Tuesday, November 3, 2020

रिश्तों का ज़ायक़ा - चंद पंक्तियाँ - (28) - बस यूँ ही ...

 "रिश्तों का ज़ायक़ा" शीर्षक के अंतर्गत मन में पनपी अपनी रचनाओं की श्रृंखलाओं में से एक - "चंद पंक्तियाँ - (28) - बस यूँ ही ..." के तहत आम-जीवन के रंग में रंगी आज की तीन छोटी-छोटी रचनाओं के पहले हम क्यों ना एक बार अपने मन में आज सुबह से उबाल मार रही एक बतकही को आप से कह ही डालें .. भले ही आप इसे "हँसुआ के बिआह आउर (और) खुरपी के गीत" का नाम दे डालें .. क्या फ़र्क पड़ता है भला !

दरअसल सर्वविदित है कि आज बिहार के विधानसभा-चुनाव के दूसरे चरण के मतदान के लिए पटना में चुनाव है। जिस के कारण यहाँ लगभग सभी सरकारी-निजी कार्यालयों के बन्द होने के कारण छुट्टी वाले दिन की अनुभूति हो रही है। सुबह डी डी भारती चैनल पर प्रेमचन्द की कहानियों में से एक "हिंसा परमो धर्म" पर आधारित नाटक देखने के क्रम में नेपथ्य से आने वाले गीत के बोल - "केहि समुझावौ सब जग अंधा" - कबीर जी की लेखनी के बहाने उन को बरबस याद करा गया। अगर मैं कहूँ कि नाटक/कहानी का अंत बरबस आँखें गीली कर गया, तो आपको अतिशयोक्ति लगे , पर .. ये सच है।

क्या आपको महसूस नहीं होता कि बुद्धिजीवियों द्वारा तय तथाकथित कलियुग नामक कालखण्ड में अब धर्मग्रन्थों वाले चमत्कार होने भले ही बन्द हो गए हों, मसलन - पुरुष की नाभि से किसी प्राणी का जन्म, किसी साँप के फ़न पर खड़ा होकर किसी का नाचना, किसी का सपत्नीक सोना या उस से समुन्द्र का तथाकथित मंथन करना, सूरज को किसी बन्दर के बच्चे द्वारा निगल जाना, सूरज की रोशनी से किसी का गर्भवती हो जाना, इत्यादि ; परन्तु 15वीं शताब्दी में कही/लिखी गयी कबीर जी की वाणी आज भी अक्षरशः शत्-प्रतिशत सत्य है और भविष्य में भी सत्य रहें भी .. शायद ...

"केहि समुझावौ सब जग अंधा

इक दु होय उन्हें समुझावौं

सबहि भुलाने पेट के धंधा।

पानी घोड़ पवन असवरवा

ढरकि परै जस ओसक बुंदा

गहिरी नदी अगम बहै धरवा

खेवनहार के पड़िगा फंदा।

घर की वस्तु नजर नहि आवत

दियना बारि के ढूॅंढ़त अंधा

लागी आगि सबै बन जरिगा

बिन गुरुज्ञान भटकिगा बंदा।

कहै कबीर सुनो भाई साधो

जाय लंगोटी झारि के बंदा"

ख़ैर ! अपना माथा क्यों खपाना भला इन सब बातों में ? है कि नहीं ? अपनी ज़िन्दगी तो बस कट ही रही .. बस यूँ ही ...

"सीता राम सीता राम, सीताराम कहिये,

जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये।"

और .. अब आज की तीनों रचनाओं में भी अपना बेशकीमती वक्त तनिक जाया कीजिए ...


(१) बहकते काजल

है मालूम

यूँ तो सबब 

आसमानी 

बरसात के ,

हैं भटकते बादल ..


पर पता नहीं

सबब उन 

बरसातों का क्या , 

जिस से 

हैं बहकते काजल ...


(२) रिश्तों का ज़ायक़ा 

हत्या की गयी

'झटका' या 'हलाल'

विधि से मिली

लाशों के

नोंचे गए 

खालों के बाद मिले 

बकरों या मुर्गों के

नर्म गोश्तों के

कटे हुए कई

छोटे-छोटे टुकड़ों को ही 

केवल हम अक़्सर

"मैरीनेट" नहीं करते ..


अक़्सर हमें

अपने कई सारे

रिश्तों की

ठंडी लाशों को

समय-समय पर

"मैरीनेट" करने की

ज़रूरत पड़ती है

ताकि .. बना रहे

रिश्तों का

ज़ायक़ा अनवरत 

बस यूँ ही ...

.. शायद ...

( मैरीनेट - Marinate ).


(३) बरवक़्त .. कम्बख़्त ...

सिलवटों का 

क्या है भला !

उग ही आती हैं

अनचाही-सी

बिस्तरों पर

अक़्सर बरवक़्त ..

कम्बख़्त ...


या होती हो 

जब कभी भी 

तुम साथ हमारे

या फिर ..

रहती हो कभी 

हमसे दूर भी अगर 

वक्त-बेवक्त ...




4 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 5.11.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
    धन्यवाद
    दिलबागसिंह विर्क

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