Thursday, July 20, 2023

पुंश्चली .. (२) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

पुंश्चली .. (१) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) के बाद अपने कथनानुसार एक सप्ताह बाद पुनः आज वृहष्पतिवार को प्रस्तुत है "पुंश्चली .. (२) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ... :-

अभी इधर मन्टू उस बातूनी भूरा को उसकी बातों में बेतुकापन होने की आशंका के आधार पर उसे चुप कराने के मक़सद से जैसे ही घुड़कता है, तभी उधर चाय की दुकान के सामने ही तथाकथित बड़े-बड़े ग्राहकों के लिए रखी गयी लकड़ी की बेंच पर बैठे मुहल्ले के ही दो पड़ोसी सज्जन पुरुष- सक्सेना जी और मेहता जी एक दूसरे पर लगभग चिल्लाने लगे हैं। 

चाय की दुकान में ग्राहकों के लिए ही रोज की तरह आये आज के अख़बार के अलग-अलग पन्ने दोनों भद्र (?) पुरुष अपने-अपने दोनों हाथों में पकड़ कर पढ़ते हुए और बीच-बीच में आपसी बहस के दौरान अपने-अपने आवेश के आवेग में अपने-अपने अख़बार वाले पन्ने को झटकते और हवा में लगभग लहरा कर फड़फड़ाते हुए एक दूसरे पर बारी-बारी से तार सप्तक में प्रतिक्रिया दे रहे हैं। मानो राष्ट्रीय स्तर के किसी भी टी वी न्यूज़ चैनल पर एक समाचार उद्घोषक के द्वारा सार्वजनिक सर्वेक्षण ('पब्लिक पोल') के आधार पर तय किए गये किसी वर्तमान ज्वलंत समस्या जैसे विषय पर दो-चार प्रतिभागियों के बीच बहस छिड़ी हुई हो या फिर लोक सभा या विधान सभा में सत्र के दौरान यदाकदा होने वाले जूतम-पैजार हो रहे हों। 

मेहता जी - "आप चाहे लाख बोलिए .. हल्ला कीजिए .. चिल्लाइये .. पर आपकी सरकार जो है ना ! .. एकदम से निकम्मी है। अब बतलाइए ना जरा .. भला ये भी कोई बात हुई कि कल तक तीस-चालीस रुपए प्रति किलो बिकने वाला टमाटर इन दिनों अचानक से सौ को भी पार कर गया है। आम पब्लिक क्या करे बेचारी ? भूखों मर जाए ? आयँ ?" 

"रसिक चाय दुकान" की दोनों ओर सजी बेंच के लगभग पास ही में फ़ुटपाथ पर अपनी घिसी हुई हवाई चप्पल की  जोड़ी पर अपने चूतड़ों की जोड़ी टिकाये रामचरितर रिक्शा वाला लगभग चुक्कु-मुक्कु बैठा दोनों साहिब लोगों की नोकझोंक सुन रहा है। साथ ही आजकल आम प्रचलन में उपलब्ध प्लास्टिक के परत वाले कागजी कप, जिसे पढ़े-लिखे लोग 'डिस्पोजेबल कप' कहते हुए सुने जाते हैं, में चाय भी सुरकता जा रहा है। उसकी चप्पलों के फ़ीते के लगभग हर छोर पर पास में ही उसी फ़ुटपाथ के एक छोर पर बैठने वाले रामखेलावन मोची से समय-समय पर चिप्पी लगी सिलाई सिलवा-सिलवा कर काम चलाने के लायक बनवाया गया जान पड़ रहा है, ताकि रिक्शे का पैडल रामचरितर के तलवे में ना गड़े। उसके पास ही लगभग पीढ़ा पर बैठने वाले अंदाज़ में दिहाड़ी पर मजदूरी करने वाला रामभुलावन भी वहीं पड़ी एक पुरानी ईंट पर बैठा चाय सुड़कने में रामचरितर का साथ दे रहा है। 

ये दो-चार ईंटें, जिनमें से एक पर अभी रामभुलावन बैठा हुआ है, दरअसल आज वृहष्पतिवार होने कारण बुद्धनवा नाई की फुटपाथी दुकान बंद है .. क्योंकि वृहष्पतिवार, मंगलवार और शनिवार को मुहल्ले के सब लोग एक अंधपरम्परा के तहत बाल-दाढ़ी नहीं बनवाते हैं। एक-दो युवा ग्राहक जो अंधपरम्पराओं में विश्वास नहीं रखते हैं, वही लोग इन तीन दिनों में आते हैं, तो ग्राहक कम होने के बावज़ूद कम से कम उस दिन की बुद्धनवा की खैनी और बीड़ी की व्यवस्था हो जाती है। साथ ही कभी-कभी रात के लिए चखना में एक दोना चना की झालदार घुँघनी और एक देसी 'पउआ' की भी जुगाड़ कर लेता है। घर-परिवार में कोई जरुरी काम रहने पर वह इन्हीं तीन दिनों में से एक दिन आवश्यकता के मुताबिक अपनी दुकान बंद कर लेता है। आज भी या तो उसकी घरवाली- रमरतिया को बुखार लगा होगा या उसकी तीन बेटियों और उन के बाद बहुत ही तथाकथित झाड़-फूंक के बाद पैदा हुआ उसका एकलौता दुलरुआ बेटा में से कोई एक बीमार हुआ होगा, जिनको ले कर वह सरकारी अस्पताल में पुर्जा कटवा कर 'आउटडोर' के आगे कतार में खड़ा होने की तैयारी कर रहा होगा इस समय .. शायद ...

नतीजन अपनी बिना दीवार-छत वाली फुटपाथी दुकान (?) में जिन ईंटों पर अपने ग्राहक को बैठा कर बुद्धनवा रोज बाल-दाढ़ी बनाता है, वो सारी ईंटें पिलखन के इस वृद्ध वृक्ष के जड़ के पास आज लावारिस पड़ी हुईं हैं। इसी पिलखन की छाँव तले रसिकवा की यह "रसिक चाय दुकान" भी वर्षों से बदस्तूर चल रही है। 

रामचरितर - "एकदम सही कह रहे हैं मालिक .. हम गरीब-गुरबा के तो जीना मुहाल हो गया है। इतना महँगा टमाटर तो हम सब आज तक नहीं खरीदे हैं।"

रामभुलावन - "हाँ मालिक .. हम सब के तो चौका-चूल्हा में अब टमाटर के आना ही बन्द हो गया है। जरूरत पड़े पर जीतनराम पंसारी के यहाँ से 'सौस' की एक-डेढ़ रुपया वाली एक-दो पुड़िया ('पाउच') ले के काम चला रहे हैं। जैसे-तैसे दिन काट रहे हैं हम सब।"

तभी सक्सेना जी और मेहता जी की मिलीजुली हलचल में मेहता जी का चाय वाला कुल्हड़ अपना संतुलन खो कर बेंच से लुढ़कते हुए शेष बची चाय सहित अभी-अभी ज़मींदोज़ हो गया है। 

दरअसल सामाजिक वर्गीकरण के तर्ज़ पर ही चाय की दुकान पर चाय पीने के बर्त्तनों के भी इन दिनों वर्गीकरण दिख ही जाते हैं। वही चाय कागजी कप में प्रायः दस रुपए के एक कप की दर से मिलती है, जिसे सामान्य वर्ग के लोग सुड़कते हैं और वही मिट्टी के कुल्हड़ में अपने-अपने स्थानानुसार पन्द्रह या बीस रुपए में मिल पाती है, जिसे तथाकथित बड़े लोग पीते हैं। यूँ तो कहीं-कहीं अभी भी काँच के गिलास में ही चाय बिकती है। 

दोनों पड़ोसी के चाय वाले कुल्हड़ उनके अख़बार पढ़ते और उनकी आपसी बहस करते वक्त उसी बेंच पर आसपास ही रखे हुए थे। शायद मेहता जी वाले कुल्हड़ की पेंदी को समतल करने में कुम्हार ने कुछ कोताही कर दी होगी, तभी तो ... मेहता जी अभी-अभी अपनी शहीद हुई चाय से ऊपजी खीज को लगभग छुपाते हुए एकदम से बिदक पड़ते हैं।

मेहता जी - "भगवान करे आपकी सरकार भी मेरे चाय वाले कुल्हड़ की तरह ही गिर जाए।" अख़बार बेंच पर रख कर दोनों हाथ ऊपर आसमान की तरफ करके - "हे भोले नाथ, हे कालों के काल, महाकाल .. गिरा दिजिए इस सरकार को। टमाटर को इतना महँगा कर दी है ये सरकार कि .. क्या कहें आप से भगवान जी ! .. अब पाप का घड़ा भर के दिल्ली के बाढ़ जैसा लबालब हो गया है। अब इन सब का लबर-लबर बहुत हो गया। हमारे कुल्हड़ की तरह ही इन सब का भी घड़ा फोड़ दिजिए राम जी।"

सक्सेना जी - "आप पढ़े-लिखे मानते हैं ना अपने आप को ? हाई स्कूल में सरकारी टीचर हैं। भले ही आरक्षण कोटा में आपको नौकरी मिली है, पर कुछ तो पढ़े होंगे ? .. तभी ना बच्चों को पढ़ाते हैं। आपके दिमाग़ में भी इन सब (पास बैठे रिक्शावाला रामचरितर और ईंट-गिट्टी-बालू ढोने वाले मजदूर रामभुलावन की ओर निशाना साधते हुए) के जैसा भूसा भरा हुआ है क्या जी ?" - अपने कुल्हड़ में शेष बची चाय के आख़िरी घूँट को लगभग मेहता जी को चिढ़ाते हुए जोर से सुड़कने की आवाज़ निकाल कर - "अहा ! मन तृप्त हो गया रसिकवा की चाय पी के सुबह-सुबह .. अजी मेहता जी .. अब इस बरसात के मौसम में .. वो भी आपदा की हद तक वाली बरसात के कारण फ़सलों की जो बर्बादी हुई है, तो क़ीमत तो बढ़ेगी ही ना ? क्यों ? इकोनॉमिक्स में नहीं पढ़े थे क्या जी कि माँग की तुलना में आपूर्ति अचानक घट जाने पर क़ीमत बढ़ जाती है तथा किसी भी सामग्री की माँग से ज्यादा आपूर्ति होने पर बाज़ार में क़ीमत घट भी जाती है।"

मेहता जी - "ज्यादा समझाइए मत हमको। जब ना तब .. अपना कुतर्क लेके आ जाते हैं।"

सक्सेना जी - "हमको तो लगता है कि आप चोरी कर के पास किए हैं जी या .. मास्टर को घूस दे के।"

मेहता जी - "कुछ ज्यादा नहीं बक रहे हैं आप भोरे-भोरे ? .. आयँ !.. "

सक्सेना जी - "और नहीं तो क्या .. अब टमाटर को भी सरकार आलू की तरह 'कोल्डस्टोरेज' में जमा कर के रखवा दे क्या ? या उसकी कुछ फैक्टरियाँ लगवा दे या फिर टमाटर के लिए भी 'सब्सिडी' की घोषणा कर दे सरकार ? बतलाइए !?"

मेहता जी और सक्सेना जी की बहस का विषय टमाटर और महँगे हुए टमाटर के बदले रामभुलावन की 'सौस' की पुड़िया इस्तेमाल करने वाली 'आईडिया' जैसी बातें सुन-सुन कर भूरा और चाँद को भी अपनी 'केचप' की फ़ैक्ट्री वाली अधूरी बात छेड़ने की तलब लग गयी। मन्टू के घुड़कने के बावज़ूद चाँद अपनी बुद्धिमता का प्रदर्शन करने के लिए बात छेड़ते हुए टपक पड़ा।

चाँद - "ओ ~~~ बी ब्लॉक वाले 213 नम्बर में 'केचप' की फैक्ट्री चालू होने से तेरा मतलब है ... "

अभी चाँद अपना वाक्य पूरा कर पाता, उससे पहले ही मुहल्ले के इस चौक वाले क्षेत्र में नगर निगम की ओर से रोजाना सुबह-सुबह सफ़ाई करने वाली परबतिया बीच में टपक पड़ती है। जो थोड़ी दूरी पर ही किसी घर से मिली बासी रोटी को बाज़ारों में बिकने वाले विभिन्न प्रकार के 'रॉल' की तरह लपेटे हुए चाय में बोर-बोर कर खा रही है। इनको कहीं सफाईकर्मी तो कहीं पर्यावरण मित्र भी कहते हैं, परन्तु आम लोग झाड़ू देने वाली या कचरे वाली कहते हुए ही सुने जाते हैं। पर परबतिया के अच्छे व्यवहार और मधुर स्वभाव के कारण मुहल्ले भर में लोग उसे नाम से जानते और बुलाते हैं। कुछ लोग तो पबतिया दीदी, पबतिया बुआ या मौसी भी बुलाते हैं। बहरहाल वह चाँद के मुँह से निकले फ़ैक्ट्री चालू होने वाले वाक्य को सुनकर ही उनके बीच में कुछ बोलने और उनसे कुछ पूछने के लिए मज़बूर हो गयी है।

परबतिया - "भईया ! फ़ैक्ट्री में अभी भी भर्ती हो रही है क्या ?"

मन्टू - "क्यों ? आपकी तो नगर निगम की नौकरी है ही ना ?"

परबतिया - "सो तो है भईया .. पर अभी तक हमको 'गौमेन्ट' (सरकार-Government) की तरफ से 'पर्मामेंट' (स्थायी-Permanent) नहीं किया गया है ना .. तअ (तो) रोज पर हाज़िरी बनता है। कम पइसा (पैसा) में बड़ी मुश्किल से घर-परिवार ...  हम सोचे कि फैक्ट्री में नौकरी लग जाने से कुछ अलग से कमाई हो जाती तो ..."

बीच में ही मन्टू परबतिया की बात को काटते हुए उसे सच्चाई बतलाने के लिए समझाता है।

मन्टू - "परबतिया दीदी .. आप भी कहाँ इन दोनों बातूनियों की बात को पकड़े बैठीं हैं ? अरे ये भूरा और चाँद .. दोनों मिलकर ऐसे ही सुबह-सुबह मसखरी करते रहते हैं। यहाँ मुहल्ला में तो फ़ैक्ट्री खुल ही नहीं सकती ना ..."

परबतिया -"धत् तेरी की .. सुबह-सुबह हम बेवकूफ़ बन गये भईया ..."

【 शेष .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. () .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】




Monday, July 17, 2023

हरेला ...

सावन माह वाले अमावस्या के दिन "हरेला" नामक सांस्कृतिक विरासत वाला एक पारम्परिक लोकपर्व उत्तराखंड में मनाया जाता है। यही पर्व हिमाचल प्रदेश में भी "हरियाली" के नाम से और छत्तीसगढ़ में "हरेली" के नाम से मनाया जाता है। इस वर्ष 2023 में यह पर्व आज यानि 17 जुलाई को है। उत्तराखंड में इस लोकपर्व के अवसर पर राज्य सरकार द्वारा 2021 से राजकीय अवकाश घोषित किया जा चुका है।

दरअसल पारम्परिक मान्यता के अनुसार इस पर्व को मनाने के लिए लोगों द्वारा किसी थालीनुमा पात्र या टोकरी में मिट्टी डालकर गेहूँ, जौ, धान, गहत, भट्ट, उड़द, सरसों आदि पाँच-सात प्रकार के बीजों को बो दिया जाता है। फिर लोग नौ दिनों तक इस पात्र में रोज सुबह पानी का छिड़काव करते रहते हैं। दसवें दिन इन बीजों से निकले पौधों को काटा जाता है। चार-छः इंच लम्बे इन पौधों को ही "हरेला" कहा जाता है, जिन्हें आस्थाजनित बहुत आदर के साथ घर-परिवार के सभी सदस्य अपने सिर पर रखते हैं। "हरेला" घर में सुख-समृद्धि के प्रतीक के रूप में बोया व काटा जाता है। एक लोक मान्यता है कि हरेला जितना बड़ा होगा, उतनी ही बढ़िया भावी फसल होगी। साथ ही लोग तथाकथित भगवान से अच्छी फसल होने की कामना भी करते हैं।

यूँ तो साल में तीन बार "हरेला" मनाने की परम्परा है। एक तो चैत माह में, जिसमें माह के प्रथम दिन बीज बोया जाता है और नवमी के दिन काटा जाता है। दूसरा सावन यानि श्रावण माह में, जिसके तहत सावन माह शुरू होने से नौ दिन पहले आषाढ़ में बोया जाता है और दस दिन बाद सावन के प्रथम दिन काटा जाता है। तीसरा आश्विन माह में, जिनमें नवरात्र के पहले दिन बीज बोया जाता है और दशहरा यानि दशमी के दिन काट लिया जाता है। 

आस्तिक कर्मकांडी घटनाओं से जुड़ी बचपन की कुछ यादों के अनुसार बिहार-झाड़खण्ड में भी आश्विन माह वाले नवरात्र के पहले दिन तथाकथित कलश स्थापना के तहत उस कलश यानि मिट्टी के घड़े के चारों ओर कच्ची मिट्टी में जौ बोया जाता था और दशहरा के दिन उन दस दिनों में पनपे कोमल पौधों को  काटा जाता था, जिसको पूजा कराने वाले 'पंडी जी' यानि ब्राह्मण द्वारा घर के सभी सदस्यों को कान पर रखने के लिए दिया जाता था और आज भी पारंपरिक तरीके से ऐसा किया जाता है। 

पर उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश में सावन माह वाला "हरेला" विशेष रूप से मनाया जाता है। यह लोकपर्व भी संक्रान्ति के तरह ही कृषि से सम्बन्धित पर्व है, जो साल भर में कई बार और कई राज्यों में अलग-अलग नाम से और अपनी-अपनी लोक आस्था के अनुसार पारम्परिक ढंग से मनाया जाता है।

परन्तु आधुनिक दौर में इसका स्वरुप परिवर्तित होकर इस दिन सांस्कृतिक आयोजन के साथ-साथ लोगबाग अपने परिवेश में किसी भी फल देने वाले या छाया प्रदान करने वाले या फिर औषधीय गुणों वाले बहुउपयोगी भावी वृक्षों के छोटे स्वरूप में पौधों का रोपण करते हैं। इनमें से कई लोग तो केवल 'सोशल मीडिया' या 'मीडिया' में स्वयं की औचित्यहीन क्षणिक लोकप्रियता हेतु 'सेल्फ़ी' लेने के लिए ऐसा करते हैं और बाद में उन पौधों की सुध लेने वाला कोई भी नहीं होता है। पर सभी ऐसे नहीं होते हैं .. शायद ... 

इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात है उन पौधों का संरक्षण। हर वर्ष मनाए जाने वाले "हरेला" जैसे लोकपर्व के अवसर और विश्वस्तरीय "विश्व पर्यावरण दिवस" पर लगाए जाने वाले पौधों को अगर सही-सही संरक्षण मिलता रहता तो अब तक सही मायने में हमारी धरा लगभग हरी-भरी हो जाती .. शायद ...

संयोगवश नौकरी के सिलसिले में गत वर्ष से उत्तराखंड की अस्थायी राजधानी देहरादून में रहने के फलस्वरूप यहाँ के "धाद" नामक एक सामाजिक संस्थान द्वारा "हरेला" की पूर्व संध्या पर शहर के गाँधी पार्क के मुख्य द्वार के पास आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम और यहाँ से घन्टाघर होते हुए कनॉट प्लेस तक की जनयात्रा में शामिल होने का मौका कल रविवार को शाम में मिला। उस सांस्कृतिक कार्यक्रम और जनयात्रा के बारे में विस्तार से कुछ ना कह कर, हम उस दौरान आदतन ली गयी कुछ तस्वीरों और वीडियो को यहाँ जस का तस साझा कर रहे हैं .. बस यूँ ही ...

जाते-जाते "हरेला" की औपचारिक शुभकामनाओं के साथ-साथ पुनः हम अपनी बात दोहराना चाहते हैं कि हम "दिवस" के हदों में "दिनचर्या" को क़ैद करने की भूल करते ही जा रहे हैं। नयी युवा पीढ़ी के समक्ष हम बारम्बार "दिनचर्या" की जगह "दिवस" को ही महत्वपूर्ण साबित करने की भूल करते जा रहे हैं। साथ ही हम सभी मिलकर पर्यावरण का मतलब पेड़-पौधों तक ही सीमित कर के पर्यावरण के विस्तृत अर्थ को कुंद करते जा रहे हैं। जबकि पर्यावरण के तहत हमारे आसपास मौजूद समस्त प्राणियों और समस्त प्राकृतिक सम्पदाओं का संरक्षण और संवर्धन ही सही मायने में "हरेला" है .. शायद ...

आइये .. हम सब मिलकर पेड़-पौधों की गुहार को  एक नारा के रूप में दुहराते हैं .. बस यूँ ही ...

हम पेड़-पौधों को सदा संरक्षित और संवर्धित कीजिए।

पर्यावरण के लिए अपनी जनसंख्या नियंत्रित कीजिए।























Thursday, July 13, 2023

पुंश्चली .. (१) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

कई दिनों से आसपास के कुछ जाने, कुछ अंजाने से, कुछ वास्तविक, तो कुछ काल्पनिक .. कई पात्रों की एक टोली मिलजुल कर हमारे मन की देगची में खिचड़ी पकाने का प्रयत्न कर रही थी। अभी तक तो आज उस खिचड़ी की देगची से पहला निवाला ही परोसने का प्रयास भर है। प्रत्येक वृहष्पतिवार को अगला निवाला परोसने का भरसक प्रयास रहेगा हमारा .. शायद ...

अभी तय नहीं कर पाये हैं या कर पा रहें हैं कि यह साप्ताहिक धारावाहिक निकट भविष्य में कहानी की शक्ल में ढल पाएगा या उपन्यास के रूप में। ख़ैर ! .. जो भी हो .. आभासी मनोरंजन का दावा तो नहीं, पर तथ्यों का वादा है हमारा .. बस यूँ ही ...

"पुंश्चली (साप्ताहिक धारावाहिक)" के पहले निवाले परोसने के पूर्व साहित्य और संगीत के लिए अपनी विचारधारा वाली बतकही का एक पत्तल भर बिछा रहे हैं, जिसको भी कई दिनों से कहीं बुन कर रखा हुआ था। हो सकता है आज के लिए ही .. शायद ...


तो पहले विचारधारा वाली बतकही ..


यवनिका

हटे जब कभी भी 

रंगमंच की यवनिका,

मंच पर हों अवतरित 

कोई नायक या नायिका

या हों फिर तान-आलाप, 

मुर्कियाँ गाते गायक-गायिका,

या फिर उठाए हाथ कोई 

रंगों की थाली और एक तूलिका

और सामने बैठी हो चाहे 

मनोरंजन पिपासु भीड़, 

भरी हो वीथिका।

रंगमंच हों या सुरीले गीत कोई 

या फिर चित्र पटल कोई,

भले ही हों, ना हों इन सब में 

वर्णित कोई सारिका, अभिसारिका,

पर दिखनी चाहिए इनमें झलक

अपने इस समाज की विभीषिका .. बस यूँ ही ...


अब ... 

पुंश्चली .. (१) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) ...

"अपने बी ब्लॉक वाले 213 नम्बर में कल से केचप फ़ैक्ट्री शुरू हो गयी है रे .. एकदम मस्त .." - भूरा अपनी मित्रमंडली में अपना ज्ञान बघार रहा है। भूरा .. जो अपनी ड्यूटी के वक्त घर-घर से कचरा उठाने वाली नगर निगम की बड़ी गाड़ी में तय किए हुए अनेक मुहल्लों भर से कचरे इकठ्ठे करने के क्रम में गाड़ी के पिछले हिस्से में खड़ा-खड़ा हर घर वालों से कचरे की थैली या डब्बा लेकर लगे हाथ गाड़ी में ही कचरे को फैला कर सरकार द्वारा तय मापदण्ड के आधार पर गीले और सूखे कूड़ों को तीव्र गति से अलग-अलग करता जाता है।

यूँ तो जाति-धर्म और आर्थिक परिस्थितियों के आधार पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बँटे हुए अपने वर्गीकृत समाज की तरह ही सरकार ने कचरे के यथोचित निष्पादन के लिए कूड़ेदान को भी दो वर्गों में बाँट रखा है। परन्तु मानव समाज अपने शारीरिक ढाँचा में उपस्थित निष्क्रिय 'एपेण्डिक्स' की तरह ही हमारे समाज में बने अधिकांश क़ायदे-क़ानून को निष्क्रिय रखने में ही प्रायः दक्ष दिखता है, जिन वजहों से हम सभी की अंतरात्मा भी हमारे 'एपेण्डिक्स' की तरह ही निष्क्रिय बन चुकी है .. शायद ...

"तू पागल हो गया है क्या बे ? किसी रेजिडेंशियल एरिया में कोई फैक्ट्री भी लगा सकता है क्या ? तेरा दिमाग़ फिर गया है क्या ? या फिर जरूर तेरे बात का हर बार की तरह कोई ना कोई ऊटपटाँग मतलब होगा .." - मन्टू ने भूरा की बात पर आपत्ति जतायी। मन्टू .. जो रेलवे स्टेशन से सरकारी बस अड्डे वाली रुट में बिजली से चलने वाली ई रिक्शा यानि हवा हवाई या टोटो गाड़ी चला कर अपना जीवकोपार्जन करता है। कभी कभार लोकल में ही रिजर्व सवारी ले कर भी चला जाता है। मुहल्ले के कई सारे लोग और बाहर के भी कई लोगों ने उसके फ़ोन नम्बर सेव कर रखे हैं। जो लोग उसकी हवा हवाई में एक बार सवारी कर लेते हैं, वो लोग उसकी बातों, कई विषयों के लिए उसके सटीक तर्कों और उसके द्वारा वसूले गए उचित भाड़े के भी क़ायल हो जाते हैं। साथ ही यात्रा के दौरान उसकी हवा हवाई में मधुर आवाज़ों में बजने वाली एफ एम् या फिर रूमानी फ़िल्मी गानों के भी मुरीद हो जाते हैं। परिणामस्वरूप भविष्य की किसी भी तयशुदा या आकस्मिक लोकल यात्रा के लिए उस से मोबाइल नम्बर लेकर प्रायः अपने मोबाइल के कॉन्टेक्ट लिस्ट में सेव कर लेते हैं। और ऐसा हो भी क्यों नहीं, जब टैक्सी या टेम्पू की तुलना में कम दूरी तक जाने-आने के लिए इसका किराया किफ़ायती भी लगता हो, किसी भी मध्यम या निम्न-मध्यम वर्ग के लोगों को।

"बता बे तू क्या बक रहा है सुबह-सुबह ? तू बहुत कोड वर्ड में बात करता है। बिना वजह सब को परेशान करता रहता है .." - चाँद ने मन्टू की तरफ़दारी लेते हुए भूरा को मुस्कुराते हुए झिड़का। चाँद .. जो भाड़े पर टैक्सी चलाता है। उसकी कार में ज्यादातर "ओला" द्वारा बुकिंग के तहत तथाकथित बड़े-बड़े साहब और मैम साहब जैसे लोगों की सवारी चलती हैं।

शहर में किसी मिली जुली आबादी वाले एक मुहल्ले में चौक के एक तरफ फुटपाथ पर अवस्थित "रसिक चाय दुकान" के इर्द-गिर्द रोज की तरह हर उम्र और हर वर्ग के लोगों का जमावड़ा लगा हुआ है। इन्हीं जमावड़े में से तीन लोगों- भूरा, मन्टू और चाँद की भी रोज की तरह अपने-अपने काम पर जाने से पहले यहाँ की चाय और कभी-कभार एक-दो नमकीन बिस्कुट के साथ दिन की शुरुआत होती है। तीनों आपस में अपने-अपने धंधे-पेशे से मिलने वाले बीते दिन वाले दिन भर के अनुभवों को एक दूसरे से साझा करते हैं।

यूँ तो यह चाय की दुकान प्रतिदिन सुबह छः बजे से शाम सात बजे तक दिन भर ही खुली रहती है। पर यहाँ सुबह और शाम के वक्त दो-तीन घन्टे कुछ ज्यादा ही चिल्ल-पों मची रहती है। अभी भी सुबह के लगभग साढ़े छः बज रहे हैं। रोज की तरह सुबह-सुबह वाली चिल्ल-पों मची हुई है।

इस चाय की दुकान के लगभग पास में ही नगर निगम वालों का एक बड़ा-सा कूड़ेदान रखा हुआ है। या यूँ कहें कि इसी कूड़ेदान की ओट में ये चाय की दुकान टिकी हुई है। बस .. एवज़ में रसिक चाय वाले को हर सप्ताह किसी ख़ाकीधारी के जेब तक कुछ नीले-पीले रंगों में रंगे सदैव मुस्कुराते रहने वाले एक खादीधारी विशेष को सुलाना होता है। 

आसपास के मुहल्ले वाले जो नगर निगम की आने वाली गाड़ी के समय अपने-अपने घर पर उपलब्ध नहीं रहते हैं, बल्कि काम-धंधे की वजह से घर से सुबह ही निकल जाते हैं और अपने-अपने निजी कारणों से परिस्थितिवश घर में अकेले ही रहते हैं, तो वो लोग काम-धंधे पर जाते हुए इसी कूड़ेदान में अपने-अपने घर के कचरों को डाल जाते हैं और सुबह-दोपहर में नगर निगम वाली गाड़ी प्रसून जोशी द्वारा लिखी रचना, जिसे विशाल खुराना के संगीत निर्देशन में कैलाश खेर की पुरुषत्व भरी आवाज़ से गीत का शक़्ल दिया गया है, को बजाते हुए .. "स्वच्छ भारत का इरादा, इरादा कर लिया हमने, देश से अपने ये वादा, ये वादा कर लिया हमने" - आकर उन कचरों को समेट कर ले जाती है, ताकि अपना स्वदेशी "स्वच्छ भारत अभियान" सफल बना रहे .. बस यूँ ही ...

परन्तु कई लोग हड़बड़ी में या बस यूँ ही अपने घर के कचरे को कूड़ेदान के बजाय उसी के इर्दगिर्द ही, कूड़ेदान के बाहर भी फेंक कर "स्वच्छ भारत अभियान" को निष्क्रिय करने में तनिक भी नहीं हिचकते हैं।

भूरा अपने अंदाज़ में हर बार की तरह ठठाकर कर हँसता हुआ - "अबे 213 नम्बर वाली भाभी का ना ... "

"चुप हो जा स्साले .. सुबह-सुबह फिर तेरी कोई गन्दी बातें होंगी .. " - मन्टू जोर से भूरा को घुड़क रहा है .. बस यूँ ही ...


शेष .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (२) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ...




Tuesday, July 11, 2023

बूँदों की रेलगाड़ी ...

आरोही या अवरोही बंधे,

तल्लों वाले कदानुसार

ऊँचे-नीचे मकानों से,

'इंटरनेट' या 'डिश केबल' के 

मोटे-पतले आबनूसी तारें 

बरास्ते बिजली के खम्भों के ;

हों मानो शिव मन्दिर के कँगूरे से 

पार्वती मन्दिर के कँगूरे तक,

अवरोह लाल रज्जु तने हुए

"गठजोड़वा अनुष्ठान" वाले,

प्राँगण में "वैद्यनाथ मन्दिर" के .. शायद ...


वशीभूत हो गुरुत्वाकर्षणिय ऊर्जा के ...

उन्हीं तारों पर 'इंटरनेट' 

या 'डिश केबल' के,

कभी तड़के मुँह अँधेरे,

कभी भरी दुपहरी में,

तो कभी शाम के धुँधलके में भी,

पटरियों पर गुजरती किसी रेल-सी,

अक़्सर गुजरती हुई सावन में

बारिश की बूँदों की रेलगाड़ी 

निहारता हूँ अपलक जब-तब

अवकाश के आलिंगन में .. बस यूँ ही ...



                             बूँदों की रेलगाड़ी


बूँदों की रेलगाड़ी





Thursday, July 6, 2023

बा बा नहीं, चुन चुन .. बस यूँ ही ...

आज की बतकही की शुरूआत करने से पहले प्रसंगवश अपने जन्म से भी पहले की और स्वदेश को अंग्रेजों से स्वतन्त्र होने के लगभग दस वर्षों बाद की, 1957 के दौर में बनने वाली श्वेत-श्याम फ़िल्मों में से एक फ़िल्म- "अब दिल्ली दूर नहीं " के एक बालगीत- "चुन चुन करती आई चिड़िया, दाल का दाना लाई चिड़िया" 👇 को पूरी तन्मयता से सुनने का कष्ट कर लेते हैं .. बस यूँ ही ... 

 
                            बालगीत का मूल रूप

कहते हैं कि इस बालगीत के निर्माण में हसरत जयपुरी जी की रचना, गोवा के रहने वाले तत्कालीन संगीतकार- दत्ताराम वाडकर जी के संगीत और मुहम्मद रफ़ी जी की आवाज़ का सम्मिश्रण है। सम्भवतः हम सभी ने ये गीत अभी से पहले भी कभी ना कभी या कई-कई बार भी सुना-देखा होगा ही .. शायद ...

आजकल सम्भवतः भले ही वर्तमान पीढ़ी उस मूल बालगीत को भूलकर उस की विभिन्न अनुप्राणन ('एनीमेशन') रूप में बनी नक़लों ('पैरोडी') को देखने-सुनने तक ही सीमित हो गयी हो, जिन्हें 'राइम्स' नाम का चोला पहना कर धड़ल्ले से 'सोशल मीडिया' में प्रस्तुत किया जा रहा है और देखा-सुना जा रहा है। जिनके 'यूट्यूब' और 'सीडी' पर दुर्भाग्यवश कहीं भी हसरत जयपुरी जी की मूल रचना होने का उल्लेख नहीं मिलता है। परन्तु हमें एक सामान्य पर जिम्मेदार नागरिक होने के नाते या फिर एक रचनाकार होने के नाते भी उन ख्यातिप्राप्त तत्कालीन रचनाकार के सम्मान में कम से कम मूल बालगीत की सत्यता से स्वयं भी और नयी पीढ़ी को भी अवगत करवानी ही चाहिए .. शायद ...

वर्ना तथाकथित भक्तों के मानसपटल पर या उनके घर की दीवारों पर टँगने वाली तथाकथित राम जी की जो छवि कभी दादा साहब फाल्के जी द्वारा 1917 में बनी मूक श्वेत-श्याम फ़िल्म- "लंका दहन" के अभिनेता "अन्ना सालुंके" जी से प्रेरित होती थी, वो वर्षों बाद परिवर्तित होकर रामानंद सागर जी की 'टी वी सीरियल'- "रामायण" के "अरुण गोविल" से प्रेरित हो गयी और सम्भवतः भविष्य में ना जाने कब ओम राउत की फ़िल्म- "आदिपुरुष" के "प्रभास" से प्रेरित हो जाए .. शायद ...                       अगर ऐसा क्रमवार घटित होता है तो यह अज्ञान लोगों की अज्ञानता से कहीं ज्यादा बुद्धिजीवियों की निष्क्रियता का परिणाम ही मानना चाहिए .. ख़ासकर वैसे बुद्धिजीवी जिनका प्रायः ख़राब मौसम के कारण फ़सल को हुए नुक़सान के फलस्वरूप टमाटर-प्याज़ की मूल्य-वृद्वि के लिए सत्तारूढ़ दल पर दोष मढ़ने में ध्यान ज्यादा रहता है .. शायद ...

  

  तथाकथित 'राइम' एक अनुप्राणन ('एनीमेशन') रूप में 

प्रसंगवश पुरखों द्वारा अभिभावकों को हस्तांतरित जानकारी से बचपन में मिली एक विशेष जानकारी की चर्चा किए बिना अभी रहा नहीं जा रहा कि उस मूक फ़िल्म- "लंका दहन" में राम और सीता दोनों पात्रों का अभिनय एक ही अभिनेता- "अन्ना सालुंके" जी ने ही निभाया था। उन दिनों महिला पात्रों का अभिनय भी प्रायः पुरुष ही करते थे। कमोबेश उसी दौर में बिहार के शेक्सपीयर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर जी भी इसके ज्वलंत प्रमाण रहे हैं। इससे यह पल्ले पड़ता है कि उस दौर में केवल बिहार जैसे राज्यों में ही नहीं, बल्कि तत्कालीन बम्बई जैसी शहरी संस्कृति में भी महिला कलाकारों की कमी थी। 

यूँ तो .. तब की ही क्यों कहें .. आज भी तो अपने इर्द-गिर्द कई पढ़े-लिखे समाज में भी नाटकों या फिल्मों में काम करना और नृत्य या गायन का अभ्यास करना, महिलाएँ तो महिलाएँ, पुरुषों के लिए भी इन्हें वर्जनाओं की सूची में समाहित किया हुआ है .. शायद ...

ख़ैर ! ... प्रसंगवश बतकही करते-करते हम विषय से हट गए .. हम हसरत जयपुरी जी के लिखे बालगीत- "चुन चुन करती आई चिड़िया, दाल का दाना लाई चिड़िया" की चर्चा कर रहे थे .. यह बालगीत किसी भी बालमन में पर्यावरण को गढ़ने वाले अपने परिवेश में उपस्थित कई प्रकार के जीव-जन्तुओं के प्रति कोमल और सम्वेदनशील भावनाएँ रोपने के लिए एक सर्वोत्तम साधन तब भी रहा होगा और आज भी है .. शायद ...              कम से कम उस अंग्रेजी वाली तथाकथित 'राइम'- "बा बा ब्लैक शीप, हैव यू एनी वूल" से तो कई गुणा बेहतर और संदेशपरक है, जिस 'राइम' को हम अपनी गर्दन में किसी अदृश्य 'स्टार्च' वाली अकड़ के साथ अपने अतिथियों और सम्बन्धियों के समक्ष अपने घर के नौनिहालों से उनकी तुतली बोली में  बोलवाने में प्रायः स्वयं को सफल और गौरवान्वित महसूस करते हैं .. शायद ...

यूँ तो दिवसों के दौर में प्रायः तथाकथित "विश्व पर्यावरण दिवस" के दिन अधिकांशतः हम 'सेल्फ़ी सिंड्रोम' वाले लोग अपने हाथों में पेड़ या पौधे पकड़ के उसे जमीन में रोपने का उपकर्म करते हुए अपना चेहरा कैमरे की तरफ उचकाए हुए वाली अपनी तस्वीरें 'सोशल मीडिया' पर चिपका कर अपने जागरूक नागरिक होने का प्रमाण देने की इतिश्री मान लेते हैं .. उसके बाद हम सारे अपनी 'पोस्टों' को सींचने वाली 'कमेंट्स' और 'लाइक्स' की गिनती में व्यस्त हो जाते हैं और उस दिन के बाद उन सारे औपचारिक पौधे रोपण वाले पौधों को भविष्य के लिए सहेजने वाले कुछेक लोग ही सजग दिखते हैं .. शायद ...

यूँ भी पर्यावरण का सर्वविदित शाब्दिक अर्थ तो है- हमारे "चारों ओर से घेरे हुए आवरण" ... तो हमारे आसपास के पेड़-पौधों के साथ-साथ समस्त पशु-पक्षी, नदी-तालाब, हवा-पानी भी मिलकर हमारे पर्यावरण को गढ़ते हैं। फिर हम बुद्धिजीवी लोग क्यों भला अपनी भावी पीढ़ी को पर्यावरण संरक्षित करने के नाम पर केवल औपचारिक वृक्षरोपण वाली 'सेल्फ़ी' से गुमराह करने की भूल करते हैं। उन्हें तो आसपास के पेड़-पौधों के संरक्षण के साथ-साथ उन्मुक्त पशु-पक्षियों से भी प्रेम करना, उनके भरण-पोषण में चाव रखना, उनकी दिनचर्या से लगाव रखना सिखाना चाहिए .. शायद ... 
अगर हम समस्त पर्यावरण को ही परिवार मान लें तो अपनी धरती ही तथाकथित स्वर्ग में परिवर्तित हो जा सकती है .. बस यूँ ही ...
पर्यावरण को तो प्रतिदिन ही संरक्षित और संवर्द्धित करना ही हमारी पूजा होनी चाहिए, फिर दिवस का क्या औचित्य रह पाएगा भला ...
कल्पना किजिए कि आँख खुलते ही सुबह-सवेरे आपके आसपास, आपकी छत-बालकॉनी या फिर स्वयं के या पड़ोस के पेड़ों पर तोते, गौरैये, कबूतर, पंडुक या अन्य पक्षी अपनी मधुर आवाज़ की सरगम आपकी कर्ण पटल पर छेड़ें और बीच-बीच में गिलहरियाँ भी अपनी तान के रस घोलते हुए अपने अगले दोनों पँजों से मूँगफली के दाने कुतरती हुई मुलुर-मुलुर आपको निहारें तो आपकी सुबह कितनी न्यारी हो जाएगी .. नहीं क्या ? 🙂

अगर हमारा अपना घर है और हम कुछ सौ-हजार हर माह ख़र्च करने में सक्षम हैं तो हमें अपने आसपास के उन्मुक्त पशु-पक्षियों का ख़्याल रखना चाहिए। उनके लिए कुछ उपलब्ध बर्तनों में अनाज-पानी अपनी खुली छत, बालकॉनी या मुख्यद्वार के बाहर नित्य प्रतिदिन रखनी चाहिए। मसलन- कबूतरों या पंडूकों (उत्तराखंड में इसे घुघूती या घुघुती कहा जाता है) के लिए बाज़रे या गेहूँ, गौरैयों के लिए टूटे चावल (खुद्दी), तोतों के लिए पानी में फूले हुए चने या साबूत मूँग, गिलहरियों के लिए मूँगफली के दाने, गली के कुत्तों के लिए दूध-रोटी और इन सभी के लिए सालों भर पीने के पानी अपने पास उपलब्ध बर्तनों में परोसा जा सकता है। साथ ही घर में कटी सब्जियों या फलों के अनुपयोगी अवशेषों को कचरे के डिब्बे में ना डाल कर आसपास में किसी द्वारा पाले गए गाय-भैंसों या बकरियों को या फिर किसी उपलब्ध गौशाले में दे देना चाहिए। परन्तु इस तरह के कृत्यों को करते हुए हमको किसी भी तथाकथित पाप-पुण्य या मोक्ष की कामना तनिक भी मन में नहीं रखनी चाहिए .. बस यूँ ही ...

इन सब को करने की शर्तों में हमें "हमारा अपना घर" इसलिए कहना पड़ा है, क्योंकि अपने घर में कोई भी व्यक्ति कभी भी, कहीं भी अपनी सुविधा के अनुसार उपरोक्त कामों को अंज़ाम दे सकता है। किराए के मकान में मकानमालिक की सौ उचित-अनुचित पाबन्दियाँ रहती हैं। 

मेरी भी देहरादून की मकानमालकिन को पेड़-पौधे या चिड़ियाँ-गिलहरियाँ गन्दगी फ़ैलाने की वजह लगती हैं। हालांकि वह स्वयं एक पहाड़ी नस्ल की काली कुतिया पाल रखीं है। 
उनकी इन सोचों के कारण हमने घर के सामने के बिजली के खम्भे पर एक पात्र लटका कर पक्षियों के लिए दाने की व्यवस्था कर दी है और उसी 'पोल' के नीचे एक बर्त्तन में पानी। एक पड़ोसी सज्जन पुरुष से अनुमति लेकर उनकी चारदीवारी पर गिलहरियों के लिए मूँगफली के दाने नियमित रूप से परोसते हैं। प्रतिदिन उपभोग की गयी सब्जियों और फलों की अनुपयोगी कतरनों को आसपास में पाले गये गायों के लिए डाल आते हैं। आने वाले उन्मुक्त तोतों के लिए कभी-कभी मौसमी फल और गली के कुत्ते के लिए दरवाजे के बाहर सुबह-शाम सुसुम-सुसुम दूध और कभी-कभी 'रस्क' भी .. बस यूँ ही ... 

सर्वविदित है कि हमारा मानव तन ही नहीं बल्कि हर प्राणी का ही शरीर हर क्षण परिवर्तनशील है। मन भी हर पल चलायमान है। परन्तु शरीर की आयु बढ़ते रहने और मन के दौड़ते रहने के बाद भी किसी मर्तबान में सुरक्षित अचार या मुरब्बे की तरह मन के किसी कोने में बचपना ताउम्र सुरक्षित और संरक्षित रहती है। तो उसी बचपना को जीने के लिए ही सही .. इन पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, नदी-सागर, पहाड़-जंगल के संग-संग एक मासूम बच्चा बन जाने में हर्ज ही क्या है भला !? 
आज की यह बतकही अपनी आत्मश्लाघा के लिए कतई नहीं है, बल्कि जो लोग पहले से ऐसा कर रहे हैं उन्हें आदरपूर्वक नमन कहने एवं उनके लिए आभार प्रकट करने के लिए है और जो सक्षम लोगबाग अभी तक ऐसा नहीं सोच रहे हैं या ऐसा नहीं कर रहे हैं, उनके प्रेरणास्रोत के लिए है .. शायद ... उनमें से एक जन या एक परिवार भी इन कृत्यों के लिए उन्मुख हो जाएँ तो मेरी इस (श्रमसाध्य ?) बतकही की बर्बादी कतई नहीं होगी .. बस यूँ ही ...



बिजली के खम्भे से बंधे पात्र पे तोते, गौरैये, कबूतर 
पड़ोसी की चारदीवारी पे गिलहरियों की मूँगफलियाँ
यह पहाड़ी नस्ल का झब्बेदार गलमुच्छों वाला तथाकथित 'स्ट्रीट डॉग' है, जिसे देहरादून में मेरे वर्तमान पता के मुहल्ले वाले "जैकी" के नाम से बुलाते हैं। बहुत ही शान्त स्वभाव का है, मानो कोई वास्तविक सन्त-महात्मा .. जो हर शाम अपना प्यार जताने आ जाता है ...



Thursday, June 29, 2023

निंबूड़ा-निंबूड़ा नहीं, लिंगुड़ा-लिंगुड़ा ...

हम फ़िलहाल तो फ़िल्म- "हम दिल दे चुके सनम" के इस्माइल दरबार जी के संगीत और कविता कृष्णमूर्ति जी की आवाज़ से सुज्जित राजस्थान की पारंपरिक लोक धुन पर आधारित गीत- "निंबूड़ा-निंबूड़ा .. निंबूड़ा ..~~~" को गाने या बजाने वाले नहीं हैं। बस एक तुकबंदी सूझी तो बतकही भय कर दिए कि "निंबूड़ा-निंबूड़ा नहीं, लिंगुड़ा-लिंगुड़ा" .. बस यूँ ही ...

वैसे तो "निंबूड़ा-निंबूड़ा" वाले गीत पर अभिनेत्री ऐश्वर्या राय बच्चन को नृत्य करते हुए हम सभी ने सम्भवतः देखा ही है और निबूड़ा के अर्थ और द्विअर्थी विशेषार्थ भी समझते ही हैं। पर अभी फ़िलहाल तो हमें "लिंगुड़ा" को जानना है .. बस यूँ ही ...

वैसे तो अगर मनपसंद खाना और गाना साथ-समक्ष हो, तो मानव मन पुलकित हो जाता है। बशर्ते मनपसंद खाना का पैमाना स्वाद नहीं, बल्कि सेहत के लिए केन्द्रित हो। केवल मानव ही क्यों, विज्ञान ने प्रयोग द्वारा बतलाया है, कि पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों पर भी संगीत का असर होता है। साथ ही पुरखों की सीख को मानें तो- "जैसा अन्न, वैसा मन" यानि हमारे भोजन का असर हमारे तन के साथ-साथ मन पर भी पड़ता है .. शायद ...

हम अक़्सर घर या बाहर में भी किन्हीं को भी जब-तब जाति-उपजाति, धर्म-सम्प्रदाय, भाषा-बोली, रूप-रंग, कद-काठी, सभ्यता-संस्कृति, क्षेत्र-पहनावा, पद-पैसा, गाड़ी-बंगला इत्यादि जैसे पैमाने के आधार पर किसी मनुष्य विशेष के बारे में नुक्‍ताचीनी करते हुए या उसके विश्लेषण में उलझते हुए देखते-सुनते हैं, तब उनकी छोटी सोच के लिए मेरा एक सामान्य-सा कथनाश्रय (तकिया-कलाम) होता है, कि "दुनिया बहुत ही बड़ी है" या फिर ये कि "दुनिया बहुत ही रंगीन है" ... 

शायद सच में ही इतनी बड़ी है भी ये दुनिया कि अगर अथाह विराट ब्रह्माण्ड की सम्पूर्ण जानकारियों की बातें ना करके तुलनात्मक एक गौण अंशमात्र- समस्त धरती पर ही उपलब्ध हर क्षेत्र में व्याप्त एक-एक तत्व-वस्तु या हरेक पादप-प्राणी को हम जानने-समझने की बातें तो दूर .. हम केवल ताउम्र उनके नाम सुनने या देखने भर की भी बातें सोचें तो .. हमारे श्वसन और स्पंदन की जुगलबन्दी पर चलने वाला हमारा यह जीवन भले ही हर क्षण या हरेक क्षणांश में अपघटित होते-होते इस धरती से तिरोहित हो जाए, परन्तु सूची ख़त्म नहीं होगी .. शायद ...

हमने अपनी अब तक की आयु में जिन-जिन फल-सब्जियों या अनाजों का नाम तक नहीं सुना था, उन्हें नौकरी के सिलसिले में गत एक वर्ष से वर्तमान में भी उत्तराखंड की राजधानी- देहरादून में रहते हुए, व्यक्तिगत रूचि के कारण भी, देखने और खाने में बहुत ही रोमांच अनुभव हो रहा है। हमारे जैसे भौगोलिक मैदानी क्षेत्र वाले निवासी के लिए तो  आश्चर्यजनक हैं पहाड़ी क्षेत्र के ये प्राकृतिक उत्पाद सारे के सारे। किसी भी पैतृक भौगोलिक परिवेश से इतर परिवेश में एक पर्यटक की तरह कुछ दिनों के लिए जाना-आना या 'गूगल' पर 'सर्च' करके वहाँ की जानकारियों को खंगालना और दूसरी तरफ वहाँ जाकर सालों भर रहते हुए वहाँ की हर ऋतुओं को जीना-महसूस करना .. दो भिन्न अनुभूति कराते हैं .. शायद ...

कई विशेष पहाड़ी प्राकृतिक उत्पादों की एक साथ यहाँ चर्चा करते हुए इन्हें साझा करना तो सम्भव नहीं, तो कई भागों में साझा करने के लिए सोच ही रहे हैं हम साल भर से। दिन पर दिन सूची लम्बी होती जा रही है और मेरे मोबाइल की गैलरी भी भरती जा रही है .. साथ में मानसिक दबाव भी .. बस यूँ ही ...

आज वर्तमान मौसम में ही उपलब्ध एक सब्जी से शुरुआत करते हैं, जिसे गत वर्ष चूक जाने के बाद आज ही सुबह-सवेरे लाया स्थानीय सब्जी-मंडी से। यहाँ के लोग इसे लिंगुड़ा या लिंगड़ा कहते हैं। 



                  लिंगुड़ा - बाज़ार से लाने के बाद 👆


               लिंगुड़ा - टुकड़ों में काटने के पहले 👆

(1) लिंगुड़ा :-

दरअसल लिंगुड़ा पहाड़ी क्षेत्रों में प्राकृतिक रूप से उगने वाली फर्न प्रजाति की एक वनस्पति है, जिसकी सब्जी को यहाँ बेहद ही पौष्टिक, स्वादिष्ट और गुणकारी माना जाता है। 

और माना भी क्यों ना जाए भला !? .. बतलाया जाता है, कि इसके कोमल डंठल और सर्पिलाकार फुनगी में 'विटामिन ए', 'विटामिन बी कम्पलेक्स', 'विटामिन सी', 'ओमेगा-3', 'ओमेगा-6', 'आयरन', 'जिंक', 'पोटाशियम', 'कॉपर', 'मैंगनीशियम', 'फैटी ऐसिड', 'फॉस्फोरस', 'सोडियम', 'कैरोटीन' व अन्य कई 'मिनरल्स' प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं।

जिनकी वजह से यह मधुमेह, कुपोषण, हृदय रोग, चर्म रोग, अनियंत्रित 'कोलेस्ट्रोल', अनियंत्रित रक्तचाप, कमजोर पाचन शक्ति, 'एनीमिया' जैसे खतरनाक रोगों में लाभप्रद है। साथ ही हमारी अंदरुनी शक्ति यानि 'इम्यूनिटी पॉवर' और आँखों की रोशनी को भी बढ़ाने वाली सब्जी मानी जाती है।


लिंगुड़ा - सब्जी बनाने से पहले टुकड़ों में कटी हुई👆


               लिंगुड़ा - लोहे की कड़ाही में पकते हुए 👆

जानकारी मिली है, कि यह  उत्तराखण्ड (लिंगुड़ा, लेंगड़ा लुंगड़ू या लिंगड़) के अलावा हिमाचल प्रदेश (लिंगरी) और सिक्किम (नियुरो) और असम जैसे पहाड़ी राज्यों में भी लगभग जेठ-अषाढ़ महीने में स्वतः जंगलों और पहाड़ों के किनारे नमी वाले स्थानों में उग जाता है।

प्रायः स्थानीय लोग जंगलों-पहाड़ों से चुनकर इस की सब्जी या अचार बनाते हैं। इनके अलावा कुछ लोग अपनी आय के लिए शहरी बाज़ारों में इसकी बिक्री भी करते है, जहाँ से हमारे जैसे लोग खरीद कर खाने का अवसर प्राप्त करते हैं .. बस यूँ ही ...

आज सुबह की थाली में अन्य भोजन सामग्री के साथ लिंगुड़ा की सब्जी पहाड़ी झंगोरे के भात के साथ .. बस यूँ ही ... 🙂😛🙂



Tuesday, June 27, 2023

मूँदी पलकों से ...

धुँधलके में जीवन-संध्या के 

धुंधलाई नज़रें अब हमारी,

रोम छिद्रों की वर्णमाला सहित 

पहले की तरह पढ़ कहाँ पाती हैं भला

बला की मोहक प्रेमसिक्त .. 

कामातुर मुखमुद्राओं की वर्तनी तुम्हारी ...


पर .. मुश्किल कर देता है हल .. पल में ..

तीव्रता से चूमता मेरी कर्णपाली को 

तुम्हारी नम-नर्म साँसों का शोर,

और .. तख़्ती पर मेरे तपते बदन की 

कुछ कूट भाषा-सी गहरी उकेरती

तुम्हारी तर्जनी की पोर ...


पर .. पगली ! .. यूँ भी युवा आँखें 

इन मौकों पर तब वैसे भी तो

खुली कहाँ होती थीं भला !?

खुली-अधखुली-सी .. मूँदी पलकों से ही तो 

पढ़ा करते थे हम 'ब्रेल लिपि' सरीखी 

एक-दूजे की बेताबियाँ .. बस यूँ ही ...