Thursday, October 3, 2019

नवरातरा (नवरात्रि) चल रहा है ... (लघुकथा).

" गुडगाँव वाला 'नयका' (नया) फ्लैट मुबारक़ हो पाण्डे जी ! उहाँ (वहाँ) तो गृहप्रवेश करवा दिए ... भोज-भात भी हो गया। हिआँ (यहाँ) गाँव में पार्टी कब दे रहे हैं !? "

" जब बोलिए तब ... पीछे कौन हटता है भला श्रीवास्तव जी ... बोलिए ! " -
- मुँह में भरे गुठखे के पीक की पिचकारी चलाते हुए पाण्डे जी बोले।

" पर पाण्डे जी आप तो जानते ही हैं कि हमको 'उ' घास-फूस .. मने (मतलब) 'उ' .. 'वेजीटेरियन' आउर (और) नाबालिग वाला नहीं ... 'एडल्ट' वाला पार्टी चाहिए अलग से। समझ रहे हैं ना !? " -
- अर्थपूर्ण नजरों से फूहड़-सा ठहाका लगा कर श्रीवास्तव जी पाण्डे जी को देख रहे थे। पाण्डे जी का ठहाका भी श्रीवास्तव जी के ठहाके के साथ युगलबंदी करता हुआ प्रतीत हो रहा था। दोनों के तोंद जोर-जोर से हिल-हिल कर एक-दूसरे के खाते-पीते घर के होने का सबूत दे रहे थे।
इसी बीच पाण्डे जी के मुँह का चबाया हुआ लारयुक्त गुठखे का पीक हल्का-सा उनके कुर्ते पर टपक पड़ा था। रुमाल से पोंछते हुए वे कुछ ... मादर.... भैण.... जैसा कुछ बड़बड़ाए थे।

" श्रीवास्तव जी ! अभी तो नवरातरा (नवरात्रि) चल रहा है ...
आउर (और) आपको तो पते ही है कि आजकल तो लहसुन-प्याज भी बंद है भाई ! सुध (शुद्ध) भोजन-भजन चल रहा है माता रानी के नाम पर। माईये (माता रानी- दुर्गा जी) के किरपा (कृपा) से ही ना "कमाई" वाला थाना में 'पोस्टिंग' हुई है। चार-पाँच दिन और रुक जाइए ... फिर जईसा (जैसा) और जहाँ कहिएगा, हमसे एक जोरदार पार्टी ले लीजिएगा। आपको 'एडल्ट' वाली पार्टी ही चाहिए ना !? जहाँ चलियेगा, ले चलेंगें। चाहे 'सोनागाछी' .. आ (या) चाहे मन करे तो 'कमाठीपुरा' चलेंगें। बस ई (ये) नवरातरा ख़तम (ख़त्म) हो जाए (जाने) दीजिए। आप भी क्या याद किजिएगा ... अइसे (ऐसे) भी बिहार में तअ (तो) सुरा मिलेगा नहीं .. तअ सुरा और '.......' ... आयँ .. समझ रहे हैं ना !? ...  हम का (क्या) कहना चाह रहे हैं !? ... दुन्नो (दोनों) का लुत्फ़ उधरे लिया जाएगा। "

आगे बढ़ते हुए फिर पाण्डे जी बोले - "अब चलें शहर जा रहे हैं , बड़का 'मॉल' से बाक़ी रह गया  पूजन-सामग्री आउर नवमी के दिन कुंवारी-कन्या के खिलावे-पिलावे (खाना-पानी) ला (के लिए) जरुरी सामान ले कर आते हैं। मलकिनी (पत्नी) एगो (एक) पुर्जा पकड़ा दी हैं। "

दोनों के फूहड़ और टपोरी ठहाके की अलयबद्धता और कहीं दूर किसी पंडाल के ध्वनिविस्तारक यन्त्र से कान तक आते लयबद्ध मंत्रोच्चार गडमड होते प्रतीत हो रहे थे - ...  " या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता ... नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ... हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा ..... ".

14 comments:

  1. सटीक
    मानसिकता और दोहरे व्यक्तित्व पर प्रहार करती हुई सटीक रचना

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    1. हार्दिक आभार आपका रचना के मर्म-स्पर्श के लिए ...

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (04-10-2019) को   "नन्हा-सा पौधा तुलसी का"    (चर्चा अंक- 3478)     पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।  
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ 
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. चर्चा-मंच के इस अंक में मेरी रचना साझा करने के लिए आभार आपका ...

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    1. हार्दिक आभार आपका ...

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    1. हार्दिक आभार आपका ...

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  5. कडवी सच्चाई व्यक्त करती रच्ना, सुबोध भाई।

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    1. ज्योति बहन ( या दीदी / मालूम नहीं !?) आपके आत्मीय सम्बोधन के साथ रचना का विश्लेषण मन को छु जाता है ... आभार आपका ...

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  6. कथित बड़े लोगों की कुत्सित मानसिकता को दर्शाती सार्थक रचना , सुबोध जी। ये समाज के वो भेड़िये हैं , जो सभ्य होने का ढोंग रच हमेशा सबके सामने शराफत का लबादा ओढ़कर लोगों की आँखों में धूल झोंकते हैं, बिना किसी ग्लानि और डर के!

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    1. रेणु जी ! हर बार आपका रचना तक आना और गहन पाठन के बाद वर्णनात्मक विश्लेषण बार बार अचम्भित कर जाता है ... ये सच है कि ऐसे लोग इसी में अपनी उपलब्धि मानते हैं ... है ना !? ... दोहरी मानसिकता हमारे समाज का रक्त-प्रवाह बन चुका है ...

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  7. चेहरे पर चेहरा..
    सार्थक रचना।

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    1. रचना की सार्थक सराहना के लिए हार्दिक आभार आपका ...

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