Friday, June 19, 2020

बाइफोकल* सोच ...

                    ■ खंडन/अस्वीकरण (Disclaimer) ■ :-
●इस कहानी के किसी भी पात्र या घटना का किसी भी सच्ची घटना या किसी भी व्यक्ति से कोई लेना-देना नहीं है, बल्कि यह काल्पनिक है। अगर सच में ऐसा होता भी है, तो यह एक संयोगमात्र होगा। इसके लिए इसे लिखने वाला जिम्मेवार नहीं होगा या है।
और हाँ ... यहाँ किसी भी पुरुष या नारी पात्र/पात्रा की चर्चा की जा रही है, वह ना तो किसी व्यष्टि विशेष को इंगित कर रहा है और ना ही किसी समष्टि को, बल्कि कुछ ख़ास तरह के इंसान की कल्पना कर उसकी विवेचना कर रही है।●
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                                ◆ बाइफोकल* सोच ◆
आज की इस कहानी की एक पात्रा हैं- डॉ रेवा घोष, जो अपने ब्लॉग और फ़ेसबुक पर अक़्सर प्रकृति के अपने सूक्ष्म अवलोकन वाले शब्दचित्र से सुसज्जित अपनी रचनाओं को प्रकाशित करती रहती हैं। बल्कि यह कहना यथोचित होगा कि उनको या उनकी रचना को चाहने वाले उनकी अनमोल रचना की बेसब्री से प्रतीक्षा करते रहते हैं। इसके अलावा स्वयं की नज़रों में स्वघोषित या फिर सचमुच की विरहिणी, चाहे कारण जो भी रहा हो, और अपने घर-समाज में अपने मन ही मन में या सच में उपेक्षित महसूस करने वाली महिलाओं के मन की कसक भरी शिकायतों को तुष्ट करती उनकी कई रचनाएँ- गज़लें, अतुकान्त कविताएँ, कहानियाँ,  उनकी पहचान बन चुकी हैं। साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर घटने वाली कई सकारात्मक या नकारात्मक घटनाओं पर भी आशु-कवयित्री का दायित्व निभाना उन्हें बखूबी आता है या यूँ कह सकते हैं कि ऐसी अप्रत्याशित घटनाओं की मानो उनको सुबह-शाम प्रतीक्षा रहती हो। इधर किसी भी शाम घटना घटी, अगले दिन सुबह उन्होंने रचना रच दी या इधर किसी सुबह घटना घटी और उसी दिन शाम में रचना बन कर तैयार। अब अपनी-अपनी प्रतिभा है। कहते हैं ना कि -
"कशीदाकारी वालों को तो बस होड़ है, कशीदाकारी करने की।
अब कफ़न हो या कि कुर्ता कोई,बस जरूरत है एक कपड़े की।"
कई प्रतियोगिताओं की प्रतिभागी बनना भी उनकी प्रतिभा का एक अंग है।

अनेक बार तो अपनी रचना के पोस्ट करने के साथ-साथ, कई बार तो दो या चार पँक्तियों के साथ भी, एक बड़ी-सी अदा भरी मुस्कान में सराबोर अपनी तस्वीर या सेल्फ़ी भी चिपका देती हैं। ऐसे में उस पोस्ट पर आई प्रतिक्रियायों या उछले स्माइलीयों के लिए ये तय कर पाना मुश्किल होता है कि वो सारी प्रतिक्रियाएँ और स्माइलियाँ उनकी उन चंद पँक्तियों के लिए आई हैं या उनकी मनमोहक तस्वीर के लिए। वैसे इनके अनगिनत प्रशंसक हर आयु वर्ग के लोग हैं, पुरुष भी और नारी भी। उनकी पोस्ट की गई रचना के विषय के अनुसार ही प्रतिक्रिया देने वाले प्रशंसक भी आते हैं- सामाजिक या राजनीतिक प्रसंगों वाली रचना पर इने-गिने, पर रूमानी पर तो मानो खुले में रखे गुड़ के ढेले के इर्द-गिर्द भिनभिनाती अनगिनत मक्खियाँ।

अमूमन यूँ तो इंसान लिखता तो वही होगा, जो या तो वो स्वयं जीता है या आस-पास किसी पात्र या घटना को देख-सुन कर महसूस करता है या फिर इतिहास, पाठ्यक्रम या अन्य किताबों में या समाज से पढ़ा, सुना, या देखा होता है। पर प्रायः पाठकगण, विशेष कर पुरुष पाठक, महिला रचनाकार की रचनाओं के आधार पर तदनुसार समाजसेविका, क्रांतिकारिणी, विरहिणी या रूमानी जैसी उस रचनाकार की छवि बना लेते हैं अपने मन-मस्तिष्क में। मसलन- विरहिणी वाली रचनाओं से उन्हें ये अनुमान लगाने में तनिक भी देरी नहीं लगती कि - लगता है कि रचनाकार का वैवाहिक जीवन असंतुलित है। उसकी महादेवी वर्मा या मीराबाई से तुलना करना शुरू कर दिया जाता है और रूमानी रचना लिखती हो तो अमृता प्रीतम से। ये सारी बातें पुरुष रचनाकार के साथ भी लागू होती हैं, परन्तु चूँकि आज इस कहानी की पात्रा महिला रचनाकार हैं ; इसीलिए महिला रचनाकार की ही चर्चा कर रहा हूँ।

कई दफ़ा विरहिणी, वेबा (युवा) या बदचलन औरत को एक खास पुरुष-वर्ग कटी पतंग की तरह आँकते हैं, जिसकी बस किसी भावनात्मक डोर का एक छोर भर अपनी किसी एक ऊँगली के पकड़ में आ जाने की प्रतीक्षा में रहते हैं और ..  फिर तो पूरी पतंग और उस की पूरी बागडोर उनके हाथ में होती है।

वैसे भी किशोरावस्था में समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र के अंतर्गत यह पढ़ाया गया था कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और मनुष्य की इच्छाएं अनन्त होती हैं। ये भी सुना था कि दूर के ढोल सुहावने होते हैं। अब दोनों को ही चरितार्थ करती हुई बातें .. कई बार मन को भटका जाती हैं। नतीज़न .. जो पास में होता है और पूरे परिवार को संभाल रहा होता है ; मसलन- किसान, सैनिक, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर, पदाधिकारी, टीचर, ठीकेदार, व्यापारी, इत्यादि ब्रांड वाले इंसानों में से कोई एक .. वो संवेदनशील रचनाकार को ख़ुद का शोषक और ख़ुद के प्रति रूखा व्यवहार करने वाला लगने लग जाता है और उन से परे सोशल मिडिया का कोई गज़लकार, कवि, कहानीकार, लेखक, विचारक या गायक मार्का इंसान मन को खींचने, लुभाने और भाने लग जाता है। एक आदर्श-पुरुष नज़र आने लग जाता है। अपना शुभचिंतक, सहयोगी के साथ-साथ वह संवेदी और मित्रवत् नज़र आने लगता है।

वैसे तो मीराबाई या आधुनिक मीरा कही जाने वाली महादेवी वर्मा या अमृता प्रीतम के लगभग सर्वविदित निजी जीवन के अनुसार विरह या रूमानियत से सराबोर उनकी रचनाएँ उतनी हैरान नहीं करतीं, जितनी वर्तमान आधुनिक मीराओं और अमृता प्रीतमाओं की। अपनी एक विशुद्ध खुशहाल वैवाहिक और पारिवारिक जीवन के बावज़ूद भी अगर कोई रूमानी रचना लिखता/लिखती हों तो, वो तो सम्भव और स्वाभाविक हो ही सकता है ; परन्तु किसी प्रेरणा से प्रेरित होकर विरह-गीत लिखता/लिखती हो तो उनकी कल्पना-शक्ति को दाद देना तो बनता ही है। क्योंकि किसी खुशहाल वैवाहिक और पारिवारिक जीवन से भी विरह उपजना एक प्रतिभा या कलाकौशल ही हो सकता है।

                          खैर ! ... चूँकि आज की इस कहानी की पात्रा- डॉ रेवा घोष जी मुख्य हैं ही नहीं, बल्कि मुख्य हैं एक पात्र- प्रो. धनेश वर्णवाल ; इसीलिए अब रेवा जी की ज्यादा चर्चा करना उचित नहीं है।
तो अब बातें करते हैं इस कहानी के मुख्य पात्र की .. प्रो. धनेश वर्णवाल जी एक प्रसिद्ध यूनिवर्सिटी से हिन्दी के सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं। एक अच्छे रचनाकार, समीक्षक, विचारक और समाज सुधारक भी हैं। ऐसा सब उनके अपने ब्लॉग में खुद से उल्लेख की गईं बातों से पता चलता है।

एक शाम वे अपनी साहित्यकार मित्र-मंडली के साथ शहर के एक नामी क्लब में बीता कर अपने आदतानुसार मुँह में पान चबाते हुए और कुछ अस्पष्ट गुनगुनाते हुए घर लौटते हैं। उन्हें घर में धर्मपत्नी और इकलौती बेटी, जो मेडिकल की सेकंड इयर की छात्रा है और इन दिनों कोरोना के कारण घोषित लॉकडाउन होने की वजह से कॉलेज व हॉस्टल बन्द होने के कारण घर पर ही है, दोनों रोज की तरह उनके साथ ही यानि तीनों के एक साथ डिनर करने के लिए उनकी प्रतीक्षा करती मिलती हैं।
थोड़ी ही देर में वे रोज की तरह फ़्रेश होकर डाइनिंग टेबल के पास आ गए हैं। रसोईघर से धर्मपत्नी और बेटी भी गर्मागर्म खाने से भरे कैस्सरॉल और खाने के लिए अन्य बर्त्तनों को लेकर हाज़िर हो गईं हैं। आज प्रोफेसर साहब का मनपसंद व्यंजन- अँकुरित गोटा मूँग का मसालेदार पराठा और बैंगन का रायता डाइनिंग टेबल पर सबके लिए परोसा गया है।
प्रायः किसी भी शाम का खाना या नाश्ता उन से पूछ कर और उनकी पसंद का ही बनाया जाता है। शायद यह भी पुरूष-प्रधान समाज की ही देन हो। आज शाम भी क्लब जाते वक्त वे अभी रात वाले मेनू के बारे में अपनी धर्मपत्नी के पूछने पर बतला कर गए थे।

सभी यानि तीनों हँसी-ख़ुशी चटखारे ले-ले कर खा रहे हैं। बीच-बीच में वे आज शाम की अपनी मित्र-मण्डली के बीच हुई कुछ चुटीली बातें, बेटी अपने हॉस्टल की कुछ खुशनुमा पुरानी बीती बातें व यादें और धर्मपत्नी दोपहर में अपने मायके से भाभी और बहनों से मोबाइल फोन पर हुई आपसी बातचीत का ब्यौरा आपस में एक-दूसरे को साझा कर हँस-मुस्कुरा रहे हैं। तभी उनकी बेटी उनसे चहकते हुए कहती है - "पापा! आज तो मिरेकल** हो गया।"
मुस्कुराते हुए प्रोफेसर साहब बेटी और धर्मपत्नी की ओर अचरज से ताकते हुए बोले - "ऐसा क्या हो गया बेटा!"। वे जब भी खुश होते हैं या ज्यादा लाड़ जताना होता है तो वे अपनी बेटी को बचपन से ही बेटा ही बुलाते आए हैं।
"जानते हैं? .. आज मम्मी ने पहली बार एक कविता लिखी है।"
"अच्छा! .. क्या लिखा है, जरा हम भी तो सुनें।"
"एक मिनट .. सुनाती हूँ।" फौरन अपना खाना रोक कर पास ही सेंटर टेबल पर पड़ी एक रफ कॉपी लाकर कविता सुनाने लगती है। -
"ताउम्र भटकती रही
तेरी तलाश में कि
कभी तो आ जाओ तुम प्रिय 
बन कर अवलंबन मेरा।
प्रतीक्षा करती रही
एक प्यास लिए कि
तुम आओगे ही 
बन कर आलम्बन मेरा।"
प्रोफेसर साहब का मुखमुद्रा अचानक गम्भीर हो जाता है। आवाज़ में अचानक से तल्ख़ी समा जाती है। -"रखो अभी। खाना खाओ शांति से।" सभी ख़ामोशी से खाने लगते हैं।
भोजनोपरांत सोने के लिए अपने बेडरूम में जाने के पहले भी बेटी पापा-मम्मी के बेडरूम में ही जाकर पूछती है - "पापा! अब पूरी कविता सुनाऊँ ?"
"नहीं सुननी ऐसी फ़ालतू और घटिया कविता।"
"क्यों? ऐसा क्या लिख दिया मम्मी ने भला?"
"क्या लिख दिया मतलब? कुछ भी लिख देगी? मैं मर गया हूँ क्या ? या खाना-खर्चा ठीक से नहीं चलाता? आयँ ? बोलो। जो इस बुढ़ापा में अब वो कोई अवलंबन-आलम्बन ढूँढ़ती फिरे और मैं ..."
"पापा, ये तो बस यूँ ही .. वो .. इधर-उधर पढ़ कर बस लिखने की कोशिश भर कर रही थी कि .. शायद आप उनकी सराहना करेंगे। पर आप हैं कि ..."
"इसका क्या मतलब है, कुछ भी लिखते फिरेगी। लोग क्या सोचेंगे। बोलो ...?"
"पापा! वो रेवा आँटी .. डॉ रेवा घोष .. आपकी और मेरी फेसबुक के कॉमन फ्रेंड लिस्ट में हैं। आपके और भी कई मित्र लोग हैं जो मेरे उस कॉमन फ्रेंड लिस्ट में हैं। उन सब की रचनाओं पर आपकी टिप्पणियाँ मेरी नज़रों से गुजरती रहती हैं। उस दिन तो आप उन शादीशुदा रेवा आँटी की विरहिणी-रूप वाली रचना पर तो प्यार लुटा रहे थे। आशीष और सांत्वना दे रहे थे। उनकी उस रचना के बारे में कोई कह रहा था- "विकल नारी मन के भावों का सुंदर शब्दांकन", तो कोई-  "मन के भाव ... दिल को छूते" ... प्रतिक्रिया दे रहा था, वग़ैरह-वग़ैरह। आप भी ऐसा ही कुछ लिख आए थे। जब रेवा आँटी शादीशुदा होकर ऐसा लिखने पर वाहवाही पा सकती है, विरहिणी बन सकती है, रूमानी लिख सकती है और आपकी नज़र में एक उम्दा रचनाकार हो सकती है तो मम्मी क्यों नहीं? बोलिए ना पापा .. मम्मी क्यों नहीं?"
प्रोफेसर साहब अपने वातानुकूलित शयन कक्ष में भी अपने माथे पर अनायास पसीने की बूँदें महसूस करने लगे हैं।
"और हाँ .. उस दिन मम्मी रसोईघर में वो पुराने फ़िल्म का एक गाना गुनगुना रही थी कि - "लो आ गई उनकी याद, वो नहीं आए" , तो आपका मूड ऑफ हो गया था कि इस बुढ़ापे में मम्मी को किसकी याद आ रही है भला। है ना ? .. बोले तो थे आप मज़ाक के लहज़े में मुस्कुराते हुए पर आपके चेहरे की तल्ख़ी छुप नहीं पाई थी। दरअसल आपका चेहरा भी मेरी तरह पारदर्शी है। .. और एक दिन रात में रेवा आँटी ने फेसबुक पर "आ जाओ तड़पते हैं अरमां, अब रात गुजरने वाली है" .. वाले गाने का वीडियो साझा किया तो आप फ़ौरन उसी वक्त देर रात में ही प्रतिक्रिया दे आए - "वाह! रेवा जी!, बेहद दर्द भरा नग़मा, पुरानी यादें ताज़ा हो गई " .. वाह! .. पापा वाह! ... "
" खैर! ... मैं चली सोने अपने कमरे में, रात काफी हो गई है .. गुड नाईट !"  ... उसी वक्त मम्मी की ओर भी मुख़ातिब होकर- "गुड नाईट मम्मी!" कहती हुई उनकी लाडली बेटी अपने कमरे में सोने चली जाती है।
प्रोफेसर साहब और उनकी धर्मपत्नी एक ही किंग साइज़ दीवान के दोनों छोर पर एक दूसरे के विपरीत दिशा में करवट लेकर गहरी नींद की प्रतीक्षा में सोने का उपक्रम करने लगते हैं।

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◆【 * = (1) बाइफोकल (Bifocal) = जरादूरदृष्टि (Presbyopia), यानि जिस दृष्टि दोष में निकट दृष्टि दोष और दूर दृष्टि दोष दोनों दोष होता है ; जिसमें मनुष्य क्रमशः दूर की वस्तु तथा नजदीक की वस्तु को स्पष्ट नहीं देख पाता है, को दूर करने के लिए बाइफोकल (Bifocal) लेंस का व्यवहार किया जाता है। जिसमें दो तरह के लेंस- अवतल और उत्तल, एक ही चश्मे में ऊपर-नीचे लगे रहते है।
एक ही चश्मे में बाइफोकल लेंस के दो तरह के लेंस होने के कारण, एक ही आदमी के अलग-अलग सामने वाले के लिए अलग-अलग दृष्टिकोण अपनाने के संदर्भ में "बाइफोकल सोच" शब्द एक बिम्ब के रूप में प्रयोग करने का प्रयास भर किया गया है।
(2) ** = मिरेकल (Miracle) = चमत्कार। 】◆




33 comments:

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    1. श्री सुबोध सिंहा जी,
      अनायास ही आपका यह लेख मेरी नजर में आ गया और मुझसे पढ़ा गया.

      ऐसा लगा कि प्रतिबिंबों की माध्यम से आपने किसी व्यक्ति विशेष पर ही टिप्पणी की है।

      वैसे आपने पहले ही पात्रों के काल्पनिक होने का प्रमाण पत्र दे दिया है, पर आपके अपने इसी लेख के अनुसार "तृप्त सुखी संसार की गृहिणी विरह कैसे लिख सकती है" से ज्ञान लूँ तो लगता है कि यह काल्पनिक पात्र भी आपके साथ या इर्द गिर्द जिया गया है या जिया जा रहा है। आपने रेवा जी को भी शिक्षित बताया है, तो आज की शिक्षित नारियाँ क्या इस कथा / कथानक के गूढ़ को समझ नहीं सकतीं ?

      मैं इसे नारी जाति का ही अपमान समझता हूँ।

      इसे पढकर मुझे बहुत दुख हुआ।

      June 19, 2020 at 9:16 PM

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  2. तृप्त सुखी संसार की गृहिणी विरह वैसे ही लिख सकती है जैसे क्षत्रिय कुल उत्पन्न विश्वामित्र ने दुनिया का पहला ज्ञास्त ब्राह्मणोचित छंद, गायत्री मंत्र रचा, ऋषि दीर्घतमा ने ऋग्वेद में श्रृंगार की अद्भुत ऋचाएं लिखी और जन्मांध सुर ने कृष्ण के अद्भुत बाल सौंदर्य से लेकर राधा कृष्ण के प्रेम पाग की रस माधुरी से कभी साहित्य धरा को सिक्त किया तो फिर कभी गोपियों के कृष्ण-विरह की भीषण ज्वाला से व्रजभूमि को झुलसा दिया। इसीलिए तो कहा गया है, ' जहाँ न जाये रवि, वहाँ जाए कवि'। ऐसे उदाहरण से न मात्र हिंदी साहित्य वरन विश्व साहित्य पटा पड़ा है। एक बार अंग्रेज कवि मिल्टन की 'on his blindness' पढ़ कर देखिए, आँखे खुल जाएगी।

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    1. ऋषि दीर्घतमा मामतेय अपनी माँ के गर्भ से ही अंधे थे।

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  3. कुंठाग्रस्त मन की अभिव्यक्ति, जिसे बाद में बड़ी चालाकी से स्त्री से पुरुष् की ओर मोड़ दिया गया है।
    "कई दफ़ा विरहिणी, वेबा (युवा) या बदचलन औरत को एक खास पुरुष-वर्ग कटी पतंग की तरह आँकते हैं, जिसकी बस किसी भावनात्मक डोर का एक छोर भर अपनी किसी एक ऊँगली के पकड़ में आ जाने की प्रतीक्षा में रहते हैं और .. फिर तो पूरी पतंग और उस की पूरी बागडोर उनके हाथ में होती है।"
    विरहिणी, बेवा या बदचलन ?
    क्या है ये ?
    एक तरफ तो आप स्त्रियों से कहते हैं - तनिक चीखो ना!!! और जब वे खुद को अभिव्यक्त करें तो बदचलन ?
    बाइफोकल सोच !!!
    Note : मैं अब भी विरह गीत लिखूँगी। और विरह गीत लिखनेवाली मेरी सखियो, तुम भी लिखती रहना। भाड़ में जाए दुनिया.....

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  4. निश्चित रूप से मुझे इस पोस्ट को पढ़कर अपने उपर बहुत क्षोभ हुआ कि मैंने ये कथित लघुकथा क्यों पढ़ी ? और रचना पर क्षोभ नहीं अपितु दुःख हुआ की कैसे कोई प्रतिष्ठित ब्लॉगर अपनी सहयोगी सम्माननीय महिलाओं के प्रति इतनी अशोभनीय सोच रख सकता है !! कोई इस तरह किसी बहाने से अगर मर्मान्तक कटाक्ष करता है , तो ये उनकी कुठित और संकुचित सोच का नतीजा है |ब्लॉग को पढने वालों और परखने वालों में साहित्य के मर्मज्ञ से लेकर साधारण पाठक सभी हैं | यदि कोई रचनाकार ऐसी है कि उसके असाधारण लेखन के माध्यम से उसकी बहुमुखीप्रतिभा के लिए उसकी तुलना मीरा , महादेवी वर्मा अथवा अमृता प्रीतम से होती है तो किसी भी रचनाकार के लिए गर्व की बात है और सवेरे की घटना पर शाम तक जीवंत रचना लिखना एक अतुलनीय प्रतिभा का द्योतक है जिसके लिए उसकी सराहना होनी चाहिए ना कि भर्त्सना | प्रतिभा पुरुषो की ज़ागीर नहीं , ये ईश्वर प्रदत्त है | एक संवेदनशील रचनाकार की यही विशेषता है कि वह अपने आसपास अथवा बहुत दूर के पात्रों की पीड़ा अथवा अन्य मनोभाव सहजता के आत्मसात कर उस पर लिख सकता है जैसे माननीया सुभद्रा कुमारी चौहान ने वीरांगना लक्ष्मीबाई पर जब कालजयी पंक्तियाँ -- ''खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी -'' लिखी तो वह लक्ष्मीबाई के रणकौशल को देखने रणभूमि नहीं गयी थीं , ये उनकी कल्पनाशीलता का ही कमाल था कि उन्होंने अपनी कल्पना के सहारे उस पल को जीवंत रूप में देखा और लिखा | साहित्य की मीरा महादेवी जी से किसी ने नहीं पूछा, जीवन में एकाकी होते हुए उन्होंने अपनी रचनाओं के रूप में किस अप्राप्य की आराधना और कामना की है |सीता , द्रोपदी , यशोधरा जैसे ऐतहासिक पात्रों की वेदना , एक स्त्री होने के नाते एक नारी मन सहज ही अनुभव करने में सक्षम है | सो , किसी के लेखन को उसके व्यक्तिगत जीवन के साथ जोड़ना एक छोटी सोच है | महिलाओं को ईश्वर ने बहुत संवेदनशील और भावुक बनाया है | उसकी ममता , करुणा और संवेदनाएं किसके लिए छलक जाएँ पता नहीं चलता || शहीद पर लिखने के लिए शहीद की माँ, बहन ,बेटी होना जरूरी नहीं और ना ही किसी किसान पर लिखने के लिए खेतों में हल चलाना जरूरी है | ठीक वैसे ही जैसे यदि कोई पुरुष चकलाघर अथवा रेड लाइट एरिया पर लिखता है, तो इसका मतलब ये बिलकुल नहीं कि वह वहां होकर ही आया है | और ये कथा काल्पनिक है या असली पात्र पर आधारित है जो भी हो इसका दायरा बहुत संकुचित है और अशिष्ट भी | कितनी ही महिला ब्लॉगर ऐसी हैं जिनके चित्र ब्लॉग पर नहीं लगे और ना ही उनकी उम्र का अंदाजा है | वे मात्र अपने शालीन और भावपूर्ण लेखन के जरिये पाठकों में लोकप्रिय हैं || | लिखना बहुत दायित्व का काम है इसमें शालीनता और दूसरों के प्रति सम्मान का भाव ना हो तो ये व्यर्थ हो जाता है |और इस रचना पर यदि कोई बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहे वो अलग बात है पर सभी महिला ब्लोग्गेर्स के लिए आज ये दुःख का विषय और स्वाभिमान पर कुठाराघात है |

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  5. अगर ये कथा मात्र अनुभूति के स्तर पर बिना किसी पूर्वाग्रह और व्यक्तिगत द्वेष के लिखी जाती तो बहुत ही बढ़िया कथा हो सकती थी | पर इसमें व्याप्त निम्न चिंतन ने, इसकी विषयवस्तु की गरिमा को खंडित कर दिया |

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  6. कई दफ़ा विरहिणी, वेबा (युवा) या बदचलन औरत को एक खास पुरुष-वर्ग कटी पतंग की तरह आँकते हैं, जिसकी बस किसी भावनात्मक डोर का एक छोर भर अपनी किसी एक ऊँगली के पकड़ में आ जाने की प्रतीक्षा में रहते हैं और .. फिर तो पूरी पतंग और उस की पूरी बागडोर उनके हाथ में होती है।?????????????

    वैसे तो मीराबाई या आधुनिक मीरा कही जाने वाली महादेवी वर्मा या अमृता प्रीतम के लगभग सर्वविदित निजी जीवन के अनुसार विरह या रूमानियत से सराबोर उनकी रचनाएँ उतनी हैरान नहीं करतीं, जितनी वर्तमान आधुनिक मीराओं और अमृता प्रीतमाओं की। अपनी एक विशुद्ध खुशहाल वैवाहिक और पारिवारिक जीवन के बावज़ूद भी अगर कोई रूमानी रचना लिखता/लिखती हों तो, वो तो सम्भव और स्वाभाविक हो ही सकता है ; परन्तु किसी प्रेरणा से प्रेरित होकर विरह-गीत लिखता/लिखती हो तो उनकी कल्पना-शक्ति को दाद देना तो बनता ही है। क्योंकि किसी खुशहाल वैवाहिक और पारिवारिक जीवन से विरह उपज ही नहीं सकता है .. शायद ... है कि नहीं ??????????????

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  7. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 20 जून 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. जी! आभार आपका यशोदा बहन! हर बार आपने विवादास्पद परिस्थितियों में भी मेरी रचना/सोच को अपने मंच पर स्थान देकर मेरे मनोबल को आलम्बन दिया है ..पुनः आभार आपका ...🙏

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  8. सुबोध जी, यह कथालेख पढ़कर बड़ा दुःख हुआ आपने किस के लिए लिखा है मैं नहीं जानती परंतु एक स्त्री होने के नाते इसे मैं अपने ऊपर ले रही हूँ.. मुझे कभी महसूस नहीं हुआ कि आपकी सोच ,आपकी मानसिकता इतनी निम्नस्तरीय है । मैं आपकी बेबाकी की, आपकी तर्कशक्ति की बहुत बड़ी प्रशंसक थी परंतु आज क्षोभ है ।
    सुबोध जी प्रतिभा किसी की जागीर नहीं होती ये व्यक्ति अपनी कोशिश से अपने चिंतन मनन से एक न एक दिन हासिल कर ही लेता है वो बात अलग ही कि कोई जन्मजात प्रतिभाशाली होता है।और आपको ऐसा क्यों लगता है अपनी भावनाओं को चाहे वो विरह हो ,रुमानियत हो या फिर कोई अन्य भाव वही लिख सकता है जिसने भोगा हो.. समानुभूति और सहानुभूति जैसे भाव भी इंसानों में विद्यमान हैं जिनके जरिये अपनी भावनाओं का प्राकट्य किया जा सकता है। बस उसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी होता है जिंदा होना मात्र जिंदा दिखना नहीं। इंसान के रूप में इंसान होना जरूरी होता है सुबोध जी माफ कीजियेगा यह सब लिखते वक्त मुझे दिली प्रसन्नता नहीं हो रही है। परंतु कृपया अपने भीतर की कुंठाओ से मुक्ति पाइए.. अपने विचार बदलिए सकारात्मक सोचिए सकारात्मक ही होगा।यहाँ कोई किसी का बैरी नही है मेरे ख्याल से ब्लॉग जगत भी फेसबुक के माध्यम से एक परिवार की तरह ही है सबकी भावनाओ की कद्र कीजिए। एक दूसरे को प्रोत्साहित कीजिये। खुलकर आमने-सामने बात कीजिये। यूँ किसी के सम्मान को आप अपनी लेखनी द्वारा क्षति पहुंचाने का प्रयास न करें क्यों कि सभी पढ़े लिखे औऱ समझदार हैं।

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  11. आदरणीय सुबोध जी आज आपकी पोस्ट पढ़कर महसूस हुआ कि औरतों को लेकर लोगों की सोच न बदली है ना ही बदलेगी।अब तो फेसबुक पर कोई रचना डालते समय सोचना पड़ेगा। कहीं सामने वाला हमारी रचना पढ़कर हमारे बारे में इस तरह की कोई ग़लत धारणा न बना लें।अगर कोई कवियत्री प्रेम के गीत लिख सकती है तो विरह की वेदना क्यों नहीं? भोर की लाली लिख सकती तो रात की कालिमा क्यों नहीं?अगर वो ऐसा कुछ लिखती है तो गलत क्या है। रस बिना रचना कैसे लिखी जा सकती है रस तो जीवन का आधार है।किसी के लेखन को देखकर उसके प्रति कोई ग़लत धारणा बना लेना उचित नहीं है।किसी के लेखन को उसके व्यक्तिगत जीवन के साथ जोड़ना एक छोटी सोच है |नारी मन बहुत भावुक होता है। उसके अंदर दर्द लिखने की क्षमता है तो ममता,हर्ष लिखना भी मुश्किल नहीं है। विरह लिखने के लिए विरहणी होना जरूरी नहीं,ना ही प्रेम लिखने के लिए प्रेमिका होना जरूरी है।

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  12. मेरी यह कविता यदि सुबोध जी के नजर पड़ गई होती तो उन्होंने बवाल ल ही मचा देना था.😃

    *सिंदूर मेरे*

    वक्रताओं से उभर कर,
    माँग की सूनी डगर पर,
    लटों की लहरों से चल कर,
    नयन झीलों में उतर कर,
    पा सको दिल में जगह गर,
    चमकोगे मेरे भाल पर,
    सिंदूर बनकर।

    अधर पर मुस्कान बन कर,
    नयन में आह्वान बन कर,
    मन में पीठासीन हो कर,
    जीतकर मेरे हृदय को,
    हो जो हृदयासीन तो फिर,
    चमकोगे मेरे भाल पर,
    सिंदूर बनकर।

    मेरे मन की भ्राँति हरकर,
    मेरे हृदय में शांति भरकर,
    नयनों में मेरे कांति बनकर,
    हृदय, मन,नयनों में मेरे,
    और लबों पर बस सको गर,
    चमकोगे.मेरे.भाल पर,
    सिंदूर बनकर।
    सिदूर बनकर।।

    माडभूषि रंगराज अयंगर

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  13. " कई बार तो दो या चार पँक्तियों के साथ भी, एक बड़ी-सी अदा भरी मुस्कान में सराबोर अपनी तस्वीर या सेल्फ़ी भी चिपका देती हैं। ऐसे में उस पोस्ट पर आई प्रतिक्रियायों या उछले स्माइलीयों के लिए ये तय कर पाना मुश्किल होता है कि वो सारी प्रतिक्रियाएँ और स्माइलियाँ उनकी उन चंद पँक्तियों के लिए आई हैं या उनकी मनमोहक तस्वीर के लिए।"

    महिलाओं के बारे में ये ओछी मानसिकता हमेशा से रही है और शायद आगे भी जारी रहे परन्तु अब इन बातों से औरतों को कोई फर्क नहीं पड़ता है।हाँ ,आज भी अधिकांश पुरुषो की सोच प्रो. धनेश वर्णवाल जी की ही तरह "बाइफोकल सोच" है और शायद आप भी उनमे से एक हैं।विनम्र निवेदन है -" किसी भी विषय पर साकारात्मक सोच नहीं बना सकते हैं तो कोई बात नहीं कम से कम नाकारात्मकता तो नहीं फैलाये।

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  14. आप सभी आलोचकों-प्रशंसकों का बहुत-बहुत धन्यवाद एवं आभार।🙏
    विगत तीन दिनों में आपके दिए गये अपनत्व पर अपनी मातृभाषा में न्यूटन के गति का तीसरा नियम लागू करने की कोशिश भर किया तो ब्लॉग ने अँग्रेजी ने डाँट दिया -
    "Your HTML cannot be accepted : Must be at most 4,096 characters."
    अब तो मुझे कई टुकड़ों में अपना अपनत्व देना होगा .. तो प्लीज .. जितने भी भाग में हो मेरी बतकही .. आप निम्नलिखित कई पूरे भागों को अपना बेशकीमती समय दीजिएगा अवश्य 🙏

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  15. जितना धैर्य से आप सभी ने समय देकर दो-दो बार, तीन-तीन बार, दो-दो दिन अपनी प्रतिक्रिया दी है, इससे यह साबित होता है कि आप भी मेरे द्वारा रचे गये चरित्र की मानसिकता का विरोध करते हैं।
    सबसे पहले मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि स्त्रियों के प्रति मेरी ऐसी कोई सोच या मानसिकता नहीं,व्यक्तिगत रुप से मैं स्त्रियों का सम्मान करता हूँ।
    पर केवल मैंने यहाँ ऐसे पुरुषों की मानसिकता का चित्रण करने का प्रयास किया है जो सोशल मिडिया के प्लेटफार्म पर आज के दौर में भी आसानी से उपलब्ध हैं।

    पर बेशक़ऐसी मानसिकता मेरी नहीं।
    डॉ रेवा घोष के चरित्र चित्रण में उलझकर आपने मूल कहानी नहीं पढ़ी, इसका मुझे खेद भी है।

    आप से अनुरोध है कि मेरी भी इस कही बात को भी धैर्यपूर्वक अंत तक जरूर अपना क़ीमती समय दें।

    वैसे त्वरित उत्तर नहीं दे सकने का कुछ तो निजी समयाभाव भी था और साथ ही ये सोच भी कि .. कोई तू-तू, मैं-मैं वाली स्थिति ना हो या ट्रोल जैसी कोई बात फिर से ना उत्पन्न हो, वैसे भी मेरे प्रतिउत्तर के तर्क कटु लगते हैं, इसलिए भी सोचा, एक ही बार बात करते हैं।
    खैर, आप सबों की मेरे और मेरी रचना/सोच के प्रति गत तीन दिनों में नकारात्मक प्रतिक्रियाओं के बीच एक सकारात्मक और अपनत्व से लिप्त सूरदास और ऋषि दीर्घतमा जैसे लोगों को पढ़ने की सुझाव भरी प्रतिक्रिया भी मिली। मैं निजी तौर पर उनकी और उनकी हर प्रतिक्रियाओं का स्वागत करता हूँ, भले ही हमारे बीच नास्तिक और आस्तिक वाला मतभेद हो। संयोग से एक बार उनसे रूबरू होने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ है। उनकी या आप लोगों में से जिनका भी ये सवाल है कि विरह या रूमानियत कोई भी लिख सकता है, तो उपर्युक्त तर्क के बाद इस बात से मैं सहमत हूँ भी पर ... फिर भी इस के पक्ष में एक बात कहना चाहूँगा कि उन तीनों - मीरा, महादेवी वर्मा और अमृता प्रीतम की रचनाओं में विरह या रूमानियत उनके स्वयं के जिए गए निजी जीवन की ही परछाई मिलती है।

    इनके अलावा मेरे लिए आप सभी जैसे इस रचना को लेकर नकारात्मक सोच वालों के लिए भी मेरे मन में एक सम्मान है, इसीलिए अपनी एक-एक पंक्ति पर बात करने के लिए हाज़िर हूँ मैं।
    वैसे पाठकगण जिन्होंने सिर्फ़ डॉ रेवा घोष का चरित्र पढ़कर प्रतिक्रिया दे दी और रचना के मर्म तक न पहुँच सके; उनसे कहना था/है कि कहानी के मूल भाव पर भी प्रतिक्रिया अवश्य दीजिए .. मुझे प्रतीक्षा रहेगी।

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  16. वैसे शायद अंत तक धैर्य के साथ कम लोगों ने कहानी को पढ़ी है और जिन्होंने पढ़ा उन्होंने उस मुख्य पुरुष पात्र-प्रो. धनेश वर्णवाल की अपनी प्रतिक्रिया में चर्चा भी की है। पर जो लोग शायद शुरू में ही रह गए या पता नहीं अंत तक गए भी, फिर भी वे तो डॉ रेवा घोष में ही अटके रह कर - "तृप्त सुखी संसार की गृहिणी विरह कैसे लिख सकती है।" और "मैं इसे नारी जाति का ही अपमान समझता हूँ।" का मुहर लगा कर लोगों का ध्यान मुख्य पुरुष पात्र- प्रो. धनेश वर्णवाल की ओर से भटका दिए।

    एक तरफ कुछ लोग सोशल मिडिया को एक परिवार बोले और दूसरी तरफ कुछ लोग यहाँ से इतर कई मंचनुमा मुहल्लों में मानमर्दन की गुहार लगाकर इसकी बात भी उठाई .. जिस पर कुछ बुद्धिजीवी-प्रतिक्रिया में परिवार-परवरिश पर भी ऊँगली उठाई गयी; ये कितना उचित है मुझे नहीं पता क्योंकि मुझे या उन्हें ख़ुद को किसी देवता-विशेष के डी.एन.ए. धारी मानने वालों को शायद पता ही नहीं होगा कि आज से हजार-दो हज़ार साल पहले उनके पूर्वज कौन थे।
    जिनकी प्रतिक्रिया ये आई है कि औरतों को लेकर लोगों की सोच न बदली है ना ही बदलेगी ; तो यही तो बतलाना चाहा है इस कहानी में मैंने।

    किसी ने कहा- "बड़ी चालाकी से" .. .. अगर चालाकी ही आती मुझे तो मैं भी चापलूस किस्म का और तथाकथित व्यवहारिक होता शायद।

    मुझे तो अनुमान था कि शायद अंत पढ़ कर किसी पुरुष-मित्र को ये बुरा ना लग जाए और उनकी कोई खा जाने वाली प्रतिक्रिया ना जाए। पर हुआ इसका उल्टा।

    विरहिणी, बेवा (युवा) या बदचलन , वाले छंद को आठ-दस प्रश्न-चिन्ह से घेरने का मतलब नहीं समझ आया मुझे। उस छंद में स्पष्ट लिखा है कि "विरहिणी, बेवा (युवा) या बदचलन औरत को एक खास पुरुष-वर्ग कटी पतंग की तरह आँकते हैं।" तीनों के बीच 'comma' और 'या' का इस्तेमाल किया गया है यानि तीनों के प्रकार अलग-अलग हैं और तीनों पर एक खास पुरुष-वर्ग की गिद्ध दृष्टि होती है। मैंने इसमें क्या गलत लिखा है भला ? आपको लगता है कि समाज के सारे पुरुष राम हैं तो लगता रहे, मेरी नज़र को नहीं लगता, तो हम क्या करें ????? शायद मेरे परिवार-परवरिश में दोष हो, तो ये भी मानने के लिए तैयार हूँ, पर ये मानने के लिए अभी भी कतई तैयार नहीं कि आसपास के सारे पुरूष राम हैं।

    जिनका ये कहना है कि प्रतिभा पुरुषों की ज़ागीर नहीं , ये ईश्वर प्रदत्त है। तो शायद उनकी नज़र मेरे इस लिखे पर नहीं गया कि - "ये सारी बातें पुरुष रचनाकार के साथ भी लागू होती हैं, परन्तु चूँकि आज इस कहानी की पात्रा महिला रचनाकार हैं ; इसीलिए महिला रचनाकार की ही चर्चा कर रहा हूँ।"

    अब एक बार डॉ रेवा घोष की भी बात कर लेते हैं। अगर आप लोगों की कोई बाल या युवा सन्तान मोबाइल पर EA Sports के तहत Cricket 07 नामक वीडियो गेम खेलती हों और आपको इसकी जानकारी नहीं हो तो एक बार उन से ये जरूर समझने की कोशिश कीजिएगा कि इस गेम के तहत गेम खेलने के पहले अपने मन मुताबिक़ कंप्यूटराइज्ड काल्पनिक खिलाड़ी बनाए जाते हैं, जो उस बच्चे या युवा के मनपसन्द किसी प्रसिद्ध खिलाड़ी से लगभग मिलते-जुलते हो सकते हैं। मतलब किसी कंप्यूटराइज्ड काल्पनिक या छद्म खिलाड़ी को सचिन तेंदुलकर जैसा बना भी दिया जाए तो वह सचिन तेंदुलकर हो जाएगा क्या ????? या अगर किसी का नाम सचिन तेंदुलकर रख दें तो उनकी तरह वह बैटिंग नहीं करने लगेगा और ठीक इसके उलट अगर कोई बैटिंग करने लगेगा भी तो सचिन तेंदुलकर नहीं हो सकता।

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  17. मेरे Disclaimer लिखने के बाद भी कुछ ने इसके विपरीत इसे मेरी चालाकी से जोड़ा, किसी ने अपनी बुद्धिमता का प्रदर्शन करते हुए किसी करीबी या आसपास के नजदीकी से सम्बन्ध जोड़ा, ... अरे .. आपको मेरी मानसिकता पर जितनी भी तरस आई हो, उस से कई गुणा ज्यादा तरस मुझे आपकी मानसिकता पर आई। आप लोगों ने खुद को या अपनी सखियों के लिए ऐसा कैसे सोच लिया। आप कहती हैं कि भाड़ में जाए दुनिया ... पर दुनिया कतई नहीं, जिसके हम सभी अंशमात्र हैं, बल्कि ऐसी मानसिकता को तो भाड़ में जानी ही चाहिए न?

    आप लोगों को ये कहने की नौबत कैसे आ गई कि कोई बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहे वो अलग बात है पर सभी महिला ब्लॉगर्स के लिए आज ये दुःख का विषय और स्वाभिमान पर कुठाराघात है। जब कि मैं शुरू से चीख रहा था कि ये एक काल्पनिक पात्र है, क्रिकेट के काल्पनिक खिलाड़ी की तरह। अब उसका पोशाक, बल्ला, टोपी एक जैसा तो लगेगा पर वो सचिन नहीं है, ये क्यों नहीं समझ में आया आप लोगों को। अरे आप सभी लोगों के लिए ऐसा कैसे सोच सकता हूँ मैं भला !!! ... जब कि आप लोगों से ब्लॉग का क, ख,ग, घ सीखा हूँ।

    आप लोग जितना मुझे बेबुनियाद दोषी मान रहे उस से ज्यादा मैं आप लोगों को ही दोषी मान रहा हूँ कि आप लोगों की इन आरोपों की कड़ी में मेरे खलनायक प्रो. धनेश वर्णवाल की हत्या हो गई।
    मैं पुरुष की दोहरी मानसिकता दर्शाना चाहा और आप लोगों ने मुझे ही प्रो. धनेश वर्णवाल साबित कर दिया। आपकी महानता और आपकी महान सोच को नमन करता हूँ।🙏

    एक सवाल भी आप सबों से पूछना चाहता हूँ, वैसे एक बार और भी पूछा था ये तो मुझे फुटपाथ पर बिकने वाले दस पैसे के व्याकरण की किताब पढ़ने की नसीहत दी गई थी किसी स्थापित साहित्यकार द्वारा। हम मानते हैं कि हम मीरा, महादेवी वर्मा और अमृता प्रीतम जी के लिए आदर की नज़र रखते हैं। उन्हें कई अवार्ड भी मिले हैं। बहुत अच्छी रचनाकार भी रहीं हैं तीनों। पर अब सवाल ये पूछना चाहता हूँ कि कितने पुरुष अपनी धर्मपत्नी में इन तीनों पात्रों में से किसी भी एक पात्र के निजी जीवन वाले चरित्र को अपने वैवाहिक जीवन में जीते जी स्वीकार करेंगे ?????

    जहाँ तक इस छंद की बात है कि "ऐसे में उस पोस्ट पर आई प्रतिक्रियायों या उछले स्माइलीयों के लिए ये तय कर पाना मुश्किल होता है कि वो सारी प्रतिक्रियाएँ और स्माइलियाँ उनकी उन चंद पँक्तियों के लिए आई हैं या उनकी मनमोहक तस्वीर के लिए।" ... तो ये सवाल कई बार मैंने स्वयं अपनी कई फ़ेसबुक महिला परिचिता ( मित्र कहना उचित नहीं होगा ) को अपने वॉल पर व्यंग्य करके ये पोस्ट में लिखते देखा है और ये आज भी सत्य है कि "कई लोग" तस्वीर को ही लाइक करते हैं। अगर आपको नहीं मालूम तो .. आपकी परवरिश-परिवार उच्च स्तरीय है और हमारा निम्न स्तरीय हो .. शायद ...।

    "अनायास ही" बोल कर भी दो दिन आना .. 😃। वैसे सुबोध कोई बवाली या आतंकवादी नहीं है जो बस यूँ ही ... बवाल मचाएगा, बस बिना लाग-लपेट के मुँह पर बोलने वाला स्टुपिड भर है सुबोध। पर हाँ .. एक सवाल पूछता जरूर या पूछ रहा है कि .. लटों, अधर, नयन, मन, हृदय, नयनों, लबों की बात करने वाली नायिका🙄 भी क्या पुरुष-प्रधान समाज द्वारा महिलाओं को दी गई मानसिक ग़ुलामी की प्रतीक- सिन्दूर की कामना भला रखती है क्या ?????🤔

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  18. इस सन्दर्भ में प्रसंगवश अनायास बिहार की एक पुरानी राष्ट्र-स्तरीय घटना याद आ गई कि बिहार में प्रकाश झा की एक फ़िल्म 'गंगाजल' 2003 में जब आई थी तो उस फ़िल्म को लेकर आपत्तियाँ उठाई गई थीं और पटना के सिनेमाघरों में दिखाए जाने से रोक दिया गया था। इसे लेकर एक दल-विशेष के सदस्यों ने पटना हाईकोर्ट में एक याचिका तक भी दायर की थी, पर बाद में वह भी वापस ले ली गई थी। कारण- दरअसल इस फ़िल्म के खलनायक का नाम-साधु यादव - तत्कालीन मुख्यमंत्री के भाई और पूर्व मुख्यमंत्री के साला के नाम से मिलता था।
    बाद में फ़िल्म के निर्माता-निर्देशक प्रकाश झा ने पूर्व मुख्यमंत्री से बात की थी और यह प्रस्ताव रखा था कि ज़रुरत हुई तो प्रकाश झा उन्हें फ़िल्म भी दिखा देंगे। लेकिन इसकी ज़रुरत ही नहीं पड़ी और जैसे भी हो अवरोध करने वाले लोगों द्वारा इसको 'क्लीन चीट' दे दी गई थी।
    फ़िल्म देखकर निकले दर्शकों ने बीबीसी संवाददाता से कहा भी कि इस फ़िल्म के पात्र साधु यादव और तत्कालीन मुख्यमंत्री के भाई साधु यादव के बीच कोई समानता नहीं है।
    मतलब अगर किसी का नाम सचिन तेंदुलकर रख दें तो उनकी तरह वह बैटिंग नहीं करने लगेगा और ठीक इसके उलट अगर कोई बैटिंग करने लगेगा भी तो सचिन तेंदुलकर नहीं हो सकता।
    बाद में उस बीबीसी संवाददाता-मणिकांत ठाकुर का ये बयान आया कि इस विवाद से और कुछ हुआ हो या ना हुआ हो पर इस फ़िल्म को बहुत फ़ायदा हुआ है और जहाँ भी यह फ़िल्म चल रही है वे सब सिनेमाघर हाउसफ़ुल चल रहे हैं।
    एक सिनेमाघर के मालिक का बयान था कि वैसे तो इस फ़िल्म में कुछ भी नहीं है। अगर यह विवाद नहीं हुआ होता तो इतनी भीड़ का सवाल ही नहीं था।

    वैसे मेरी ऐसी TRP की कोई ना तो मंशा थी, ना है और ना भविष्य में कभी रहेगी और .. ना ही मुझे कोई शौक़ है। अपनी रचना को मैं सड़क किनारे उग आये लावारिस आम के पेड़ का आम मानता हूँ , जिसे किसी बागों के बेशकीमती आम की तरह किसी बाज़ार की जरुरत पड़े। बेशक़ राह चलता कोई भी इसका स्वाद चख ले, इसी लिए तो मैं © /copyright नहीं लगाता अपने लिखे बकबक वाली बकवास के नीचे।

    अंत में एक बार फिर से आप सभी से अनुरोध है कि आप सभी फिर से 'कूल' (cool) मन से डॉ रेवा घोष के चित्रण के आगे जाकर कहानी अवश्य पढ़िए और बतलाइये कि अपने आस-पास आप प्रो. धनेश वर्णवाल के जैसे चरित्र को नहीं देख पाते हैं क्या ????? ...

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  19. उपर्युक्त पाँच भागों में हैं आपके ऊहापोह का ... जो भी है .. बस एक बार देख/पढ़ भर लीजिए ...

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    1. आपने अपने लेख को एडिट किया है -
      " किसी प्रेरणा से प्रेरित होकर विरह-गीत लिखता/लिखती हो तो उनकी कल्पना-शक्ति को दाद देना तो बनता ही है। क्योंकि किसी खुशहाल वैवाहिक और पारिवारिक जीवन से भी विरह उपजना एक प्रतिभा या कलाकौशल ही हो सकता है"

      ये पंक्तियाँ पूर्व में ऐसी थीं
      "
      किसी प्रेरणा से प्रेरित होकर विरह-गीत लिखता/लिखती हो तो उनकी कल्पना-शक्ति को दाद देना तो बनता ही है। क्योंकि किसी खुशहाल वैवाहिक और पारिवारिक जीवन से विरह उपज ही नहीं सकता है .. शायद ... है कि नहीं"

      इन्हीं पंक्तियों पर मुझे आक्रोश हुआ था। क्या स्त्रियों को ब्लॉग पर अपने खुशहाल पारिवारिक जीवन का सर्टिफिकेट लगाना होगा ?
      माना कि हर पुरुष राम नहीं है और स्त्रियों को सचेत और सावधान रहना चाहिए। परंतु अपने ब्लॉग जगत में इतने शालीन और सभ्य पुरुष लेखक हैं जिन्होंने हमारी रचनाओं को सराहा, हमें प्रोत्साहित किया और कभी हमारी रचनाओं पर कोई गलत टिप्पणी नहीं की। इस ब्लॉग जगत में हमेशा सुरक्षित महसूस किया है मैंने तो... फेसबुक व अन्य सोशल मीडिया का पता नहीं। बाकी बहुत कुछ तो स्त्रियों के अपने हाथ में भी है।
      आपने आधी कथा में स्त्रियों के लेखन की बखिया उधेड़ी बाद में प्रो धनेश वर्णवाल से जोड़कर उस पर लीपा पोती कर दी। यदि आपका मकसद पुरुषों की बाइफोकल सोच को दर्शाना ही था तो सिर्फ धनेश वर्णवाल वाला भाग ही परिपूर्ण था, बहुत बढ़िया था।

      विस्तार से समझाने हेतु धन्यवाद। मैंने भाड़ में जाए दुनिया (यानि ऐसी गलत सोचवालों की दुनिया) लिखा, मुझे इस पर जरा भी पछतावा नहीं है। सुबोधजी, मैं आपकी अच्छी रचनाओं की बड़ी प्रशंसक रही हूँ तो आप महिला लेखकों पर गलत लिखेंगे तो आपकी निंदा करने का भी मेरा हक है एक स्त्री और ब्लॉगर के नाते।
      कुछ लोग पीठ पीछे निंदा करते हैं, सामने आपके दोस्त और भले बनते हैं। मुझे ऐसा करना नहीं आता। मेरा रचना से विरोध है, व्यक्तिविशेष से नहीं।

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    2. आदरणीय सुबोध जी , सबसे पहले तो हार्दिक आभार कि आपने इतनी सूक्ष्मता से कडवी टिप्पणियों को परखा और विनम्रता के साथ थोड़ी सी तल्खी से सबकी जिज्ञासा शांत करने का [ सफल या असफल ] प्रयास किया | जहाँ तक मेरी टिप्पणी का प्रश्न है मैं अपनी बात पर अब भी कायम हूँ | सिवाय एक वाक्य के - कि प्रतिभा पुरुषों की जागीर नहीं - का मुझे बहुत खेद है | किसी की लिखते -लिखते पुरुषों का लिखा गया | और दूसरे मंच पर मैंने सिर्फ रचनाकारों से अच्छे व्यवहार की उम्मीद में आग्रह लिखा था, ना कि परिवार संस्कार पर सवाल उठाये थे | जो बात तर्कसंगत ना लगे , उसका विरोध जरूरी है | आप भले लिखें पर आपने जो लिखा वो सही नहीं था | एक रचनाकार के रूप आपका बहुत सम्मान है| आपके अच्छे , सटीक लेखन पर कितनी ही बार मैंने लिखा है | आजकल मेरा सभी ब्लॉग पर जाना कम है पर पढती जरुर हूँ | आप एक बहुत ही सधे रंगकर्मी और समय की सीमा से आगे के चिन्तक हैं , शायद आपसे इतनी उम्मीद नहीं थी सो आपका लिखना आहत कर गया |अगर आप जैसे संवेदनशील लोग , महिलाओं को प्रोत्साहन और सम्मान नहीं देंगे तो और लोगों से कैसी उम्मीद ??

      और रही आपकी प्रो. धनेश वर्णवाल के रूप में एक दोहरी मानसिकता वाले पुरुष की कथा के बारे में , सो जैसा कि मीना बहन ने भी कहा है , बहुत ही प्रभावी और सार्थक है , बस आपकी महिला ब्लॉगर के बारे में राय कथा पर ग्रहण की तरह छा गयी | | . धनेश वर्णवाल जैसे लोग यत्र - तत्र विद्यमान हैं , जो अपनी पत्नियों के प्रति सदैव शंका भाव से पीड़ित रहते हैं पर खुद दूसरी महिलाओं को यदा -कदा मृदु व्यवहार दिखाकर , प्रभावित करने की कोशिश से बाज नहीं आते |और दुःख की बात है कि सबके पास माँ की इतनी हितैषी बेटी या कोई और स्पष्टवादी व्यक्ति मौजूद नहीं होता जो . धनेश वर्णवाल जैसे पुरुषों को उनकी गलती बता आइना दिखा सके , इसी लिए ऐसे पुरुषों का बहुधा वर्चस्व बना हुआ है | ये दोहरी मानसिकता वाले इंसान अपनी पत्नियों अथवा परिवार कीमहिलाओं के आत्मसम्मान पर कुठाराघार करने से बाज नहीं आते | सो ये सभ्य समाज के छद्म पुरुष हैं |

      भले दूनिया में कोई राम ना बचा हो पर हर शख्स रावण हो ऐसा भी नहीं है | ब्लॉग जगत के सभ्य , शालीन सहयोगियों ने हम महिलाओं को निस्वार्थ भाव से आगे बढ़ाया है | |और मीना बहन की तरह मैं भी कहना चाहूंगी , आपसे व्यक्तिगत मतभेद नहीं पर विवादस्पद मुद्दों पर वैचारिक भिडंत जरुर होगी | विषयगत जिज्ञासा पर गंभीर विश्लेषण के लिए पुनः आभार |

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    3. जी! आभार आपका .. पुनः पधारने के लिए ...
      (जिनका भी प्रत्युत्तर नहीं दे पा रहा हूँ, उनके उत्तर के नीचे केवल "Delete" का ही option दिख रहा है, "Reply" का नहीं .. मालूम नहीं .. किसी तकनीकी कारण से या बस यूँ ही ... 🤔)

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  20. अत्यंत संवेदनशील और भावुक कलाकार सुबोधजी के भावातिरेक ने इस वैचारिक रंगमंच पर विमर्श की जो छटा बिखेरी उस पर अपने अद्भुत रंगों की कूची फेरने वाले सभी चिट्ठाकारों को हृदय से प्रणाम। किन्तु,
    समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र,
    जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।

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  21. और अब परम सुहृद सुबोध जी को कुछ मीठी उलाहना :

    आप हर चीज में 'आस्तिक-नास्तिक' का खेल क्यों खेल लेते हैं। यदि हिंदी में निराला 'राम की शक्ति पूजा ' लिखें तो वह हिंदी साहित्य की अनमोल कृति है और संस्कृत (वैदिक या लौकिक) में विश्वामित्र, अत्रि, वामदेव, दीर्घतमा, शंबूक, शुनः शेप, व्यास, वाल्मीकि, भवभूति, कालिदास आदि आदि अपने सुंदर छंद लालित्य की छटा बिखेरे तो उसे आप आस्तिकता-नास्तिकता की ओछी परिधि में बांधकर नकार देंगे! विश्व साहित्य में छंद विधान की मात्रा गणना प्रणाली का इज़ाद वाल्मीकि ने ही किया जब क्रोंच वध से आहत मन से निकले अपने वाक्यों की मात्रा गणना कर उन्होंने भारद्वाज को बताई। आपको पता ही है कि ऋग्वेद पद्यात्मक है, सामवेद गेय है, गायत्री छंद है और यह सब आपके सामने है। भले ही, उनके कथ्य पौराणिक और काल्पनिक हों (रंगमंचों की तरह), किन्तु वे स्वयं में यथार्थ हैं जो विश्व साहित्य की अनमोल निधि की तरह हमारे समक्ष है। इनको आस्तिकता या नास्तिकता की मनोदशा से देखना साहित्यिक विवेक से परे होगा। इसलिए आप इन को विशुद्ध साहित्यिक कृतियाँ माने और साहित्य की तरह ही पढ़ें। ( हमें तो लगता है कि ईश्वर आपके अंतस में इतने गहरे तक पैठ गया है कि आपका विद्रोही रंगमंचीय मन नेपथ्य से ही उसके अस्तित्व को ललकार रहा होता है)। हाँ, यदि इस क्रम में कोई 'रत्नाकर' साहित्य में रंगकर 'वाल्मीकि' बन जाये तो इसमें साहित्य का क्या दोष!

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    1. 🙏
      "इनको आस्तिकता या नास्तिकता की मनोदशा से देखना साहित्यिक विवेक से परे होगा। इसलिए आप इन को विशुद्ध साहित्यिक कृतियाँ माने और साहित्य की तरह ही पढ़ें। ( हमें तो लगता है कि ईश्वर आपके अंतस में इतने गहरे तक पैठ गया है कि आपका विद्रोही रंगमंचीय मन नेपथ्य से ही उसके अस्तित्व को ललकार रहा होता है)। हाँ, यदि इस क्रम में कोई 'रत्नाकर' साहित्य में रंगकर 'वाल्मीकि' बन जाये तो इसमें साहित्य का क्या दोष!"
      पुनः 🙏 ... :) :)

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  22. सुबोधजी,
    आया तो मैं अनायास ही था। दुबारा इसलिए आना पड़ा क्योंकि देखना था कि यदि आप स्त्रियों की श्रृंगारिक रचनाओं पर यह राय रखते हैं तो मेरी इस श्रृंगारिक रचना पर क्या राय रखेंगे? मुझे अपना जवाब मिल गया है आपसे ऐसी ही उम्मीद थी मुझे।

    मेरी यह रचना बहुत पुरानी है, मेरी पुस्तक में भी है, मेरे ब्लॉग पर भी है परंतु इसकी ऐसी समीक्षा कभी भी किसी और ने नहीं की।
    रही बात सिंदूर को मानसिक गुलामी का प्रतीक कहने की, तो भारतीय और हिंदू संस्कृति में इसका क्या महत्त्व है वह सब जानते हैं।

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    1. जी! अवश्य .. आपकी हर बातें अक्षरशः सत्य और अकाट्य हैं पर ... विश्व की आबादी की 13-14% आबादी वाली हिन्दू संस्कृति (अगर सिन्दूर के सन्दर्भ में 5-6% बौद्ध को भी मिला दें तो) पूरे विश्व की संस्कृति तय नहीं कर सकती या दावे से शेष 80-86% की संस्कृति को दावे के साथ गकत ठहरा सकती है।
      इसी को कहते हैं मिथक कथाओं पर मिथ्याभिमान .. शायद ...

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  23. सूत न कपास
    जुलाहों में लट्ठ बाजी..
    सादर...

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    1. जी! आभार आपका ... 🙏
      "सूत न कपास जुलाहों में लट्ठम-लट्ठा।" ...☺

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