Sunday, July 28, 2019

आत्मसमर्पण ...

सुगंध लुटाते, मुस्कुराते, लुभाते,
बलखाते, बहुरंग बिखेरे,
खिलते हैं यहाँ सुमन बहुतेरे,
नर्म-नर्म गुनगुने धूप में
जीवन के यौवन-वसंत में ।
पर तन जलाती, चिलचिलाती धूप में,
जीवन के वृद्ध-जेठ में
‘सखी’ खिलूँगा मैं बनकर ‘गुलमोहर’
तुम्हारे लिए शीतल छाँव किए।
गेंदा, गुलदाउदी, गुलाब होंगें ढेर सारे
दिन के उजियारे में, संग तुम्हारे ।
होगी बेली, चमेली, रजनीगंधा भी
रात के अँधियारे में।
पर  जीवन की भादो वाली
मुश्किल भरी अंधेरी रातों में
पूरी रात, रात भर....सुबह होने तक
रहूँगा संग-संग तुम्हारे,
झर-झर कर, लुट-लुट कर,
‘सखी’ ‘हरसिंगार’ की तरह,
पूर्ण आत्मसमर्पण किए हुए
हाँ सखी .... आत्मसमर्पण किए हुए...

{ स्वयं के पुराने (जो तकनीकी कारण से नष्ट हो गया) ब्लॉग से }. 



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