Sunday, September 22, 2019

एक काफ़िर का सजदा ...

मौला भी तू, रब भी तू
अल्लाह भी तू ही, तू ही है ख़ुदा
करना जो चाहूँ सजदा तुम्हें
तो ज़माने भर से है सुना
हम काफ़िरों को है सजदा मना
अब बता जरा है हमारी क्या खता

करते है सब सजदे तुम्हें
रुख़ करके पश्चिम सदा
कहते हैं कि तू काबा में है बसा
अब समझा जरा इस काफ़िर को तू कि ...
काबा के उस काले पत्थर में ढूँढू तुम्हें
या फिर दफ़न वक़्त के कब्र में
बेजान तीन सौ साठ बुतों में है तू सोया

अक़्सर मैं ये सोचता हूँ कि ...
आब-ए-ज़मज़म से क्या मिट सकेंगे
लगे हैं जो दाग़ अस्मतदरी के बारहा
यूँ तो सिर उनके भी झुके हैं अक़्सर
तेरे सजदे में मेरे मौला
थी जिनकी धिंड में भागीदारी
और जो थे अस्मतदरी की वज़ह
और उनके भी तो सिर झुके हीं होंगे
सजदे में तुम्हारे ही आगे
जिनकी इज्ज़त की उड़ी थी धज्जियाँ

चाहे म्यांमार की काफ़िर बौद्ध भिक्षुणियाँ हों
या कश्मीरी समुदाय विशेष की लड़कियाँ
और बँटवारे के वक्त तू सोया था कहाँ
जब फिसल रहे थे नंगे स्तनों पर
काटने को प्यासे दरिंदों के ख़ूनी खंजर
तब उनकी अनसुनी चीखों पर
क्यों नहीं तू फ़फ़क-फ़फ़क कर था रोया

होकर काफ़िर भी मैं
सजदा करूँ आगे तुम्हारे
बस शर्त्त है ये कि ...
अगर जो तू ले ले रोकने की हर
अस्मतदरी की जिम्मेदारी यहाँ ...
तभी नसीब होगा तुझे मेरे मौला
इस एक काफ़िर का सजदा ...
हाँ ... एक काफ़िर का सजदा ...





Friday, September 20, 2019

चन्द पंक्तियाँ - (१७) - "चहलकदमियाँ"- बस यूँ ही ...

(१):-

बस रात भर
मोहताज़ है
दरबे का
ये फ़ाख़्ता

वर्ना दिन में बारहा
अनगिनत मुंडेरों
और छतों पर
चहलकदमियाँ
करने से कौन
रोक पाता हैं भला

आकाश भी तो
नाप ही आता है
परों के औक़ात भर
ये मनमाना ...

(२):-

मेरी ही
नामौज़ूदगी के
लम्हों को
अपनी उदासी का
सबब बताते तो हैं
अक़्सर...

पर बारहा
उन लम्हों में
उन्हें गुनगुनाते
थिरकते
और मचलते भी
देखा है
रक़ीबों के गीतों पर...

(३):-

शौक़ जो पाला है
हमने मुजरे गाने के
तो ..... फिर ...
साज़िंदों पर रिझने
और उन्हें रिझाने का
सिलसिला
थमेगा कब भला !?...

मुजरे हैं तो
साजिंदे होंगे
और ...
फिर साजिंदे ही क्यों
अनगिनत क़द्रदानों के
मुन्तज़िर भी तो
ये मन
होगा ही ना !?...

(४):-

मदारी और मुजरे
कभी
हुआ करते थे
नुमाइश
और
वाह्ह्ह्ह्ह्-वाही के
मुन्तज़िर ...

इन दिनों
हम शरीफ़ों के
शहर में भी
ये चलन कुछ ...
पुरजोर हो चला है ...


Thursday, September 19, 2019

मन के मेरे 'स्पेक्ट्रम' के

जानती हूँ मैं तुमको
स्वयं से भी ज्यादा
अब भले ही
तुम मानो या ना मानो
पर मैं तो मानती हूँ
तुम जानो या ना जानो
पर मैं तो ये जानती हूँ कि ...

मन के मेरे 'स्पेक्ट्रम' के
सतरंगी इंद्रधनुषी
'बैनीआहपीनाला' तो
देख लेते हैं बारहा
मेरा ख़्याल रखने वाले
अपने-सगे सारे के सारे
कुछ मेरे पहचान वाले
पर तुम ही तो केवल हो
जो महसूस कर पाते हो
मेरे मन की सारी
कोमल भावनाओं की
और नरम संवेदनाओं की
'अवरक्त किरणों' की आभा

अनुमान कर ही लेते हो
मेरे गहरे अवसादों की
और असीम वेदनाओं की
'पराबैंगनी किरणों' की ऊष्मा
और ... बावजूद
भौगोलिक दूरी के भी
अक़्सर सिक्त समानुभूति से 
तुम्हारी बातों की 'ओज़ोन परतें'
छा कर मेरे वजूद पर
सोख लेती ही हैं सारे के सारे
मेरे अवसादों
मेरी वेदनाओं की
झुलसाती 'पराबैंगनी किरणों' की ऊष्मा ...



Wednesday, September 18, 2019

चन्द पंक्तियाँ - (16) - "मादा जुगनूओं के" - बस यूँ ही ...

(1)***

यूँ तो सुना है ...
क़ुदरत की एक
नाइंसाफी कि ...
मादा जुगनूओं के
पंख नहीं होते

ये रेंगतीं हैं बस
उड़ नहीं सकती
नर जुगनूओं की तरह
मनचाहा आकाश में

बस गढ़ सकती हैं
कड़ियाँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी
मायके में पाले सपनों के
पंखों को कतरी गई
आम औरतों की तरह ...

(2)***

आदतें अक़्सर बस
"बदल" जाती हैं
पर "बदलती" हैं
कहाँ भला !?

आकाश में उड़ती
पतंगों से ज्यादा
कटी पतंगों को
देख कर बचपन की
चमकने वाली आँखें

सयानी होने पर
आकाश में चमकते
तारों में नहीं
टूटते तारों में
अपनी इच्छाएं पूरी
होने की चमक
भरती हैं ...

(3)***

वाह री चलन दुनिया की
जीवित बिल्लियों के
राह में गुजरने से
खराब हो जाती है
'जतरा' (जात्रा) इनकी

और किसी के सगे की
मृत देह वाली
गुजरती अर्थी के
देखने से कहते हैं
'जतरा' (जात्रा) बनती ...


Tuesday, September 17, 2019

नायाब छेनी-हथौड़ी

सुबह-सवेरे आज सोचा नहा-धोकर 'लाइफबॉय' से
कुछ नर-मुंड माल-सी फूलों की माला ले
प्रभु विश्वकर्मा  (?) आपकी मूर्तियों पर चढ़ाऊँ
और अपनी ग्यारह साल पुरानी 'ई एम् आई' वाली
अपनी काली-कलूठी हीरो होंडा को धो चमकाऊँ
पर ऊहापोह कुछ बार- बार इस महामूर्ख के मन के
अब क्या करूँ बस रोक रहे ये सब करने से
आप ही निज़ात दिला दो ना प्रभु !!!  इस मूर्खता से

दहकते सूरज से पृथ्वी को छिटकाई होगी
कभी जो आपकी नायाब छेनी-हथौड़ी
प्रभु !!! अब तो ये इनकी मूढ़ता की हद ही हो गई
ना जाने अभी तक 'वर्ल्ड हेरिटेज' या फिर
'गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड' में की गई क्यों नहीं
शामिल आपके उस नायाब अस्त्र को

सुना है आपने तो  दुनिया रची है
पर पृथ्वी की केवल अठारह फीसदी आबादी ही
क्यों ऐसा मानती है भला !?
क्या आपने नहीं बनाया यूरोप और अफ्रीका !?
बनाया तो वे मूर्ख भला ऐसा क्यों हैं मानते नहीं
और अगर नहीं मानते हैं तो आप क्यों नहीं
'सत्यनारायण स्वामी' की तरह ही
उनकी "कलावतियों" के जहाज़ डुबो देते हैं समुद्र में
ये समुंदरें भी तो सुना है शायद आपने ही है खोदी

बड़े बुरे हैं ये पश्चिम वाले ऐसा सुना है
आपको तो पता ही है ... है ना !?
बनाई है सब कुछ ... सारे कल-पुर्जे आपने यहाँ पर
पर कार, रेलगाड़ी, कंप्यूटर सब सारे के सारे
'कार्ल बेन्ज़', 'जेम्स वॉट', 'चार्ल्स बैबेज' के
नाम कर दी बस यूँ ही इन्होंने
जैसे अक़्सर कोई बच्चा बेचारा अपनी मेहनत से
होता है उत्तीर्ण परीक्षा अच्छे अंक लाकर
पर लड्डू प्रभु हनुमान को क्यों है चढ़ती
बच्चा भी सोचने लगता है बेचारा कि
किताब पढ़ने से अच्छा तो पढ़ो रोज
बस प्रभु हनुमान की हनुमान-चालीसा

प्रभु माना आपने रची है धरती की सारी सृष्टि
'कंप्यूटर-मोबाइल' बनाने में क्यों इतनी देर कर दी!?
बनाया होता जो और पहले तो
'जी पी आर एस' की मदद से
राम अपनी सीता को ढूंढ़ने में होती ना आसानी !?
कर पाते ना मान-हानि का दावा पांडव
'वीडियो' 'वायरल' कर अपनी द्रौपदी के चीरहरण के !?
बना होता मोबाइल जो पहले कर पाती ना
सीता राम या लक्ष्मण को 'मिसकॉल' संकट में !?
रची होती आप ने सारे प्रयोगशालाएं जो पहले
तो सीता को ना देनी पड़ती अग्नि-परीक्षा भी
जो उसकी 'मेडिकल-टेस्ट' कर ली गई होती और
'डी एन ए टेस्ट' की 'रिपोर्ट' से कर्ण को मिल पाता ना न्याय !?

आप ही की फैक्ट्री में बनती है ना 'ए के फोर्टी सेवन'
पता है कितनों की साँसों का ये कर लेते हैं हनन
इसकी फैक्ट्री तो प्रभु आपने बंद कर दी होती !!!
प्रभु ! आपने क्यों इतनी देर कर दी !?
प्रभु ! आपने क्यों इतनी देर कर दी !? ...




चन्द पंक्तियाँ - (१५) - "मौन की मिट्टी" - बस यूँ ही ...

@(१)

यूँ तो पता है मुझे ...
तुम्हें पसंद है
हरसिंगार बहुत

पर हर शाम
बैठते हैं हम-तुम
झुरमुटों के पास
बोगनविलिया के

क्योंकि ये बेचारे
दख़ल नहीं देते
तुम्हारे तन-मन की
सोंधी सुगन्धों में ...

@(२)

भावनाओं की
मीठी चाय से भरी
तुम्हारे मन के कुल्हड़ में

अपनापन की नमी से
भींगा हुआ मेरा मन
मेरे ही तन से दूर .... ठीक ...
चाय में अनायास घुले
आधे गीले और ...
हाथ में बचे आधे बिस्कुट-सा

रवा-रवा कर घुलता
तुम्हारी भावनाओं में तैरता
आहिस्ता-आहिस्ता ...
बैठता जा रहा
तुम्हारे मन की तली में ...
ग़ौर से ... जरा देखो ना !!!...

@(३)

मन के ओसारे को
आज फ़ुर्सत के
पलों से बुहार
मौन की मिट्टी से
लीप-पोत कर

अहसासों से तुम्हारे
भरे पलों की
रंगोली सजायी है

सुकून का दीया
जलाने तुम मेरे
मन के ओसारे तक
बस ... आ जाना ...

Saturday, September 14, 2019

"श्श्श्श् ....." अब ख़ामोश हो जाता हूँ ... वर्ना ...

ख़ामोश कर ही दिया जाता है बार-बार
चौक-चौराहों पर मिल समझदारों के साथ
"हल्ला बोल" का सूत्रधार
पर ख़ामोशी भी चुप कहाँ रहती है भला !?
अपने शब्दों में आज भी चीख़ती है यहाँ ... कि ...
"किताबें कुछ कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं"
पूछती है "सफ़दर हाशमी" की आत्मा कि
कब तक ख़ामोश मुर्दे बने जीते रहोगे भला !???
कब तक जीते रहोगे भला!? कब तक !??
बोलो ना ! ख़ामोश क्यों हो !?? बोलो ना जरा !!!

कोख़ हो ख़ामोश लाख मगर 
ख़ामोशी में एक सृष्टि किलकारी भरती है
अक़्सर चुप कराता है मसीहे को ज़माना मगर
उसकी ख़ामोशी तो बारहा चीख़ती है
अब हम ही हुए गूँगे और बहरे ... अपाहिज ...
उस गुम्बद के नीचे खड़े पत्थर की तरह जो
सदियों से भीड़ की आड़ में होने वाली
बलात्कार ... हत्याओं के बाद भी
कुछ बोलता नहीं है ... ख़ामोश खड़ा है ...
क्या ख़त्म हो गए कपड़े "द्रौपदी" के तन में ही सारे
या अगर था भी कभी वो सच में भी तो
आज हम मुर्दों-सा पड़ा है !??
बात यही छेड़ी थी ना तुमने ... ऐ मूढ़ प्राणी !
बस तुम्हारी सोचों को ज़हर के प्याली में डुबो कर
करा दिया गया था ना ख़ामोश तुम को ... पर ...
क्या फ़र्क पड़ता है एक "सुकरात" की ख़ामोशी से
आज भी आवाज़ उसकी "अफ़लातून" और "अरस्तू" में गूंजती है

पौ फटने से पहले बांग देने वाले मुर्गों को हम अक़्सर
हलाल कर देते हमारी नींद में ख़लल की वजह से
आसानी से कह देते हैं "निराला" और "उग्र" को
हम पागल और पृथ्वी की गोलाई को
गैलीलियो के कहने पर नकारते हैं
ख़ामोश पत्थर को पूजना ...
ख़ामोश मुर्दों-सा रहना ... ख़ामोशी का ओढ़े लबादा
सच कहाँ और कब हमें सुझता है !???
"श्श्श्श् ....." अब ख़ामोश हो जाता हूँ ... वर्ना ...
ओढ़ा दिया जाएगा ख़ामोशी का लबादा ...
हाँ .... मुझे भी ख़ामोशी का लबादा ....
ख़ामोशी का लबादा .....