बचपन में प्रायः या आज भी कभी-कभार चूहे-बिल्लियों या चूज़े-बाज़ों के बीच अलग-अलग तरह के झपट्टों पर संयोगवश हमारी निगाहें पड़ ही जाती हैं। ऐसे में कई बार तो शिकारी बिल्लियाँ या बाज़ें बाज़ी मार जाते हैं , पर .. कई बार तो चूहे या चूज़े विशुद्ध प्राकृतिक संयोगवश या फिर अपनी फुर्ती या स्फूर्ति के कारण शिकार होने से बच भी जाते हैं। उन के बच जाने को अक़्सर हम उस बच पाने वाले प्राणी की क़िस्मत कह देते हैं या फिर अपने-अपने धर्मों के अनुसार तयशुदा इष्ट देवी-देवता की कृपा का नाम देने में भी तनिक हिचक नहीं महसूस करते हैं .. शायद ...
इन्हीं तरह के झपट्टों से उन बच गए चूहों या चूज़ों जैसे ही कुछ-कुछ इन दिनों स्वयं में लगने लगता है , जब हम इस कोरोनकाल की दूसरी लहर वाले कालखंड में कोरोनाग्रस्त होने के बाद भी या तो स्वतः संगरोध ( Self Quarantine ) होते हुए गृह-अलगाव ( Home Isolation ) यानि अपने घर में ही घर-परिवार वालों के साथ रह कर भी दूर रहते हुए किसी यथोचित डॉक्टर की दूरभाषी परामर्श पर यथोचित दवा लेकर और आवश्यक निर्देशों का पालन करते हुए या फिर आवश्यकतानुसार किसी अस्पताल में उचित इलाज करवाने के बाद स्वस्थ हो जाते हैं।
स्वतः संगरोध ( Self Quarantine ) होते हुए गृह-अलगाव ( Home Isolation ) यानि अपने घर में ही, अपने परिवार के साथ भी और दूर भी, एकांतवास में लगभग 15 से लेकर 40 दिनों तक रहने पर कई-कई तरह के चरित्रों का वास अपने मन में घर करने लगता है। इन दिनों में हर बार अपने खाए-पीए नाश्ता-चाय ( वैसे चाय कम, काढ़े ज़्यादा ) या भोजन खाने के बाद वाले स्वयं के जूठे बर्त्तनों को मल-धो कर अलग नियत स्थान पर रखते हुए .. प्रतिदिन अपने अन्तर्वस्त्र जैसे कपड़े या तीन-चार दिनों पर अपने अलग वाले बिस्तर के चादर और तकिया खोल धोते हुए ( प्रायः जिसकी आदत शादी के , वो भी पच्चीस-छ्ब्बीस साल बाद , जो पूरी तरह छूट चुकी होती है ) .. चाय-नाश्ता या खाने के समय पर निर्धारित दूरी पर थाली-कटोरे रख कर वहाँ से दूर हटने के बाद एक खास दूरी से परोसे गए नहीं, बल्कि यूँ कहिए साहिब कि .. ऊपर से टपकाए गए भोजन को थाली-कटोरे में लेकर लक्ष्मण-रेखा के तर्ज़ पर बनी अपनी सीता-रेखा के भीतर जाकर दुर्बल व कमजोर कौर को मुँह डालते हुए कभी लगता है कि हम किसी छात्रावास के विद्यार्थी हैं तो .. कभी लगता है कि किसी कारागार के कैदी हैं। और तो और कभी-कभी तो वह दर्द भी महसूस होता है , जिसे समाज में हमारे पुरखों द्वारा पहले या कहीं-कहीं तो आज भी तथाकथित अस्पृश्य जातियों के साथ व्यवहार किया जाता है। कभी-कभी तो यदाकदा पढ़ी गई मोहनदास करमचंद गाँधी जी की ख़ुद से अपने शौचालय की सफ़ाई करने वाली दिनचर्या का प्रायोगिक ज्ञान मिलने का भी भान होता है। सच कहूँ तो कभी-कभी किसी कोढ़ग्रस्त आबादी वाले बसे किसी अम्बेदकर नगर के निवासी होने जैसा एहसास कराने से भी नहीं चूकते ये हालात .. बस यूँ ही ...
आरम्भ के लगभग सप्ताह भर तो इंसान स्वयं के वश में ही नहीं रह पाता। कमजोरी और नींद के आग़ोश में पता ही नहीं चलता कि एक-एक कर दिन कैसे निकलता जा रहा है। स्वास्थ्य विज्ञान कहता है कि नींद ऐसे में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए आवश्यक भी है। इन्हीं दिनों में कई खोखले रिश्तों की तरह गंध और स्वाद के एहसास भी चुपके से साथ छोड़ जाते हैं। दुनिया ही बेरंग नज़र आने लगती है। ना गंध, ना स्वाद, ना रंग - ऐसे में अपनी कई भूल चुके दिनचर्या को स्वयं से निपटाना , मानो नीम-कड़ैले वाली बात को चरितार्थ करता जान पड़ता है। काढ़ा, भाप, गरारा, जाँच, दवा, मास्क, परहेज़ और बिस्तर में सिमटा-सा लगने लगता है सारा जीवन .. शायद ...
इसी दौरान अगर किसी अपने या जान-पहचान वालों को फ़ोन पर ( उनके फ़ोन आने पर या स्वयं की ओर से उनको करने पर ) इस कोरोनकाल में स्वयं के कोरोनाग्रस्त होने की बात बतलाने और उनका हालचाल पूछे जाने पर जब उधर से उत्तर मिलता है कि " हम लोग तो अल्लाह ताला ( अल्लाह त आला ) के रहम-ओ-करम से ठीक हैं। ", " हम सभी सपरिवार साईं की कृपा से सुरक्षित हैं। ", " हम सब पर माता रानी की कृपा है। " , " महाकाल की मेहरबानी।" .. इत्यादि-इत्यादि ; तो अपने-आप में ग्लानि महसूस होने लगती है कि हम कितने बड़े पापी हैं , जो हम या हमारा परिवार इन सब कृपा, रहम-ओ-करम, मेहरबानी से वंचित रह गया और हम नासपीटे लोग कोरोनाग्रस्त हो गए। मजे की बात तो ये है कि इन सारे दूरभाषी वार्तालापों में यह तय कर पाना कठिन हो जाता है कि इन भद्रजनों में से कौन-कौन से लोग औपचारिक वार्तालाप कर रहे हैं या फिर कौन लोग सहानुभूतिवश बात कर रहे हैं या फिर कोई एक भी समानुभूति से लबरेज़ है भी या नहीं .. बस यूँ ही ...
आज ऐसी परिस्थितियों में कोरोनाग्रस्त हो कर बिस्तर पर पड़े-पड़े अनायास जो मन में चलने लगता है कि अगर मेरे साथ भी कुछ अनिष्ट घट गया तो ... यह काम अधूरा रह जाएगा , वह काम अधूरा रह जाएगा, फलां-फलां कविता अधूरी रह गईं है , एक-दो कहानी के कथानक अपरिष्कृत ही रह गए है , एक फलां उपन्यास भी तो लिखना था। क्या पता .. अभी वाली रचना ही आख़िरी रचना हो .. शायद ... मालूम नहीं ये भी पूर्ण होकर सोशल मीडिया पर पोस्ट हो भी पाएगी या नहीं .. रिश्ते या जान-पहचान वालों में से काश ! .. फलां की शादी देख भर लेते या फलां के एक संतान आ जाने पर देख भर लेने की लालसा .. पर ऐसी सारी ही परिस्थितियां आज से पाँच-दस-बीस साल बाद भी तो .. जब कभी भी मरने के समय मन में चलने वाली है .. शायद ... वास्तव में सोचा-समझा जाए तो आज ना कल, कभी ना कभी तो इस नश्वर शरीर से खोखले नातों की तरह पृथक् होना ही है हमको। मेरा तो यह मानना है कि हमारे ऊपर अगर कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आश्रित नहीं है तो .. हमें हमारे जीवन से बहुत ज्यादा मोह नहीं होना चाहिए। पर .. ऐसे समय में अगर एक मुम्बइया व्यवसायिक सिनेमा का एक लोकप्रिय संवाद - " थप्पड़ से डर नहीं लगता साहब, प्यार से लगता है। " के तर्ज़ पर कुछ बोलने की हिमाक़त करूँ तो यह कह सकता हूँ कि - " मरने से डर नहीं लगता साहब, कोरोना से मरने पर हमारी आख़िरी इच्छानुसार हमारा अंगदान या देहदान नहीं हो पाएगा .. इस कारण से लगता है। " .. बस यूँ ही ...
बचपन से ही जो-जो काम आलस और उलझन भरा लगता हो , मसलन - सर्दी-खाँसी होने पर गरारा करना और रात में सोते वक्त बिस्तर पर आवश्यकतानुसार मच्छरदानी लगाना , वो सारा काम भी करना पड़ता है। वह भी तब .. जब कि शरीर में ऊर्जा लेशमात्र भी ना हो। चूँकि बीमार को फेफड़े से सम्बन्धित संक्रमण होता है तो ऐसे में मच्छर भगाने की कोई तरल या ठोस रासायनिक पदार्थों को जलाना या सुलगाना नुकसानदेह हो सकता है , तो मन मार कर रोज रात में अपने अलग वाले बिस्तर पर मच्छरदानी टाँगनी ही पड़ती है। आम दिनों में शौचालय-सह-स्नानागार की छत की तरफ ध्यान कम ही जाता है। कारण- जल्दबाज़ी रहती है .. जो भी काम है उसे निपटा कर जल्दी बाहर निकल आने की। कभी-कभार दिमाग में कोई रचना पक रही हो तो अलग बात होती है। भीतर समय का पता ही नहीं चलता कि कब समय तेजी से निकल गया। पर समय तो हमेशा अपनी गति से ही चलता है .. बाहर आ कर घड़ी देखने पर पता चलता है कि छः बजे अंदर गए थे और निकलते-निकलते सात बज गए। ख़ैर ! ये तो आम दिनों की दिनचर्या होती है। पर इन दिनों में दो से तीन बार प्रतिदिन गरारा करने के कारण अपने लिए तयशुदा पृथक शौचालय-सह-स्नानागार में जाकर गरारा करते वक्त जितनी देर मुँह ऊपर की ओर और आँखें छत पर जाती हैं , तो कमरे के छत की अमूमन समतल बनावट के बदले दो परतों वाली बनावट ( छत का कुछ अंश नीचे की ओर और कुछ अंश ऊपर की ओर ) देख कर एहसास होता है कि इसके ठीक ऊपर में , मेरे सिर के ऊपर , ऊपर वाले तल्ले वालों का शौचालय-सह-स्नानागार होगा और "होगा" वाला अनुमान भर ही नहीं होता , बल्कि सच में होता भी है सारी की सारी बहुमंजिली इमारतों में। ऐसे में लगता है कि हमारे सिर पर ही कोई ... .. धत् ! .. ऐसी विपदा की घड़ी में भी ना जाने क्या-क्या विचार मन-मस्तिष्क में आते-जाते रहते हैं बावलों की तरह ...
ऐसी ही अवांछित परिस्थितियों में स्वतः संगरोध ( Self Quarantine ) होते हुए गृह-अलगाव ( Home Isolation ) के दरम्यान अलग-थलग एक बिस्तर पर पड़े-पड़े आज की वर्तमान परिस्थितियों में भी लगभग 16वीं सदी के मध्य ( सन् 1532 ई ० ) से 17वीं सदी के आरम्भ ( सन् 1623 ई ० ) तक के कालखण्ड वाले तुलसीदास जी की पंक्तियों -
"श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान।
ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन॥"
की तुलना में ..... अब आगे की बातें " प्रिया संग मानसिक संवाद ... ( भाग-२ ). " में करते हैं। आज बहुत हो गई बतकही। उँगलियों संग तन-मन दोनों थक चुके हैं। अब स्वतः संगरोध में तनिक बिस्तर पर विश्राम कर लें .. बस यूँ ही ....