इसी रचना/घटना का एक अंश :-
●【" पढ़ल-लिखल (पढ़ा-लिखा) के बाते (बात ही) दूसरा है भलुआ के मईया ! गाड़ी-घोड़ा, ए सी- बँगला, चकाचक कपड़ा, गिटिर-पिटिर अंग्रेजी ...आदमी चमक जाता है ना ..है कि ना बोल !?? "】●
◆अब पूरी रचना/घटना आपके समक्ष :-◆
भलुआ अपने स्कूल से आने के बाद मईया द्वारा पास के कुएँ में अपना टुटहा-सा स्कूल-बैग फेंक दिए जाने के कारण जार-जार रो कर पूरी झोपड़ी अपने सिर पर उठा रखा है। इस प्रतीक्षा में कि उसके बाबू जी कब सवारी वाली टेम्पू चलाकर घर आएंगे और वह उनसे मईया की शिकायत कर के मन में शान्ति पा सकेगा। बाबू जी आकर जब तक मईया को इस गलत काम के लिए दम भर डाँट ना पिला दें ... भलुआ का मन शांत नहीं होने वाला।
वह रोते-रोते थक कर झोपड़ी के बाहर चारों टाँगे फैलाई चारपाई पर अपनी दोनों टाँगें फैलाए सो गया। लगभग दो -तीन घंटे बाद जब उसके बाबू जी आए तो उसे प्यार से हिला कर हौले से उठाया - " अरे ! आज स्कूल-ड्रेस पहने 'काहे' (क्यों) सो गया 'हम्मर' (हमारा) बेटवा । 'आउर' (और) ई मुँह 'एतना' (इतना) उदास काहे है !? 'कौनो' (कोई) बात हुआ है क्या !? " इतना पूछना भर भलुआ को फिर से ऊर्जावान कर गया। जोर-जोर से रोते हुए बोला - " आज हमारा स्कूल-बैग मईया कुआँ में फेंक दी है। 'ओकरा' (उसमें) में उ टेस्ट-कॉपी भी थी बाबू जी 'जेकरा' (जिसमें) में मैम जी दस बटा दस नंबर दीं थीं। 'एक्सीलेंट' भी लिखा था बाबू जी। पर 'तोरा' (तुमको) देखाबे (दिखाने) के पहले ........उं.. उं ...उं .....।"
भलुआ के बाबू जी ... जो अभी दोपहर में दोपहर का खाना खाने घर आये थे, भलुआ की इस दुःख भरी बात या सही कहें तो व्यथा सुनकर गुस्से में चिल्लाए - " कहाँ हो भलुआ की मईया !? ई का पागलपनी सवार हुआ है तुम पर ... जो बेटवा का बैग .. आ (और) .. उ भी किताब-कॉपी समेत कुआँ में फेंक दी हो आज। बोलो !? अब उ कइसे बनेगा ..कलेक्टर, डॉक्टर या इंजीनियर ? बोलो ना !? बोलती काहे (क्यों) नहीं हो !?"
ये बोलता हुआ वह घर के अंदर अपनी पत्नी यानि भलुआ के माए (माँ) के पास आ चुका था, जो उसके लिए खाना थाली में परोसने के साथ-साथ सुबक-सुबक कर रोए जा रही थी। शायद उसके गाल के ढलकते हुए आँसू के दो- चार बूँद दाल को ज्यादा नमकीन ना बना दिए हो। अब भलुआ के बाबू जी दुनिया में सब कुछ सह सकते हैं, पर अपनी पत्नी को रोता नहीं देख सकते। भलुआ को भी। और ... इस समय तो दोनों ही रो रहे हैं। सहज अंदाजा लगाया जा सकता है उसकी मनःस्थिति की। अब तक तो सारा गुस्सा ढलान पर बहते पानी की तरह बह चुका था। मानो पत्नी के आँसू ने उसके गुस्से को अग्निशामक की तरह बुझा दिया हो।
" नहीं बनाना भलुआ को कलेक्टर, डॉक्टर ... नहीं बनाना 'बड़का' (बड़ा) आदमी। उ (वो) आप ही के जैसा टेम्पू-ड्राईवर बनेगा जी। " - ये भलुआ की मईया लगभग कुंहकते ... कपसते हुए बोली थी। "
●【" पढ़ल-लिखल (पढ़ा-लिखा) के बाते (बात ही) दूसरा है भलुआ के मईया ! गाड़ी-घोड़ा, ए सी- बँगला, चकाचक कपड़ा, गिटिर-पिटिर अंग्रेजी ...आदमी चमक जाता है ना ..है कि ना बोल !?? "】●
◆अब पूरी रचना/घटना आपके समक्ष :-◆
भलुआ अपने स्कूल से आने के बाद मईया द्वारा पास के कुएँ में अपना टुटहा-सा स्कूल-बैग फेंक दिए जाने के कारण जार-जार रो कर पूरी झोपड़ी अपने सिर पर उठा रखा है। इस प्रतीक्षा में कि उसके बाबू जी कब सवारी वाली टेम्पू चलाकर घर आएंगे और वह उनसे मईया की शिकायत कर के मन में शान्ति पा सकेगा। बाबू जी आकर जब तक मईया को इस गलत काम के लिए दम भर डाँट ना पिला दें ... भलुआ का मन शांत नहीं होने वाला।
वह रोते-रोते थक कर झोपड़ी के बाहर चारों टाँगे फैलाई चारपाई पर अपनी दोनों टाँगें फैलाए सो गया। लगभग दो -तीन घंटे बाद जब उसके बाबू जी आए तो उसे प्यार से हिला कर हौले से उठाया - " अरे ! आज स्कूल-ड्रेस पहने 'काहे' (क्यों) सो गया 'हम्मर' (हमारा) बेटवा । 'आउर' (और) ई मुँह 'एतना' (इतना) उदास काहे है !? 'कौनो' (कोई) बात हुआ है क्या !? " इतना पूछना भर भलुआ को फिर से ऊर्जावान कर गया। जोर-जोर से रोते हुए बोला - " आज हमारा स्कूल-बैग मईया कुआँ में फेंक दी है। 'ओकरा' (उसमें) में उ टेस्ट-कॉपी भी थी बाबू जी 'जेकरा' (जिसमें) में मैम जी दस बटा दस नंबर दीं थीं। 'एक्सीलेंट' भी लिखा था बाबू जी। पर 'तोरा' (तुमको) देखाबे (दिखाने) के पहले ........उं.. उं ...उं .....।"
भलुआ के बाबू जी ... जो अभी दोपहर में दोपहर का खाना खाने घर आये थे, भलुआ की इस दुःख भरी बात या सही कहें तो व्यथा सुनकर गुस्से में चिल्लाए - " कहाँ हो भलुआ की मईया !? ई का पागलपनी सवार हुआ है तुम पर ... जो बेटवा का बैग .. आ (और) .. उ भी किताब-कॉपी समेत कुआँ में फेंक दी हो आज। बोलो !? अब उ कइसे बनेगा ..कलेक्टर, डॉक्टर या इंजीनियर ? बोलो ना !? बोलती काहे (क्यों) नहीं हो !?"
ये बोलता हुआ वह घर के अंदर अपनी पत्नी यानि भलुआ के माए (माँ) के पास आ चुका था, जो उसके लिए खाना थाली में परोसने के साथ-साथ सुबक-सुबक कर रोए जा रही थी। शायद उसके गाल के ढलकते हुए आँसू के दो- चार बूँद दाल को ज्यादा नमकीन ना बना दिए हो। अब भलुआ के बाबू जी दुनिया में सब कुछ सह सकते हैं, पर अपनी पत्नी को रोता नहीं देख सकते। भलुआ को भी। और ... इस समय तो दोनों ही रो रहे हैं। सहज अंदाजा लगाया जा सकता है उसकी मनःस्थिति की। अब तक तो सारा गुस्सा ढलान पर बहते पानी की तरह बह चुका था। मानो पत्नी के आँसू ने उसके गुस्से को अग्निशामक की तरह बुझा दिया हो।
" नहीं बनाना भलुआ को कलेक्टर, डॉक्टर ... नहीं बनाना 'बड़का' (बड़ा) आदमी। उ (वो) आप ही के जैसा टेम्पू-ड्राईवर बनेगा जी। " - ये भलुआ की मईया लगभग कुंहकते ... कपसते हुए बोली थी। "
" इतना बुरा क्यों सोच रही हो अपने भलुआ के लिए ? बोलो!? तुम्हारा दिमाग सनक गया है क्या !?? "- भलुआ के बाबू जी अचंभित हो कर पूछे।
" हाँ .. सनकिये गया है ... एकदम से ... सच में । याद है आपको ... उस दिन उ विदेसीन मेमिन ( विदेेेशी महिला ) को रास्ता में छेड़ रहा था टपोरियन सब। लपलपा रहा था ओकरा (उन) सब का मन गोरकी चमड़ी उनकर (उनका) हाफ पैंट और 'बन्हकट्टी' (sleeveless) कुर्ती में देख कर। तअ (तो) उ सब से लड़-भीड़ के ओकरा होटल तक इज़्ज़त से पहुँचा दिए थे ना !? आप केतना (कितना) खुश थे ...जब उ 'पां' (पांच) सौ रुपइया (रुपया) अलग से दीं थीं खुश हो कर और 'थैंक यू' अंग्रेजी में बोली थी। आप भी तअ अंग्रेजीए में 'वेलकम' बोले थे। भलुआ सब सीखा दिया है आपको ...' गिटिर-पिटिर' करेला (करने के लिए) । आप बुरा आदमी हैं का (क्या) !? बोलिए !!! ... गरीब होना ... अनपढ़ रहना ... गुनाह है का (क्या) !??? "
" हाँ .. सनकिये गया है ... एकदम से ... सच में । याद है आपको ... उस दिन उ विदेसीन मेमिन ( विदेेेशी महिला ) को रास्ता में छेड़ रहा था टपोरियन सब। लपलपा रहा था ओकरा (उन) सब का मन गोरकी चमड़ी उनकर (उनका) हाफ पैंट और 'बन्हकट्टी' (sleeveless) कुर्ती में देख कर। तअ (तो) उ सब से लड़-भीड़ के ओकरा होटल तक इज़्ज़त से पहुँचा दिए थे ना !? आप केतना (कितना) खुश थे ...जब उ 'पां' (पांच) सौ रुपइया (रुपया) अलग से दीं थीं खुश हो कर और 'थैंक यू' अंग्रेजी में बोली थी। आप भी तअ अंग्रेजीए में 'वेलकम' बोले थे। भलुआ सब सीखा दिया है आपको ...' गिटिर-पिटिर' करेला (करने के लिए) । आप बुरा आदमी हैं का (क्या) !? बोलिए !!! ... गरीब होना ... अनपढ़ रहना ... गुनाह है का (क्या) !??? "
" पढ़ल-लिखल (पढ़ा-लिखा) के बाते (बात ही) दूसरा है भलुआ के मईया ! गाड़ी-घोड़ा, ए सी- बँगला, चकाचक कपड़ा, गिटिर-पिटिर अंग्रेजी ...आदमी चमक जाता है ना ..है कि ना बोल !?? "
" ख़ाक चमक जा (जाता) हई (है) ... आज सुबह डॉक्टर साहेब के घर गए भोरे (सुबह) झाडू-पोछा करे आपके टेम्पू चलावे जाए के बाद रोज जइसन (जैसा) । वहाँ मलकिनी (मालकिन) ना थी घर पर। बेटा-बेटी स्कूल और मलकिनी वट-सावित्री पूजा करने गई थीं मुहल्ला में। जब हम झाडू देने साहेब के कमरा में गए तब हमरा (हमारा) हाथ से झाडू छीन के फेंक दिए और हमरा (हमको) अपने पलंग पर बैठा लिए। कइसहूँ (कैसे भी) जान-प्राण आ (और) इज्ज़त बचा के भाग के आये वहाँ से। पूरा हाथ छिला गया है। अब भलुआ के ना पढ़ाइए भलुआ के बाबू !!! "
" पगली! सब इंसान एक जइसन (जैसा) ना होता है ना! चुप !!... " इतना कह कर परोसी गई थाली फिलहाल परे सरका कर को भर अंकवारी पकड़ कर चुप कराने लगे भलुआ के बाबू जी ... भलुआ की मम्मी को । उसकी छाती की हिचकी को अपने सीने के स्पीड- ब्रेकर से रोकने की कोशिश करते हुए।
भलुआ दूर चुपचाप खड़ा टुकुर-टुकुर बाबू जी को देख कर सोच रहा है कि ... बाबू जी डाँटने के बदले मईया को अंकवारी में पकड़ कर प्यार क्यों कर रहे हैं भला !!? टी.वी. में सीरियल देख-देख कर प्यार करना कैसे होता है, इतना ही भर वह जान चुका है। अभी तो वह तीसरी कक्षा में ही है ना ...
" ख़ाक चमक जा (जाता) हई (है) ... आज सुबह डॉक्टर साहेब के घर गए भोरे (सुबह) झाडू-पोछा करे आपके टेम्पू चलावे जाए के बाद रोज जइसन (जैसा) । वहाँ मलकिनी (मालकिन) ना थी घर पर। बेटा-बेटी स्कूल और मलकिनी वट-सावित्री पूजा करने गई थीं मुहल्ला में। जब हम झाडू देने साहेब के कमरा में गए तब हमरा (हमारा) हाथ से झाडू छीन के फेंक दिए और हमरा (हमको) अपने पलंग पर बैठा लिए। कइसहूँ (कैसे भी) जान-प्राण आ (और) इज्ज़त बचा के भाग के आये वहाँ से। पूरा हाथ छिला गया है। अब भलुआ के ना पढ़ाइए भलुआ के बाबू !!! "
" पगली! सब इंसान एक जइसन (जैसा) ना होता है ना! चुप !!... " इतना कह कर परोसी गई थाली फिलहाल परे सरका कर को भर अंकवारी पकड़ कर चुप कराने लगे भलुआ के बाबू जी ... भलुआ की मम्मी को । उसकी छाती की हिचकी को अपने सीने के स्पीड- ब्रेकर से रोकने की कोशिश करते हुए।
भलुआ दूर चुपचाप खड़ा टुकुर-टुकुर बाबू जी को देख कर सोच रहा है कि ... बाबू जी डाँटने के बदले मईया को अंकवारी में पकड़ कर प्यार क्यों कर रहे हैं भला !!? टी.वी. में सीरियल देख-देख कर प्यार करना कैसे होता है, इतना ही भर वह जान चुका है। अभी तो वह तीसरी कक्षा में ही है ना ...
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 06 सितंबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteयशोदा जी सुप्रभात !!! हर बार की तरह इस बार भी हार्दिक आभार आपका मेरी रचना को "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" में आज साझा कर उसका मान बढ़ाने के लिए ....
ReplyDeleteआपकी कहानी मन को उद्वेलित कर गयी। स्त्री चाहे किसी भी वर्ग की हो कुछ कुत्सित मानसिकता के लोग भोग का सामान ही समझते है और हालात से मजबूर कोई मिल जाये तो सोने पर सुहागा।
ReplyDeleteआपकी कहानी सामाजिक विसंगतियों कका चरित्र बारीकी से उभारती है। कहानी में आँचलिक भाषा का प्रयोग इसके लालित्य को द्विगुणित कर रहा।
सार्थक संदेश देती बहुत अच्छी कहानी।
पुरुष समाज की "अधिकांश" कुत्सित मानसिकता वाली नज़र हर बार घर (कुछ लोग) या बाहर नारी को अपनी एक्सरे वाली बेधती नज़र से केवल उपभोग का सामान भर ही देखती/समझती है।
ReplyDeleteरचना तक आने और रचना के मर्म को उजागर करने के लिए आभार आपका ..
आदरणीय सुबोध जी , छोटी बहन श्वेता ने बहुत अच्छे ढंग से रचना को परिभाषित कर दिया है और वो कह दिया जो मैं कहना चाहती थी || कथित सभ्य , सुसंस्कृत और शिक्षित समाज के लोगों के अनैतिक आचरण से ऐसे प्रश्न उठना स्वाभाविक हैं कि यदि शिक्षा से नैतिक मूल्य ही ना रहें तो उस शिक्षा का क्या महत्व ? एक आम सरल दम्पति के माध्यम से बुनी गयी ये लघुकथा अपने पीछे यही प्रश्न छोड़ जाती है जिसका उत्तर हर इन्सान को अपने भीतर ही ढूंढना होगा | आंचलिकता ले स्पर्श से कथा और मधुर हो गयी है | सादर -
ReplyDeleteआप का और श्वेता जी द्वारा अगर किसी रचना का विश्लेषण मन से किया जाए तो वह रचना गर्व से फूले नहीं समाती ... आप लोगों ने रचना के मर्म को उभारा है जिसके लिए आभार आप दोनों का ...
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