Wednesday, May 12, 2021

प्रिया संग मानसिक संवाद ... ( भाग-१ ).

बचपन में प्रायः या आज भी कभी-कभार चूहे-बिल्लियों या चूज़े-बाज़ों के बीच अलग-अलग तरह के झपट्टों पर संयोगवश हमारी निगाहें पड़ ही जाती हैं। ऐसे में कई बार तो शिकारी बिल्लियाँ या बाज़ें बाज़ी मार जाते हैं , पर .. कई बार तो चूहे या चूज़े विशुद्ध प्राकृतिक संयोगवश या फिर अपनी फुर्ती या स्फूर्ति के कारण शिकार होने से बच भी जाते हैं। उन के बच जाने को अक़्सर हम उस बच पाने वाले प्राणी की क़िस्मत कह देते हैं या फिर अपने-अपने धर्मों के अनुसार तयशुदा इष्ट देवी-देवता की कृपा का नाम देने में भी तनिक हिचक नहीं महसूस करते हैं .. शायद ...

इन्हीं तरह के झपट्टों से उन बच गए चूहों या चूज़ों जैसे ही कुछ-कुछ इन दिनों स्वयं में लगने लगता है , जब हम इस कोरोनकाल की दूसरी लहर वाले कालखंड में कोरोनाग्रस्त होने के बाद भी या तो स्वतः संगरोध ( Self Quarantine ) होते हुए गृह-अलगाव ( Home Isolation ) यानि अपने घर में ही घर-परिवार वालों के साथ रह कर भी दूर रहते हुए किसी यथोचित डॉक्टर की दूरभाषी परामर्श पर यथोचित दवा लेकर और आवश्यक निर्देशों का पालन करते हुए या फिर आवश्यकतानुसार किसी अस्पताल में उचित इलाज करवाने के बाद स्वस्थ हो जाते हैं।

स्वतः संगरोध ( Self Quarantine ) होते हुए गृह-अलगाव ( Home Isolation ) यानि अपने घर में ही, अपने परिवार के साथ भी और दूर भी, एकांतवास में लगभग 15 से लेकर 40 दिनों तक रहने पर कई-कई तरह के चरित्रों का वास अपने मन में घर करने लगता है। इन दिनों में हर बार अपने खाए-पीए नाश्ता-चाय ( वैसे चाय कम, काढ़े ज़्यादा ) या भोजन खाने के बाद वाले स्वयं के जूठे बर्त्तनों को मल-धो कर अलग नियत स्थान पर रखते हुए .. प्रतिदिन अपने अन्तर्वस्त्र जैसे कपड़े या तीन-चार दिनों पर अपने अलग वाले बिस्तर के चादर और तकिया खोल धोते हुए ( प्रायः जिसकी आदत शादी के , वो भी पच्चीस-छ्ब्बीस साल बाद , जो पूरी तरह छूट चुकी होती है ) .. चाय-नाश्ता या खाने के समय पर निर्धारित दूरी पर थाली-कटोरे रख कर वहाँ से दूर हटने के बाद एक खास दूरी से परोसे गए नहीं, बल्कि यूँ कहिए साहिब कि .. ऊपर से टपकाए गए भोजन को थाली-कटोरे में लेकर लक्ष्मण-रेखा के तर्ज़ पर बनी अपनी सीता-रेखा के भीतर जाकर दुर्बल व कमजोर कौर को मुँह डालते हुए कभी लगता है कि हम किसी छात्रावास के विद्यार्थी हैं तो .. कभी लगता है कि किसी कारागार के कैदी हैं। और तो और कभी-कभी तो वह दर्द भी महसूस होता है , जिसे समाज में हमारे पुरखों द्वारा पहले या कहीं-कहीं तो आज भी तथाकथित अस्पृश्य जातियों के साथ व्यवहार किया जाता है। कभी-कभी तो यदाकदा पढ़ी गई मोहनदास करमचंद गाँधी जी की ख़ुद से अपने शौचालय की सफ़ाई करने वाली दिनचर्या का प्रायोगिक ज्ञान मिलने का भी भान होता है। सच कहूँ तो कभी-कभी किसी कोढ़ग्रस्त आबादी वाले बसे किसी अम्बेदकर नगर के निवासी होने जैसा एहसास कराने से भी नहीं चूकते ये हालात .. बस यूँ ही ...
आरम्भ के लगभग सप्ताह भर तो इंसान स्वयं के वश में ही नहीं रह पाता। कमजोरी और नींद के आग़ोश में पता ही नहीं चलता कि एक-एक कर दिन कैसे निकलता जा रहा है। स्वास्थ्य विज्ञान कहता है कि नींद ऐसे में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए आवश्यक भी है। इन्हीं दिनों में कई खोखले रिश्तों की तरह गंध और स्वाद के एहसास भी चुपके से साथ छोड़ जाते हैं। दुनिया ही बेरंग नज़र आने लगती है। ना गंध, ना स्वाद, ना रंग - ऐसे में अपनी कई भूल चुके दिनचर्या को स्वयं से निपटाना , मानो नीम-कड़ैले वाली बात को चरितार्थ करता जान पड़ता है। काढ़ा, भाप, गरारा, जाँच, दवा, मास्क, परहेज़ और बिस्तर में सिमटा-सा लगने लगता है सारा जीवन .. शायद ...
इसी दौरान अगर किसी अपने या जान-पहचान वालों को फ़ोन पर ( उनके फ़ोन आने पर या स्वयं की ओर से उनको करने पर ) इस कोरोनकाल में स्वयं के कोरोनाग्रस्त होने की बात बतलाने और उनका हालचाल पूछे जाने पर जब उधर से उत्तर मिलता है कि " हम लोग तो अल्लाह ताला ( अल्लाह त आला ) के रहम-ओ-करम से ठीक हैं। ", " हम सभी सपरिवार साईं की कृपा से सुरक्षित हैं। ", " हम सब पर माता रानी की कृपा है। " , " महाकाल की मेहरबानी।" .. इत्यादि-इत्यादि ; तो अपने-आप में ग्लानि महसूस होने लगती है कि हम कितने बड़े पापी हैं , जो हम या हमारा परिवार इन सब कृपा, रहम-ओ-करम, मेहरबानी से वंचित रह गया और हम नासपीटे लोग कोरोनाग्रस्त हो गए। मजे की बात तो ये है कि इन सारे दूरभाषी वार्तालापों में यह तय कर पाना कठिन हो जाता है कि इन भद्रजनों में से कौन-कौन से लोग औपचारिक वार्तालाप कर रहे हैं या फिर कौन लोग सहानुभूतिवश बात कर रहे हैं या फिर कोई एक भी समानुभूति से लबरेज़ है भी या नहीं .. बस यूँ ही ...
आज ऐसी परिस्थितियों में कोरोनाग्रस्त हो कर बिस्तर पर पड़े-पड़े अनायास जो मन में चलने लगता है कि अगर मेरे साथ भी कुछ अनिष्ट घट गया तो ... यह काम अधूरा रह जाएगा , वह काम अधूरा रह जाएगा, फलां-फलां कविता अधूरी रह गईं है , एक-दो कहानी के कथानक अपरिष्कृत ही रह गए है , एक फलां उपन्यास भी तो लिखना था। क्या पता .. अभी वाली रचना ही आख़िरी रचना हो .. शायद ...  मालूम नहीं ये भी पूर्ण होकर सोशल मीडिया पर पोस्ट हो भी पाएगी या नहीं .. रिश्ते या जान-पहचान वालों में से काश ! .. फलां की शादी देख भर लेते या फलां के एक संतान आ जाने पर देख भर लेने की लालसा .. पर ऐसी सारी ही परिस्थितियां आज से पाँच-दस-बीस साल बाद भी तो .. जब कभी भी मरने के समय मन में चलने वाली है .. शायद ... वास्तव में सोचा-समझा जाए तो आज ना कल, कभी ना कभी तो इस नश्वर शरीर से खोखले नातों की तरह पृथक् होना ही है हमको। मेरा तो यह मानना है कि हमारे ऊपर अगर कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आश्रित नहीं है तो .. हमें हमारे जीवन से बहुत ज्यादा मोह नहीं होना चाहिए। पर .. ऐसे समय में अगर एक मुम्बइया व्यवसायिक सिनेमा का एक लोकप्रिय संवाद - " थप्पड़ से डर नहीं लगता साहब, प्यार से लगता है। " के तर्ज़ पर कुछ बोलने की हिमाक़त करूँ तो यह कह सकता हूँ कि - " मरने से डर नहीं लगता साहब, कोरोना से मरने पर हमारी आख़िरी इच्छानुसार हमारा अंगदान या देहदान नहीं हो पाएगा .. इस कारण से लगता है। " .. बस यूँ ही ...
बचपन से ही जो-जो काम आलस और उलझन भरा लगता हो , मसलन - सर्दी-खाँसी होने पर गरारा करना और रात में सोते वक्त बिस्तर पर आवश्यकतानुसार मच्छरदानी लगाना , वो सारा काम भी करना पड़ता है। वह भी तब .. जब कि शरीर में ऊर्जा लेशमात्र भी ना हो। चूँकि बीमार को फेफड़े से सम्बन्धित संक्रमण होता है तो ऐसे में मच्छर भगाने की कोई तरल या ठोस रासायनिक पदार्थों को जलाना या सुलगाना नुकसानदेह हो सकता है , तो मन मार कर रोज रात में अपने अलग वाले बिस्तर पर मच्छरदानी टाँगनी ही पड़ती है। आम दिनों में शौचालय-सह-स्नानागार की छत की तरफ ध्यान कम ही जाता है। कारण- जल्दबाज़ी रहती है .. जो भी काम है उसे निपटा कर जल्दी बाहर निकल आने की। कभी-कभार दिमाग में कोई रचना पक रही हो तो अलग बात होती है। भीतर समय का पता ही नहीं चलता कि कब समय तेजी से निकल गया। पर समय तो हमेशा अपनी गति से ही चलता है .. बाहर आ कर घड़ी देखने पर पता चलता है कि छः बजे अंदर गए थे और निकलते-निकलते सात बज गए। ख़ैर ! ये तो आम दिनों की दिनचर्या होती है। पर इन दिनों में दो से तीन बार प्रतिदिन गरारा करने के कारण अपने लिए तयशुदा पृथक शौचालय-सह-स्नानागार में जाकर गरारा करते वक्त जितनी देर मुँह ऊपर की ओर और आँखें छत पर जाती हैं , तो कमरे के छत की अमूमन समतल बनावट के बदले दो परतों वाली बनावट ( छत का कुछ अंश नीचे की ओर और कुछ अंश ऊपर की ओर ) देख कर एहसास होता है कि इसके ठीक ऊपर में , मेरे सिर के ऊपर , ऊपर वाले तल्ले वालों का शौचालय-सह-स्नानागार होगा और "होगा" वाला अनुमान भर ही नहीं होता , बल्कि सच में होता भी है सारी की सारी बहुमंजिली इमारतों में। ऐसे में लगता है कि हमारे सिर पर ही कोई ... .. धत् ! .. ऐसी विपदा की घड़ी में भी ना जाने क्या-क्या विचार मन-मस्तिष्क में आते-जाते रहते हैं बावलों की तरह ...
ऐसी ही अवांछित परिस्थितियों में स्वतः संगरोध ( Self Quarantine ) होते हुए गृह-अलगाव ( Home Isolation ) के दरम्यान अलग-थलग एक बिस्तर पर पड़े-पड़े आज की वर्तमान परिस्थितियों में भी लगभग 16वीं सदी के मध्य ( सन् 1532 ई ० ) से 17वीं सदी के आरम्भ ( सन् 1623 ई ० ) तक के कालखण्ड वाले तुलसीदास जी की पंक्तियों -
"श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान।
  ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन॥"

की तुलना में .....  अब आगे की बातें " प्रिया संग मानसिक संवाद ... ( भाग-२ ). " में करते हैं। आज बहुत हो गई बतकही। उँगलियों संग तन-मन दोनों थक चुके हैं। अब स्वतः संगरोध में तनिक बिस्तर पर विश्राम कर लें .. बस यूँ ही ....



Monday, April 12, 2021

मन भी दिगम्बर किया जाए ...

यूँ तो 10 फ़रवरी' 2021 को अपने इसी ब्लॉग पर "रिश्ते यहाँ अक़्सर ..." शीर्षक के अन्तर्गत अपनी बतकही/रचनाओं से पहले आज अभी अपने कर रहे इस बकबक की तरह ही ठीक उस दिन के भी बकबक के तहत .. पढ़ाई के कोर्स/पाठ्यक्रम (Course) को भोजन की भी तीन कोर्सों - स्टार्टर कोर्स मेनू ( Starter Course Menu ), मेन कोर्स (Main Course ) और डेज़र्ट (Dessert) से जोड़ने की कोशिश भर की थी .. बस यूँ ही ...

वो मेरी बकबक अभी भी कहीं याद हो आपको .. शायद ... ना भी हो तो कोई बात नहीं। फ़ुर्सत मिले कभी तो याद कीजियेगा या फिर एक बार झाँक ही आइएगा उस पोस्ट को। फ़िलहाल आज के मुद्दे पर आते हैं और आज की अपनी तीनों रचनाओं (?) में से पहली (१) "स्टार्टर" के तौर पर, दूसरी (२) "मेन कोर्स" और फिर तीसरी को (३) "डेज़र्ट" के तौर पर पेश करने की कोशिश कर रहा हूँ .. बस यूँ ही ... :)

(१)
सर्द-अँधेरी रात से तुम्हारा
हो जाए कभी जो सामना,
आना मेरी जलती चिता तक
तपिश भी मिलेगी और ..
रोशनी भी यहाँ .. बस यूँ ही ...


(२) मन भी दिगम्बर किया जाए ...

लाख हैं मुखौटे मुखड़ों पर, तन पर तंतु के ताने-बाने,
मिलो जो एक शाम तो, मन को दिगम्बर किया जाए।

हवा ही तान चुकी है खंज़र, बंजर हो गई हों जब सोचें,
बतलाओ तुम ही जरा, कैसे जीवन बसर किया जाए।

मर के स्वर्ग मिलने के तो दिखाए अक़्सर सपने सबने,
सब्र नहीं इतनी, धरती को ही आज अंबर किया जाए।

पद, पैसे, पत्थरों को तो यूँ आए हैं हम सदियों पूजते,
कभी तो मज़दूरों, किसानों को भी आदर दिया जाए।

यूँ कोख़ के क़ैदी, कभी धरती के उम्रक़ैदी हैं हम सारे,
अमन हो जमाने में, मसीहे को रिहा अगर किया जाए।

कहते हैं लोग, पर जाने कब-कैसी ज़हर पी होगी "उसने",
आता तो जानता, कैसे पी के मौजूदा ज़हर जिया जाए।

गाए हैं यूँ कई बार-"हम होंगें कामयाब, एक दिन" हमने,
उम्र बीती .. रीती नहीं, कामयाबी का सबर किया जाए।

पाए गए हैं आज हम जो "कोरोना पॉजिटिव" जाँच में,
कमरे में अपने, अपनों को भी कैसे अंदर लिया जाए।

तन दिगम्बर होते हैं अक़्सर खजुराहो सरीखे बस यूँ ही ...
रूमानी रातों में, कभी तो मन भी दिगम्बर किया जाए।

(३)
'हुआँ-हुआँ' की नगरी,
ऊहापोह की गठरी है।
सब की अपनी-अपनी,
संग साँसों की गगरी है .. शायद ...

और आज चलते-चलते अपने मन के काफी क़रीब, स्वयं के बारे में बयान करती हुई बहुत अरसे पहले लिखी गई चंद पंक्तियाँ, जिसे मैं अक़्सर दोहराता हूँ .. उन्हें आज एक बार फिर दोहराने का मन कर रहा है .. बस यूँ ही ...

तमाम उम्र मैं
हैरान, परेशान,
हलकान-सा,
तो कभी लहूलुहान बना रहा

हो जैसे मुसलमानों के
हाथों में गीता
तो कभी हिन्दूओं के
हाथों का क़ुरआन बना रहा ...







 


Wednesday, April 7, 2021

बस्ती में बच्चों को ...

यूँ पंछियों को निहारता घंटों, है सहलाता लावारिस पशुओं को भी,
पर सिर झुकाता नहीं 'मूक' के आगे,समझते हैं सब उसे सिरफिरा।

करता रहता है अक़्सर वह बातें अपने मरने पर देहदान करने की,
कहते हैं सब कि मर कर भी करेगा ब्रह्मभोज का मजा किरकिरा।

जाता है कबाड़ी ले के मुहल्ले से अक़्सर खाली बोतलें शराब की,
कहते हैं पर लोग कि.. प्रदेश में अपने क़ानूनन अपराध है मदिरा।

सन् 1947 ईस्वी हो या फिर ए. के. 47, ये जो 47 है ना साहिब!
अक़्सर ही सजाता रहा है मौत और मातम का बेहिसाब ज़खीरा।

यूँ तो मुखौटों में रसूखदार हैं कई, कोई पारदर्शी शक्ल में अकेला,
किसी कव्वाली में बजाता ही कौन है भला कभी भी यहाँ मंजीरा।

नवाज़े जाते हैं नाजायज़ रिश्ते के नाम से हरेक वो रिश्ते आज यहाँ,
पाती हैं जिनके लिए दुनिया में मान अक़्सर, राधा हो या फिर मीरा।

समझ पाते नेक इंसानों को तो खोजते नहीं मूक मूर्तियों में मसीहा,
मानो 'पैलेडियम' को जाने बिन,बेशकीमती लगा हमें सदा ही हीरा।

हर दिन वेश्याओं की बस्ती में बच्चों को पढ़ाने जाना भूलता नहीं,
समझते रहें लाख उसे शहर वाले भले ही आदमी निहायत गिरा।


{ 'पैलेडियम' (Palladium) = सर्वविदित है कि अब तक आवर्त सारणी (Periodic Table) में 118 तत्वों (Elements) को स्थान मिल चुका है ; जिनमें 'पैलेडियम' दुनिया में अब तक की वैज्ञानिक खोज या जानकारी के अनुसार - विश्व की सबसे क़ीमती धातु है। जिसकी ख़ोज अंग्रेज रसायनज्ञ विलियम हैड वल्लस्टन (William Hyde Wollaston) ने सन् 1803 ईस्वी में की थी। }




Saturday, April 3, 2021

रक्त-पीड़ा की जुगलबंदी ...

लौट रहीं थीं इसी साल आठ मार्च को 

तीन षोडशी सहेलियाँ देर रात,

अपने-अपने घर करती हुई हँसी-ठिठोली 

और करती हुई आपस में कुछ-कुछ बात,

मनाए गए उस रोज अपने ही कॉलेज में 

देर रात तक "महिला दिवस" के 

उत्सव की सारी बातें कर-कर के याद।

रामलीला पर आधारित हुई थी 

एक नृत्य-नाटिका भी जिसमें,

जिसमें इन तीनों में से एक सहेली 

लौटी थी कर अभिनय माता सीता की

और थी बनी दूसरी कार्यक्रम के आरम्भ में 

हुई सरस्वती-वंदना की माँ सरस्वती।

फिर बाद जिस के हुए राष्ट्रीय गान के दौरान

मंच पर तिरंगा लिए भारत माता बनी थी तीसरी ...


तीनों षोडशी सहेलियाँ एक ही मुहल्ले की, 

मुहल्ले के पास अपने-अपने घर की ओर 

थीं जा रही सार्वजनिक परिवहन से 

उतर कर पैदल एक साथ ही।

बहती फगुनाहट वाली हवा में बासंती मौसम की 

एक पंडाल के नीचे हो रहे जगराते के कानफाड़ू

शोर के सिवा सारी गलियाँ मुहल्ले की वीरान थीं।

सिवा उस पंडाल के चहल-पहल के निर्जन थी 

कृष्ण-पक्ष की वह काली रात भी .. तभी ..

तथाकथित मर्दानगी का दंभ भरने वाले 

चंद लोग पोटली ढोए साथ अपने शुक्राणुओं की,

ढूंढते हुए बहाने के बहाने अनगिनत घिनौने

शुक्राणुओं के परनाले अपने जैसे ही,

बस .. टूट पड़े पा कर मौका उन तीनों पर 

दिए बिना मौका उन्हें वो सारे दरिन्दे अज्ञात ...


कर दिए मुँह तीनों के बन्द लगा कर अपने मज़बूत हाथ,

धर दबोचा तीनों को सबने मिल कर अकस्मात .. 

अब भला ... जज़्बात की 

ऐसे में क्या होती भला औक़ात ...

उन लफ़ंगों से चिरौरी करती उन तीनों की 

घुंट गई चीखें भी लाउडस्पीकर की बनी श्रृंखलाओं से 

गूँजती कानफाड़ू शोर में जगराते की।

क्षत-विक्षत कर दिए गए कपड़ों में क्षत-विक्षत

शीलहरण हो चुकी रक्तरंजीत देह थी पड़ी तीनों की।

तुलसीदास की उस किताबी सीता से इतर थी

शैतानों के चंगुल में कसमसाती माता सीता।

पास ही दर्द से थी तड़पती अभी भी बनी हुई

सरस्वती-वंदना वाले लिबास में ही सरस्वती माता,

जो रक्त-पीड़ा की जुगलबंदी उस दिन सुबह से ही 

थी झेल रही अपने माहवारी की और ...


और भी अब नहा गयी थी रक्त में अपने ही मानो ..

अपने ही रक्त में रक्तरंजित बलि या क़ुर्बानी के 

छटपटाते किसी बकरे की जैसी।

दर्द से कराहती, बेहोशी में कुछ बुदबुदाती,

मुट्ठी में अपनी अभी भी थी जकड़ी तह लगा  

तिरंगा राष्ट्रीय गान वाली वह भारत माता।

ज़बरन छीन कर फिर उसी तिरंगे से 

पोंछा था पापों को बारी-बारी अपने-अपने 

हैवानियत की हर हदों की भी हदें पार करते दरिंदों ने।

पर उन षोडशियों को बचाने ना आए अंत तक

कोई सतयुग के राम, ना त्रेतायुग, ना द्वापरयुग और ... 

ना ही कोई कलियुग के राम।

होता रहा, हो गया, बेदाम ही नीलाम उनका एहतराम,

ना आना था और ना ही आए बचाने 

उस दिन के रामलीला वाले भी राम .. शायद ...




Saturday, March 27, 2021

सुलग रही है विधवा ...

गहनों से सजानी थी उसे जो अगर अपनी दुकानें,

तो खरा सोना पास अपने यूँ भला रखता क्योंकर?


सकारे ही तोड़े गए सारे फूल, चंद पत्थरों के लिए,

बाग़ीचा सारा, सारा दिन यूँ भला महकता क्योंकर?


रक़ीब को लगी है इसी महीने जो सरकारी नौकरी,

तो सनम, संग बेरोज़गार के यूँ भला रहता क्योंकर?


गया था सुलझाने जो जाति-धर्म के मसले नासमझ,

तो शहर के मज़हबी दंगे में यूँ भला बचता क्योंकर?


रोका है नदियों को तो बाँध ने बिजली की ख़ातिर पर,

है ये जो सैलाब आँखों का, यूँ भला ठहरता क्योंकर?


बिचड़ा बन ना पाया, जब जिस धान को उबाला गया,

आरक्षण न था, ज्ञानवान आगे यूँ भला बढ़ता क्योंकर?


अब पहुँचने ही वाला है गाँव ताबूत तिरंगे में लिपटा,

सुलग रही है विधवा, चूल्हा यूँ भला जलता क्योंकर?


नाम था पूरे शहर में, वो कामयाब कलाबाज़ जो था,

रस्सियाँ कुतरते रहे चूहे, यूँ भला संभलता क्योंकर?


व्यापारी तो था नामचीन, पर दुकान खोली रोली की

पास गिरजाघर के, व्यापार यूँ भला चलता क्योंकर?


रंग-ओ-सूरत से जानते हैं लोग इंसानों को जहां में, 

मन फिर किसी का कोई यूँ भला परखता क्योंकर?



Wednesday, March 24, 2021

दास्तानें आपके दस्ताने की ...

पापा ! ...

वर्षों पहले तर्ज़ पर सुपुर्द-ए-ख़ाक के 

आपके सुपुर्द-ए-राख होने पर भी,

आज भी वर्षों बाद जब कभी भी

फिनाईल की गोलियों के या फिर कभी 

सराबोर सुगंध में 'ओडोनिल' के,

निकाले गए दीवान या ट्रंक से साल दर साल

कुछ दिनों के लिए ही सही पर हर साल 

कनकनी वाली शीतलहरी के दिनों में,

दिन में आपके ऊनी पुराने दस्ताने और

सोते वक्त रात में पुरानी ऊनी जुराबें

पहनता हूँ जब कभी भी तो मुझे

इनकी गरमाहट यादों-सी आपकी आज भी

मानो सौगात लगती हैं ठिठुरती सर्दियों में।


पर पापा अक़्सर ..

होती है ऊहापोह-सी भी हर बार कि 

मेरे रगों तक पहुँचने वाली 

ये मखमली गरमाहट उन ऊनी पुरानी 

जुराबों या दस्ताने के हैं या फिर 

है उष्णता संचित उनमें आपके बदन की।

मानो कभी छुटपन में दस्ताने में दुबकी

आपकी जिस उष्ण तर्जनी को लपेट कर 

अपनी नन्हीं उँगलियों से लांघे थे हमने

अपने नन्हें-नन्हें नर्म पगों वाले छोटे-छोटे

डगमगाते डगों से क्षेत्रफल अपने घर के

कमरे , आँगन और बरामदे के, जहाँ कहती हैं ..

स्नेह-उष्णता की आपकी कई सारी दास्तानें, 

आज भी आपकी पुरानी जुराबें और दस्ताने .. बस यूँ ही ...




Saturday, March 20, 2021

सच्ची-मुच्ची ... (21 मार्च के बहाने ...)

सर्वविदित है कि 21 मार्च को पूरे विश्व में "विश्व कविता दिवस" (World Poetry Day) के साथ-साथ ही नस्लीय भेदभाव को मिटाने के लिए इस के विरोध में  "अंतर्राष्ट्रीय नस्लीय भेदभाव उन्मूलन दिवस" (International Day for the Elimination of Racial Discrimination) भी मनाया जाता है, जिन्हें मनाने के लिए इस दिनांक  विशेष की घोषणा "यूनेस्को" यानि "संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन" (UNESCO - United Nations Educational, Scientific and Cultural Organization) द्वारा क्रमशः 1999 और 1966 में की गई थी। यूँ तो रस्म-अदायगी के नाम पर रचनाकारों (कवि/कवयित्री)  की तो आज के दिन Social Media पर मानो बाढ़-सी आ जाती है, पर नस्लीय भेदभाव उन्मूलन के मामले में वही ढाक के तीन पात वाले मुहावरे को चरितार्थ होते पाया जाता है .. शायद ...

यह भी सर्वविदित ही है कि किसी व्यक्ति या समुदाय से उसकी जाति, रंग, नस्ल इत्यादि के आधार पर घृणा करना या उसे सामान्य मानवीय अधिकारों से वंचित करना ही नस्लीय भेदभाव कहलाता है।

हमारे देश में रंगभेद की जगह/तरह जातिभेद ज्यादा प्रभावी है। साथ ही उपजातिभेद भी और इन सब से भी ऊपर हावी है सम्प्रदायभेद। ऐसा नहीं कि रंगभेद का असर नहीं है .. है ही न ! .. पर प्रत्यक्ष रूप से कम और परोक्ष रूप से ज्यादा। तभी तो काली लड़कियों या काले लड़कों से शादी करने में लोगबाग प्रायः परहेज़ करते हैं या कतराते हुए नज़र आते हैं। नहीं क्या !? वैसे भी इस रंगभेद को हमारे यहाँ ज्यादा हवा देते हैं .. गोरेपन के क्रीम वाले विज्ञापनों की भरमार।
रही बात जातिभेद की तो हमारे पुरखों के काल में छुआछूत जैसी भावनाओं के कारण कई जातिविशेष लोगों के तत्कालीन पुरखों को प्रताड़ित होना पड़ता था और कमोबेश कई सामाजिक परिवेश में आज भी यह परिदृश्य देखने के लिए अक़्सर मिल ही जाता है। आज इस से विपरीत अन्य कई दूसरी जातिविशेष के लोगों को आरक्षण के दंश झेलने पड़ रहे हैं। मतलब जातिभेद का रूप भर बदला है, परन्तु समाप्त नहीं हुआ है। आरक्षण से जातिभेद को तो हवा मिल ही रही है और साथ ही हमारे देश भर से प्रतिभा पलायन (Brain Drain) की मूलभूत समस्या जस का तस सिर उठाए खड़ी है। दूसरी तरफ देश में जातिगत आरक्षण के नाम पर बेहतर प्रतिभा को पीछे धकेलते हुए कमतर प्रतिभा को आगे बढ़ाने से देश को यथोचित प्रतिभा के स्थान पर कमतर और स्तरहीन प्रतिभा वाली नींव कमज़ोर निर्माण गढ़ रही है। साथ ही आरक्षण की आड़ में कई दशकों से उपेक्षित की गई प्रतिभाओं के मन में कुंठा घर बनाती जा रही है .. शायद ...
जब तक हम अपने या अपनी अगली संतति के नाम के आगे जातिसूचक या उपजातिसूचक उपनाम (Surname) चिपकाने की सिलसिला को सीलबंद कर उसे विराम नहीं देंगे, तब तक ये जातिभेद, उपजातिभेद या फिर सम्प्रदायभेद का विषैला नाग अपना फन फैलाए हमारे तथाकथित समाज को डँसता रहेगा।
मानव इतिहास की बातें अगर मानें तो कभी उनके काम/रोज़गार के आधार पर मानव समाज का वर्गीकरण किया गया था, जो कालान्तर में हमारे तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा तथाकथित समाज में वंशानुगत जातीयता के रूप को धारण कर लिया गया।  जिस से हमें हमारी स्वघोषणा करती जातिसूचक उपनाम पर जोर देकर बोलने की और उस पर गर्दन अकड़ाने की भी प्रदूषित परम्परा की अनर्गल रूप से आदत-सी पड़ती चली गई और .. सच कहने में अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए कि आज तो हम पूर्णरूपेण आपादमस्तक इसके दलदल के दमघोंटू माहौल में फंसे होने के बाद भी उस से निकलने के बजाय उसी में मुस्कुराते हुए साँसें ही नहीं ले रहे हैं ; बल्कि स्वयं को गौरवान्वित भी महसूस कर रहे हैं। .. नहीं क्या !? ..
अगर आपस में पहली बार परिचय करते समय सामने से किसी के नाम पूछे जाने पर उपनाम रहित केवल नाम बतलाने पर सामने वाला पूरा नाम बतलाने पर जोर देता है। नहीं बतलाने पर या सच में उपनाम नहीं रहने पर सामने वाला अजीब-सा मुँह बनाता है। कहीं पर Form भरते समय भी उपनाम नहीं भरने पर उस Form को अधूरा माना जाता है। जनगणना भी हमारे देश में जातिगत करायी जाती है। हमारा नाम तो अभिभावक द्वारा तय किया गया था, परन्तु हमने अपने पुत्र का नाम अभिभावक होने के नाते अपनी इच्छा से जातिसूचक उपनामरहित केवल "शुभम्" रखा तो कई दफ़ा कई जगह पर Form भरते समय उसको परेशानी का सामना करना पड़ा और परिणामस्वरूप उसकी खीझ की प्रतिक्रिया मुझे झेलनी पड़ी। कहीं पर नाम के दुहराव से उपनाम का रिक्त स्थान भरा गया, कहीं पर किसी और विकल्प से। अब वह इससे अभ्यस्त हो गया है और शायद मेरी मानसिकता समझने भी लगा है, तो अब नहीं खीझता। पर भला आज भी कितने अभिभावक हैं जो जातिसूचक उपनाम नहीं लगाते अपने बच्चों के नाम के आगे या जातिसूचक की जगह कुछ और संज्ञा जोड़ते हैं किसी रचनाकार के नाम के आगे लगे तख़ल्लुस की तरह !?       

ऐसे में जातिगत, उपजातिगत या धर्म-सम्प्रदायगत भेदभाव भला कैसे शून्य कर पाएगा हमारा तथाकथित बुद्धिजीवी समाज !? .. और तो और .. किसी ठोस कारणवश या अधिकतर तो अकारण ही राज्य के आधार पर, भाषा के आधार पर, खान-पान के आधार पर, पहनावा के आधार पर .. हम सभी मानव-मानव में भेदभाव करते हैं। इतना ही नहीं अपने से इतर राज्य, भाषा, खान-पान या पहनावा वाले इंसान या समाज को अपने से कमतर आँकने में या कमतर समझने-बोलने में और ख़ुद के लिए गर्दन अकड़ाने में हम तनिक भी गुरेज़ नहीं करते .. शायद ...
अगर बीते कल और आज के साथ-साथ आने वाले कल यानि 22 मार्च की भी बात कर ही लें तो कल "विश्व जल दिवस" (World Day for Water) है, जिसे भी 1993 से यूनेस्को द्वारा मनाए जाने की घोषणा के बाद से हर साल मनाया जा रहा है।
ऐसे में .. कम-से-कम हमारी अपनी-अपनी आँखों में इतना पानी (जल) को तो होना ही चाहिए साहिब/साहिबा ! , ताकि नस्लीय भेदभाव का कीड़ा उस के चुल्लू भर पानी में या तो डूब कर मर जाए या फिर पानी-पानी हो कर अचेत हो जाए .. ताकि अतीत या वर्तमान की तरह कम-से-कम हमारे भावी तथाकथित मानवीय समाज में वह पानी में आग ना लगा पाए। वैसे भी किसी दिवस विशेष के एक बूँद की मिठास हमारे समाज के साग़र की विसंगतियों और कुरीतियों के खारापन को दूर करने में सक्षम हो ही नहीं सकती, जब तक कि दिनचर्या की सतत् मीठी धार से इसे दूर करने की निरन्तर कोशिश मन से ना की जाए  .. शायद ...
तो आइए स्वयं से ही शुरू करते हैं और आज कविता Post करने के बदले अपने जातिसूचक उपनाम पर अपनी गर्दन अकड़ाने की जगह ( वह भी तब .. जब कि हजार साल पूर्व के अपने पुरख़े के बारे में कुछ भी ज्ञात ना हो ) ; उसका बहिष्कार करते हैं ताकि हमें ना सही .. पर अपनी भावी पीढ़ी को तो कम से कम भेदभाव मुक्त समाज मिल सके। अगर भविष्य में भेद हो भी तो प्राचीन काल की तरह काम या बुद्धिमत्ता के आधार पर, ना कि नस्ल या जाति के आधार पर। आज मिलकर हम सभी क्यों ना .. भेदभाव से मुक्त मानवता के राग वाले सरगम की तान छेड़ें ..पर हाँ ..  केवल शाब्दिक नहीं .. बल्कि ..  सच्ची-मुच्ची .. बस यूँ ही ...