Wednesday, September 20, 2023

वर्णमाला के रोमों में लिपटी ...

हिंदी दिवस या हिंदी पखवारे या फिर हिंदी माह के तहत आज की बतकही - "वर्णमाला के रोमों में लिपटी" के अंतर्गत "वैश्विक परिदृश्य में हिंदी" या "अंतर्राष्ट्रीय फ़लक में हिंदी" की चर्चा करने के पहले सभी सुधीजन पाठकों को आपके अपने सुबोध के मन से नमन।

सर्वविदित है कि हमारी मातृ भाषा हिंदी, संस्कृत की गंगोत्री से निकल कर, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश के पावन घाटों से होती हुई, विश्व रूपी महासागर में सदैव विस्तार पाती रही है। 

देवनागरी लिपी के परिधान में लिपटी हमारी भाषा हिंदी हमारे स्वदेश भारत की आन, बान, शान और जान तो है ही, साथ ही विश्व पटल पर भी सदियों से अपना परचम फहरा रही है।

एक धार्मिक मान्यताओं के अनुसार हिन्दूओं के चारों धाम - बद्रीनाथ (उत्तराखण्ड), द्वारका (गुजरात), जगन्नाथपुरी (उड़ीसा) और रामेश्वरम (तमिलनाडू ) के अलावा केवल उत्तराखण्ड में ही हिन्दूओं के छोटे चारों धाम- बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री अवस्थित होने के कारण

हम सभी उत्तराखण्ड को देवभूमि भी कहते हैं, जहाँ अधिकांशतः लोगों के घर-दरवाजों पर आक यानि मंदार, अकवन या अकोवा कहे जाने वाले पौधे मुस्कुराते नज़र आते हैं। भले ही औषधीय गुणों से सम्पन्न होने के बावजूद बहुधा धार्मिक दृष्टिकोण से ही यह पौधे लगाए जाते हों .. शायद ...

दूसरी ओर .. सर्वविदित है कि पौधों की गतिशीलता सीमित होती है और वे अपने बीजों के परिवहन यानि फैलाव के लिए अपने बीजों के कम वजन, उसके रोएँदार या काँटेदार बनावट के साथ-साथ फैलाव में सहायता करने वाले विभिन्न प्रकार के कारकों पर निर्भर होते हैं। जिनमें हवा, पानी जैसे अजैविक कारक और पशु, पक्षी जैसे जीवंत कारक दोनों ही शामिल हैं। 

इसी प्रकार आक के बीज, जो अपने रोएँदार रेशों से भरे प्राकृतिक स्वरुप के कारण ही हवा जैसे कारक द्वारा गति पाकर आसानी से अपना प्रकीर्णन अथार्त् फैलाव कर लेते हैं। ठीक आक के बीज जैसे ही, हमारी हिंदी भाषा भी अपनी सरल वर्णमाला के रोमों में लिपटी, मानव विस्थापन जैसे कारक के अलावा साहित्य, संगीत, फ़िल्म जैसे सहायक कारकों के सहारे सदियों से वैश्विक विस्तार पाती रही है। 

इन्हें समझने के लिए हमें मिलकर इतिहास के गलियारों में थोड़ी-सी चहलक़दमी करनी होगी। अट्ठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक में कुछ पश्चिमी देशों में औद्योगिक क्रांति के विस्तार के साथ-साथ साम्राज्यवाद में वृद्धि और बड़े पैमाने पर होने वाले उत्पादन के तहत कच्चे मालों का स्थानांतरण, प्रसंस्करण और विपणन भी होने लगा था, जिनके लिए मज़दूरों के रूप में मानव बल की भी आवश्यकता पड़ने लगी थी। परिणामस्वरूप मानवों का पूरे विश्व भर में, विशेषकर दूर-दराज़ खाड़ी देशों के साथ-साथ अफ़्रीकी और अमेरिकी देशों में भारतीयों का विस्थापन होने लगा था। यह सिलसिला अंग्रेजों द्वारा वर्ष 1834 से आरम्भ हुई गिरमिटिया प्रथा के वर्ष 1917 तक निषिद्ध घोषित किए जाने तक मॉरीशस, फ़िजी, सूरीनाम, गुयाना, त्रिनिदाद एवं टोबैगो इत्यादि देशों में भारत से हर साल लगभग दस-पन्द्रह हज़ार गिरमिटिया मज़दूर ले जाये जाते थे। 

जबरन या स्वेच्छा से जीवकोपार्जन हेतु होने वाले इन विस्थापन के कारण भारतीय मूल के लोग उन्हीं देशों में बसने भी लगे .. अपनी सभ्यता-संस्कृति के साथ-साथ अपनी भाषा हिंदी के साथ भी। फलतः उन उपरोक्त देशों की अधिकतर जनसंख्या आज भी हिंदी भाषा का ही प्रयोग करती है। फ़िजी में कभी गिरमिटिया मज़दूर के रूप में ले जाए गए- "तोताराम सनाढ्य" जी जैसे लोगों द्वारा भी विश्व पटल पर हिंदी का मान बढ़ाया गया है। जिन्होंने अपने संस्मरण को "फिजीद्वीप में मेरे 21 वर्ष" नामक किताब का रूप देकर फ़िजी के अलावा अन्य देशों में हिंदी भाषा को साहित्य के रूप में पहुँचाने में अपना सहयोग दिया है। ऐसे अनगिनत नाम हैं .. शायद ...

यूँ तो आज भी विस्थापन की घटनाएँ कम नहीं होतीं .. कारण भले ही अलग हों। कहते हैं कि आज विस्थापन की मुख्य वजह है- प्रतिभा पलायन यानि 'ब्रेन ड्रेन'। इन वर्तमान विस्थापन से भी हमारी भाषा हिंदी उन विदेशों में विस्तार पाती है। प्रसंगवश बताता चलूँ कि जब किसी विकासशील देशों का प्रतिभाशाली एवं शिक्षित युवा या कोई वयस्क व्यक्ति बेहतर सुख-सुविधाओं को पाने के लिए अपना देश छोड़कर दूसरे देश में नौकरी या व्यापार करने जाता है, तो उसे 'ब्रेन ड्रेन' (Brain Drain) या प्रतिभा पलायन कहा जाता है। भारत जैसे देश में आरक्षण के आधार पर प्रतिभा के चयन या आकलन का होना भी एक अहम कारण है प्रतिभा पलायन का .. शायद ...

स्वामी विवेकानंद जी ने भी वर्ष 1893 में अमेरीका के शिकागो की धर्म संसद में जब अपने संभाषण की शुरुआत "American Brothers & Sisters !" के संबोधन से की होगी, तब भले ही प्रयुक्त भाषा अंग्रेजी रही होगी, परन्तु संबोधन की पाश्चात्य शैली- "Ladies & Gentlemen" ना होकर, अपनी हिंदी वाली शैली के ही समतुल्य थी। जिसका आशय था-  "अमेरीकी भाइयों और बहनों !" .. शायद ...

वर्ष 1977 में तत्कालीन विदेश मंत्री अटल बिहारी बाजपेयी जी देश के पहले ऐसे व्यक्ति थे, जिन्‍होंने न्यूयॉर्क के 'जनरल असेंबली हॉल' में हुए संयुक्त राष्ट्र महासभा में संयुक्त राष्ट्र की छः आधिकारिक भाषाएँ - अरबी, चीनी, फ्रेंच, अँग्रेजी, रूसी और स्पेनिश होने के बावजूद पहली बार हिंदी भाषा में भाषण दिया था। तब तक वैश्विक मंच पर अंग्रेजी के प्रमुख भाषा होने के कारण अन्य भारतीय नेता उसी का चयन करते आए थे। हालांकि बाजपेयी जी धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलते थे, लेकिन अपने भाषण के लिए उस वक्त हिंदी के चयन के पीछे उनका उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय पटल पर हिंदी को उभारना था।

हिंदी के वैश्विक विस्तार में विस्थापन जैसे सहयोगी कारक के बाद अब साहित्य और फ़िल्म की भूमिका पर एक नज़र ...

पद्मभूषण व दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित राजकपूर जी की तत्कालीन श्वेत-श्याम फ़िल्में- "आवारा" और "श्री 420" जब रूस में धूम मचाती हैं, भले ही ध्वनि अंतरण यानि 'डबिंग' के बाद और जब पहली बार स्वतन्त्र भारत देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जी वर्ष 1955 में अपनी लगभग तेरह हजार किलोमीटर की सोलह दिनों वाली सोवियत रूस की पहली यात्रा पर जाते हैं, तब राजकीय भोज के पश्चात बोलने का मौका मिलने पर साम्यवादी सोवियत संघ के छठे प्रधान मंत्री निकोलाई अलेक्जेंड्रोविच बुल्गानिन अपने अन्य मंत्रियों के साथ नेहरू जी के सम्मान में राजकपूर जी की उसी हिंदी फ़िल्म- "आवारा" का शीर्षक गीत यानि 'टाइटल सॉंग'- "आवारा हूँ" गाते हैं और वहाँ की जनता भी उस गीत को गुनगुनाती है, तब भी वैश्विक परिदृश्य में हिंदी भाषा की कद ऊँची हो जाती है। 

केवल साहित्य, संगीत, फ़िल्म ही नहीं, वरन् फिल्मों के गीतों का भी विस्तारण आज के "ग्लोबल यूट्यूब" के युग में और भी अधिक हो रहा है। जैसे पूर्वी अफ़्रीकी महाद्वीप में अवस्थित संयुक्त गणराज्य तंजानिया के युवा भाई-बहन किली पॉल और नीमा पॉल जब मिट्टी के बने अपने कच्चे घर की पृष्ठभूमि में खड़े, अपने पारम्परिक परिधानों में सजे-सँवरे होंठ तुल्यकालन यानि 'लीप सिंकिंग' या 'लिप्सिंग' करके "टिक-टॉक" और "इंस्टाग्राम" नामक 'एप्प' पर 'रील' डालने से विश्व भर में लगभग पैंतालीस से पचास लाख अपने 'फॉलोवर्स' के बीच लोकप्रिय होते हैं; वह भी शैलेन्द्र जी द्वारा रचित हिंदी फिल्मों के पुराने गीतों में से एक सम्वेदनशील गीत - 

"कि मर के भी किसी को याद आयेंगे

किसी के आँसुओं में मुस्कुरायेंगे

कहेगा फूल हर कली से बार बार

जीना इसी का नाम है"  ...

तब हमारी हिंदी भाषा के साथ वैश्विक परिदृश्य में एक और अंक जुड़-सा जाता है।

जिस दिन "लाठी चार्ज (Lathi Charge)" जैसा हिंदी और अंग्रेजी से लिए गए शब्दों के संगम से बना हुआ शब्द ऑक्सफ़ोर्ड शब्दकोश (Oxford Dictionary) के किसी पन्ने पर स्थान पा लेता है, तब भी अंतरराष्ट्रीय फ़लक पर हमारी हिंदी विस्तार पाती है .. शायद ...

हमारे स्वयं के "बंजारा बस्ती के वाशिंदे" नामक हिंदी भाषा के साहित्यिक 'ब्लॉग' के 'पोस्टों' में कविताओं, कहानियों, आलेखों, संस्मरणों इत्यादि के लिए, जिन्हें हम अपनी शैली में बतकही कहते हैं, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका (United States), कनाडा, सिंगापुर, जर्मनी, लंदन (United Kingdom), आयरलैंड, स्वीट्जरलैंड, फ़्रांस, स्वीडन, रूस, बेल्जियम, नीदरलैंड, फिलीपींस, रोमानिया, इस्राएल, लिथुआनिया इत्यादि देशों से पाठकों की संख्या तो यदाकदा भारत से भी ज्यादा दिख जाती है, तो अचरज होता है। सर्वविदित है कि पाठकों के आँकड़ों वाली उपरोक्त जानकारी 'ब्लॉग' नामक 'एप्प' की तकनीकी सुविधाओं के कारण सम्भव हो पाती है।

इस भाषा की सरलता यही है, कि इस में हम जो लिखते हैं, वही पढ़ते भी हैं। किसी भी शब्द में कोई मूक वर्ण नहीं होता और ना ही एक ही वर्ण के विभिन्न उच्चारण होते हैं। वरन् हर उच्चारण के लिए अलग-अलग वर्ण होते हैं। हम संक्षेप में कह सकते हैं, कि हिंदी भाषा अपनी लिपि और उच्चारण के अनुसार विश्व भर में सबसे शुद्ध और वैज्ञानिक भाषा है।

हम सभी की मातृ भाषा- हिंदी .. राष्ट्र भाषा, राज भाषा, संपर्क भाषा, जन भाषा के विभिन्न सोपानों को पार कर "विश्व भाषा" बनने की ओर निरंतर अग्रसर है। आँकड़े बताते हैं, कि विश्व की सर्वाधिक जनसंख्या द्वारा बोली जाने वाली तीसरी पायदान की भाषा  हमारी हिंदी, आज दूसरी पायदान की भाषा बनने की ओर अग्रसर है। उपलब्ध आँकड़े बतलाते हैं, कि हिंदी की व्यापकता के असर से ही विश्व भर में लगभग एक सौ पचहत्तर देशों के दो सौ विश्वविद्यालयों और शैक्षणिक संस्थानों में हिंदी के शिक्षण एवं प्रशिक्षण चल रहे हैं।

और तो और .. हाल ही में जब जी-20 के मौके पर देश के वर्तमान प्रधानमंत्री जी सभी इक्कीस देशों के अतिथियों को हिंदी में सम्बोधित करते हैं, जैसा वह अक़्सर विदेशों में भी करते हैं, तो इस जी-20 के प्रसारण पर टिकी दुनिया भर की नज़रों के रास्ते हिंदी भाषा विश्व पटल पर विस्तार पाती है। अब जी-20 में बीस की जगह इक्कीस देशों के अतिथियों की बात करने का कारण आप सभी सुधीजनों को ज्ञात होगा ही, ऐसा मेरा मानना है। विश्व भर में जब-जब दर्शक दीर्घा से जनसमूह द्वारा प्रधानमंत्री जी को "मोदी-मोदी" का सम्बोधन मिलता है, तब-तब इस एक शब्द "मोदी" के रूप में भी हिंदी भाषा ही वहाँ के वातावरण में गूँजती है .. शायद ...

इस बतकही के अंत में आप सभी सुधीजन पाठकों के समक्ष हम ह्रदय से अग्रिम क्षमाप्रार्थी हैं, अपनी वार्ता के दौरान हिंदी में सहज-सुगम विकल्प उपलब्ध नहीं होने के कारण मजबूरीवश आज के दिन भी कुछ अंग्रेजी शब्दों को प्रयोग में लाने के लिए। मसलन- 'ब्लॉग', 'टिक-टॉक', 'इंस्टाग्राम', 'यूट्यूब', 'एप्प', 'लीप सिंकिंग', 'रील', 'फ़िल्म', 'डबिंग', 'टाइटल सॉंग','जी-20' इत्यादि।

अब अनुमति दिजिए .. अपने सुबोध को .. आज की बतकही को विराम देने की .. पुनः आप सभी सुधीजन पाठकों को आपके अपने सुबोध के .. मन से नमन ! .. पर हाँ ! .. कल .. इस बतकही से जुड़ी हुई हमारी कल की बतकही- "रात के 8 बज कर 15 मिनट ..." को पढ़ना और सुनना भी .. मत भूलियेगा .. बस यूँ ही ... :)





Monday, September 18, 2023

"कभी "पौधा उखाड़ो दिवस" भी तो हो !" ... (२).

"कभी "पौधा उखाड़ो दिवस" भी तो हो !" को आरम्भ करते समय अपनी इस बतकही के लिए मन में शीर्षक सोचा था- "दुष्टा (?) हरीतिमा", परन्तु फिर बदल दिया .. जो कि आपके समक्ष दिख ही रहा है।

"कभी "पौधा उखाड़ो दिवस" भी तो हो !" ... के बाद .. उससे आगे की बतकही करते हैं .. इस "कभी "पौधा उखाड़ो दिवस" भी तो हो !" ... (२). में ..
इस दुराचारी खरपतवार को "काँग्रेस घास" के नाम से बुलाए जाने की वजह के लिए हमें इतिहास के पृष्ठों पर पड़ी धूल की परतों को झाड़नी होगी।
इतिहास से ज्ञात होता है, कि वर्ष 1812 में दक्षिणी अमेरीकी देश वेनेज़ुएला में आये भीषण भूकंप के बाद पीड़ितों के लिए "अमेरिकी संविधान का पिता" कहे जाने वाले एक सफ़ल अमेरिकी राजनेता और राजनैतिक दार्शनिक .. अमेरिका के तत्कालीन चौथे राष्ट्रपति "जेम्ज़ मैडिसन" ने "अमेरिकी खाद्य सहायता कार्यक्रम" के तहत वेनेज़ुएला की आपातकालीन सहायता की थी। फिर रूस में पड़े अकाल के दौरान "अमेरिकी राहत प्रशासन" के तत्कालीन निदेशक- "हर्बर्ट हूवर" ने वर्ष 1921 में "रूसी अकाल राहत अधिनियम" के तहत लगभग बीस मिलियन डॉलर के खाद्य सामग्री से रूस की सहायता करवायी थी।
इसी क्रम में वर्ष 1954 में 10 जुलाई को "कृषि व्यापार विकास सहायता अधिनियम"- "PL-480" यानि "Public Law-480" नामक सार्वजनिक कानून पर अमेरिकी राष्ट्रपति "ड्वाइट डी. आइजनहावर" द्वारा हस्ताक्षर करके अमेरिका द्वारा खाद्यान्न की सहायता देने के लिये यह समझौता किया गया था।
हालांकि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान यूरोप में अमेरिकी सेना में एक कैप्टन के तौर पर एक टैंक कंपनी की कमान संभालने वाले और भावी अमेरिकी "विदेशी कृषि सेवा" ('एफएएस'/FAS) के प्रशासक "ग्विन गार्नेट" ने वर्ष 1950 में भारत की यात्रा से लौटने के बाद मूल रूप से "PL-480" की पांडुलिपि लिखी थी।
बाद में वर्ष 1961 में अमेरिकी राष्ट्रपति "जॉन एफ. केनेडी" ने इस तरह के अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किए जा रहे वितरण वाले खाद्यान्न को "शांति के लिए भोजन" का ('फूड फॉर पीस’/Food For Peace) नाम दिया था। उस समझौते का सारा संचालन तब के समय के "अंतर्राष्ट्रीय विकास के लिए संयुक्त राष्ट्र संस्था" (U.S. Agency for International Development- USAID) द्वारा संचालित किया गया था ।
इनके अलावा इतिहास और आँकड़े बतलाते हैं कि विभिन्न प्रशासनिक और संगठनात्मक रूपों में, संयुक्त राज्य अमेरिका के 'फूड फॉर पीस' कार्यक्रम ने साठ से अधिक वर्षों तक दुनिया भर में खाद्यान्न सहायता प्रदान की, जिससे डेढ़ सौ देशों में लगभग तीन अरब लोगों को अमेरिकी खाद्यान्न सहायता से सीधे लाभ हुआ था।
हालांकि आलोचकों द्वारा इस कानून को महँगे अमेरिकी घरेलू कृषि अधिशेष को निपटाने का एक ज़रिया कहा गया था। साथ ही भारत को भेजे गए गेहूँ के लिए कुछ लोगों द्वारा उसे केवल सूअरों को खिलाने के लिए ही उपयुक्त होना भी बोला गया था।
उस वक्त की एक और ख़ास बात .. कि ... इस विधेयक ने खाद्यान्न की कमी वाले देशों को अमेरिकी खाद्यान्न आयात के लिए अमेरिकी डॉलर के बजाय उन्हें अपनी मुद्रा में भुगतान करने की अनुमति देकर एक द्वितीयक विदेशी बाज़ार बनाया था।
सर्वविदित है कि तत्कालीन भारतीय कृषि पूर्णतया मौनसून पर आश्रित होने के साथ-साथ स्वतंत्रता के बाद भारतीय कृषि क्षेत्र का आन्तरिक संघर्ष, उद्योगों के पक्ष में कृषि क्षेत्र की उपेक्षा के कारण था और "एक तो नीम, ऊपर से कड़ैले" जैसी कहावत की तरह खाद्यान्नों के आयात ने कृषि को और भी प्रभावित किया क्योंकि किसान अधिक से अधिक उत्पादन के लिए तब किसी भी तरह की प्रोत्साहन से वंचित रह गए।
तत्कालीन सरकार में कुछ लोगों का यह भी मानना ​​था कि घरेलू कृषि उत्पादन को प्रोत्साहित करने की तुलना में खाद्यान्न आयात करना अधिक सस्ता है।
तत्कालीन सुखाड़ के चपेट में आने पर वर्ष 1965-1966 में भारत को अमेरिका की तरफ से "PL-480" के ही तहत लगभग डेढ़ करोड़ टन गेहूँ का निर्यात किया गया था। यह भारत एवं अमेरिका के बीच हुए उसी खाद्यान्न आपूर्ति समझौता की अगली कड़ी थी, जिसके तहत वर्ष 1960 में तत्कालीन खाद्य और कृषि मंत्री "सदाशिव कानोजी पाटिल" (एस के पाटिल) और अमेरिकी राष्ट्रपति "ड्वाइट डी आइजनहावर" ने मिलकर पुनः समझौते पर हस्ताक्षर किए थे, जो वर्ष 1954 के समझौते से भी चार गुना बड़ा था और दीर्घकालिक भी। सम्भवतः इस प्रकरण में उस समय के प्रधानमंत्री जी के अलावा एक राजनीतिक दल विशेष की परोक्ष और अपने परिवार की प्रत्यक्ष महिला मुखिया की भी विशेष रूप से मूक या मुखर भूमिका रही होगी .. शायद ...
खाद्यान पर निर्भरता जैसी इन्हीं समस्याओं से निपटने के लिए तत्कालीन कृषि मंत्री बाबू जगजीवन राम के कार्यकाल में वर्ष 1967 से अपने देश में "हरित क्रांति" लहलहाने की ओर अग्रसर हुई थी।
हालांकि इस "हरित क्रांति" की पृष्ठभूमि में एक अमेरिकी कृषि विज्ञानी "नॉर्मन अर्नेस्ट बोरलॉग", जिन्हें नोबेल पुरस्कार के अलावा कई सारे प्रतिष्ठित पुरस्कार मिले थे और "हरित क्रांति का पिता" भी कहा जाता है, भारत के तत्कालीन कृषि मंत्री- "चिदम्बरम् सुब्रह्मण्यम्" (सी. सुब्रह्मण्यम्), जिन्हें तीन-चार दशक के बाद हरित क्रांति के लिए ही "भारत रत्न" दिया गया था और भारत के एक आनुवांशिक विज्ञानी व राज्य सभा के सदस्य रहे- "मनकोम्बु संबासिवन स्वामिनाथन" (एम ऐस स्वामीनाथन) का मिलाजुला अनमोल योगदान था।
हरित क्रांति की वज़ह से ही भारत में ही पर्याप्त खाद्यान्न उत्पादन के परिणामस्वरूप वर्ष 1971 में भारत की ओर से "PL-480" को निरस्त कर दिया गया था। वर्ष 1972 आते-आते अपना देश खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बन चुका था .. शायद ...
और .. इस प्रकार उन दिनों हरित क्रांति के पूर्व ... परिस्तिथिवश आयातित गेहूँ की बोरियों में इस दुष्टा हरीतिमा के बीजों के जत्थे जाने-अन्जाने हमारे स्वदेश भारत में प्रवेश पा गए थे .. चूँकि इन सारे कार्यों का निष्पादन, परिस्थितिवश, मजबूरीवश या जिन भी कारणों से हुआ हो, पर हुआ तो था तत्कालीन सत्तारूढ़ राजनीतिक दल काँग्रेस के कार्यकाल में। इसीलिए इन विनाशकारी खरपतवार का एक प्रयायवाची शब्द- "कांग्रेस घास" भी है .. शायद ...
वैसे हमारी बतकही का उद्देश्य ना तो किसी राजनीतिक दल विशेष को दोषी ठहराना है और ना ही कोई इसे राजनीतिक चश्मे से देखें .. जो भी चित्र .. इतिहास नामक विषय के पन्नों पर समय के कालखंड ने उकेरा है, बस उसे साझा करने भर का और भावी पीढ़ी को इन विनाशकारी खरपतवार से बचाने का एक तुच्छ प्रयास भर किया है हमने तो। अगर इस बतकही से 'बोर' होने के बाद भींची हुई एक जोड़ी युवा मुट्ठी भी अपने ही आसपास से इनके एक पौधे को भी उखाड़ कर मौत की नींद सुला देती है तो मेरी इस 'बोर' बतकही को राहत की साँस मिल पाएगी .. बस यूँ ही ...

{ चलते-चलते .. आप सभी से साझा करता चलूँ कि .. प्रसार भारती (भारतीय लोक सेवा प्रसारक) के अंतर्गत आकाशवाणी, देहरादून द्वारा मनाए जा रहे हिंदी माह के तहत एक वार्ता का प्रसारण आज 18 सितम्बर 2023 (18-09-2023 / सोमवार) को रात आठ बजे (8 pm) किया जाएगा .. वार्ता का विषय है - "अंतर्राष्ट्रीय फ़लक में हिंदी" .. बस यूँ ही ...
जिसे Play Store द्वारा "NewsOnAir" नामक App को अपने Mobile में Download करके, उसके Live Radio वाले Section में जाकर Uttarakhand के नीचे दिख रहे "आकाशवाणी, देहरादून Dehradun" वाले Icon पर Click कर के सुना जा सकता है .. शायद ...}
मौका हो तो सुनिएगा .. .. 🙏 .. बस यूँ ही ...




Sunday, September 17, 2023

कभी "पौधा उखाड़ो दिवस" भी तो हो !

आज की हमारी बतकही हर बार की तरह आप में से कईयों के लिए "उबाऊ" तो हो सकती है, पर "अनुपयोगी" नहीं .. भले ही ये "रोचक" हो ना हो, पर "रेचक" अवश्य हो सकती है .. शायद ...

हम अक़्सर पर्यावरण दिवस के मौके पर वृक्षारोपण की यानि पौधे रोपने की बात करते हैं और "सेल्फियाना" अंदाज़ में हर बार, हर वर्ष रोपते भी हैं। परन्तु हम आज .. अभी-अभी बात कर रहे हैं .. पौधों को उखाड़ फेंकने की यानि .. हमारी अपनी-अपनी मिली चंद वर्षों की उम्र भर के लिए ही सही ..  हम सभी को किराए पर उपलब्ध इस प्रकृत्ति-प्रदत धरती की हरीतिमा को कम करने की बात .. परन्तु .. "दुष्टा (?) हरीतिमा" को ख़त्म करने की बात कर रहे हैं अभी .. शायद ...

हाँ .. एक जाति विशेष के उन तमाम पौधों पर फूलों के खिलने या उनके बीजों को पक कर तैयार होने से पहले ही निरस्त करने की आप सभी से गुहार लगा रहे हैं अभी हम .. ताकि उनकी नस्लें नेस्तनाबूत हो जाएँ .. हमारे आसपास से ही नहीं .. बल्कि इस धरती से .. ठीक-ठीक .. समस्त धरती से विलुप्त हो चुके उन आततायी डायनासोर की तरह .. बस यूँ ही ...

हालांकि हमने अपनी साप्ताहिक धारावाहिक- "पुंश्चली" के आठवें अंक - "पुंश्चली .. (८) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)"   में सभी सुधीजनों से चर्चा की थी, उनके स्वयं एक जिम्मेवार नागरिक होने के नाते अपने-अपने आसपास उगे या अपनी राह चलते दृष्टिगोचर हुए इनके आठ-दस पौधों को रोज़ उखाड़ फेंकने की, ताकि भावी पीढ़ियों व स्वयं के लिए भी एक स्वच्छ एवं स्वस्थ बेहतर भविष्य का निर्माण हो सके ..  मालूम नहीं आपका ध्यान कितनी आकृष्ट कर पायी होगी मेरी बतकही ? .. ख़ैर ! .. अभी की बतकही में हम उसी उखाड़ फेंकने वाली एक आततायी खरपतवार को जानने-समझने की कोशिश करते हैं .. बस यूँ ही ... जिनका नाम है .. "गाजर घास" ...

इस नासपीटी को हमारे देश भारत में "गाजर घास" के अलावा अलग-अलग स्थानों के अनुसार चटक चाँदनी, चिड़िया बाड़ी, काँग्रेस घास, धनुरा, सफेद टोपी, गंधी बूटी, सांता-मारिया 'फीवरफ्यू' (Santa Maria Feverfew), 'व्हाइटटॉप वीड' (Whitetop Weed) और अकाल 'वीड' (Famine Weed) के नामों से भी जाना-पुकारा जाता है। परन्तु इसका वास्तविक वैश्विक वैज्ञानिक नाम 'पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस्' - (Parthenium Hysterophorus) है। जो कि विश्व भर में उपलब्ध इन विनाशकारी खरपतवार की लगभग बीसों प्रजातियों में से एक आम आक्रामक प्रजाति है।

यह भौगोलिक उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में उपजने वाला 'एस्टेरसिया' -  (Asteraceae) कुल के पुष्पीय पौधे की एक प्रजाति है, जिनके पौधे रोएँदार और अत्यधिक शाखा युक्त एक से डेढ़ मीटर तक लम्बे होते हैं। इनकी पत्तियाँ लगभग गाजर की पत्ती की तरह होती हैं, इसीलिए इनको "गाजर घास" कहते हैं। इनके फूलों और फलों के रंग सफेद होते हैं, इसी से इनको कहीं-कहीं "चटक चाँदनी" या "सफ़ेद टोपी" भी कहते हैं। इनको "काँग्रेस घास" भला क्यों कहते हैं, इसकी चर्चा आगे करते हैं। इनका प्रत्येक पौधा हज़ारों की संख्या में अत्यंत सूक्ष्म बीज पैदा करता है, जो शीघ्र ही ऊसर-बंजर जमीन में भी हल्की नमी पाकर पनप जाता है और अपने तीन-चार माह तक के ही जीवनकाल में भी आजीवन आततायी बना रहता है। इस प्रकार नमी प्राप्त होते रहने पर सालों भर इनके पनपने और मरने की प्रक्रिया सतत चलती रहती है .. स्वचालित प्राकृतिक प्रक्रिया के परिणामस्वरूप ...

"खाली दिमाग़ शैतान का" वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए यह मुख्यत: सड़कों तथा रेल की पटरियों के किनारे-किनारे जैसे खाली स्थानों में और अनुपयोगी भूमियों पर फ़ैलने के अलावा औद्योगिक क्षेत्रों, बगीचों, पार्कों, स्कूलों, रहवासी क्षेत्रों के इर्द-गिर्द पड़ी खाली जमीन आदि पर बहुतायत में पनपते हैं। इनके बीज अत्यधिक सूक्ष्म और भार में हल्के होते हैं, जो अपनी विशेष 'स्पंजी' बनावट की वजह से हवा या पानी द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक आसानी से पनपने पहुँच जाते हैं।

फसलों में पाए जाने वाले विविध प्रकार के खरपतवारों से इतर यह "गाजर घास" फसलों और जमीन के साथ-साथ मानव और मवेशियों के लिए भी अत्यंत घातक है। इनके सम्पर्क से या हवा में तैरते परागकण के दुष्प्रभाव से मनुष्यों में त्वचाशोथ  ('डर्मेटाइटिस'/Dermatitis), 'एक्जिमा' (Eczema) जैसे चर्मरोग के अलावा 'एलर्जी' (Allergy), बुखार और खाँसी, दमा आदि जैसी श्वसन सम्बन्धित बीमारियों की सम्भावना बढ़ जाती हैं। इनके अत्यधिक प्रभाव होने पर मनुष्य की मृत्यु तक हो सकती है। मवेशियों .. ख़ास कर दुधारू मवेशियों द्वारा इनके सेवन कर लेने से इनकी अत्यधिक विषाक्तता आँतों में 'अल्सर', बाल झड़ना, दूध में कड़वाहट आदि जैसी कई तरह की समस्याएँ पैदा कर देती हैं। इस कड़वे दूध के सेवन से कई प्रकार की पेट संबंधित बीमारियों के चपेट में आने की अक़्सर सम्भावना रहती है। अत्यधिक सेवन करने से पशुओं की भी तो कई दफ़ा मृत्यु तक हो जाती है। इन में पाए जाने वाले विषाक्त पदार्थों के कारण फसलों के अँकुरण एवं वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है तथा पत्तियों में 'क्लोरोफिल' की कमी एवं पुष्प र्शीषों में असामान्यता होने से फ़सलों, सब्जियों एवं उद्यानों की पैदावार प्रायः लगभग चालीस प्रतिशत तक कम हो जाती है।

"खरपतवार वैज्ञानिक" बतलाते हैं, कि गैरकृषि क्षेत्रों में इनके नियंत्रण के लिए 'एट्राजिन' (Atrazine), 'ग्लायफोसेट' (Gyphosate), 'मैट्रीब्यूजिन' (Metribuzin) नामक शाकनाशी रसायनों (Chemical Herbicides) को प्रायः प्रयोग में लाया जाता है। इसके अलावा 'जाईकोग्रामा बाईकोराटा' (Zygogramma bicolorata) नामक मैक्सिकन कीट (Mexican Beetle) को इन पर छोड़ दिया जाता है, जिनकी प्रजनन द्वारा उत्पन्न अत्यधिक तादाद इनकी पत्तियों का भक्षण कर इन्हें नष्ट कर देती हैं। 

खरपतवार वैज्ञानिकों के अनुसार इन्हें नष्ट करने हेतु इनके पुष्पित होने के पूर्व या फलों में बीज पकने के पहले ही इनका उपयोग अनेक प्रकार के कीटनाशक, जीवाणुनाशक, खरपतवारनाशक दवाइयों और कृमि खाद ('वर्मी कम्पोस्ट'/Vermi Compost) के निर्माण में किया जा सकता है। 

खरपतवार वैज्ञानिकों का मानना है, कि इससे तैयार लुगदी से विभिन्न प्रकार के कागज के निर्माण किए जा सकते हैं। 'बायोगैस' उत्पादन में भी इनको गोबर के साथ मिलाया जा सकता है। इन सब के अलावा गैरकृषि क्षेत्रों में गेंदे, चकोड़ा (चकवड़/पवाँर) इत्यादि जैसे प्रतिस्पर्धात्मक पौधे और कृषि क्षेत्र में ढैंचा, ज्वार, बाजरा, मक्का जैसी शीघ्र बढ़ने वाली फसलें लगाकर इस भीषण खरपतवार की बढ़त को रोका जा सकता है।

अपनी जन्मभूमि मेक्सिको से भाया अमेरिका यह हानिकारक और आक्रामक खरपतवार "शांति के लिए भोजन" ('फूड फॉर पीस' / Food for Peace) के नाम से अमेरिका से आने वाले गेहूँ के साथ-साथ एक संदूषक के रूप में साठ के दशक में हमारे देश भारत में पहली बार आयी थी। अब तो समस्त एशिया, ऑस्ट्रेलिया, अफ़्रीका, पश्चिमी द्वीपसमूह के विभिन्न भागों में फैल चुकी है।

यूँ तो यह खरपतवार जम्मू-कश्मीर से तमिलनाडु तक और गुजरात से उत्तर-पूर्वी राज्यों तक अपने देश भारत के लगभग सभी राज्यों में अपना पैर पसार ही नहीं, पूरी तरह जमा चुकी है। इसकी वज़ह है .. किसी भी भौगोलिक परिस्तिथि और जलवायु में इनका आसानी से पनप जाना और फूलना-फलना .. शायद ...

यह साधारण-सी दिखने वाली खरपतवार आज हमारे लिए और हमारी भावी पीढ़ियों के लिए भी कई दशकों से एक जानलेवा समस्या बनी हुई है। परन्तु हमारी हर समस्या के लिए सरकार पर निर्भर रहना या उस पर दोषारोपण करना हमारी निष्क्रियता को उजागर करता है। हमारी अपनी समस्याओं के हल के निष्पादन के लिए हम सभी को जागरुक रहना है और दूसरों को भी समय-समय पर करते रहना चाहिए। जैसे भूकंप आने पर हम किसी की मदद के लिए आने की प्रतीक्षा किए बग़ैर फ़ौरन घर से निकल कर अपनी बचाव के लिए खुले स्थान की ओर तेजी से भागते हैं। .. नहीं क्या ? .. तभी तो हम, हम से हमारा समाज, हमारे समाज से हमारा देश .. एक उज्ज्वल भविष्य की कामना कर सकता है .. बस यूँ ही .. शायद ...

{हमने अभी-अभी कहा था, आपसे कि इनको "काँग्रेस घास" भला क्यों कहते हैं, इसकी चर्चा आगे करते हैं। पर फ़िलहाल आज की बतकही अपनी लम्बाई के कारण 'बोरींग' हो गयी है, अतः इसकी चर्चा "आगे" नहीं .. बल्कि "अगली 'पोस्ट'"- "कभी "पौधा उखाड़ो दिवस" भी तो हो ! ... (२)" में करने की कोशिश करते हैं।}















Thursday, September 14, 2023

पुंश्चली .. (१०) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

पुंश्चली .. (१)पुंश्चली .. (२), पुंश्चली .. (३)पुंश्चली .. (४ ) , पुंश्चली .. (५ ), पुंश्चली .. (६), पुंश्चली .. (७)पुंश्चली .. (८) और पुंश्चली .. (९) के बाद अपने कथनानुसार आज एक सप्ताह बाद पुनः वृहष्पतिवार को प्रस्तुत है आपके समक्ष पुंश्चली .. (१०) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. भले ही थोड़े ज्यादा ही विलम्ब के साथ .. बस यूँ ही ... :-

विवाहिता हर वर्ष बिना नागा किए लाख तीज या करवा चौथ जैसे व्रत कर लें, उपवास रख लें; प्राकृतिक मौत या हादसों के चँगुल से अपने पति को कहाँ बचा पाती हैं भला .. शायद ... 

अंजलि भी तो हर वर्ष अपने पति, अपने सुहाग- रंजन के लिए सारे व्रत, उपवास रखती थी, पर .. हर सम्भव प्रयास के बावजूद भी कोरोना महामारी के दूसरे दौर के प्रकोप से नहीं बचा पायी .. काश ! .. उस रात उसे किसी भी तरह एक 'सिलिंडर' मिल जाता 'ऑक्सीजन' का तो शायद .. उसका रंजन बच जाता .. पर उस भयावह काली रात में वह इधर से उधर भटकती रही अपने शेष बचे नाममात्र के गहनों की पोटली लेकर और उधर मन्टू भी जी-जान लगा कर इधर-उधर यथासम्भव पैरवी लगाता रहा था .. अंजलि रोती रही, गिड़गिड़ाती रही, हर सम्भावित व्यक्ति के सामने हाथ-पैर जोड़ती रही .. पर अन्त में एक जगह से 'ब्लैक' में जुगाड़ हुए दस लीटर के 'सिलिंडर' को अपनी डगमगाती गर्दन पर टिके हुए अपने सिर के ऊपर लाद कर जब तक रंजन के पास पहुँचने में कामयाब हुई .. तब तक .. उससे पहले ही रंजन कोरोना महामारी के साथ लड़ता-लड़ता नाकामयाब हो चुका था .. शायद ...

किसी भी विधवा या परित्यक्ता औरत या फिर जिस औरत के पति कई वर्षों से विदेश में या फिर जिसके कई महीनों से अपने गाँव-शहर से दूर नौकरी-पेशे के लिए गए हुए हों, तो उस औरत के आस-पड़ोस के या साथ में काम करने वाले या फिर कई रिश्ते-नाते वाले भी मर्दों की अंदरूनी निगाहें उस की तरफ़ ठीक वैसे ही घूरती हैं, मानो गली के कुत्तों की कोई टोली किसी माँस-मुर्गे या मछली की दुकान के सामने बैठी टकटकी लगायी, मिलने वाली अँतड़ी-पचौनी या माँस-हड्डी की छाँटन की बाट जोह रही हो .. शायद ... 

ऐसे में कामुक मर्दों की मदान्ध निगाहें उस औरत के मांसल शरीर के अंदर धँसे निरीह मन को पढ़ पाने की क्षमता खो देती हैं, जैसे मुर्गे को मार कर पकाए गए तन्दूरी मुर्ग़-मुसल्लम के प्रेमियों को भला हलाल या झटका की विधि से काटे जाने पर रक्त से लथपथ उस मुर्ग़े की तड़प कितना ही विचलित कर पाती है ? 

कोरोना के इमामदस्ते की चोट से रंजन की ज़िन्दगी की दास्तान की इतिश्री हो जाने के बाद से अंजलि बिल्कुल अकेली हो गयी है। कहने के लिए तो तीन साल का बेटा- अम्मू है साथ में, शनिचरी चाची हैं, मन्टू भी है, स्कूल के बच्चे और साथ में काम करने वाले 'स्टाफ़' लोग भी हैं; पर रंजन की जगह ले पाना किसी के लिए ना तो सम्भव है और ना ही कोई भी ले सकता है अंजलि के वीरान हो चुके जीवन में .. शायद ... जैसे किसी मोमजामे पर कोई भी पनीला रंग नहीं चढ़ पाता, वैसे ही किसी दुःखी आदमी या दुखियारी औरत के दुःखी और शोक संतप्त मन पर दुनिया भर की किसी भी तरह की ख़ुशी का या किसी के भी साथ का असर नहीं हो पाता है .. शोक संतप्त मन ही मानो मोमजामा में तब्दील हो जाता है .. शायद ...

अंजलि के लिए तो ऐसा होना भी स्वाभाविक ही है .. जन्म से लेकर होश सम्भालने तक .. बारह वर्ष की उम्र तक तो अपनी माँ और बाबूजी की इकलौती लाडली बेटी अँजू बनी रही बेचारी अंजलि .. उसे अच्छी तरह याद है .. उस साल गर्मी की छुट्टी हो चुकी थी उसके स्कूल में .. कुछ ही दिन पहले उसकी छठे वर्ग की तिमाही परीक्षा समाप्त हुई थी, जिसका परिणाम गर्मी की छुट्टी के बाद आने वाला था। अब तक हर साल परीक्षा के परिणाम के बाद अपने वर्ग में वह प्रथम ही घोषित की जाती रही थी। इसलिए वह आश्वस्त थी अपने भावी परिणाम को लेकर।

माँ के कहने पर बाबू जी इस छुट्टी में सब को चारों धाम की यात्रा पर ले जाने वाले थे। इस वजह से तीन सदस्यीय परिवार में ख़ुशी का माहौल था। अब भले ही ख़ुशी की वज़ह तीनों के लिए अलग-अलग हो। माँ रास्ते के लिए ठेकुआ, निमकी शुद्ध घी में छान-छान कर डिब्बों में भर रही थी। अंजलि अपनी छुट्टी की वज़ह से माँ के कामों में हाथ बँटाने के ख़्याल से सौंफ़, छोटे-छोटे टुकड़ों में कटे सूखे मेवे, गुड़, दूध के साथ घी के मोयन में गूँथे हुए आटे और थोड़े से मैदे के मिश्रण से बनी छोटी-छोटी लोईयों को लकड़ी के साँचे पर थाप-थाप कर बाँस से बुने डगरे पर फैला कर रखती जा रही थी और माँ लोहे की कढ़ाही में उन्हें लाल-लाल छान-छान कर ठेकुआ बनाती जा रही थी। ठेकुआ के लिए आटा भी अंजलि ने ही माँ के निरीक्षण में गूँथे थे। निमकी के लिए भी .. उसी ने आटा में नमक, अजवाईन-मंगड़ैला और कसूरी मेथी को अपनी नन्हीं हथेली पर मसल कर मिलाते हुए, मोयन और पानी के छींटों के साथ गूँथा था। 

यूँ तो आम दिनों में माँ उस से घर का एक भी काम नहीं करवाती थी। कभी भूले से कुछ काम कह भी दिया, तो बाबू जी उसकी पढ़ाई में बाधा ना होने पाए, ये बोलकर माँ के कहे काम को करने देने से अपनी लाडली अँजू यानि अंजलि को मना कर देते थे और अंजलि के बजाए स्वयं वह उस काम को अंज़ाम दे देते थे। 

पर आज तो बात ही अलग थी, एक तो अभी हाल ही में परीक्षा का ख़त्म होना, स्कूल में एक महीने की गर्मी की छुट्टी का होना और रेलगाड़ी की यात्रा करते हुए बाहर घुमने जाने की ख़ुशी और उमंग का होना। इसीलिए बाबू जी भी उस दिन अपनी लाडली अँजू की फ़ुर्ती देख कर बस मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। त्योहारों के अवसर पर या किसी सगे-सम्बन्धियों की शादी के मौके पर अपने लिए खरीदे गए कपड़ों को विशेष रूप से चुन कर अंजलि अलग कर रखी थी। सगे-सम्बन्धियों की शादी के कई मौकों को छोड़कर कहीं भी शहर से बाहर जाने का यह उसका पहला मौका था। 

माँ तो चारों धाम की यात्रा करके पुण्य प्राप्ती के बारे में सोचकर अलग रोमांचित हो रहीं थीं। बाबू जी भी भले ही माँ के कहने पर यात्रा या तीर्थ यात्रा पर जा रहे थे, पर वह वहाँ के प्राकृतिक दृश्यों का अनुमान कर-कर के मन ही मन खुश हो रहे थे। पूरे घर में ख़ुशी की पराकाष्ठा दिख रही थी।

चारों धाम की यात्रा के तहत तीनों लोग लगभग तीस-बत्तीस घन्टे की रेलयात्रा पूरी करके सबसे पहले हरिद्वार पहुँचे और वहाँ के हर की पौड़ी पर स्नान-ध्यान-दान करके, घर से लाए ठेकुए-निमकी के अलावा दुकान से खरीद कर गर्मागर्म पूड़ी-सब्जी खाकर थोड़ी देर घाट पर ही विश्राम कर लिए थे। फिर 'टिकट काउंटर' पर लगी लम्बी क़तार को झेलते हुए रज्जु मार्ग ('रोपवे') की 'कंप्यूटराइज़्ड टिकट' लेकर बिलवा पर्वत पर अवस्थित मनसा देवी मन्दिर गए थे। वहाँ से नीचे उतरने के बाद घाट किनारे पहले से आयोजित एक भंडारे के पंडाल में बँट रही खिचड़ी और दूसरी जगह बँटती खीर खा-खा कर दोपहर के भोजन की भी व्यवस्था कर ली गयी थी। फिर गंगा किनारे शाम को होने वाली आरती में शामिल होकर उस का पावन अवलोकन किए थे सब मिलकर। वहीं घाट पर रसीद लिए हुए, सहयोग राशि या दान के नाम पर रुपए लेने वाले स्‍वयंसेवकों में से एक से, एक सौ एक रुपया का रसीद अंजलि के नाम से ही कटवा कर उसे पुण्य का भागी बना दिए थे उस शाम बाबू जी।

वहाँ से तीनों लोग अगले दिन सुबह-सुबह अन्य और भी श्रद्धालुओं के साथ यमुनोत्री की तरफ बढ़ चले थे। वहाँ से यमुना के पावन जल को एक कलश में भर कर, उसी दिन गंगोत्री की ओर भी सभी चल दिए थे। फिर गंगोत्री में गंगा के पवित्र जल दूसरे कलश में लेकर केदारनाथ की ओर रुख़ कर दिए थे। मान्यता है, कि चारों धाम की यात्रा में धार्मिक दृष्टिकोण से तयशुदा क्रम का पालन करना बहुत ही महत्वपूर्ण होता है .. शायद ...

【 अब शेष बतकहियाँ ... आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (११) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】




Thursday, September 7, 2023

पुंश्चली .. (९) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

पुंश्चली .. (१)पुंश्चली .. (२), पुंश्चली .. (३), पुंश्चली .. (४ ) , पुंश्चली .. (५ ), पुंश्चली .. (६)पुंश्चली .. (७) और पुंश्चली .. (८) के बाद अपने कथनानुसार आज एक सप्ताह बाद पुनः वृहष्पतिवार को प्रस्तुत है आपके समक्ष पुंश्चली .. (९) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. भले ही थोड़े ज्यादा ही विलम्ब के साथ .. बस यूँ ही ... :-

अभी-अभी मुहल्ले में रहने वाले सरकारी कॉलेज के प्रोफेसर साहब और सरकारी अस्पताल के स्टोरकीपर साहब, दोनों पड़ोसी, प्रतिदिन की तरह रसिक की चाय का आनन्द लेकर लगभग डेढ़-दो किलोमीटर दूर सुबह छः बजे से साढ़े नौ-दस बजे तक थोक राशन बाज़ार के फ़ुटपाथों और थोक विक्रेताओं की प्रायः ग्यारह बजे खुलने वाली दुकानों के 'शटर' के आगे बरामदे पर लगने वाली अस्थायी सब्जी मंडी की ओर जा रहे हैं। प्रोफेसर साहब तो एक हाथ में मोबाइल के साथ-साथ एक झोला और दूसरे हाथ में दूध का एक किलो वाला 'केन' भी लिए हुए जा रहे हैं। ऐसे में समय के सही सदुपयोग के साथ-साथ स्वास्थ्य की भी निगेहबानी हो जाती है। लगभग एक ही समय में रसिक की चाय का रसास्वादन, इधर-उधर की बातें, रसोईघर में पकने वाली दोनों शाम के लिए ताज़ी सब्जी की ख़रीदारी, सब्जी लेकर लौटते हुए .. रास्ते में ही ग्वाला द्वारा आँख के सामने गाय के थन से दुहा हुआ सुसुम-सुसुम दूध भी और ... अस्थायी सब्जी मंडी तक जाना और आना मिलाकर  लगभग तीन-चार किलोमीटर का सुबह-सुबह पैदल टहलना भी हो जाता है दोनों लोगों का। मतलब .. आम के आम, गुठलियों के दाम और छिलकों के भी लाभकारी इंतज़ाम .. शायद ...

सिपाही जी तो पहले ही जा चुके हैं यहाँ से और अभी प्रोफेसर साहब और स्टोरकीपर साहब के चले जाने के बाद चाय दुकान के आसपास कोई भी ऐसा नहीं है, जिनसे भूरा और चाँद को किसी तरह की बात करने में किसी भी तरह की हिचक हो सकती है। 

वैसे भी आम इंसानी फ़ितरत है कि अगर किसी चरित्रवान का सही-सही आकलन करना हो, तो उसे तथाकथित चरित्रहीन कृत्यों के लिए पहले एकांत और अँधेरा प्रदान करना चाहिए .. 'टी वी शो - बिग बॉस' की तरह .. हालांकि उस 'शो' में तो फिर भी तथाकथित ख़ुफ़िया कैमरे लगे होते हैं और आँखें चुँधियाती हुई तेज रोशनी भी होती हैं .. पर अगर उस प्रदान किए गए एकांत और अँधेरे के बाद भी वह इंसान चरित्रवान होने का प्रत्यक्ष प्रमाण दे पाता है, तभी हम उसे चरित्रवान मान या कह सकते हैं, क्योंकि उजियारे में तो सभी चरित्रवान ही होते हैं। वैसे तो हम सभी को स्कूल या कॉलेज की तरफ़ से चरित्र प्रमाण पत्र मिल ही जाते हैं, जिनका कोई औचित्य नहीं होता .. शायद ...

आपको याद होगा कि अभी थोड़ी देर पहले ही अंजलि भाभी को अपने काम पर मुहल्ले से जाते हुए देख कर मन्टू उन से नज़र बचा कर उनकी तरफ बढ़ गया था और यह उसकी रोजाना की आदत में शामिल है, जिसका आज तक अंजलि को भान तक नहीं है। हालांकि अंजलि के साथ उसका तीन वर्षीय बेटा- अम्मू भी रोज साथ ही होता है। दरअसल जिस स्कूल में अंजलि सहायिका के रूप में कार्यरत है, उसी में उसका बेटा अम्मू यानि अमन पढ़ता है। 

अनुकंपा के आधार पर उसका कोई शुल्क भुगतान नहीं करना पड़ता है। 

इधर तब से भूरा और चाँद यहीं बैठे हुए आपस में इधर-उधर की बातें करते हुए, अन्य आये हुए चाय के ग्राहकों की बतकही पर कान लगाए हुए हैं और अपनी नज़रें गड़ाए हुए हैं दूर जाते मन्टू और अंजलि भाभी पर। अभी थोड़ा एकांत पाकर फिर से चाँद और भूरा चालू हो गए हैं ...

चाँद - " अच्छा .. ये तो बता भूरा के बच्चे .. कि तू तब से 'केचप' की 'फैक्ट्री' बोल-बोल के सब को सनका रहा था।परबतिया दीदी तो नौकरी तक के सपने देखने लगीं थीं तुम्हारी बतकही से। "

भूरा - " अरे .. चाँद भाई .. वो तो .. "

चाँद - " वो तो, वो तो छोड़ .. पहले ये बता कि तुम्हें कैसे पता चला कि बी ब्लॉक की 213 नम्बर वाली भाभी को .. वो सब हुआ है ? बोल ! .."

भूरा - " ऐसा है ना चाँद भाई कि सरकार की लाख ताकीद के बाद भी जैसे शादी में दहेज़ की लेन-देन और सड़कों पर सिगरेट के धुएँ नहीं रुकते हैं, वैसे ही बार-बार बतलाने पर भी मुहल्ले वाले घर के कचरों को अलग-अलग नहीं देते हैं .. एक ही डब्बे में गीला कचरा और सूखा कचरा घर में जमा करते हैं और घर तक गाड़ी ले के जाने पर वही डब्बा पकड़ा देते हैं। कई लोग तो 'पॉलीथिन' की थैली पर 'बैन' होने के बाद भी उसी में कचरा पकड़ा देते हैं .."

चाँद - " अच्छा ! .. तो ? .. इस से 'केचप' की 'फैक्ट्री' का क्या लेना-देना भला ? .."

भूरा - " सीधी-सी बात है .. मुहल्ले वाले करें या ना करें, पर हमको तो नगर निगम की बातों को माननी होती है। अब भला जिस काम के पैसे से अपनी दाल-रोटी की जुगाड़ होती हो, उस काम से ग़द्दारी कैसे की जा सकती है चाँद भाई .. तो ऐसे में हर घर के बाहर उनके कचरे के डब्बे या थैली के सारे कचरे को गाड़ी के 'ट्रेलर' में फैला कर .. लगे हाथों गीले और सूखे कचरों को अलग-अलग नियत हिस्से में डालते जाना पड़ता है। "

चाँद - " तो ? ..."

भूरा - " तो क्या !! .. नहीं तो 'डंपिंग यार्ड' में खड़ा 'सुपरवाइजर' बमक कर "माँ-बहन" करने लग जाता है एकदम से ... "

चाँद - " तो ? ..."

भूरा - " तो-तो क्या !! .. कचरों को फैला कर अलग-अलग करते समय उस दौरान पुराने अख़बारों में लिपटे इस्तेमाल किए गए ख़ून से सने .. "

चाँद - " समझ गये .. समझ गये .. पर उसका इतना बखान कर के भी क्या करना है चूतिए .. "

भूरा - " कुछ नहीं चाँद भाई .. बस ऐसे ही थोड़ी हँसी-ठिठोली कर रहा था .."

चाँद - " वो भी माँ समान भाभी के लिए .. बेशर्म .. "

भूरा - " अब इसमें बेशर्मी की क्या बात हो गयी .. सच्ची बात बतलाऊँ ... "

चाँद - " अब कौन सी बेशर्मी उगलने वाला है तू ? .. आँ ..?.."

भूरा - " गुस्सा तो नहीं होगे ना ? .."

चाँद - " ना ! .. अब जब इतना बकबका दिए तो ये भी बक ही दो .. जल्दी से .."

भूरा - " हर महीने इन तीन-चार दिनों के बाद जब .. 213 नम्बर वाली भाभी अपनी कमर से बहुत ही नीचे-नीचे तक लम्बे शैम्पू किए बालों को खोल कर रखतीं हैं ना तो .. "

चाँद - " तो ? .. उस से तुझे क्या करना है बे ? .."

भूरा - " कुछ भी तो नहीं .. हम तो बस ये कह रहे हैं, कि तब वो बहुत ही सुंदर लगती हैं .. अब इसमें .. मतलब ये कहने में क्या बुराई है .. बोलो !! .. सुंदर को सुंदर कहना कोई बुरी बात है ? .. आयँ ..?..."

इनकी बेसिर-पैर की बातों को अचानक एक व्यवधान का सामना करना पड़ गया है अभी-अभी .. कुछ ही दूरी पर जहाँ कचरे फेंकने के लिए नगर निगम वालों द्वारा बड़े-बड़े कूड़ेदान रखे हुए हैं, मुहल्ले में दरवाज़े-दरवाज़े भटकने वाली काली कुतिया- "बसन्तिया" की "कायँ-कायँ" .. तेज चीखने की आवाज़ से दोनों का ध्यान आपसी बातों से हट कर उधर चला गया है। 

चाँद - " लगता है मन्टू गुस्सा में उसको किसी बड़े पत्थर से मार दिया है .."

भूरा - " आज भी अंजलि भाभी के कचरे वाली थैली का 'पोस्टमार्टम' नहीं कर रही होगी बसन्तिया .."

चाँद - " हाँ .. लग तो ऐसा ही रहा है रे .."

दरअसल अपने गाँव से रंजन जब से इस शहर में अज़नबी की तरह आ कर काम की तलाश में भटक रहा था, तभी से मन्टू ही उसका एकमात्र सहारा बना था शहरी जीवन के हर मोड़ पर। चाहे शुरूआती दौर में अकेले के जीवनयापन के लिए अपनी 'गारंटी' देकर भाड़े पर हवा-हवाई चलाने के लिए अमीर कबाड़ी वाले से दिलवाना हो या तब शनिचरी चाची के घर में किराए पर मकान दिलवाना हो या 'स्कूल' के बच्चों को उनके घर से 'स्कूल' तक छोड़ने और छुट्टी होने पर वहाँ से उनके घर तक पहुँचा कर एक निश्चित मासिक आमदनी का जरिया उपलब्ध करवाना हो या फिर अंजलि से शादी करवाने में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेना हो .. और तो और रंजन की पत्नी- अंजलि को समय से पहले ही 'ऑपरेशन' से बच्चा होने पर हुई आर्थिक-मानसिक व शारीरिक परेशानी में सगे भाई से भी बढ़ कर मदद की बात हो .. सब के लिए मन्टू तत्पर खड़ा रहता था। 

रात-रात भर अस्पताल में 'ड्यूटी' देता था। तब "डॉक्टरनी मैम" अपनी भाषा में उसके बेटे, जो अब तीन साल का हो चुका है- अम्मू यानि अमन, को 'प्रीमैच्‍योर बेबी' बोल रहीं थीं और शनिचरी चाची अपनी भाषा में "सतमासु" बच्चा बोलीं थीं।

रंजन के बेटे के नाम रखने तक में मन्टू का बहुत बड़ा योगदान रहा है। रंजन और अंजलि तो नाम तय कर ही नहीं पा रहे थे अपने इकलौते लाडले की। महीना निकल गया .. तब मन्टू ने ही एक रात सुझाया था नाम- "अमन" .. बोला था कि - "अंजलि भाभी के नाम का पहला अक्षर "अ" और रंजन के नाम का आख़िरी अक्षर "न" .. दोनों ही आता है "अमन" में .. और .. 'बाइ द वे' (By the way) ... इसमें मन्टू का "म" भी बीच में घुसा हुआ है .." - और यह बोल कर ख़ूब जोर से ठहाका लगा कर हँस पड़ा था वह। काफ़ी रात हो चुकी थी, फिर भी मन्टू के जोर के ठहाके की आवाज़ सुनकर शनिचरी चाची आ गयीं थीं वजह जानने के लिए रंजन के कमरे में .. वह भी "अमन" नाम पर अपनी हामी भर कर "अमन" नाम पर अपनी 'फाइनल' मुहर लगा दीं थीं।

वही रंजन आज इस दुनिया में नहीं है। कोरोना के दूसरे दौर में उसके चपेट में आने बाद अपने आप को नहीं बचा सका था रंजन और ना ही अंजलि बचा पायी थी उसे .. अपनी अब तक की, नगण्य ही सही, जमा-पूँजी लगा कर भी। उल्टा मन्टू और शनिचरी चाची से उधार भी लेना पड़ गया था, जो अभी भी पूरी तरह लौटा नहीं पायी है अंजलि .. अपनी सहायिका की नौकरी के दम पर। यह नौकरी भी मन्टू की मदद से या यूँ कहें कि स्कूल वालों से जान-पहचान के कारण अंजलि को मिल पायी थी। साथ में उसी स्कूल के बच्चों को अपनी हवा-हवाई से पहुँचाने-ले जाने के क्रम में अच्छे व्यवहार की वजह से भी। हालांकि इस 'प्राइमरी स्कूल' के संस्थापक के साथ अंजलि का एक गहरा सम्बन्ध रहा है, पर अपनी मर्ज़ी से रंजन के साथ शादी कर लेने के बाद वे उसी समय से खफा हैं। तभी तो वे इन दोनों की शादी के मौके पर शरीक़ नहीं हुए थे। वैसे 'प्राइमरी स्कूल' के संस्थापक के साथ अंजलि के सम्बन्ध के बारे में आगे किसी अंक में बात करते हैं।

उस वक्त रंजन को खोकर एक साल के अम्मू के साथ भी अंजलि अकेली पड़ गयी थी। उस वक्त भी मन्टू एक आलम्बन की तरह खड़ा रहा था। मुहल्ले भर के लोग जो उनकी शादी में छक कर भोज खाने जुटे थे, उनमें से मात्र एक-दो गिनती के लोग ही उस वक्त रंजन के दाह-संस्कार में शामिल हुए थे। बड़ी मुश्किल से चार कंधों का इंतजाम हो पाया था तब। कोरोना काल था ही ऐसा .. "अपनों" के बीच "अपनों" की पहचान कराने वाला .. शायद ...

【 अब शेष बतकहियाँ ... आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (१०) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】





Thursday, August 31, 2023

पुंश्चली .. (८) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

पुंश्चली .. (१)पुंश्चली .. (२), पुंश्चली .. (३)पुंश्चली .. (४ ) , पुंश्चली .. (५ )पुंश्चली .. (६) और पुंश्चली .. (७) के बाद अपने कथनानुसार आज एक सप्ताह बाद पुनः वृहष्पतिवार को प्रस्तुत है आपके समक्ष पुंश्चली .. (८) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. भले ही थोड़े विलम्ब के साथ .. बस यूँ ही ... :-

गतांक से आगे बढ़ने के पहले स्वयं के साथ-साथ आप सभी से वही पिछले अंक वाला सवाल पुनः .. " क्या एक जिम्मेवार बुद्धिजीवी नागरिक होने के कारण हमने कोई सकारात्मक क़दम उठाए हैं ? " मसलन .. राह चलते या चौक-चौराहे जैसे सार्वजनिक स्थानों पर खड़े होकर धूम्रपान करने वालों में से कितनों को स्वदेश के "धूम्रपान निषेध अधिनियम" की याद दिला कर .. उनकी बीड़ी या सिगरेट बुझवाने की हिम्मत कर पाए हैं अब तक हम .. चाहे वह अपने सगे-संबंधी हों, जान पहचान वाले हों या अंजान कोई भी एक साधारण-सा दिहाड़ी वाला मज़दूर हो या कोई ख़ाकीधारी, काला कोटधारी या फिर कोई खादीधारी हों ? .. शायद ...

हो सकता है .. हमको इस तरह से पहल करने वाला क़दम जोख़िम भरा महसूस हो रहा हो, तो आसपास के या रास्ते में दिखने वाले कम से कम आठ-दस गाजर घास के पौधे ही जड़ से उखाड़ के कभी-कभार निरस्त कर दिया हो हमने .. शायद ... या फिर दहेज़ के लेन-देन वाली किसी शादी के मौके पर शादी में जाने से या भोज खाने से दहेज़ वाली वज़ह बतलाते हुए निमंत्रक को सामने से इंकार कर दिया हो हमने .. शायद ...

अगर एक के लिए भी हमारा "हाँ" है तो .. ठीक, वर्ना उत्तर "ना" होने पर इस वक्त आपका ये साप्ताहिक धारावाहिक - पुंश्चली का आठवाँ अंक पढ़ना और हमारा लिखना भी बेमानी है। बेमानी हैं हम सभी के वो सारे के सारे कृत्य जो हम प्रायः 'सोशल मीडिया' या मंचों पर चमकाते रहते हैं, स्वयं को चमकाने के लिए .. शायद ...

हमने आरम्भ में इस साप्ताहिक धारावाहिक - पुंश्चली के प्रथम अंक में ही कहा था कि "आभासी मनोरंजन का दावा तो नहीं, पर तथ्यों का वादा है हमारा".. बस यूँ ही ...

ख़ैर ! .. पुंश्चली - (७) के बाद पुंश्चली - (८) के लिए आगे बढ़ते हैं ... 

रसिक चाय दुकान के सामने लगे बेंच पर बैठे सिपाही जी की चाय के घूँट और उनके सिगरेट के धुएँ का अब तक संगम हो चुका है। 

सिपाही जी की चाय की हर चुस्की .. लगभग तेज आवाज़ के साथ सुड़कने वाले अंदाज़ में .. कुल्हड़ की कोर को उनके होठों की गिरफ़्त में ले आती है और सिगरेट का हर कश भी सिगरेट के 'फिल्टर' को होठों की गिरफ़्त तक ही लाता है, पर दोनों में सूक्ष्म अन्तर दिख रहा है। चुस्की और कश के दौरान होठों की हरक़तों और बनावटों में क्रमशः वही अन्तर दिख रहा है जो एक बच्ची के गाल चूमने और एक प्रेमिका के होंठों को चूसने में अक़्सर होता है .. शायद ...

रसिक की कड़क, मीठी और मलाईदार चाय से सिक्त कुल्हड़ हो या फिर उच्च ताप में सुलगते महँगे सिगरेट वाले तम्बाकू का संगी 'फ़िल्टर' हो .. दोनों को ही मालूम है कि दोनों के साथ क्रमशः जब तक चाय और तम्बाकू है .. तभी तक सिपाही जी के होंठों का संसर्ग मिल रहा है .. फिर उसके बाद तो .. कुल्हड़ और 'फ़िल्टर' .. दोनों की ही इहलीला का पटाक्षेप हो जाना है .. शायद ...

ऐसे में तुलसी दास जी की रचना- रामचरितमानस में राम की सत्यता का तो पता नहीं; परन्तु उनका यह सांसारिक ज्ञान तो चरितार्थ होता प्रतीत होता ही है, कि ...

"सुर, नर, मुनि, सब कै यह रीति, 

  स्वारथ लागि करहिं सब प्रीति।"

"रसिक भईया ! .. जरा गर्म-गर्म चाय जल्दी से हमको पिला दीजिए .. और दो पाव भी .." - ये है चंदर कबाड़ी जो अक़्सर मुहल्ले में आकर अपने ठेले में भर-भर कर मुहल्ले भर से अंगड़-खंगड़ सामान खरीद कर ले जाता है, जिसको झूलन सेठ कबाड़ी के यहाँ मुनाफ़े के साथ बेचकर अपना घर-परिवार चलाता है - "और .. तनिक मलाई अपनी तरफ से पाव पर रख के .. ऊपर से एक चुटकी चीनी भी बुरक दीजिएगा सुबह-सुबह 'मूड' (मनोदशा) बन जाएगी हमारी .."

"ठीक है चंदर भईया .. बस पाँच मिनट .." - ये कलुआ है - "आज बड़ा ख़ुश लग रहे हो भईया ! .. कोई मोटा माल हाथ लगा है क्या आज ?"

चंदर कबाड़ी - "हाँ रे ! .. उ सतरुधन (शत्रुघ्न) चच्चा (चाचा) हैं ना ! .. कल 'इंडिया' हार गया ना 'फाइनल मैच' .. तअ (तो) अपना 'टिविआ' (टी वी) उठा के जोर से पटक दिए थे कल रात में .. चकनाचूर हो गया था .. भुच्ची-भुच्ची हो गया है .. वही मिल गया अभी भोरे-भोरे किलो के भाव में .. चच्ची रो-रो के तौलवा रहीं थीं .. अब एकर (इसका) एक-एक काम के लायक वाला 'पार्ट' (भाग) का ज्यादा दाम देगा 'इलेक्ट्रॉनिक रिपेयरिंग' वाला दुकान में .. 'एही' (इसी) से खुश हैं .."

"ओ ~~~ ... वही कल रात में बड़ा जोर से आवाज़ किया था .. लगता है .." - चंदर कबाड़ी की बात सुनकर और उसके ठेले में प्रत्यक्ष 'टी वी' के अवशेष को निहारते हुए सिपाही जी बोल रहे हैं।

तभी उधर से शत्रुघ्न चाचा के पड़ोसी 'प्रोफेसर' साहब और सरकारी अस्पताल के 'स्टोरकीपर' साहब आपस में देश-विदेश की ख़बरों के साथ-साथ कल रात वाली 'इंडिया टीम' की हार .. वो भी 'पाकिस्तान टीम' से .. और पड़ोसी शत्रुघ्न के घर तोड़े गये 'टी वी' की परिचर्चा करते हुए सुबह की चाय पीने "रसिक चाय दुकान" के पास अभी-अभी रोज की तरह आ गये हैं। 

उनको तो पड़ोसी होने के नाते "'टी वी' भंजन प्रकरण" की सारी जानकारी है ही। सामने चंदर कबाड़ी के ठेले में प्रत्यक्ष प्रमाण भी आराम फ़रमा रहा ही है .. तो फिर क्या है ? .. 'न्यूज़ चैनल' वालों की तरह ही इंसानी फ़ितरत है कि घटना घटने भर की देर है .. फिर तो उसकी बख़िया उधेड़ कर उसका 'पोस्टमार्टम' करने में देर भी भला कहाँ लगती है .. शायद ...

'प्रोफेसर' साहब - " हमारी मूर्खता की पराकाष्ठा का उदाहरण इस से बेहतर और क्या मिल सकता है, कि अगर हमारी अपनी पसंदीदा क्रिकेट टीम मैच जीत जाती है, तो कुछ पल के लिए मान भी लिया जाए कि ये जायज़ हो भी सकता है .. हमारा खुश हो कर थिरकना .. ज़श्न मनाने के नाम पर अपनी हैसियत के मुताबिक घर पर ही या किसी महँगे 'रेस्टोरेंट' या 'बार' में जाकर ऊटपटाँग हरक़तें करना और .. इसे अपनी देश-प्रेम से जुड़ी भावनाओं की प्रतिक्रिया का नाम दे देना। 

'स्टोरकीपर' साहब - " हाँ .. सही कह रहे हैं आप .. "

'प्रोफेसर' साहब - " पर .. हद तो तब होती है, जब पसंदीदा क्रिकेट टीम के मैच हारने के बाद हम अपने लिए छदम् तनावग्रस्त परिस्थिति बनाकर गुस्से के वशीभूत होकर कई दफ़ा तो जिन 'टी वी' पर हम मैच देख रहे होते हैं, अपने उसी 'टी वी' को पटक कर फोड़ तक देते हैं। जबकि हारने वाली उस पसंदीदा क्रिकेट टीम को भी मैच हारने के बावज़ूद भी खेलने की स्टोरकीपर अच्छी-खासी क़ीमत मिलती है ... भले ही वह जीतने वाली टीम से तुलनात्मक कम रक़म होती हो .. "

'स्टोरकीपर' साहब - " और तो और .. हमलोग इसे क्रिकेट-प्रेम और देश-प्रेम का नाम दे कर शेख़ी भी बघारते रहते हैं। "

'प्रोफेसर' साहब - " अब ये प्रेम है या पागलपन ? बोलो ! .. याद है वो .. 'फ़िल्म'- "पी के" का वो एक 'डॉयलॉग' .. जिसमें दूसरे ग्रह से आया प्राणी बना हुआ 'हीरो' जो कुछ भी बोलता है .. वह बहुत ही गहरा और अर्थपूर्ण कथन है। ठीक-ठीक तो याद नहीं पर .. जिसका आशय है, कि - यहाँ के लोग, मतलब धरती के लोग जब बोलते हैं कि 'आई लव फ़िश',तो इसका मतलब ये नहीं होता है कि वे लोग मछली से प्यार करते हैं। बल्कि इनके 'आई लव फ़िश' का मतलब होता है कि वो मछली को मार कर, पका के खाते हैं। उसी को कहते हैं .. 'आई लव फ़िश' .. "

'स्टोरकीपर' साहब - " और यहाँ क्रिकेट-प्रेम का भी कुछ ऐसा ही .. मतलब है .. वो लोग इस प्रेम में क्रिकेट को तो नहीं .. पर ख़ुद को बर्बाद कर लेते हैं। "

'प्रोफेसर' साहब - " और इन सभी बेसिर-पैर की भावनाओं को देश-प्रेम का नाम देकर सामने वाले का मुँह चुप कराने का प्रयास करना भी इन्हें बख़ूबी आता है। और तो और .. ऐसी बातों पर तर्क देंगे कि इन सब से तो कई लोगों के परिवार वालों का पेट चलता है। ये सब ना हो तो कई लोग बेरोजगार हो जायेंगे बेचारे ... च्-च्-च् ... "

'स्टोरकीपर' साहब - " ये लोग इस खेल के पीछे चल रहे सट्टा बाज़ार वालों के लिए भी या क़ानूनी-ग़ैरक़ानूनी नशा के सामानों को बेचकर समाज की हर पीढ़ियों को कमज़ोर या बर्बाद करने वालों के लिए भी ऐसी ही तर्क देकर उनके प्रति अपनी हमदर्दी जताने का भरसक प्रयास करते हैं .. पर दूसरी ओर यही भीड़ 'सेक्स वर्कर्स' के धंधे के विरुद्ध में कई सारे 'एजेंडे' बनायेंगे .. तब इन्हें उनकी बेरोजगारी, उनकी पेट की भूख नज़र नहीं आती है .. "

'प्रोफेसर' साहब - " तब तो समाज और राष्ट्र की छदम् चिन्ता में .. "

'स्टोरकीपर' साहब - " सुनते हैं कि कुछ साल पहले सभी के पास मोबाइल नहीं हुआ करता था। इक्के-दुक्के लोग ही इसका उपभोग कर पाते थे। तब तो शायद 'इन कमिंग कॉल' के भी 'चार्ज' लगते थे। तब लोग लम्बी-लम्बी 'लाइन' लगा कर 'पब्लिक टेलीफोन बूथ' में अपनी बारी की प्रतीक्षा किया करते थे। वहाँ रात में ज्यादा भीड़ होती थी, क्योंकि दिन की तुलना में रात की एक निर्धारित समय-सीमा में आधा या चौथाई शुल्क देना होता था। अगर एक ग्राहक द्वारा पहले या दूसरे प्रयास में उसका 'कॉल' नहीं लगता था, तो दुकानदार ख़ुद बोल कर या पीछे वाले ग्राहक ही हल्ला कर के उस ग्राहक को परे हटा देते थे और ख़ुद अपना 'नम्बर' मिलाने लगते थे। "

'प्रोफेसर' साहब - " अभी इन सब अतीत की बातों की चर्चा का भला क्या मतलब ? .."

'स्टोरकीपर' साहब - " मतलब ये है कि .. आज आसपास कहीं भी 'पब्लिक टेलीफोन बूथ' दिखता नहीं है, तो क्या सारे 'टेलीफोन बूथ' वाले भूखे मर रहे हैं या फिर .. दूसरे धंधे में लग गये हैं ? .. बोलिए ! .."

'प्रोफेसर' साहब - " ये सब के सब मुखौटेधारी दोहरी ज़िन्दगी जीने के आदी हैं। याद है .. बिहार राज्य में सरकार द्वारा जब शराबबंदी की घोषणा की गयी थी, तब तो सभी बेवड़े यही वाला तर्क दे रहे थे कि ऐसे में तो कितनों के पेट पर लात मारी जाएगी। सत्तारूढ़ सरकार कोई भी हो, वह काम कुछ भी करे .. कुछ लोगों की आदत होती है, सही तथ्यों से अंजान .. बस उसके विरुद्ध कुछ भी अंट-संट 'सोशल मीडिया' पर बेवड़ों की तरह चिपकाते रहने की। इन्हीं के जैसी मानसिकता वाले प्राणियों की भीड़ पीछे से इन पर 'लाइक' और 'कमेंट' की सतत बरसात भी करते रहते हैं .. "

'स्टोरकीपर' साहब - " बनावटी राष्ट्र प्रेम के सबूत जो देने हैं इन्हें 'सोशल मीडिया' पर .."

'प्रोफेसर' साहब - " देश-प्रेम की भावना वाली गंगा ही बहानी है तो क्रिकेट की जगह कुछ वास्तविक समाज सेवा की भी सोच लेनी चाहिए कभी-कभी इनको। बहुत सारे क्षेत्र हैं खुले पड़े .. सेवा के लिए प्रतिक्षारत .. बिखरे पड़े हैं हमारे आसपास .. पर नहीं .. किसी तथ्य को गंभीरता से जाने-समझे बिना बस ..  सत्तारूढ़ राजनीतिक दल के विरुद्ध कुछ भी वक्तव्य 'सोशल मीडिया' पर चिपका कर अपने समाज-प्रेम, राष्ट्र-प्रेम प्रदर्शित करने की कोशिश करनी ही इनकी देशभक्ति है भाई ..."

'स्टोरकीपर' साहब - " यही लोग पन्द्रह अगस्त और छ्ब्बीस जनवरी जैसे मौकों पर ताबड़तोड़ 'सोशल मीडिया' पर 'हैप्पी इंडिपेंडेंस डे' .. 'हैप्पी रिपब्लिक डे' जैसे 'मेसेज' को 'कॉपी-पेस्ट' करते नहीं थकते हैं। ऐसे-ऐसे कई अवसरों पर इसी तरह के 'कॉपी-पेस्ट' वाले आसान अवसरों से ये लोग कभी नहीं चूकते और ना ही अपनी ऐसी आधारहीन और प्रतिफल विहीन देशभक्ति के प्रमाण देने में कोई कोताही बरतते नज़र आते हैं ... "

'प्रोफेसर' साहब - " समाज की किसी भी भेड़-चाल में शामिल या शरीक़ नहीं होने वाला इंसान .. आडम्बरों से भरे तथाकथित समाज के बहुसंख्यकों को प्रायः सिरफिरा ही प्रतीत होता है। सामाजिक मान्यताओं के अनुसार किसी परम्परा या किसी आयोजन का चाहे कोई औचित्य नहीं भी हों, फिर भी बिना तर्क किए किसी सम्मोहित प्राणी की तरह पीछे-पीछे चले चलो तो ये तथाकथित समाज सराहती है और जब तार्किक होकर सुगम रास्ते अपनाओ या सुझाओ तो वही समाज सिरफिरा समझती है और कहती भी है .. है कि नहीं ? ..."

वहाँ अन्य बैठे रसिकवा के ग्राहक लोग चाय के साथ-साथ मुहल्ले के दोनों प्रतिष्ठित व्यक्तियों - 'प्रोफेसर' साहब और 'स्टोरकीपर' साहब की वार्तालाप का भी आनन्द मुफ़्त में ले रहे हैं। पर आधी उनकी खोपड़ी में समा रही है और .. आधी ऊपर से निकल जा रही है। वैसे भी दुनिया की सभी बातें .. सभी के खोपड़ी में समा भी कहाँ पाती है भला ? .. बस यूँ ही ...

【 अब शेष बतकहियाँ ... आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (९) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】



Wednesday, August 30, 2023

गुमनाम गाँगुली बनाम वादन की गायकी


 【भूमिका

संगीत :- 

सर्वविदित है कि असीम साहित्य-संगीत की संगति और बेशक़ विज्ञान के नए-नए शोध-अनुसंधान ही मानव जाति को धरती के अन्य प्राणियों से तुलनात्मक रूप से सर्वोत्कृष्ट बनाती है .. शायद ...

हम कह सकते हैं कि जैसे "साहित्य" शब्द अपने आप में कविता, कहानी, लघुकथा, उपन्यास, दोहे, चौपाई, संस्मरण, आलोचना, हास्य-व्यंग्य इत्यादि जैसी तमाम विधाओं वाली रचनाओं को अपने में समेटे हुए है, ठीक वैसे ही हम "संगीत" के व्यापक अर्थ में गायन और नृत्य इत्यादि जैसे कलात्मक कृत्यों से जनी एकल या सामूहिक कृति को उपेक्षित नहीं कर सकते हैं .. शायद ...

प्रसंगवश

गिटार :-

अपनी उपरोक्त बतकही को एक भूमिका की शक्ल देने की कोशिश के बाद मूल विषय "गुमनाम गाँगुली बनाम वादन की गायकी" तक पहुँचने के पूर्व प्रसंगवश संगीत से जुड़ी कुछ बतकही .... दरअसल संगीत के लिए प्रयुक्त विभिन्न प्रकार के अनगिनत देशी और विदेशी वाद्य यंत्रों में से एक यंत्र का नाम हम सभी सुने हैं .. जानते हैं और देखे भी हैं। वह है .. "गिटार".. जो विदेशी होते हुए भी आज हमारी युवा पीढ़ी के लिए देशी ही प्रतीत होता है। ठीक वैसे ही जैसे आज हमारे तथाकथित समाज में .. हमारी तथाकथित सभ्यता-संस्कृति वाली दिनचर्या में रचे-बसे चाऊमीन, पिज्जा-बर्गर् और बिरयानी जैसे व्यंजन, अंग्रेजी और उर्दू जैसी भाषा और कोट-पैंट-टाई जैसे परिधान विदेशी होकर भी देशी ही जान पड़ते हैं।

पश्चिमी देशों, ख़ासकर अमेरिका, में किसी कालखण्ड के दरम्यान "जींस और गिटार" युवा विद्रोह, स्वयं की आध्यात्मिक तलाश, व्यक्तिगत जीवन शैली, रोमांच और जीवन को पूर्णता से जीने का प्रतीक बना हुआ था और आज भी कमोबेश है ही .. वो भी .. अपने वैश्विक प्रसार-विस्तार के साथ .. शायद ...

गिटार के प्रकार :- 

यूँ तो मूलतः बनावट के आधार पर दो तरह के गिटार होते हैं। पहला होता है - "ध्वनिक गिटार" .. जिसमें उसके एक छेदयुक्त हल्के लकड़ी के बने खोखले ढाँचे और ताँत या स्टील के तारों की मदद से 'स्ट्रोक' द्वारा लयबद्ध ध्वनि उत्पन्न की जाती है। 

जबकि दूसरा होता है ..  "'इलेक्ट्रिक' गिटार" .. जो ठोस और भारी होते हैं, जिसमें स्टील के तारों को सधी उंगलियों द्वारा झंकृत करके बिजली की मदद से एक या एक से अधिक 'एम्पलीफायरों' द्वारा ध्वनि उत्पन्न की जाती है। 'एम्पलीफायरों' के कारण 'इलेक्ट्रिक' गिटारों की आवाज़ ध्वनिक गिटारों की तुलना में ज्यादा प्रभावी होती है। 

यूँ तो इनमें प्रयोग होने वाले ताँत या स्टील के तारों की संख्या के आधार पर भी इनके कई सारे प्रकार होते हैं। कुछ असाधारण गिटार दो खोखले ढाँचे वाले भी होते हैं, परन्तु दुष्प्राप्य .. शायद ...

(अ) स्पेनिश गिटार :-

ध्वनिक गिटार में जब ताँत के तार होते हैं और इसे 'स्ट्रोक' की मदद से बजाते हैं, तो इसे यूरोपीय देशों में से एक देश- "स्पेन", जहाँ इस वाद्य यंत्र को जीवन-विस्तार मिला है, के नाम के आधार पर इसे "स्पेनिश गिटार" कहते हैं। वैसे भी स्पेन देश की कला, संगीत, साहित्य और .. कहते हैं कि व्यंजन का भी इतिहास और लगभग वर्तमान भी काफ़ी स्वर्णिम हैं। 

(ब) हवाइयन गिटार :-

दूसरी तरफ "हवाइयन गिटार" में ताँत की जगह स्टील के तारों का प्रयोग होता है। इसको बजाने के लिए दाएँ हाथ की उँगलियों में पहने 'स्ट्राइकर' की मदद से इसके स्टील के तारों पर 'स्ट्रोक' देने के साथ-साथ बाएँ हाथ की तर्जनी, अनामिका और अँगूठे की मदद से एक ठोस 'स्टील बार' को तारों पर 'म्यूजिकल नोट्स' के अनुसार फिराया जाता है। यह स्पेनिस गिटार से आकार में बड़ा होता है और इसकी घुड़च (Bridge) भी अधिक ऊँची होती है। कहते हैं कि संयुक्त राज्य अमेरिका के पचास राज्यों में से एक राज्य "हवाई" की राजधानी होनोलूलू में इसके विशेष रूप से शुरूआती व्यवहार और प्रचार होने के कारण इसका नाम हवाइयन गिटार पड़ा है।

गिटार : मिलान और वर्तमान :-

यूँ तो किसी भी वाद्य यंत्र की तुलना किसी दूसरे वाद्य यंत्र से नहीं की जा सकती है। जैसे किसी भी जीवित मानव शरीर में उपस्थित विभिन्न तंत्रो की उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता, वैसे ही किसी भी वाद्य यंत्र को कम नहीं आँका जा सकता। सब का अपना-अपना महत्व है। प्रत्येक वाद्ययंत्र की अपनी वैयक्तिकता और मौलिकता होती है और कोई भी उपकरण दूसरे से श्रेष्ठ नहीं हो सकता। 

फिर भी किसी स्पेनिश गिटार की तुलना में हवाइयन गिटार की आवाज़, विशेषतौर से 'स्लर' (Slur) या 'टाई' (Tie) वाले 'म्यूजिकल नोट्स' के लिए उत्पन्न आवाज़, उसके तारों पर सरकते ठोस 'स्टील बार' के कारण ज्यादा ही प्रभावी होती है।

स्पेनिश गिटार मुख्य रूप से किसी गायक या स्वयं के गायन के साथ या फिर संगीत 'आर्केस्ट्रा' में प्रयोग किया जाता है, जबकि हवाइयन गिटार एक आत्मनिर्भर वाद्ययंत्र है क्योंकि इसे एकल रूप से बजाया जा सकता है।

दुर्भाग्यवश हवाइयन गिटार वर्तमान में स्पेनिश गिटार की तुलना में प्रचलन या प्रयोग में कम ही दिख पाता है। हवाइयन गिटार लगभग लुप्तप्राय वाली परिस्थिति का सामना कर रहा प्रतीत होता है। वास्तव में आज तो आलम ये है कि कई बड़े-बड़े शहरों में भी "स्पेनिश गिटार" सिखाने वाले दर्जनों प्रशिक्षण केन्द्र और प्रशिक्षक मिल जाते हैं, परन्तु अथक प्रयास के बाद भी "हवाइयन गिटार" सिखाने वाले एक भी प्रशिक्षण केन्द्र या प्रशिक्षक अमूमन नहीं ही मिल पाते हैं। 

और तो और .. जैसा कि हम सभी जानते हैं कि बच्चों, युवाओं को ही नहीं बल्कि वयस्क स्त्री-पुरुषों को भी फ़िल्में और तमाम विज्ञापनें उनकी अभिरुचि के अनुरूप प्रभावित करते हैं .. आंशिक या पूर्णरूपेण। कई दफ़ा तो दर्शकों की अभिरुचि में ही परिवर्तन ला देने वाली इन फ़िल्मों और चंद मिनटों वाले विज्ञापनों का भी प्रभाव कम असरकारक नहीं होता है .. शायद ...

आए दिन फिल्मों या विज्ञापनों में भी जब 'मल्टीप्लेक्स' या 'टी वी' के 'स्क्रीन' पर बहुत ही अदा के साथ स्पेनिश गिटार बजाते हुए गीत गाकर नायक द्वारा नायिका यानि अपनी प्रेमिका को रिझाने वाली प्रक्रिया की आज की युवा पीढ़ी तन्मयता के साथ अवलोकन करती है, तो प्रेरित होकर उनका रुझान क्षणिक या कभी-कभी तो स्थायी रूप में भी स्पेनिश गिटार की ओर हो जाता है। स्वाभाविक तौर पर ऐसा हवाइयन गिटार के साथ नहीं हो पाता है .. बस यूँ ही ...

मूल विषय

गुमनाम गाँगुली बनाम वादन की गायकी :-

अब ऐसी परिस्तिथि में हम में से अधिकांशतः, ख़ासकर जिनको संगीत में ख़ास रूचि नहीं है या फिर नयी पीढ़ी को भी तो निश्चित ही वर्तमान में उन गुमनाम हो चुके गाँगुली जी की जानकारी कैसे हो सकती है भला ? .. जो  "हवाइयन 'इलेक्ट्रिक' गिटार" के एक प्रसिद्ध व लोकप्रिय वादक रहे हैं और धरती से विदा होने के पूर्व कई सारी अभूतपूर्व उपलब्धियाँ अपने नाम कर गए हैं। 

सही मायने में अगर उनके लिए यह कहा जाए कि वह "एको अहं, द्वितीयो नास्ति, न भूतो न भविष्यति।" को चरितार्थ करने के एक प्रतिमान रहे हैं, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी .. शायद ...

दुर्भाग्यवश आज 'गूगल' पर औरों की तरह बहुत ज्यादा उनकी जानकारी भी उपलब्ध नहीं है और ना ही 'यूट्यूब' पर उनका कोई 'लाइव वीडियो' उपलब्ध है। परन्तु हमलोगों ने बचपन से लेकर इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भ होने तक वो दौर भी देखा है, जब किसी भी "संभ्रांत समाज" के किसी भी शुभ-सांस्कृतिक आयोजन के अवसर पर इनके द्वारा उस हवाइयन 'इलेक्ट्रिक' गिटार विशेष से किए गए "वादन की गायकी" से सराबोर हुए काले रंग वाले तत्कालीन तवानुमा 'रिकॉर्ड' किसी 'रिकॉर्ड प्लेयर' पर या उत्तरोत्तर काल में फीतानुमा 'कैसेटस्' किसी 'टेप रिकॉर्डर' में बजे बिना, बिना चीनी की चाय जैसा फीका लगता था वह आयोजन। ठीक वैसे ही जैसे किसी भी शादी या धार्मिक अनुष्ठान के मौके पर "उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ" साहब की "शहनाई" वाले 'रिकॉर्ड' या 'कैसेटस्' बजे बिना वो बेनूर लगते थे तब .. शायद ...

ध्वनि प्रदूषण नियमावली और डेसीबल :-

यहाँ यह स्पष्ट करना लाज़िमी है कि उपरोक्त कहे/लिखे गये "संभ्रांत समाज" से मेरा तात्पर्य किसी अमीर समाज से कतई नहीं है, बल्कि वैसे समाज से है, जो तब किसी निजी आयोजन या अनुष्ठान में सार्वजनिक तौर पर बड़े-बड़े चोंगों वाले "लाउडस्पीकरों" की जगह छोटे-छोटे "साउंड बॉक्स" का इस्तेमाल करते थे, जिसकी आवाज़ तुलनात्मक रूप से कर्कश ना हो कर अपनी मधुर ध्वनि-तरंगों से आसपास के भी मानव तन-मन को क्षुब्ध करने के बजाय आनन्दित कर जाता था .. शायद ...

आज वर्षों से स्वदेश में बने क़ानून- "पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम" के तहत "ध्वनि प्रदूषण (विनियमन एवं नियंत्रण) नियमावली" की धज्जियाँ उड़ाते हुए उस कर्कश लाउडस्पीकरों के चोंगों की जगह बड़े-बड़े कानफोड़ू 'डी जे एम्पलीफायरों' ने ले लिया है। जिनसे ध्वनि प्रदूषण की तयशुदा क़ानूनी सीमा- "पैंतालीस डेसीबल" से भी अत्यधिक "डेसीबल" वाली आवाज़ निकलती है। 

सर्वविदित है कि जैसे वजन और तापमान मापने की इकाई क्रमशः ग्राम और डिग्री है, वैसे ही ध्वनि के स्तर या प्रबलता को मापने की इकाई को "डेसिबल" कहा जाता है। 

आज बड़े-बड़े कानफोड़ू 'डी जे एम्पलीफायरों' का प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है, चाहे वो मौका किसी भी धर्म-सम्प्रदाय के लोगों के धार्मिक अनुष्ठान का हो, शादी-विवाह जैसे पारिवारिक-सामाजिक आयोजन का हो या फिर कोई राजनीतिक रैली या धार्मिक यात्रा का हो। 

फिर भी यह एक विडम्बना ही है कि हम सभी तथाकथित बुद्धिजीवी समाज के गणमान्य और प्रतिष्ठित नागरिक मूक-बधिर और सूर भी बने .. बापू के तीनों गणमान्य बन्दरों की तरह मूर्ति बने .. खड़े-खड़े "ध्वनि प्रदूषण (विनियमन एवं नियंत्रण) नियमावली" की धज्जियाँ उड़ते हुए भी अंजान तो बने ही रहते हैं। साथ ही यदाकदा इनमें शामिल भी रहते हैं।

और तो और .. 'सोशल मीडिया' या मंचों पर भी तो यही लोग अपनी शालीनता के साथ-साथ एक जिम्मेवार भारतीय नागरिक होने का छदम् प्रदर्शन करने में तनिक भी कोताही नहीं बरतते हैं .. शायद ...

परन्तु आज भी तब बेहतर महसूस होता है, जब वैसे "संभ्रांत समाज" में आयोजनों के मौके पर मधुर आवाज़ वाले 'साउंड बॉक्स' ही प्रायः बजते हुए हमें सुनने के लिए मिल जाते हैं .. शायद ...

वादन की गायकी :-

हालांकि बाँसुरी, माउथ ऑर्गन, सेक्सोफोन, हारमोनियम जैसे और भी कई सारे वाद्य यंत्रों से गाने की धुन तो बजायी जा सकती है या ये सारे किसी वाद्य वृंद के एक अंग हो सकते हैं, परन्तु केवल एक ही वाद्य यंत्र से एकल रूप में किसी गीत को बिना गाए ही स्पष्टता से प्रस्तुत करना ही "वादन की गायकी" कहलाती है। जिस "वादन की गायकी" वाली शैली का प्रचलन सबसे पहले अपने हवाइयन 'इलेक्ट्रिक' गिटार द्वारा आरम्भ करने वाले कलाकार थे - "सुनील गाँगुली" जी।

विस्तार में सुनील गाँगुली और उनकी उपलब्धियाँ :-

मूलतः त्रिपुरा में जन्में, पर बचपन से अभिभावक के साथ कलकत्ता (अब कोलकाता) में रहने और फिर कार्यक्षेत्र  होने के कारण ये बंगाल के वाद्यवादक कलाकार माने जाते रहे हैं। अपनी धन्य माँ की कोख़ के बाहर 1 जनवरी 1938 को परतंत्र भारत की धरती पर खुली हवा में साँस लेने से लेकर 12 जून 1999 को हवा में अंतिम साँस लेकर हवा में विलीन होने तक, स्वतन्त्र भारत में साठ के दशक से लेकर बीसवीं सदी के अंत तक गीत-संगीत जीने वाले जनमानस को अपनी "वादन की गायकी" से निरन्तर मुग्ध करते रहे थे .. शायद ...

रास्तों में आते-जाते, घर में काम करते हुए, चौक-चौराहों पर बजते हुए गीत-संगीतों को सुनना, उनमें से अपनी पसंद वाले पसंदीदा गीतों के मुखड़े भर को गुनगुना लेना, शादी-बारात के मौकों पर तथाकथित नागिन 'डांस' कर लेना एक अलग बात है और तन्मयता के साथ भाव-विभोर मन से गीत के मुखड़े के साथ-साथ हर अंतराओं को और संगीत में प्रयुक्त हरेक वाद्य यंत्रों के एक-एक धड़कन ('बीट') को महसूस करते हुए तरंगित होना, सिर से पाँव तक का थिरकाना, दोनों हाथों की हरेक उँगलियों को लयबद्ध हवा में लहराना या किसी आधार पर थपकाना एक अलग बात। 

उपरोक्त पहली अवस्था को ही "गाना सुनना" और दूसरी अवस्था को "गाना को जीना" कहना चाहिए .. शायद ... संगीत में प्रयुक्त हरेक वाद्य यंत्रों के एक-एक धड़कन ('बीट') को संगीत को जीने वाले ठीक-ठीक वैसे ही महसूस करते हैं, जैसे आलिंगनबद्ध प्रेमी-प्रेमिका की जोड़ी एक-दूसरे के हृदय-स्पन्दन की आवाज़ को और गीत-संगीत को केवल सुनने वाले मानो सामान्य हृदय-स्पन्दन की तरह महसूस कर पाते हैं, जो हर वक्त हमारे हृदय में होता तो है, पर हर पल महसूस नहीं होता .. शायद ...

फिर वही मेरी बतकही करते-करते विषय से भटक जाने वाली गंदी आदत .. क्षमा सहित .. फिर से सुनील गाँगुली जी .. वह अपनी "वादन की गायकी" वाली शैली के तहत तमाम "हिंदी फिल्मी गाने", चाहे लता मंगेशकर जी के दुर्लभ गाने हों या किशोर जी, मुकेश जी या फिर रफ़ी साहब के हों, तमाम "ग़ज़लें" - जगजीत सिंह , मेहदी हसन , गुलाम अली सभी की और श्यामल मित्रा, हेमन्त मुखर्जी के गाए "बंगाली फिल्मी गानों" के अलावा "रविन्द्र संगीत" (रवीन्द्रनाथ टैगोर की रचना), "नज़रुल गीति या नज़रुल संगीत" (कवि काज़ी नज़रुल इस्लाम की रचना) और "असमिया भाषा में बिहु गीतों" को "बजा / गा" कर लगभग चार-पाँच दशकों तक सभी संगीत-प्रेमियों को आह्लादित करते रहे। 

अपनी गत बतकही "इस अँधेरे से मैं डरता हूँ .. शायद ...  " की तरह हम पुनः अपनी बतकही का आशय दुहरा रहे हैं कि मानसिक रूप से विस्तृत सोचने वाले "बड़े और संभ्रांत" लोगों की किसी मौलिक आदिवासी समाज की तरह सोचें संकुचित नहीं होती, जो केवल अपने समाज में ही अपनी सभ्यता-संस्कृति, रहन-सहन और भाषा तक ही सीमित रह कर जीवन गुजार देते हैं। बल्कि वो तो इन संकुचित सोचों वाले जैसों से परे हर सभ्यता-संस्कृति, रहन-सहन और भाषाओं की क़द्र करना जानते हैं। उनकी अच्छी बातों को सहर्ष स्वीकार भी करते हैं। इस से उनकी अपनी संस्कृति और भी समृद्ध होती है, ना कि समाप्त .. शायद ...

सुनील गाँगुली जी ने एचएमवी इंडिया (अब सारेगामा इंडिया), कॉनकॉर्ड रिकॉर्ड्स और सागरिका कंपनी के 'बैनर' तले कई 'एल्बम' बनाए थे। शुरूआती दौर में "अखिल भारतीय युवा गिटार प्रतियोगिता" में भाग लेकर विजयी प्रतियोगी बने थे। तत्कालीन महानतम गायक व संगीतज्ञ उस्ताद बड़े गुलाम अली खान के सहयोग से आकाशवाणी ('ऑल इंडिया रेडियो') में प्रवेश पाकर इन्हें अपनी "वादन की गायकी" को देश भर में विस्तार देने का मौका मिला था। उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत के भी ज्ञाता होने के नाते उन्होंने 'इलेक्ट्रिक' हवाइयन गिटार पर शास्त्रीय राग पर आधारित धुनों और गतों को बजाने की भी एक अनूठी शैली विकसित की थी।

आकाशवाणी ('ऑल इंडिया रेडियो')-कलकत्ता और बॉम्बे (अब क्रमशः कोलकाता और मुम्बई) में, रेडियो सीलोन और दूरदर्शन के कई कार्यक्रमों में भी वह नियमित कलाकार रहे थे। समस्त भारत में उनके कई सार्वजनिक प्रदर्शन हुए थे, विशेषकर कलकत्ता, बॉम्बे, दिल्ली, लखनऊ, पटना, गुवाहाटी, अगरतला में। एक बार मुंबई में पूरी रात "वन-मैन शो' किए थे। 'आई आई टी', 'एन आई टी', क्षेत्रीय इंजीनियरिंग कॉलेजों जैसे उच्च शैक्षणिक संस्थानों में प्रायः होने वाले 'कॉलेज फेस्ट' में भी सफ़ल प्रदर्शन किए थे। उनके प्रदर्शन में किसी भी गायक-गायिका की तरह उनके साथ संगीतकारों का एक बड़ा समूह रहता था। रहता भी भला क्यों नहीं .. वह अपनी "वादन की गायकी" शैली में एक सफ़ल गायक / वादक तो थे ही ना .. और आज भी अपने 'इलेक्ट्रिक' हवाइयन गिटार से निकली "वादन की गायकी" वाली मधुर और मनमोहक आवाज़ की तरंगों पर तैरते हुए सुनील गाँगुली जी अमर हैं और रहेंगे भी .. बस यूँ ही ...

चलते-चलते .. आइए .. अंत में 'यूट्यूब' पर उपलब्ध उनकी कुछेक "वादन की गायकी" को सुनते हैं और उनकी प्रतिभा को नमन करते हैं .. बस यूँ ही ...



(उपरोक्त दोनों 'यूट्यूब' क्रमशः - @Sunil Ganguly, Guitarist. / @Saregama Bengali. के सौजन्य से।)