Saturday, May 29, 2021

आषाढ़ के वो चार दिन ... (भाग-२).

प्रायः किसी भी शहर की जीवन शैली (Life Style) के आधुनिकीकरण की रफ़्तार बहुत हद तक वहाँ की प्रवासी आबादी (Migrant Population) की मिलीजुली जीवन शैली से प्रभावित होती रहती हैं। चाहे उस प्रवास का कारण- किसी प्रकार का उपनिवेशवाद हो या उस शहर के कल-कारखानों या अन्य संसाधनों से मिलने वाले रोजगार के अवसर हों या फिर कोई और भी अन्य अवसर। मुंबई, दिल्ली, चेन्नई, कोलकाता, बेंगलुरु, हैदराबाद इत्यादि जैसे कई महानगरीय क्षेत्रों (Metropolitan City) के अलावा झारखण्ड के बोकारो, जमशेदपुर (टाटानगर), पश्चिम बंगाल के दुर्गापुर, छत्तीसगढ़ के भिलाई इत्यादि जैसे तमाम शहर भी इसके प्रमाण हैं .. शायद ...

पर वर्तमान में प्रवासी आबादी की मिलीजुली जीवन शैली के प्रभाव की कमी को टेलीविजन जैसी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया (Electronic Media) और सोशल मीडिया (Social Media) भी पूरी करती नज़र आती हैं। जिससे छोटे से छोटे मुहल्ले-गाँव-क़स्बे तक की जीवन शैली के आधुनिकीकरण ने आसानी से पाँव पसारने की कोशिश की है। इसमें सहयोग करने के लिए या यूँ कहें कि इन सब से अपना स्वार्थ साधने के लिए कई राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियों ने भी अपने उत्पादों के एक रूपये से लेकर पाँच-दस रूपये तक के पाउच पैकिंगों (Pouch Packing) से बाज़ारों को सजाया है; ताकि इस भौतिक आधुनिकीकरण की होड़ में छोटे-मंझोले इलाकों के न्यूनतम से न्यूनतम आय वाले भी शामिल हो कर आधुनिकीकरण की आभासी तृप्ति पा सकें और किसी अन्योन्याश्रय सम्बन्ध की तरह दूसरी ओर कम्पनियाँ भी मालामाल हो सकें .. शायद ...

परन्तु किसी महानगरीय क्षेत्र में रह कर इन भौतिक आधुनिकीकरण के बावजूद भी बहुधा हम मानसिक रूप से उसी समाज की मानसिकता का प्रतिनिधित्व करते पाए जाते हैं, जिस पैतृक समाज से हम संबद्ध होते हैं। यही कारण है कि आज भी गाँव तो गाँव, कई महानगरीय क्षेत्रों में भी कई दवा दुकानों या जेनरल स्टोरों (General Stores) पर कई ग्राहकों (स्त्री, पुरुष दोनों ही) को दुकानदार के हाथों में अपने किसी मनचाहे सैनिटरी नैपकीन (Sanitary Napkins) के ब्रांड (Brand) के नाम लिखे हुए एक कागज़ के टुकड़े की पुड़िया थमा कर, उससे अख़बार में लिपटा हुआ सैनिटरी नैपकीन सकुचाते हुए लेते देखा जाता है .. शायद ...

बचपन में तब तो ये बातें समझ से परे होती थीं, जब घर की कोई महिला अभिभावक किसी अन्य हमउम्र या छोटे सदस्य को ये बोलते सुनी जाती थीं कि - "फलां ! .. जरा खाने के लिए मर्तबान से अचार निकाल दो।" या "फलां ! .. जरा-सा दो-चार दिनों तक सुबह-शाम तुम ही पूजा-घर में दिया जला देना। कुछ दिनों तक हम नहीं छू सकते।" .. और ... यह सिलसिला लगभग हर महीने चार-पाँच दिनों तक देखने-सुनने के लिए मिलता था। बाल-मन उलझन महसूस करता कि आख़िर इस नहीं छूने की वज़ह क्या हो सकती है? तब खुद के बीमार होने की बात जैसा कुछ गोलमोल जवाब दे कर चुप करा दिया जाता था। जैसे .. अक़्सर चुप करा दिया जाता था, जब घर में किसी नन्हें मेहमान के आगमन होने पर घर के हम छोटे बच्चे बड़ों से ये पूछते कि "ये छोटा शिशु कहाँ से आया है ?" .. तो बड़े हँसते हुए बतलाते कि .. "चाची या भाभी के पेट में जो बड़ा-सा घाव (गर्भ) होने से पेट बड़ा-सा हो गया था ना ... तो उसी का ऑपरेशन करवाने अस्पताल गई थी .. तो वहीं से ले कर आई हैं।" पर आज सभी समाज-गाँव-शहर में  शत्-प्रतिशत तो नहीं, पर .. अधिकांश जगहों पर परिदृश्य बदल चुका है। अब आज तो घर के छोटे-बड़े हम सभी एक साथ घरों में बैठ कर इत्मिनान से टेलीविजन पर विभिन्न चैनलों के माध्यम से अपने मनपसन्द कार्यक्रमों को देखते हुए, बीच-बीच में आने वाले कई-कई सैनिटरी नैपकिनों या कंडोमों के कई ब्रांडों के रोचक विज्ञापन सहज ही देखते रहते हैं। साथ ही हमारे साथ हमारी नई पीढ़ी की उपज कई सीरियलों में प्रेम-दृश्यों के भी अवलोकन बख़ूबी करती हैं और उसको समझती भी हैं .. शायद ...
फिर भी .. आज भी कई बार भूलवश या असावधानीवश किसी लड़की या स्त्री के पोशाक के पीछे की ओर उन दिनों वाले रक्त के दाग़ किसी राह चलते मनचले को दिख जाए तो .. उनकी फूहड़ फब्तियों का सबब बन जाता है और कुछ दोहरी मानसिकता वालों के लिए कुटिल मुस्कान का साधन। जब कि हमारी सोच टेलीविजन पर अक़्सर उस डिटर्जेंट पॉवडर (Detergent Power) विशेष के विज्ञापन के तर्ज़ पर ये होनी चाहिए कि - "कुछ दाग़-धब्बे अच्छे होते हैं।" .. शायद ...

अब भले ही जर्मनी के किसी 'वॉश यूनाइटेड' नामक एनजीओ ने सन् 2014 ईस्वी में अठाईस मई को पूरी दुनिया में हर वर्ष "मासिक धर्म स्वच्छता दिवस" या "विश्व मासिक धर्म दिवस" मनाने के सिलसिला की शुरुआत की हो, परन्तु हमारे भारत के कई राज्यों में सदियों से इस दिवस को त्योहार के रूप में अलग-अलग तरीके से मनाया जाता है। हालांकि उनके स्वरुप अपनी मूल भावना से भटक कर अंधपरम्परा, विकृत धार्मिकता, अंध-आस्था  और अंधविश्वास की दलदल में अपभ्रंश हो चुके हैं .. शायद ...

वैसे तो आज भी कई समाज में घर की किसी लड़की को पहली बार रजस्वला होने पर इस बात को छिपाया जाता है। इसके बारे में हम खुलकर बात नहीं कर पाते, बल्कि ... फुसफुसाते हैं। वहीं हमारे देश के कुछ हिस्सों में रजस्वला की शुरुआत का जश्न मनाया जाता है। अपने देश में कहीं-कहीं इस आर्ताचक्र, रजचक्र, मासिक चक्र, ऋ़तुचक्र या ऋतु स्राव के नाम पर त्योहार भी मनाया जाता है। पर समाज के अधिकांश हिस्सों में आज भी इन शाश्वत और जीवनाधार विषयों पर इस तरह से खुल के बात करनी वर्जित है। आज भी कई बुद्धिजीवियों के बीच, ऐसा करने वालों को बुरी मानसिकता का इंसान माना जाता है या यूँ कहें कि ऐसी बातों की चर्चा या चर्चा करने वाला व्यक्ति जुगुप्साजनक माना जाता है .. शायद ...
                                                       ख़ैर ! .. फ़िलहाल तो .. कुछ समझदार लोगों को जुगुप्सा करने देते हैं और ... फिर तनिक विश्राम के बाद पुनः उपस्थित होते हैं, इसके अगले और आख़िरी भाग- "आषाढ़ के वो चार दिन ... (भाग-३)" के साथ .. बस यूँ ही ...



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