगा । बस यूं ही ...

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    1. जी ! नमन संग आभार आपका ..

      उतने क़ाबिल भी हम नहीं थे, जब क़बीलों में बंटे थे।
      जब क़ाबिल हुए तो जातियों, धर्मों, पंथों में बंट गए।

      आये तो थे सारे मसीहे प्रेम का ज्ञान बाँटने,
      लोग उनके नाम पर, आपस में ही बंट गए। .. शायद ...

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  2. नमस्कार सर,आज के समय में इंसान तो क्या हवाओ में भी जाति का नफरत भर गया है,ऐसे समय मे कोई इस तरह की सोच रखता है तो वो वंदनीय है। दुनिया कहा से कहा पहुंच गई और हम जातिगत झगड़ों में ही अभी तक उलझे हैं। आज की परिस्थिति को देखकर तो लगता है कि हम technology के युग मे जरूर है है पर सोच से गाय और गोबर, और हिन्दू मुस्लिम में बंट कर रह गए है। आने वाली पीढ़ियों के लिए यह सुबह संकेत नही है।

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    1. शुभाशीष संग आभार तुम्हारा .. अपनी इन्हीं सोचों के साथ , सदा प्रकृति की सकारात्मक छाया में सपरिवार खुश रहो .. बस यूँ ही ...

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  3. सुबह नही शुभ

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    1. ☺ और भी कई Typoerror हैं, पर कोई बात नहीं । बात समझ में आनी चाहिए। भाषा का काम ही विचारों का आदान-प्रदान .. बाक़ी .. शत्-प्रतिशत शुद्ध तो ना हम मानव का तन है और ना ही मन .. शायद ...

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  4. बहुत ही बढ़िया, ज्ञानवर्द्धक, आँखे खोलने वाला और सबके लिए पठनीय और अनुकरणीय लेख। बाबिल ज़िंदाबाद।

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    1. जी ! नमन संग आभार आपका .. केवल बाबिल ही नहीं ऐसी सोच जहाँ कहीं भी है, उन सब के लिए ज़िंदाबाद !!!
      हमारे इसी समाज में आज कई अभिभावक और युवा भी जाति -धर्म सूचक उपनाम की त्याग कर रहे हैं। बस .. मलाल इस बात की है कि इनकी संख्या बेहद नगण्य है .. शायद ...
      हम अपने घर से इसकी शुरुआत करेंगे, सारा शहर बदल जाएगा .. बस यूँ ही ...

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  5. बाबिल के बहाने से युवा वर्ग की नई सोच और नए दर्शन से परिचय करवाने के लिए शुक्रिया सुबोध जी। दो प्रबुद्धजनों की संतति जिसने माता- पिता के रुप में दो कथित धर्मों, संस्कृतियों का निष्कलुष मिलन ही देखा हो उसकी सोच ऐसी हो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। सच है खुद को संभ्रांत और कुलीन दिखाने के लिए लोग दूसरे धर्म जाति को हेयता से देखकर समाज में कुंठा और भेदभाव की भावना फैलाने से बाज़ नहीं आते। बाबिल को ढेरों शुभकामनाएं। वो सुबह कभी तो आएगी। हार्दिक बधाई इस सार्थक लेख के लिए।

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    1. जी ! नमन संग आभार आपका .. दूसरी जाति, पंथ या धर्म को लोग अपने वाले से हेय ही नहीं बतलाते, बल्कि अपनी जाति, धर्म, पंथ पर लोग अपनी गर्दन अकड़ाना भी नहीं भुलते, और तो और .. अपना DNA भी किसी ना किसी तथाकथित भगवान तक से जोड़ लेते हैं .. ये लोग फिर बच्चों के पाठ्यक्रम से "आदिमानव का इतिहास" हटा कर "विश्वकर्मा अध्याय" क्यों नहीं जुड़वा देते ??? हम "गुरुत्वाकर्षण" की जगह "शेषनाग" क्यों नहीं पढ़वाते अपने बच्चों को ???
      हम लोगों को तब तक साहिर लुधियानवी जी को ही गुनगुना कर धैर्य रखना होगा कि -
      "जिस सुबह की ख़ातिर जुग जुग से हम सब मर मर के जीते हैं / जिस सुबह के अमृत की धुन में हम ज़हर के प्याले पीते हैं / वो सुबह न आए आज मगर, वो सुबह कभी तो आएगी / वो सुबह कभी तो आएगी" .. बस यूँ ही ...

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