Wednesday, August 26, 2020

मुहल्ले की मुनिया ...

सुबह जागने पर प्रायः सुबह-सुबह हम अपनी पहली जम्हाई या अंगड़ाई या फिर दोनों से ही अपने दिन की शुरुआत करते तो हैं, परन्तु ... फ़ौरन ही हमारी दिनचर्या का सिलसिला विज्ञापनों के सरगम के साथ सुर मिलाने लग जाती है। 

फ़ौरन हम हमारी दिनचर्या की तालिका को विज्ञापनों के रंगों से सजाने के लिए हम अपने आप को विवश-बेबस महसूस करने लग जाते हैं। हमारे हर एक क़दम विज्ञापनों के गिरफ़्त में बँधते या बिंधते चले जाते हैं। 

तब ऐसे में हम आर्थिक रूप से ग़रीब ना भी हों तो विज्ञापनों के मायाजाल में हम अपने आप को ज़बरन भौतिक रूप से ग़रीब जरूर मान लेते हैं। फिर तो ऐसा मानकर एक प्रकार का कुढ़न होना भी लाज़िमी ही है .. शायद ... 

खैर ! .. फिलहाल .. आज की रचना/विचारधारा ... बस यूँ ही ...



मुहल्ले की मुनिया

ना तुम कॉम्प्लान 'गर्ल'

ना हम कॉम्प्लान 'बॉय'

करते नहीं कभी 

एक-दूसरे को

'टाटा' .. 'बाय-बाय',

पढ़ने-लिखने हम सब तो

बस ..सरकारी स्कूल ही जाएँ।


हमारे मुहल्ले भर की चाची 

जब लाइफबॉय से नहाएँ

तो फिर पियर्स से नहायी

'लकी' चेहरा वाली 'आँटी' 

किसी भी 'कम्पटीशन' के पहले

अब हम भला कहाँ से लाएँ ?


चेहरे पर अपने 'नेम', 'फेम' 

और 'स्टार' वाली छवि

जन्मजात काली 

मुहल्ले की मुनिया भला

फेयर एंड लवली वाली

निखार कहाँ से लाए ?


पसीना बहाती दिन भर खेतों में 

गाँव की सुगिया भी भला 

'सॉफ्ट-सॉफ्ट' 'चिक्स' वाली 

मम्मी कैसे बन पाए ?

काश ! कभी 'कंपनी' कोई

मन के लिए भी तो एक प्यारा-सा 

उजला-उजला डव बनाए !!! ...




17 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 27.8.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
    धन्यवाद
    दिलबागसिंह विर्क

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  2. सुदंर पोस्ट.... विज्ञापन आज की जरूरत है...वहीं ये उन लोगों को रोजगार भी देते हैं जो कहीं न कहीं इन उत्पादों से जुड़े हैं..हाँ, आज के जमाने में बस हमें जरूरत और लग्ज़री के बीच फर्क करना सीखना है....मन को सुंदर बनाने वाला उत्पाद भी होता तो बहुत ही अच्छा होता....

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    1. जी! आभार आपका ...
      पर रोज़गार उपलब्धता को किसी कार्य का सकारात्मक मापदण्ड नहीं माना जा सकता। मसलन- विभिन्न प्रकार के विदेशी उत्पादित "ड्रग्स" का गैरकानूनी रूप से भारत में विपणन बेशक़ रोजगार तो उपलब्ध कराता है, पर उसे सही नहीं माना जा सकता .. शायद ...
      दूसरा .. सवाल .. "ज़रूरत और लग्ज़री" का नहीं है, बल्कि युवा पीढ़ी को गुमराह करते विज्ञापनों का है, जो बतलाता है कि गोरा होना ही हर क़ामयाबी का मापदण्ड है या ठण्डा मतलब एक शीतल- पेय विशेष आदि-आदि ..शायद ...
      हाँ, ये तो फ़िलहाल असम्भव ही है कि मन को निर्मल करने वाला कोई उत्पाद फैक्ट्री में बन सके .. भविष्य की बात तो भविष्य में ही पता चल पाए .. शायद ...

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  3. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २८ अगस्त २०२० के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  4. जी सही कहा । हमें खुद इस बीच फर्क देखना होगा ।

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    1. जी ! आभार आपका ...
      हाँ, सच में, सही-गलत तो खुद का मन ही तौल पाता है ...

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  5. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।

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