Thursday, July 6, 2023

बा बा नहीं, चुन चुन .. बस यूँ ही ...

आज की बतकही की शुरूआत करने से पहले प्रसंगवश अपने जन्म से भी पहले की और स्वदेश को अंग्रेजों से स्वतन्त्र होने के लगभग दस वर्षों बाद की, 1957 के दौर में बनने वाली श्वेत-श्याम फ़िल्मों में से एक फ़िल्म- "अब दिल्ली दूर नहीं " के एक बालगीत- "चुन चुन करती आई चिड़िया, दाल का दाना लाई चिड़िया" 👇 को पूरी तन्मयता से सुनने का कष्ट कर लेते हैं .. बस यूँ ही ... 

 
                            बालगीत का मूल रूप

कहते हैं कि इस बालगीत के निर्माण में हसरत जयपुरी जी की रचना, गोवा के रहने वाले तत्कालीन संगीतकार- दत्ताराम वाडकर जी के संगीत और मुहम्मद रफ़ी जी की आवाज़ का सम्मिश्रण है। सम्भवतः हम सभी ने ये गीत अभी से पहले भी कभी ना कभी या कई-कई बार भी सुना-देखा होगा ही .. शायद ...

आजकल सम्भवतः भले ही वर्तमान पीढ़ी उस मूल बालगीत को भूलकर उस की विभिन्न अनुप्राणन ('एनीमेशन') रूप में बनी नक़लों ('पैरोडी') को देखने-सुनने तक ही सीमित हो गयी हो, जिन्हें 'राइम्स' नाम का चोला पहना कर धड़ल्ले से 'सोशल मीडिया' में प्रस्तुत किया जा रहा है और देखा-सुना जा रहा है। जिनके 'यूट्यूब' और 'सीडी' पर दुर्भाग्यवश कहीं भी हसरत जयपुरी जी की मूल रचना होने का उल्लेख नहीं मिलता है। परन्तु हमें एक सामान्य पर जिम्मेदार नागरिक होने के नाते या फिर एक रचनाकार होने के नाते भी उन ख्यातिप्राप्त तत्कालीन रचनाकार के सम्मान में कम से कम मूल बालगीत की सत्यता से स्वयं भी और नयी पीढ़ी को भी अवगत करवानी ही चाहिए .. शायद ...

वर्ना तथाकथित भक्तों के मानसपटल पर या उनके घर की दीवारों पर टँगने वाली तथाकथित राम जी की जो छवि कभी दादा साहब फाल्के जी द्वारा 1917 में बनी मूक श्वेत-श्याम फ़िल्म- "लंका दहन" के अभिनेता "अन्ना सालुंके" जी से प्रेरित होती थी, वो वर्षों बाद परिवर्तित होकर रामानंद सागर जी की 'टी वी सीरियल'- "रामायण" के "अरुण गोविल" से प्रेरित हो गयी और सम्भवतः भविष्य में ना जाने कब ओम राउत की फ़िल्म- "आदिपुरुष" के "प्रभास" से प्रेरित हो जाए .. शायद ...                       अगर ऐसा क्रमवार घटित होता है तो यह अज्ञान लोगों की अज्ञानता से कहीं ज्यादा बुद्धिजीवियों की निष्क्रियता का परिणाम ही मानना चाहिए .. ख़ासकर वैसे बुद्धिजीवी जिनका प्रायः ख़राब मौसम के कारण फ़सल को हुए नुक़सान के फलस्वरूप टमाटर-प्याज़ की मूल्य-वृद्वि के लिए सत्तारूढ़ दल पर दोष मढ़ने में ध्यान ज्यादा रहता है .. शायद ...

  

  तथाकथित 'राइम' एक अनुप्राणन ('एनीमेशन') रूप में 

प्रसंगवश पुरखों द्वारा अभिभावकों को हस्तांतरित जानकारी से बचपन में मिली एक विशेष जानकारी की चर्चा किए बिना अभी रहा नहीं जा रहा कि उस मूक फ़िल्म- "लंका दहन" में राम और सीता दोनों पात्रों का अभिनय एक ही अभिनेता- "अन्ना सालुंके" जी ने ही निभाया था। उन दिनों महिला पात्रों का अभिनय भी प्रायः पुरुष ही करते थे। कमोबेश उसी दौर में बिहार के शेक्सपीयर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर जी भी इसके ज्वलंत प्रमाण रहे हैं। इससे यह पल्ले पड़ता है कि उस दौर में केवल बिहार जैसे राज्यों में ही नहीं, बल्कि तत्कालीन बम्बई जैसी शहरी संस्कृति में भी महिला कलाकारों की कमी थी। 

यूँ तो .. तब की ही क्यों कहें .. आज भी तो अपने इर्द-गिर्द कई पढ़े-लिखे समाज में भी नाटकों या फिल्मों में काम करना और नृत्य या गायन का अभ्यास करना, महिलाएँ तो महिलाएँ, पुरुषों के लिए भी इन्हें वर्जनाओं की सूची में समाहित किया हुआ है .. शायद ...

ख़ैर ! ... प्रसंगवश बतकही करते-करते हम विषय से हट गए .. हम हसरत जयपुरी जी के लिखे बालगीत- "चुन चुन करती आई चिड़िया, दाल का दाना लाई चिड़िया" की चर्चा कर रहे थे .. यह बालगीत किसी भी बालमन में पर्यावरण को गढ़ने वाले अपने परिवेश में उपस्थित कई प्रकार के जीव-जन्तुओं के प्रति कोमल और सम्वेदनशील भावनाएँ रोपने के लिए एक सर्वोत्तम साधन तब भी रहा होगा और आज भी है .. शायद ...              कम से कम उस अंग्रेजी वाली तथाकथित 'राइम'- "बा बा ब्लैक शीप, हैव यू एनी वूल" से तो कई गुणा बेहतर और संदेशपरक है, जिस 'राइम' को हम अपनी गर्दन में किसी अदृश्य 'स्टार्च' वाली अकड़ के साथ अपने अतिथियों और सम्बन्धियों के समक्ष अपने घर के नौनिहालों से उनकी तुतली बोली में  बोलवाने में प्रायः स्वयं को सफल और गौरवान्वित महसूस करते हैं .. शायद ...

यूँ तो दिवसों के दौर में प्रायः तथाकथित "विश्व पर्यावरण दिवस" के दिन अधिकांशतः हम 'सेल्फ़ी सिंड्रोम' वाले लोग अपने हाथों में पेड़ या पौधे पकड़ के उसे जमीन में रोपने का उपकर्म करते हुए अपना चेहरा कैमरे की तरफ उचकाए हुए वाली अपनी तस्वीरें 'सोशल मीडिया' पर चिपका कर अपने जागरूक नागरिक होने का प्रमाण देने की इतिश्री मान लेते हैं .. उसके बाद हम सारे अपनी 'पोस्टों' को सींचने वाली 'कमेंट्स' और 'लाइक्स' की गिनती में व्यस्त हो जाते हैं और उस दिन के बाद उन सारे औपचारिक पौधे रोपण वाले पौधों को भविष्य के लिए सहेजने वाले कुछेक लोग ही सजग दिखते हैं .. शायद ...

यूँ भी पर्यावरण का सर्वविदित शाब्दिक अर्थ तो है- हमारे "चारों ओर से घेरे हुए आवरण" ... तो हमारे आसपास के पेड़-पौधों के साथ-साथ समस्त पशु-पक्षी, नदी-तालाब, हवा-पानी भी मिलकर हमारे पर्यावरण को गढ़ते हैं। फिर हम बुद्धिजीवी लोग क्यों भला अपनी भावी पीढ़ी को पर्यावरण संरक्षित करने के नाम पर केवल औपचारिक वृक्षरोपण वाली 'सेल्फ़ी' से गुमराह करने की भूल करते हैं। उन्हें तो आसपास के पेड़-पौधों के संरक्षण के साथ-साथ उन्मुक्त पशु-पक्षियों से भी प्रेम करना, उनके भरण-पोषण में चाव रखना, उनकी दिनचर्या से लगाव रखना सिखाना चाहिए .. शायद ... 
अगर हम समस्त पर्यावरण को ही परिवार मान लें तो अपनी धरती ही तथाकथित स्वर्ग में परिवर्तित हो जा सकती है .. बस यूँ ही ...
पर्यावरण को तो प्रतिदिन ही संरक्षित और संवर्द्धित करना ही हमारी पूजा होनी चाहिए, फिर दिवस का क्या औचित्य रह पाएगा भला ...
कल्पना किजिए कि आँख खुलते ही सुबह-सवेरे आपके आसपास, आपकी छत-बालकॉनी या फिर स्वयं के या पड़ोस के पेड़ों पर तोते, गौरैये, कबूतर, पंडुक या अन्य पक्षी अपनी मधुर आवाज़ की सरगम आपकी कर्ण पटल पर छेड़ें और बीच-बीच में गिलहरियाँ भी अपनी तान के रस घोलते हुए अपने अगले दोनों पँजों से मूँगफली के दाने कुतरती हुई मुलुर-मुलुर आपको निहारें तो आपकी सुबह कितनी न्यारी हो जाएगी .. नहीं क्या ? 🙂

अगर हमारा अपना घर है और हम कुछ सौ-हजार हर माह ख़र्च करने में सक्षम हैं तो हमें अपने आसपास के उन्मुक्त पशु-पक्षियों का ख़्याल रखना चाहिए। उनके लिए कुछ उपलब्ध बर्तनों में अनाज-पानी अपनी खुली छत, बालकॉनी या मुख्यद्वार के बाहर नित्य प्रतिदिन रखनी चाहिए। मसलन- कबूतरों या पंडूकों (उत्तराखंड में इसे घुघूती या घुघुती कहा जाता है) के लिए बाज़रे या गेहूँ, गौरैयों के लिए टूटे चावल (खुद्दी), तोतों के लिए पानी में फूले हुए चने या साबूत मूँग, गिलहरियों के लिए मूँगफली के दाने, गली के कुत्तों के लिए दूध-रोटी और इन सभी के लिए सालों भर पीने के पानी अपने पास उपलब्ध बर्तनों में परोसा जा सकता है। साथ ही घर में कटी सब्जियों या फलों के अनुपयोगी अवशेषों को कचरे के डिब्बे में ना डाल कर आसपास में किसी द्वारा पाले गए गाय-भैंसों या बकरियों को या फिर किसी उपलब्ध गौशाले में दे देना चाहिए। परन्तु इस तरह के कृत्यों को करते हुए हमको किसी भी तथाकथित पाप-पुण्य या मोक्ष की कामना तनिक भी मन में नहीं रखनी चाहिए .. बस यूँ ही ...

इन सब को करने की शर्तों में हमें "हमारा अपना घर" इसलिए कहना पड़ा है, क्योंकि अपने घर में कोई भी व्यक्ति कभी भी, कहीं भी अपनी सुविधा के अनुसार उपरोक्त कामों को अंज़ाम दे सकता है। किराए के मकान में मकानमालिक की सौ उचित-अनुचित पाबन्दियाँ रहती हैं। 

मेरी भी देहरादून की मकानमालकिन को पेड़-पौधे या चिड़ियाँ-गिलहरियाँ गन्दगी फ़ैलाने की वजह लगती हैं। हालांकि वह स्वयं एक पहाड़ी नस्ल की काली कुतिया पाल रखीं है। 
उनकी इन सोचों के कारण हमने घर के सामने के बिजली के खम्भे पर एक पात्र लटका कर पक्षियों के लिए दाने की व्यवस्था कर दी है और उसी 'पोल' के नीचे एक बर्त्तन में पानी। एक पड़ोसी सज्जन पुरुष से अनुमति लेकर उनकी चारदीवारी पर गिलहरियों के लिए मूँगफली के दाने नियमित रूप से परोसते हैं। प्रतिदिन उपभोग की गयी सब्जियों और फलों की अनुपयोगी कतरनों को आसपास में पाले गये गायों के लिए डाल आते हैं। आने वाले उन्मुक्त तोतों के लिए कभी-कभी मौसमी फल और गली के कुत्ते के लिए दरवाजे के बाहर सुबह-शाम सुसुम-सुसुम दूध और कभी-कभी 'रस्क' भी .. बस यूँ ही ... 

सर्वविदित है कि हमारा मानव तन ही नहीं बल्कि हर प्राणी का ही शरीर हर क्षण परिवर्तनशील है। मन भी हर पल चलायमान है। परन्तु शरीर की आयु बढ़ते रहने और मन के दौड़ते रहने के बाद भी किसी मर्तबान में सुरक्षित अचार या मुरब्बे की तरह मन के किसी कोने में बचपना ताउम्र सुरक्षित और संरक्षित रहती है। तो उसी बचपना को जीने के लिए ही सही .. इन पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, नदी-सागर, पहाड़-जंगल के संग-संग एक मासूम बच्चा बन जाने में हर्ज ही क्या है भला !? 
आज की यह बतकही अपनी आत्मश्लाघा के लिए कतई नहीं है, बल्कि जो लोग पहले से ऐसा कर रहे हैं उन्हें आदरपूर्वक नमन कहने एवं उनके लिए आभार प्रकट करने के लिए है और जो सक्षम लोगबाग अभी तक ऐसा नहीं सोच रहे हैं या ऐसा नहीं कर रहे हैं, उनके प्रेरणास्रोत के लिए है .. शायद ... उनमें से एक जन या एक परिवार भी इन कृत्यों के लिए उन्मुख हो जाएँ तो मेरी इस (श्रमसाध्य ?) बतकही की बर्बादी कतई नहीं होगी .. बस यूँ ही ...



बिजली के खम्भे से बंधे पात्र पे तोते, गौरैये, कबूतर 
पड़ोसी की चारदीवारी पे गिलहरियों की मूँगफलियाँ
यह पहाड़ी नस्ल का झब्बेदार गलमुच्छों वाला तथाकथित 'स्ट्रीट डॉग' है, जिसे देहरादून में मेरे वर्तमान पता के मुहल्ले वाले "जैकी" के नाम से बुलाते हैं। बहुत ही शान्त स्वभाव का है, मानो कोई वास्तविक सन्त-महात्मा .. जो हर शाम अपना प्यार जताने आ जाता है ...



11 comments:

  1. हा हा| लाजवाब | सुनिए जी हम कभी भी दाल चावल टमाटर प्याज की बात नहीं करते हैं हां तो |

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    1. जी साहिब ! .. नमन संग आभार आपका .. आप तो बिना "सवाल" किये ही कह रहे हैं "ला जवाब" .. अब हम कैसे दें बिना सवाल के जवाब 😃😃😃
      आपको हम कब कहे कि आप प्याज-टमाटर की बात करते हैं भला .. आप तो कर ही नहीं सकते .. आप तो "उलूक" हैं .. आप और हम भी जी .. बुद्धिजीवी तो हैं नहीं .. फिर 🤔🤔🤔
      आपकी बातों पर फिलवक्त फ़िल्म- "अमर प्रेम" के आनन्द बक्षी जी याद आने लगते हैं .. "बड़ा नटखट है रे कृष्ण-कन्हैया, क्या करे तशोदा मईया ~~~~ मईया रे ~~~~~ हो ~~~" ..😂😂😂🙊🙉🙈

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  2. सकारात्मकता से लबालब, संदेशात्मक बढ़िया लेख।
    आखिर जिन प्राकृतिक संसाधनों का हम जमकर उपभोग करते हैं उसके प्रति हमारा कुछ तो नैतिक दायित्व बनता ही है।
    चिडिय़ा वाला गाना बहुत सालों बाद सुनकर बहुत अच्छा लगा।
    लिखते रहिए ,सकारात्मकता फैलाते रहिये।
    सादर
    -----
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ७ जुलाई २०२३ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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    1. जी ! नमन संग आभार आपका .. मेरी बतकही को अपने मंच पर स्थान देने के साथ-साथ कम शब्दों में गहरी बातों को अपनी प्रस्तुति की भूमिका में संदेशपरक ढंग से पेश करने के लिए .. बस यूँ ही ...
      "पाँच लिंकों के आनन्द" वाले मंच पर पाठकों द्वारा प्रतिक्रिया करने वाली तकनीक बदली हुई है, जिसकी वजह से मेरे ब्लॉग की कुछ अनभिज्ञ तकनिकी त्रुटियों के कारण हम प्रतिक्रिया नहीं कर पा रहे हैं 🙏🙏🙏

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  3. "विश्व पर्यावरण दिवस" मनाने के नाम पर औपचारिक पौधे-रोपण वाली 'सेल्फ़ी' को 'सोशल मीडिया' पर चिपका कर इस में उनकी भागीदारी का क्या औचित्य है भला :-

    (1) जिन्होंने भारतीय समाज में "परिवार नियोजन" शब्द के समाहित होने के बाद भी परिवार नियोजन के तहत निर्धारित संख्या सीमा से अधिक सन्तानें इस समाज को सौंपी हों।
    (2) जो अपने घर में 'फ़्रिज' और 'ए सी' जैसे उपकरणों का उपयोग/उपभोग कर रहे हों।
    (3) जो धूम्रपान करने के आदी हों।
    (4) जो माँसाहार जैसे व्यसन से ग्रस्त हों।
    (5) जो अपने "शौक़" और "पालने" के नाम पर पशु-पक्षियों, नभचर-जलचर को अपने घर के दायरे में परतन्त्र कर रखे हों।
    (6) जो धर्म-आस्था की आड़ में समय-समय पर पर्व-त्योहारों के नाम पर पावन नदियों में या नदी तटों पर मनमाने ढंग से गन्दगी फैला आते हों।
    (7) जो पर्यटन के नाम पर पहाड़ों, जंगलों, पर्यटन स्थलों पर रास्ते भर अपने अनुपयोगी कचरे बिखेरने में तनिक भी गुरेज़ ना करते हों।
    (8) जो उत्सवों के नाम पर आतिशबाज़ी को जन्मसिद्ध अधिकार समझते हों।
    इत्यादि-इत्यादि ...

    पर्यावरण संरक्षण या संवर्द्धन केवल पेड़-पौधों को बचाना या बढ़ाना भर नहीं है, बल्कि समस्त जीव-जन्तुओं, नदी-पहाड़ों, हवा-पानी को सुरक्षित रखना है .. शायद ...

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  4. सही अर्थ दिया है आपने पर्यावरण संरक्षण का...और ये पोल पर चिड़ियों के दाने की व्यवस्था का तो क्या ही कहने !
    करने वाले कहीं भी कर ही लेते हैं उपकार..।
    लाजवाब लेख।

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    1. जी ! नमन संग आभार आपका .. पर यह उपकार सोच कर कम, स्वयं के मन को मिलने वाली ख़ुशी के लिए ज्यादा करता हूँ .. बस .. अच्छा लगता है .. बस यूँ ही ...

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  5. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (09-07-2023) को   "आया है चौमास" (चर्चा अंक 4671)   पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  6. जी ! नमन संग आभार आपका .. अपने मंच पर मेरी बतकही को स्थान देने के लिए ...

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  7. Replies
    1. जी ! .. नमन संग आभार आपका ...

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