Wednesday, May 13, 2020

महज़ एक इंसान ...

मैं हूँ तो इंसान ही। मेरे पास भी है ही ना एक मानव मन। वह भी वैसा इंसान ( कम से कम मेरा मानना है ) जिसने दिखावे के लिए कभी संजीदगी के पैरहन नहीं लादे अपने ऊपर, बल्कि आज तक, अभी तक अपने बचपना को मरने नहीं दिया। बच्चों की तरह जो मन में, वही मुँह पर।
अब बच्चा-मन मतलब साहित्यिक भाषा में कहें तो बालसुलभ मन कभी-कभी अपनी प्रशंसा सुनकर चहकने लगता है। या फिर कभी-कभी कोई भी पात्र सामने से किसी कारणवश या अकारण ( सामने वाले को शायद इस प्रक्रिया से कुछ आत्मतुष्टि मिलने की आशा हो ) अपमानित या उपेक्षित करता है , तो मन क्षणिक मलिन भी होता है।
अब ऐसे दोनों ही - सकारात्मक और नकारात्मक पलों - को एक बिन्दु पर केन्द्रित करने के ख़्याल से ही ये दो पंक्तियाँ मन में उपजी थीं कभी , जो आज भी मन में ऐसे पलों में दुहरा लूँ तो .. मन पल में सागर से झील बन जाता है।
प्रशंसा से चहकने वाले पलों में अपने लिए और .. अपमान या उपेक्षा वाले मलिन पलों में सामने वाले के लिए यही भाव उभारता हूँ ...

श्मशान टहल आएं ...
आज कुछ
अभिमान-सा
होने लगा है
शायद ..
चलो ना जरा
पास किसी
श्मशान या
फिर किसी
कब्रिस्तान तक
टहल आएं ...

                                     



हम सभी जानते हैं, पर मानते नहीं कि हमारे अपने जन्म के दिन से ही जीवन के अटल सत्य - मृत्यु का टैग - हमारे साथ चिपका रहता है। फिर भी हम इस की चर्चा करने से चिढ़ते हैं, चर्चा करने में झिझकते हैं, चर्चा करने को बुरा मानते हैं। मैं भी कभी चर्चा करूँ तो सौ बातें घर-परिवार के बीच सुनने के लिए मिलती है। प्रायः इसे मनहूस, फ़ालतू, बेकार की बात कह कर झिड़क कर शांत कर दिया जाता है।
जीते जी हम अपनी मृत्यु की कोई योजना नहीं बनाते, क्योंकि मृत्यु के अटल-सत्य होते हुए भी हम इसके उत्सव मनाने की बात कभी नहीं सोचते।
हमारे जीवन के सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण दो पहलूएं .. दो छोरें - जन्म और मृत्यु - जिनका हमारे लिए तथाकथित "पतरा" देखकर तयशुदा कोई भी तथाकथित मुहूर्त नहीं होता। बाकी तो हम बीच के संस्कारों वाले दिनों के, उत्सवों वाले पलों के दसों मुहूर्त तथाकथित पंडितों से ऑन लाइन या ऑफ लाइन पतरा में टटोलवा कर पता करते रहते हैं।
मसलन - छट्ठी के, मुंडन के, शादी के, गृह-प्रवेश के, किसी व्यापार या अन्य महत्वपूर्ण कार्यों के आरम्भ के, किसी प्रतिष्ठान के उदघाट्न के, मतलब कई मौकों के लिए मुहूर्त निकलवा कर ही काम सम्पादित करते हैं हम।
ऐसी कई भौंचक्का कर देने वाली बातें, घटनाएँ, सोचें हैं , जिसे हम बड़े आराम से और आसानी से आडम्बर और विडंबना की चाशनी के साथ ताउम्र चाटते रहते हैं .. आत्मसात करते रहते हैं।
खैर .. फ़िलहाल तो ये मनन करते हैं कि जीवन भर हिन्दू-मुस्लमान जैसे जाति-धर्म और उपजाति जैसे पचड़े से बचने की कोशिश करने वाला कोई भी इंसान .. कैसे भला स्वयं के मृत शरीर को क़ब्रिस्तान या श्मशान के मार्ग में जाने से रोक कर .. मरने के बाद भी हिन्दू और मुस्लमान नहीं बनना चाहता हो तो फिर क्या करे वो ? आइए .. इस प्रश्न का हल निम्नलिखित चंद पंक्तियों में तलाशने की कोशिश करते हैं ...

महज़ एक इंसान
क्यों भला हमलोग जीते जी
हिन्दू- मुस्लमान करते हैं ?
कोई अल्लाह ..
तो कोई भगवान कहते हैं
एक ही धरती की
किसी ज़मीन को हिन्दुस्तान ..
तो कहीं पाकिस्तान करते हैं

मर कर भी चैन
नहीं मिलता हमको
तभी तो कुछ श्मशान
तो कुछ क़ब्रिस्तान ढूँढ़ते हैं ...

मिटाते क्यों नहीं
हम लोग आपस का
झगड़ा जीते जी
महज़ एक इंसान बनकर
और मर कर भी औरों के
काम आ जाएं हमलोग
क्यों नहीं भला हमलोग
देहदान करते हैं ...

आज का बकबक बस इतना ही ... शेष बतकही अगली बार ...
                                         



Tuesday, May 12, 2020

साँझा चूल्हे से बकबक - भाग-१.

साँझा चूल्हा की शुरुआत अनुमानतः सिक्खों द्वारा पँजाब प्रांत में की गई होगी। खैर .. शुरुआत कभी भी और कहीं भी हुई हो या वजह जो भी रही हो; बेशक़ यह कुछ लोगों को लंगर के तरह सकारात्मक रूप से जोड़ता है।
हमारे बिहार में ( अन्य राज्यों का मालूम नहीं )  सिक्खों को सरदार जी या पंजाबी ही कहते हैं और पंजाब के रहने वाले अन्य बिना पगड़ी वाले निवासी को मुंडा पंजाबी या शायद अपभ्रंश में मोना पंजाबी भी कहते हैं। मतलब राज्य विशेष का विशेषण बोल-चाल की भाषा में सम्प्रदाय या जाति विशेष के विशेषण का रूप ले लेता है। ठीक ऐसा ही भ्रम होता है बंगाली शब्द के साथ भी।
साँझा चूल्हा संज्ञा भी शायद 'साझा' शब्द से ही बना है। मतलब साँझा और साझा पर्यायवाची शब्द ही होंगे। ना, ना, बता नहीं रहा, बस पूछ रहा हूँ।
अब मूल बातों पर आते हैं। दरअसल मेरा एक सत्यापित साहित्यकार नहीं होने के नाते मुझे ये तो पता नहीं कि साझा रचनाओं के संकलन का प्रकाशन पहले भी प्रचलन में रहा होगा या नहीं ; परन्तु इन दिनों तो है। मुझ जैसे मूढ़ ने इसके संदर्भ में जो अब तक जाना , समझा या अनुभव किया है ; उसे ही अभी आप से साझा करने की हिमाक़त भर कर रहा हूँ .. बस।
प्रायः इस के लिए तीन तरह के लोग आगे बढ़ते हुए देखने में आते हैं ( मैं एक असत्यापित साहित्यकार (?) होने के कारण इस पूरे आलेख में पूरी तरह गलत भी हो सकता हूँ ) या मुझे आए हैं  :-
1) कोई प्रकाशक
2) कोई साहित्यिक संस्था
3) कोई उत्साही, अतिमहत्वाकांक्षी या समर्पित रचनाकार।
वैसे तो अब इन उपरोक्त तीन में से किसी एक के भी तीन प्रकार होते हैं :-
1) जो मुफ़्त में सारे खर्च को स्वयं वहन करें
2) जो "ना लाभ- ना हानि" (No loss- No Profit) वाले सिद्धान्त पर मुद्रण के कुल खर्चे को सभी साझा साहित्यकारों से बराबर-बराबर वसूल करें
3) (i) जो मूलभूत मुद्रण के खर्चे के अलावा भी वसूल करें ताकि उन पैसों से उस साझा-संग्रह के तथाकथित विमोचन के समय आपको शील्ड, शॉल और उस संग्रह की कुछ प्रतियाँ भी प्रदान की जा सके ( आपके साथ-साथ अगर उस विमोचन कार्यक्रम में कोई मुख्य अतिथि आने वाले होंगे तो उनका भी शॉल वग़ैरह का भी खर्चा )
    (ii) जो विमोचन-कार्यक्रम के तहत होने वाले टेंट या हॉल, नाश्ता-पानी इत्यादि का भी पैसा वसूल करें
    (iii) जो इन सब के अलावा मुनाफ़ा की भी सोच कर वसूलें।फिर बारी आती है इसके लिए प्रकाशक से भी ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला/वाली एक तथाकथित संपादक का/की।
अब शायद पुरुषप्रधान समाज में जिन दिनों में व्याकरण लिखा जा रहा होगा, तब हो सकता है सम्पादन का कार्य महिला न करती हों, जिसके कारण "सम्पादिका" जैसा शब्द का व्याकरण में उल्लेख नहीं है और इसीलिए ये प्रचलन में भी नहीं है। मंत्री जैसे संज्ञा की तरह एक ही उभयलिंगी शब्द से काम चल जाता है। खैर, वजह जो भी रही हो; इसी कारण से अपने उपरोक्त कथन में सम्पादक के विकल्प में सम्पादिका नहीं लिख पाया। इनके लिए तथाकथित लिखने की वजह यह है कि इनके भी तीन प्रकार के अनुभव मिले :-
1) जो वास्तव में सम्पादन का कार्य करने वाला/वाली हो
2) जो केवल संकलक या संग्रहकर्ता का काम कर रहा/रही हो
3) जो ना तो सम्पादन ठीक से कर पाया हो और ना ही संकलन या संग्रह। मतलब जो ठीक-ठाक शुद्धिकारक (proofreader) भी ना हो , क्यों कि अनगिनत अशुद्धियों के साथ छपी प्रतियों का विमोचन कर दिया जाता है।
अगर मान लें कि अब तक रचनाओं की हार्ड कॉपी हाथों-हाथ, कूरियर या पोस्ट द्वारा या फिर सॉफ्ट कॉपी ईमेल या व्हाट्सएप्प द्वारा संग्रह कर ली गई है। साथ ही यथोचित तय की गई राशी भी - हाथों-हाथ, चेक, नेट बैंकिंग द्वारा मनी ट्रांसफर या पेटीएम् द्वारा संकलित कर ली गई है। अब सबसे अहम भूमिका शुरू होती है उन सम्पादक महोदय/महोदया के स्वविवेक के आधार पर आपको उस साझा-संग्रह में मिलने वाले पन्नों की संख्या को तय करने की प्रक्रिया की। उसके भी तीन स्वरुप होते हैं :-
1) सम्पादकीय या सौभाग्यवश कोई विज्ञापन मिला हो तो उसके लिए निर्धारित पन्नों के बाद शेष बचे पन्ने सबमें बराबर-बराबर बाँट दिए जाते हैं।
( प्रायः आपके हिस्से के छपने वाले पन्ने या रचनाओं की तय संख्या को रचना व राशी एकत्रित करने के पहले ही आपको बतला दी जाती है )
2) कभी -कभी किसी सम्पादक महोदय/महोदया को अपने किसी प्रिय/प्रिया पर प्रेम उमड़ पड़े तो आपके एक-दो पन्ने और स्वाभाविक है कि आपकी रचनाएँ भी उड़ा कर उस प्रिय/प्रिया रचनाकार के नाम कर दिया जाता है। 
मसलन - अगर सब के नाम पाँच -पाँच पन्ने तय थे तो विमोचन के समय आपके हाथ में किसी भी दो कमजोर (?) रचनाकारों के नाम पर चार-चार पन्ने और उस ख़ास चहेते के नाम पर सात पन्नों में उस की रचनाएँ पाँव पसारे नज़र आती है। आप अपने चार पन्ने के बाद भी विमोचन के समय अपनी खिसियानी मुस्कान लिए कैमरे के सामने खड़े रहते हैं। कई बार तो अगर मंच छोटा पड़ गया तो आपको फोटोग्राफी के समय मंच से उतरना भी पड़ सकता है।
3)  जब पन्ने बिना बतलाए उड़ा दिए जाते हैं तो आपकी कौन सी रचना उड़ा दी जाएगी, ये भी आप से नहीं पूछा जाता है। ऐसे में कोई अचरज नहीं कि आपकी नज़र या पसंद की प्राथमिकता में पहले नम्बर वाली रचना ही उड़ा दी जाए।
खैर ... आज इतना ही .. शेष इस से जुड़ी बातें अगली बार करते हैं। फ़िलहाल मेरी एक पुरानी रचना/विचार - छट्ठी के कपड़े  जो मेरे पहले साझा काव्य संकलन - "सप्तसमिधा" से है और जिसके संपादक हैं - सौरभ दीक्षित जी वाराणसी से ...
(विशेष :- उपरोक्त अनुभवों का इस साझा काव्य संकलन से कोई लेना-देना नहीं है।)

छट्ठी के कपड़े
पालने से अपने पाँव पर चलने तक 
और उस से भी बड़े हो जाने तक
अनुपयोगी हो जाने के बावज़ूद भी
अपने नौनिहालों के छट्ठी के कपड़े
सहेज कर रखती हैं अक़्सर माँएं ...

अलमारी में .. दीवान में .. या संदूक में
रखे कपड़ों के तहों के नीचे सुरक्षित
या तोशक या सुजनी के नीचे 
या फिर तकिए के अंदर
या फिर बरेरी* में टंगी गठरी में
सहेज कर रखती हैं अक़्सर माँएं ...

ठीक किसी क़ीमती गहने की तरह 
या फिर अपने कुँवारे दिनों के 
अपने किसी असफल प्रेम के 
प्रेम-पत्र या प्रेम-प्रतीक के तरह
छुपाकर रखती हैं अक़्सर माँएं ...

और फिर ... 
बच्चों के स्वयं पिता या माँ बन जाने पर भी 
ताउम्र फ़ुरसत में ..
अतीत में डूबती-उतराती मोतियाबिंद वाली निगाहें
अपनी तेल-मसालों से गंधाती उँगलियाँ
और अपनी बुढ़ाई कंपकंपाती झुर्रीदार हथेलियाँ 
उनपर फिराती हैं अक़्सर माँएं ...

सहेजे गए उन अनुपयोगी 
छट्ठी के कपड़ों की तरह
घर-आँगन में .. कमरे के एक कोने में
ओसारे में .. या दहलीज़ पर ही सही
अनाथाश्रम में तो कदापि नहीं
गुणसूत्र दाताओं को तो बस चाहिए एक ठौर ही
जो ले तो जाएंगे कुछ भी नहीं ..
बल्कि देंगे जीवन भर दुआएँ ... 

*विशेष = केवल बाँस, लकड़ी और फूस या इन सब के अलावा मिट्टी के बने खपड़े या टाईल्स (टाली) आदि के संगम से निर्मित्त हुए घर के ऊपरी छत्त वाले हिस्से को "छप्पर" या " खपड़ैल छप्पर " कहते हैं।
इसी छप्पर के घर के भीतरी हिस्से में या आगे की ओर जो बाँस का भाग निकला हुआ दिखता है, उसे बिहार की पाँच आंचलिक भाषाओं  अंगिका, बज्जिका, भोजपुरी, मगही और मैथिली में से मैथिली और मगही भाषा में "बरेरी" कहते हैं। भोजपुरी का ठीक-ठीक पता नहीं कि उस भाषा में ये शब्द व्यवहार में आता है या नहीं। 】
                                  
                                          
















Monday, May 11, 2020

मचलते जुगनूओं की तरह ...


कल सुबह रविवार के दिन (10.05.2020) 'लॉकडाउन-3.0' में बाज़ार को मिली आंशिक छूट और 'सोशल डिस्टेंसिंग' का पालन करता हुआ अपनी धर्मपत्नी के साथ 'मोर्निंग वॉक' के साथ-साथ फल-सब्जी की मंडी की ओर रूख़ किया तो लुप्तप्रायः मौसमी फल फ़ालसा पर नज़र पड़ी। तब मन चहक गया उसके आभासी स्वाद को महसूस कर के। कीमत पूछने पर मालूम हुआ - 70 रुपए का सौ ग्राम - मतलब 700 रुपए किलो। बस स्वाद बाहर चखने के ख़्याल से 50 ग्राम लेने की ही हिम्मत जुटा पाया।
फिर उसी उच्च विद्यालय में अर्थशास्त्र विषय के अन्तर्गत पढ़ाई गई "माँग और पूर्ति" के 'मिलान बिन्दु' पर किसी वस्तु की कीमत तय होने वाले सिद्धान्त की याद आ गई।
चूँकि मैं जहाँ वर्त्तमान में अस्थायी रूप में रहता हूँ - पटना साहिब - बिहार राज्य की राजधानी पटना का पूर्वी और प्राचीन भाग है। पुराने शहर के नाते कहीं-कहीं इसका लुप्तप्राय पेड़ उपलब्ध होने के कारण यह फल - फ़ालसा अपने मौसम में मिल जा रहा है। याद है कि बचपन में यह फल इसी पटना शहर में इसी मौसम में बहुतायत मात्रा में मिल जाया करता था। भारत के अन्य भाग का तो नहीं पता, पर हमारे बिहार में यह कम नज़र आने लगा है।
गूगल , वीकिपीडिया या सामान्य विज्ञान में उपलब्ध जानकारी के अनुसार - फालसा दक्षिणी एशिया में भारत, पाकिस्तान से कम्बोडिया तक के क्षेत्र मूल का फल है। इसकी पैदावार अन्य उष्णकटिबन्धीय क्षेत्रों में भी खूब की जाती रही है।
इसकी झाड़ी 8 मीटर तक की हो सकती है और पत्तियां चौड़ी गोलाकार और 5 से 18 सेंटीमीटर लम्बी होती हैं। इसके फ़ूल गुच्छों में होते हैं, जिनमें एक-एक पुष्प 2 सेंमी.  व्यास का होता है और इसमें 12 मि.मी. की 5 पंखुड़ियाँ होती हैं। इसके फल 5 से 12 मि.मी. व्यास के गोलाकार फ़ालसई वर्ण के होते हैं, जो पकने पर लगभग काले हो जाते हैं।
कल खाते वक्त निम्नलिखित पंक्ति अचानक मन / दिमाग में कौंधी, जो हूबहू लिख रहा हूँ। इसका स्वाद लगभग खट्टा-मिट्ठा होता है। इसे जीभ और तालू के बीच दबा कर इमली की तरह चूसा जाता है और गुदा चूसने के बाद एक छोटा-सा अवशेष बचे बीज को "फूह" की आवाज के साथ फेंक दिया जाता है।
आपके किसी क्षेत्र में अगर बहुतायत में मिलता हो तो मेरी इस बतकही पर मुस्कुराइएगा नहीं या गुस्सा भी मत होइएगा।

इसी आशा के साथ चंद पंक्तियों या शब्दों वाली मेरी रचना/विचार ....

मन के जीभ पर ...
जानाँ ! ...
साँझ-सवेरे
तू पास रहे
या ना रहे
फ़ालसा-से
छोटे-छोटे
खट्टे-मीठे
संग बीते
पलों के
स्वाद तैरते
हैं मन के
जीभ पे ...
                            

साथ ही इस ताज़ी रचना के साथ-साथ एक और छोटी-सी पुरानी रचना/विचार भी ...

क्षणभंगुर अनाम रिश्ते
बाद लम्बी तपिश के
उपजी पहली बारिश से
मिट्टी की सोंधी ख़ुश्बू की तरह
उपजते हैं कुछ अनाम रिश्ते।

सर्दी की ठिठुरती हुई
शामों से सुबहों तक
फैली ओस की बूँदों की तरह
उभरते हैं कुछ अनाम रिश्ते।

अमावस की काली रातों में
रातों की अँधियारों में
मचलते जुगनूओं की तरह
चमकते हैं कुछ अनाम रिश्ते।

पर क्षणभंगुर होकर भी
ना जाने क्यों
मन से अक़्सर ही
लिपट जाते हैं कुछ अनाम रिश्ते।

                                             

Saturday, May 9, 2020

अम्मा की गर्भनाल के बहाने ...

हमारे परिधान, खान-पान और भाषा मतलब मोटे-मोटे तौर पर कहा जाए तो हमारे रहन-सहन पर अतीत के कई विदेशी हमलावर, लुटेरे और शासकों की सभ्यता-संस्कृति, रहन-सहन और आज की वैश्वीकरण वाली परिस्थिति में विदेशों में आविष्कार किए गए आधुनिक उपकरणों का प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव है ... अब हम माने या ना माने। चाहे हम लाख खुद को सनातनी होने , स्वदेशी अपनाने और अपनी सभ्यता-संस्कृति को बचाने की दुहाई और झूठी दिलासा देते रहें।
इसी का परिणाम है - आजकल मनाए जाने वाले विभिन्न "दिवस" या "डे" , जो धीरे-धीरे पश्चिमी देशों से आ कर कब हमारी संस्कृति का हिस्सा बन गया और हम बिना इसकी पड़ताल किये गर्दन अकड़ाए खुद भी मनाते रहे और भावी पीढ़ी को भी इसे उत्साहित होकर मनाने के लिए उकसाते रहे। बस यूँ ही चल पड़ा ये सिलसिला और आगे भी चलता रहेगा .. शायद ...।
उन्हीं विदेशों से आयातित "दिवसों" में से एक है - "मदर्स डे" या "मातृ दिवस"। जिन्हें गर्दन अकड़ाए हम मनाते हैं या आगे भी मनाएंगें। हमारे देश में "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी" की परम्परा तो सदियों से रही है। अपनी जननी मतलब माँ के पाँव छूने और पूजने का भी चलन सनातनी है शायद। पर इसके लिए कोई दिवस नहीं था और ना ही होना चाहिए , बल्कि यह हमारी दिनचर्या में शामिल था और होना भी चाहिए।
यह मातृ दिवस शायद बहुत पुराना नहीं है। लगभग 19वीं शताब्दी में इसकी शुरुआत विभिन्न विदेशों में अलग-अलग रूप में हुई थी। कहीं देवताओं की माँ की पूजा के रूप में , तो कहीं युद्ध में मारी गई माँओं के लिए, तो कहीं गरीब माँओं के लिए। फिर धीरे-धीरे अपनी-अपनी माँओं के लिए मनाए जाने वाली प्रथा के रूप में सिमट कर रह गई। वैसे तो इनकी सारी जानकारियां विस्तार से गूगल बाबा के पास उपलब्ध है ही। बस जरुरत है अपने-अपने मोबाइल के कुछ बटन दबाने की या स्क्रीन पर ऊँगली फिराने की। आज भी पूरे विश्व में कहीं-कहीं मई के दूसरे रविवार को, जिनमें हमारा भारत भी है, तो कहीं-कहीं चौथे रविवार को यह मनाया जाता है। मतलब कुल मिलाकर यह विदेशों से आई हुई परम्परा है जिसका स्वदेशीकरण किया जा चुका है।
मैं निजी तौर पर इन विदेशी बातों या प्रथाओं को अपनाने का ना तो विरोधी हूँ और ना ही स्वदेशी या सनातनी जैसी बातों का अंधपक्षधर हूँ। मेरा विरोध बस ऐसे लोगों से है जो एक तरफ तो खुद को सनातनी या स्वदेशी बातों का पक्षधर स्वघोषित करते हैं और सभ्यता-संस्कृति बचाओं की मुहिम चलाते हैं ; पर दूसरी तरफ कई-कई विदेशी उपकरणों या प्रथाओं को अपनाने से खुद को रोक नहीं पाते हैं। ताउम्र दोहरी सोच रखने वाले, दोहरी ज़िन्दगी जीने वाले मुखौटाधारी लोग बने रहते हैं।
ख़ास कर आज के वैश्विकरण वाले काल में तो विदेशी आबोहवा से बिल्कुल भी नहीं बचा जा सकता। वैसे भी किसी की भी अच्छी बातें या आदतें अपनाने में बुराई भी तो नहीं है। उस से तो हमारी सभ्यता-संस्कृति और ज्यादा समृद्ध ही होती है और आगे होगी भी। एक तरफ विदेशी बातों या चाल-चलन को देशीकरण कर के हमारा एक वर्ग अपना कर गर्दन अकड़ाता है और दूसरी तरफ उसे हर बात में उसकी सभ्यता-संस्कृति खतरे में नज़र आती है।
फिर से मजबूरी में क्षमायाचना के साथ वही बात दुहरानी पड़ती है कि दोहरी ज़िन्दगी जीने वाले मुखौटेधारी लोग हैं। खुल के अपनाओ और खुल के मनाओ - विदेशी तथाकथित मदर्स डे का देशीकरण रूप मातृ दिवस के रूप में। अब देर किस बात की है , जब विदेश-प्रदत्त सोशल मिडिया के वेव पन्नों का कैनवास तो है ही ना हमारे पास ... बस इन पर हमारी अपनी-अपनी रचनाओं और विचारों का बहुरंग पोस्ट बिखेरना बाक़ी है।
माँ .. जिसका पर्यायवाची शब्द ...अम्मा, मम्मी, अम्मी, माई, मईया, मदर, मॉम और ना जाने विश्व की लगभग 1500 बोलियों में क्या-क्या है। वैसे तो हमें अमूमन उपलब्ध रचनाओं में माँ द्वारा हमारे बचपन में हमारे किए गए लालन-पालन की प्रक्रिया का विस्तृत उल्लेख मिलता है। परन्तु हम भूल जाते है कि लालन-पालन में पिता का भी अनमोल योगदान होता है।
अतुल्य होता है तो केवल माँ के गर्भ में स्वयं का लगभग नौ माह का गर्भकाल और प्रसव के कठिन पल। विज्ञान कहता है कि माँ हमारे जन्म के समय जो प्रसव-पीड़ा झेलती है या बर्दाश्त करती है , वह लगभग 200 मानव हड्डियों के टूटने के दर्द के बराबर होता है। सोच के भी सिहरन होती है। इन पलों को महसूस कर के कुछ माह पहले हमने भी अपने इसी ब्लॉग पर एक रचना/विचार लिखी थी, जिसे दुबारा अभी फिर से साझा कर रहा हूँ ...

गर्भनाल 
यूँ तो दुनिया भर के
अँधेरों से डरते हैं सभी
कई बार डरा मैं भी
पर कोख के अंधियारे में
तुम्हारी अम्मा मिला जीवन मुझे
भला डर लगता कैसे कभी ...

हर दिन थोड़ा-थोड़ा गढ़ा मुझे
नौ माह तक अपने उसी गर्भ में
जैसे गढ़ी होगी उत्कृष्ट शिल्पकारियाँ
बौद्ध भिक्षुओं ने वर्षों पहले
अजंता-एलोरा की गुफाओं में कभी ...

तुम संग ही तो था बंधा पहला बंधन
जीवन-डोर सा गर्भनाल का और..
पहला स्पर्श तुम्हारे गर्भ-दीवार का
पहला आहार अपने पोपले मुँह का
पाया तुम्हारे स्तनों से
जिसके स्पर्श से कई बार
अनकहा सुकून था पाया
बेजान मेरी उँगलियों की पोरों ने
राई की नर्म-नाजुक फलियों-सी ...

काश ! प्रसव-पीड़ा का तुम्हारे
बाँट पाता मैं दर्द भरा वो पल
जुड़ पाता और एक बार
फिर तुम्हारी गर्भनाल से ..
आँखें मूंदें तुम्हारे गर्भ के अँधियारे में
चैन से फिर से सो जाता
चुंधियाती उजियारे से दूर जग की ...
है ना अम्मा ! ...

अम्मा के लिए एक अन्य बहुत पहले की लिखी एक रचना/विचार भी अपने इसी ब्लॉग पर साझा किया था ...

अम्मा ! ...
अम्मा !
अँजुरी में तौल-तौल डालती हो
जब तुम आटे में पानी उचित
स्रष्टा कुम्हार ने मानो हो जैसे
सानी मिट्टी संतुलित
तब-तब तुम तो कुशल कुम्हार
लगती हो अम्मा !

गुँथे आटे की नर्म-नर्म लोइयाँ जब-जब
हथेलियों के बीच हो गोलियाती
प्रकृति ने जैसे वर्षों पहले गोलियाई होगी
अंतरिक्ष में पृथ्वी कभी
तब-तब तुम तो प्राणदायनि प्रकृति
लगती हो अम्मा !

गेंदाकार लोइयों से बेलती वृत्ताकार रोटियाँ
मानो करती भौतिक परिवर्त्तन
वृताकार कच्ची रोटियों से तवे पर गर्भवती-सी
फूलती पक्की रोटियाँ
मानो करती रासायनिक परिवर्त्तन
तब-तब तुम तो ज्ञानी-वैज्ञानिक
लगती हो अम्मा !

गूंथती, गोलियाती, बेलती,
पकाती, सिंझाती, फुलाती,
परोसती सोंधी-सोंधी रोटियाँ
संग-संग बजती कलाइयों में तुम्हारी
लयबद्ध काँच की चूड़ियाँ।
तब-तब तुम तो सफल संगीतज्ञ
लगती हो अम्मा !.

अंत में उपर्युक्त अपनी बकबक और दो पुरानी रचनाओं/विचारों के साथ-साथ आप सभी को वर्ष 2020 की अग्रिम तथाकथित मदर्स डे उर्फ़ मातृ दिवस (10.05.2020) की हार्दिक शुभकामनाएं ...
     
                                     


Friday, May 8, 2020

बेचारी भटकती है बारहा ...



सारा दिन संजीदा लाख रहे मोहतरमा संजीदगी के पैरहन में
मीन-सी ख़्वाहिशें मन की, शाम के साये में मचलती है बारहा

निगहबानी परिंदे की है मिली इन दिनों जिस भी शख़्स को
ख़ुश्बू से ही सिंझते माँस की, उसकी लार टपकती है बारहा

सोते हैं चैन की नींद होटलों में जूठन भरी प्लेटें छोड़ने वाले
खलिहानों के रखवालों की पेड़ों पे बेबसी लटकती है बारहा

मुन्ने के बाप का नाम स्कूल-फॉर्म में लिखवाए भी भला क्या
धंधे में बेबस माँ बेचारी हर रात हमबिस्तर बदलती है बारहा

पा ही जाते हैं मंज़िल दिन-रात साथ सफ़र करते मुसाफ़िर
पर यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ रेल बेचारी भटकती है बारहा

आवारापन की खुज़ली चिपकाए बदन पर हमारे शहर की
हरेक शख़्सियत संजीदगी के लिबास में टहलती है बारहा
                           
                               

Thursday, May 7, 2020

मेरे हस्ताक्षर में ...

हाशिए
पर पड़ी
ज़िन्दगी
उपेक्षित
कब होती
है भला !?
बोलो ना ...
सखी ..

संपूर्ण
पन्ने का
मूल्यांक
और
मूल्यांकन व
अवलोकन को
सत्यापित
करते
हस्ताक्षर
ये सभी तो
होते हैं
हाशिए पर ही ...

फिर .....
हाशिए
पर पड़ी
ज़िन्दगी
उपेक्षित
हो सकती है
कैसे भला ?
बोलो ना ...
सखी ..

मैं हूँ भी
या नहीं
हाशिए पर
तुम्हारे
जीवन के
पन्नों के

किन्तु
कागज़ी
पन्नों के
हाशिए पर
चमकता है
बार-बार
अनवरत
गूंथा हुआ
तुम्हारा नाम
मेरे नाम
के साथ
आज भी
मेरे हस्ताक्षर में ...

हाँ ..
आज भी
हाँ ...
सखी ..
आज भी ...



Tuesday, May 5, 2020

गुलाबी सोना ...

आज हम लोग "कतरनों और कचरे से कृतियाँ - हस्तशिल्प - (भाग-1,2,3.)" के सफर को Lockdown-3.0 की अवधि में आगे बढ़ाते हुए..
कतरनों और कचरे से कृतियाँ - हस्तशिल्प - (भाग-4,5,6.) की ओर  चलते हैं .. और एक बार फिर से मन में दुहराते हैं कि ..
1)
आओ आज कतरनों से कविताएं रचते हैं 
और मिलकर कचरों से कहानियाँ गढ़ते हैं।
2)
नज़रें हो अगर तूलिका तो ... कतरनों में कविताएं और ...
कचरों में कहानियाँ तलाशने की आदत-सी हो ही जाती है ।



                                   बस यूँ ही ...
#Lock Down के बहाने - #Handicraft/हस्तशिल्प - (४).

यूँ तो Social Media पर " पेड़ बचाओ " की पैरवी करने वाले कई लोग एक-एक पौधे को 10-10, 15-15 लोगों द्वारा पकड़ कर वृक्षारोपण का स्वांग करने वाली Selfie चिपकाने/चमकाने में अकड़ महसूस करते दिखते हैं। जबकि उनके शयन-कक्ष, अतिथि-कक्ष और डाइनिंग-स्पेस में लकड़ी के बेशकीमती फ़र्नीचर उनकी दिखावटी विचारधारा को मुँह चिढ़ाती विराजमान दिख जाती है।
खैर ! मुखौटे वाले चेहरों और चरित्रों का क्या करना भला ! फ़िलहाल हम तो Lockdown के लम्हों में इन प्रायः फ़र्नीचर बनने के दौरान बढ़ई द्वारा लकड़ी को चिकना बनाने के लिए रंदा से छिले गए छीलन से सुन्दर सा फूल वाला Wall Hanging बनाते हैं।
बस अलग-अलग पेड़ों की अलग रंगों की लकड़ी के कुछ जमा किए गए छीलन, पुराने डब्बे से कार्डबोर्ड, हरसिंगार का सूखा बीज, पिस्ता का छिल्का, गेंहूँ के पौधे का डंठल, सूखा नेनुआ का बीज के संयोजन और फेवीकोल & कैंची के सहयोग से बन गया .. कमरे की दीवार की शोभा बढ़ाता एक प्यारा-सा (?) Wall Hanging ...☺😊☺...
           
                                       
                                         
                                


                                    बस यूँ ही ...
#Lock Down के बहाने - #Handicraft/हस्तशिल्प -( ५ ).

22 मार्च को 14 घन्टे की जनता-कर्फ्यू , फिर दो दिनों तक कुछ जिलों में लगे लॉकडाउन के बाद 21 दिनों के लिए सम्पूर्ण देश के लिए घोषित लॉकडाउन यानी आज 14 अप्रैल तक .. उस के बाद पुनः आज 19 दिनों यानी 3 मई तक के लॉकडाउन की घोषणा ... आइए .. समय का सदुपयोग करते हुए और अपने भीतर सकारात्मक ऊर्जा भरते हुए कुछ विस्तार देते हैं .. हस्तशिल्प को ... हस्तशिल्प कला को ...
पर नया कुछ करने से पहले आज लगभग 29 - 30 ( 1989 - 1990 ) साल पुरानी अपनी एक एकल हस्तशिल्प प्रदर्शनी के लिए बनायी हुई कई हस्तशिल्पों में से कुछ अवशेष बचीखुची पुरानी यादों पर पड़ी गर्द की परतों को हटाने का जी चाहा .. वैसे भी यादों को सहेजना किसे नही अच्छा लगता .. ख़ासकर जब यादें सकारात्मक हों, तब तो विशेषरूप से ... शायद ..
उस जमाने के रील वाले कैमरे की नेगेटिव से स्टूडियो के लैब में बने कार्डबोर्ड पर बने फोटो में से आज उस दिन का एक यादगार फोटो भी संयोगवश मिला .. जिनमें तीन-चार कोलाज़ ( Collage Art/ एक विधा ) के साथ-साथ टाइल्स ( Tiles Art ), एल्युमीनियम सीट ( Metal Art ), गेहूँ के डंठल ( Grass Art ), बालू ( Sand Art ),  टूटी चूड़ियों ( Bangle Art ),  सोला वुड ( Sola wood Art ), थर्मोकोल ( Thermocol Art ) इत्यादि से बने कुछ हस्तशिल्प पुरानी यादों को ताजा कराते .. मुस्कुराते हुए सकारात्मक ऊर्जा प्रवाहित कर गए ...
और आपको !? ... फिर मिलते हैं अगली बार किसी नए हस्तशिल्प के साथ ... इस लॉकडाउन की अवधि में ...☺
               
                             
                  टूटे-बेकार टाइल्स के टुकड़ों से बनाई हुई कृति
                                         
               गेहूँ के डंठल से बनी हुई कृति - सरस्वती
                एल्युमीनियम के चादर से 3D कृति - डॉ राजेंद्र प्रसाद

          गंगा के सफेद और सोन के सुनहले बालू से बनी कृति
                   एकल हस्तशिल्प प्रदर्शनी - 1989-90 में.

                                      बस यूँ ही ...
#Lock Down के बहाने - #Handicraft/हस्तशिल्प - (६).

समान्य विज्ञान का वर्त्तमान पुरोधा - गूगल बाबा के अनुसार विश्व में सोना उत्पादन में भारत 10वें स्थान पर है, परन्तु खपत की दृष्टिकोण से पहले स्थान पर है, ख़ासकर गहने के रूप में खपत के मामले में। कहते हैं कि विश्व के सोना-उत्पादन का लगभग 50% सोना इस से गहना बनाने के काम में आता है।
सर्वविदित है कि सोना का शुद्धतम रूप काफी लचीला होने के कारण उसमें अन्य धातु मिलाकर ही गहना तैयार किया जाता है। अलग-अलग धातु अलग-अलग मात्रा/प्रतिशत में मिलाकर गुलाबी, पीला, पीला-हरा, पीला-गुलाबी, सफ़ेद जैसे कई रंगों के सोने के गहने बनाए जाते हैं। वैसे तो भारत में 22 कैरेट सोने के गहने को ही सही माना जाता है और ज्यादा उपयोग में लाया जाता है। बशर्ते वह हॉल मार्क वाला हो या सुनार ईमानदार हो। पर भारत के बाहर 18 कैरेट के और सफेद सोने (White Gold) के बने गहनों को ज्यादा पहना जाता है। एक और रोचक बात ... भारत में सोने के गहने पहनने और सहेजने के अनुपात अजीबोग़रीब है। शायद ... पहनने से ज्यादा सहेजने को प्राथमिकता दी जाती है।
जब सोना एक क़ीमती धातु है तो उसको विशेष रूप से सहेजना भी लाज़िमी है और रंगीन भी है तो फिर उसे रंगीन-चमकदार डब्बे में रखा जाए तो बात ही कुछ और होगी। कहते हैं ना ...सोने पे सुहागा।
इस तरह के बक्से या डब्बे को धड़ल्ले से हिन्दीभाषी लोग भी हिन्दी में ज्वेलरी-बॉक्स (Jewellery Box) या ऑर्नामेंट-बॉक्स (Ornament Box) कहते हैं। किन्हीं मातृभाषा प्रेमी और संस्कृति प्रेमी को विदेशी भाषा से परहेज़ हो और अगर विशुद्ध हिन्दी की बात करें तो इसे शायद आभूषण-मंजूषा कहा जा सकता है। है ना !?...
                  तो आइए बनाते हैं Lockdown-2.0 की अवधि में - आभूषण-मंजूषा ... जिसके लिए लेते हैं .. कुछ गत्ते, रुई, वेल्वेट/मखमली कपड़ों (Velvet Clothes) के टुकड़े, विभिन्न प्रकार के कुछ सजावटी कलई किए हुए शीशे, तरह-तरह के कुछ रंगीन गोटे, कैंची, स्केल, सुई-धागा, फेविकॉल और obviously मिले हुए Lockdown के घर में बिताने वाले समय  ... बस हो गया तैयार आभूषण-मंजूषा यानि Ornament Box. इसी तरह बना सकते हैं कई आकारों में Bangle Box.
चूँकि Lockdown -1.0 की घोषणा किसी पूर्व सूचना के अचानक ही की गई थी, तो बनाने के सारे पर्याप्त सामान पहले से उपलब्ध नहीं कर पाया था। अतः जो भी वर्षों पुराने सहेजे सामान समयाभाव में बस यूँ ही किसी कोने में पड़े थे उन्हीं से कुछ आधे-अधूरे Jewellery Box बन कर तैयार हैं , जिसे Lockdown खुलने के बाद पूरा करने की कोशिश रहेगी। इनमें एक Ornament Box पूर्णरूपेण तैयार है।
Lockdown तक ये हस्तशिल्प का सिलसिला जारी है ... वैसे .. आपको चाहिए क्या !? .. ये आभूषण-मंजूषा ...
           
                             
                                 
                               








हस्तशिल्प का ये सफ़र बस यूँ ही ... चलता रहे ... एक आशा - एक उम्मीद ...