दस पैसे का
एक सिक्का
जेबख़र्च में
मिलने वाला
रोजाना कभी,
किसी रोज
रोप आते थे
बचपन में
चुपके से
आँगन के
तुलसी चौरे में
सिक्कों के
पेड़ उग
आने की
अपनी
बचकानी-सी
एक आस लिए .. बस यूँ ही ...
धरते थे
मोरपंख भी
कभी-कभी
अपनी कॉपी
या किताबों में
चूर्ण के साथ
खल्ली के ,
एक और
नए मोरपंख
पैदा होने के
कौतूहल भरे
एक विश्वास लिए .. बस यूँ ही ...
हैं आज भी कहीं
मन के कोने में
दुबकी-सी यादें ,
बचपन की सारी
वो बचकानी बातें ,
किसी संदूक में
एक सुहागन के
सहेजे किसी
सिंधोरे की तरह।
पर .. लगता है मानो ..
गई नहीं है आज भी
बचपना हमारी ,
जब कभी भी
खड़ा होता हूँ
किसी मन्दिर के
आगे लगी लम्बी
क़तार में
तथाकथित आस्था भरी
आस और विश्वास लिए .. बस यूँ ही ...
{ चित्र साभार = छत्रपति शिवाजी महाराज अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र में प्रदर्शित भित्ति शिल्प वाली कोलाज़ ( Kolaj as Wall Crafts ) से। }.
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना आज शनिवार 13 जनवरी 2021 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी सादर आमंत्रित हैं आइएगा....धन्यवाद! ,
जी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (14-02-2021) को "प्रणय दिवस का भूत चढ़ा है, यौवन की अँगड़ाई में" (चर्चा अंक-3977) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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"विश्व प्रणय दिवस" की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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जी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteबहुत सुंदर ।
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteबहुत सुन्दर सृजन।
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
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