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Sunday, June 25, 2023

'नागिन' की आत्मकथा" ...

 बस यूँ ही ...

गत दिनों 'सोशल मीडिया' पर नज़र से एक नाम गुजरा .. गुजरा ही नहीं, बल्कि उस पर नज़र ठिठकी .. स्वाभाविक है, क्योंकि ना तो ये नाम कभी इतिहास की किताबों में पढ़ने मिला था या मिलता है और ना ही इससे पहले किसी से मौखिक सुनने के लिए मिला है कभी .. वह नाम है - नीरा आर्य 'नागिन' ...

एक बकलोल और आलसी पाठक होने के बाद भी इन नाम से जुड़ी जो भी 'पोस्ट' सामने से गुजरी सभी को तन्मयता से पढ़ा। इन से जुडी मार्मिक घटनाओं के बारे में छिटपुट पढ़ कर इनके बारे में जानने की और भी उत्सुकता बढ़ती गयी। तभी सहज-सुलभ उपलब्ध 'गूगल' पर 'सर्च' करके तसल्ली हुई कि ये सारे दिख रहे 'पोस्ट' 'फेक' नहीं हैं। फिर 'अमेजॉन' पर खँगालने पर मिल ही गयी, वह मार्मिक इतिहास के घटनाक्रम की दफ़न पवित्र गीता .. शायद ... जिसका नाम है - "मेरा जीवन संघर्ष (दुर्लभ चित्रों सहित) -नीरा आर्य 'नागिन' की आत्मकथा" ...

वैसे प्रसंगवश हमको सही-सही ज्ञात नहीं कि "घटना" को भी "कहानी" कहते-लिखते हुए लोगबाग सुने-पढ़े जाते हैं, तो किसी घटनाक्रम को कहानी कहना कहाँ तक उचित है, ये सच में नहीं मालूम हमको। वैयाकरण महानुभावों के दृष्टिकोण में क्या सही, क्या गलत .. ये छिद्रान्वेषण उनके जिम्मे है .. मेरे नाम के आगे 'डॉक्टर' भी तो नहीं लगा हुआ है .. ख़ैर ! ... आगे मन नहीं माना .. 'आर्डर' लगा दिया 'अमेजॉन' को, पर आया भारतीय डाक विभाग के 'बुकपोस्ट' द्वारा .. उनकी आपसी कुछ ऐसी अंदरुनी व्यवस्था रही होगी। उनसे हमें क्या करना भला, हमें तो बस सुविधा भर चाहिए .. शायद ...

यूँ तो दो दिन पहले ही यह किताब घर आ गयी थी। पर व्यस्त दिनचर्या की वजह से आज-अभी किताब को महक पाया और हमेशा की तरह पुनः सोचने पर विवश हो गया कि सदियों स्वयं को क़बीलों में रख कर सुरक्षित मानने वाले हम मनुज आज भी प्रायः किसी राजनीतिक दल से, समुदाय से, सम्प्रदाय से, जाति से या किसी भी झुण्ड से स्वयं को  जोड़ कर या सामने वाले को भी ज़बरन जोड़ कर ही दम लेते हैं। जबकि हमें किसी भी दलगत सोच से तटस्थ हो कर, उस से बिना जुड़े या जोड़े, अपनी स्वयं की विचारधारा कहने की स्वतंत्रता होनी ही चाहिए, तभी हम सही इतिहास पढ़ भी सकते हैं और .. गढ़ भी सकते हैं .. शायद ... 


हम तो अक़्सर देखते हैं कि किसी दलगत विशेष के समर्थक, अन्य किसी दलगत विशेष के समर्थक के लिए "अंधभक्त" जैसा विशेषण धड़ल्ले से व्यवहार में लाते हुए पाए जाते हैं, जबकि इस तरह के प्रमाणित इतिहास वाली किताब पढ़ने के बाद वो सारे तुलनात्मक और भी बड़े वाले अंधभक्त नज़र आने लगते हैं .. शायद ...

इसी किताब के एक पन्ने पर उकेरी गयी, स्वामी दयानन्द सरस्वती जी की विचारधारा :-


काश ! .. अगर हम नहीं तो कम से कम हम अपनी नयी पीढ़ी को तो इतिहास या अन्य सभी विषय केवल 'मार्क्स' या 'क्लास-डिवीज़न' प्राप्ति के बाद नौकरी पाने के उद्देश्य से परे उन्हें अपनी दिनचर्या में सुधार या उपयोग के लिए पढ़ने हेतु प्रेरित कर के एक सफल समाज की नींव रख पाते ...


शहीद दिवस, शिक्षक दिवस और बाल दिवस के झुनझुने की आवाज़ में इतिहास की तमाम सिसकियाँ और चीखें तिरोहित हो कर रह गयीं .. शायद ...
इस किताब को 1966 के प्रथम संस्करण के बाद ही तत्कालिक सरकार द्वारा प्रतिबन्धित कर दिया गया था। वर्षों के बाद 2022 में दोबारा छापा गया है। इसमें उपलब्ध मार्मिक ऐतिहासिक घटनाक्रमों को पढ़ने के बाद रोम-रोम सहम-सिहर जाता है। कुछ बुद्धिजीवियों द्वारा वर्तमान सरकार के कुशल कार्यों में कई सारे मीनमेख निकालने में हिचक नहीं होती है या शर्म नहीं आती, जबकि तत्कालिक दौर में भी वही सब खेल-प्रपंच घट रहा था, चाहे ज़बरन धर्मपरिवर्तन वाले खेल हों या नाम परिवर्तन वाले ;  जिसे वर्त्तमान सरकार द्वारा उकसाया हुआ बताया जाता है .. शायद ...
हाथ कंगन को आरसी क्या भला ...

 ख़ैर ! .. हमें किसी जागरण, माता की चौकी, शिव चर्चा, प्रवचन, रामायण पाठ, गीता व्याख्यान, गरुड़ पुराण, हनुमान चालीसा, तीज-त्योहारों में छदम ख़ुशी, व्रत-उपवास, चार धामों के तीर्थाटन, स्त्री विमर्श, जन्मदिन पर केक व पार्टी, 'सेल्फ़ी'प्रधान दिवसों जैसी बातों से कभी फ़ुर्सत मिली तो सोचेंगें कि .. होगी कोई पगली 'नागिन' जो स्वतंत्रता की लड़ाई की अग्नि में होम होकर भी स्वतन्त्र भारत में वृद्धावस्था में भी फूल बेच-बेच कर जीवनयापन करती हुई स्वावलम्बी ही रही और गोरों द्वारा पीड़ित अपनी काया त्याग गयी .. ताकि हम वर्तमान सरकार के अच्छे कामों की भी नुक्ताचीनी करते रहें और स्वयं अंधभक्त हो कर भी सामने वाले को अंधभक्त कहते रहें .. बस यूँ ही ...