प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (२०)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (२१) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ... :-
गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-
रेशमा - "ये सब गलत बातें हैं बच्चों .. अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो .. अब जाओ भी .. देर हो गयी तो मैम मारेंगी .. जल्दी जाओ .."
गतांक के आगे :-
रेशमा की दी गयी नसीहत से स्कूल जा रहे बच्चों के मुखमंडल पर मानो ऊहापोह के भाव आलेपित हो गए हैं। स्वाभाविक भी है कि इन बच्चों के मन में बसे इनके आदर्श .. इनके माता-पिता और इनके शिक्षकगण .. सभी जिन घटनाओं से प्रायः जोर देकर अपशकुन को जोड़ते हैं, उसी के लिए रेशमा का इस तरह प्रतिक्रिया देना कि यह तो एक आम घटना भर ही है .. जिसके लिए यूँ राह चलते अचानक इन सभी का थम जाना एक बेवकूफ़ी के सिवाय और कुछ भी नहीं है।
ख़ैर ! .. बच्चे अपने कोमल बालमन में उधेड़बुन की ताना-बाना बुनते-गढ़ते अपने-अपने स्कूल की ओर जा रहे हैं और इधर कलुआ के हाथों से पूरे ग्यारह लोगों की मंडली के लिए चाय भी आ गयी है। ग्यारह लोग मतलब .. रेशमा, उसकी टोली के सात किन्नर लोगों के अलावा भूरा, चाँद और मन्टू .. सभी लोग बारी-बारी से चाय से भरी एक-एक 'डिस्पोजेबल कप' उठा कर अब कमोबेश चाय सुड़कने लगे हैं। दरसअल .. चाय पीना तो बस .. इन लोगों का एक बहाना भर होता है। सच्चाई तो होती है .. चाय की चुस्कियों के साथ-साथ आस-पड़ोस, घर-मुहल्ले, गाँव-शहर, देश-विदेश, चाँद-मंगल, धरती-ब्रह्मांड, भगवान-शैतान, जाति-धर्म, सरकार-विपक्ष की चटपटी बातों के सिलसिला को क़ायम रखना। पर हाँ .. बेशक़ सभी की बातों के विषय एक जैसे नहीं होते .. अलग-अलग होते हैं .. वो भी इनकी रूचि और इनकी मानसिकता के अनुसार .. शायद ...
अभी चाय की चुस्की और घूँट से क्रमशः सभी के होंठों और गले की खुश्की चायसिक्त होते ही किसी भी विषय पर कुछ-कुछ बातें निकलने ही वाली हैं, तभी तपाक से भूरा चाय सुड़कते हुए अपनी दायीं तर्जनी से इंगित करते हुए बोल पड़ा है ...
भूरा - " अरे ! .. देखो मयंक और शशांक भईया फिर से इधर ही आ रहे हैं .. कोई भी कुछ भी ऊटपटाँग बातें मत छेड़ना .. समझे ना सब ? "
चाँद - " अभी सुबह ही तो चाय पीकर गए थे दोनों .. फिर से ? .. दोबारा .. शाम के बदले अभी ही आ रहे हैं .. "
मन्टू - " साथ में तीन बन्दे और भी हैं उन दोनों के .. तीनों नए चेहरे हैं .. "
रेशमा - " हाँ .. सही में .. इसके पहले इन लोगों को यहाँ नहीं देखा कभी .. है ना चाँद भईया ? .. "
तब तक मयंक और शशांक तीन अन्य नए लड़कों के साथ इन लोगों के समीप आकर ..
मयंक - " सही कह रहे हैं आप लोग .. ये तीनों आज पहली बार ही आए हैं यहाँ .. हम दोनों से मिलने हमारे पी जी में .."
शशांक - " अभी इन तीनों के आने पर .. इनको चाय पिलाने के बहाने रसिक के दुकान पर आने के कारण आप लोगों से भी मुलाकात हो गयी .. ख़ासकर के .. रेशमा से .. है ना मयंक ? .. "
मयंक - " हाँ .. हाँ .. सही में .. इससे हफ़्तों भेंट नहीं हो पाती है .. " - रेशमा को सम्बोधित करते हुए - " कैसी हो रेशमा ? .. तुम सब लोग स्वस्थ हो ना ? "
रेशमा - " हाँ मयंक भईया .. हम सब कुशलमंगल हैं .. और आप लोग ? "
शशांक - " हम सबलोग भी ठीक हैं। इन तीनों से भी मिलो आप लोग। ये है अमर, अजीत और समर .. अमर और अजीत .. दोनों एक ही गाँव के हैं .. यहाँ प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने आये हैं और समर तो अभी इंटरमीडिएट और उससे आगे की पढ़ाई करने के लिए यहाँ आया है .."
मयंक - " दरअसल समर कल ही अपने गाँव से यहाँ आया है। यहाँ के एक अच्छे 'कॉलेज" के 'एडमिशन लिस्ट' में इसका नाम आ गया है। अपने गाँव से ही दसवीं का 'बोर्ड एग्जाम' 'पास' किया है, पर .. आगे की अकादमिक पढ़ाई के लिए इसके पिता जी ने यहाँ पढ़ाई की अच्छी सुविधाएँ उपलब्ध होने के कारण भेजा है .."
शशांक - " अमर और अजीत पहले तो मोनिका भाभी वाले अपने ही पी जी में रहने आए थे, पर यहाँ ना तो कोई 'रूम' खाली है और ना ही कोई 'बेड' तो .. ये लोग अम्बेदकर नगर वाले पी जी में रह रहे हैं .. "
मयंक - " भविष्य में कभी यहाँ खाली हुआ तो ये लोग यहीं आ जायेंगे .. वैसे तो .. भले ही उस समय मोनिका भाभी के पी जी में रूम या बेड नहीं मिला, पर इनसे अपनी जान-पहचान उसी दौरान हुई थी .. "
रेशमा - " बीच-बीच में तो .. रूम या बेड खाली होता ही रहता है ना .. "
शशांक - " खाली जब होगा, तब होगा पर .. पर पहली मुलाक़ात में ही हमलोगों की आपसी बातचीत के दरम्यान आपसी विचारों के बहुत हद तक मेल खाने के कारण इनका कुछ दिनों से यदाकदा यहाँ आना-जाना लगा रहता है। जिनके साथ विचार मेल खाते हों, तो उनके साथ समय बिताने में समय का पता ही नहीं चलता और सकारात्मक अनुभूति भी होती है .. नहीं क्या ? "
मयंक - " आज अमर और अजीत आएँ हैं समर को हम दोनों के साथ-साथ मोनिका भाभी से पहली बार मिलवाने और हमलोगों के पी जी को दिखलाने भी। संयोग है कि .. अभी आप सभी से इकट्ठे भेंट हो गयी .."
अचानक रेशमा का ध्यान अभी-अभी आए मयंक-शशांक सहित पाँच लोगों के लिए चाय मँगवाने की ओर गया, तो वह कलुआ को भी सुनाते हुए रसिक को बोल रही है।
रेशमा - " रसिक भईया .. पाँच और चाय भेजिए जल्दी से .. मयंक भईया के 'स्टाइल' में .. एकदम से कड़क बना के जरूर भेजिएगा .. "
कलुआ एक साथ इतने सारे ग्राहक को इकट्ठे देख कर थोड़ी ज्यादा ही फ़ुर्ती से काम करने लगा है। पर बाद का पाँच कप चाय लाने के बाद अब भले ही यह चुकुमुकु बैठ कर सभी का चेहरा अपनी दोनों निस्तेज आँखों से मुलुर-मुलुर ताकने लगा है और अपनी मटमैली कर्णपाली इन लोगों की बातों पर लगाए हुए है। वैसे तो फ़ुर्सत के वक्त, जब ग्राहक ना के बराबर होते हैं रसिक चाय दुकान पर, तो अक़्सर यह पुराने अख़बार के पन्ने से एक कोने को फाड़ के फुरेरी बना कर अपने कान की सफ़ाई करता रहता है और दुकान पर आए कई ग्राहकों की देखा देखी नाक में भी वैसी ही फुरेरी डाल कर छींकता रहता है। कभी-कभी तो कुछ वृद्ध ग्राहकों की ही देख-देख कर सूरज की तेज किरणों की ओर नाक-मुँह कर के भी छींकने का प्रयास करता है। वह छींकता भी है तो अपने नाक-मुँह पर बिना हाथ रखे हुए। रुमाल नाम का कोई कपड़ा का टुकड़ा तो उस के शब्दकोश में है ही नहीं। पर हाँ .. कई-कई बार मयंक और शशांक के सामने ही नाक-मुँह पर बिना हाथ रखे हुए छींकने पर, उन के द्वारा बार-बार टोकते रहने पर और सही तरीका बतलाते रहने पर .. कम से कम उन लोगों के सामने तो स्वाभाविक छींक आने पर भी कलुआ अपनी नाक अपने दायीं या बायीं बाजू-काँख में जल्दी से घुसेड़ लेता है।
तीनों आगंतुकों के साथ सभी एक दूसरे से परिचित होने के बाद चाय की चुस्की का आनन्द ले-ले कर बातें करने लगे हैं। पर मन्टू का ध्यान अभी भी अंजलि के घर के कूड़े से मिली गर्भ जाँच वाली 'स्ट्रिप' की दोनों गुलाबी रेखाओं की बाड़ में ही क़ैद है।
इसी बीच कलुआ को जोर से छींक आयी और वह मयंक के डर के कारण जल्दी से मुँह घुमा कर जोर से छींक दिया है। तभी रेशमा का ध्यान सड़क की ओर गया कि कलुआ के छींकते ही, अभी 'कोर्ट' जाते हुए मुहल्ले वाले वक़ील साहब कलुआ की ओर गुस्से में घूरते हुए वापस अपने घर की ओर चार क़दम चल के खड़े हो गए हैं। तभी रेशमा ठठाकर हँस पड़ती है और ठिठोली वाले अंदाज में वक़ील साहब से पूछती है।
रेशमा - " क्या हुआ वक़ील चाचा ? घर पर कुछ भूल आए हैं क्या ? "
वक़ील साहब - " अरे ना ! .. इ कलुआ छींक के मेरा जतरा बिगाड़ दिया भोरे-भोरे .. "
रेशमा - " चच्चा .. ऐसा किस पुराण में पढ़ लिए हैं आप ? अब इसको सर्दी से छींक आ गयी तो आपका जतरा बिगड़ गया .. है ना ? चच्चा ! .. समय के साथ अपनी दकियानूसी सोच बदल दीजिए। अंतरिक्ष यान पर सैर करने जाने की तैयारी करने की बारी आ रही है और आप छींक में अटक-भटक रहे हैं .. च् .. च् .. च् .."
आसपास के लगभग सभी लोग मुँह छुपा कर और वक़ील साहब से नज़रें बचा कर मुस्कुरा रहे हैं रेशमा की बातों पर और प्रतिक्रियास्वरुप वक़ील साहब के खीझने और झेंपने पर।
इतना बोल कर रेशमा अपना रुख़ समर की ओर करती है, क्योंकि वक़ील चाचा को जो कहना चाह रही थी, वह कह चुकी है। अब समर से पूछती है वह।
रेशमा - " अच्छा ! .. तो तुम अपने गाँव से दसवीं 'पास' करके यहाँ आगे की पढ़ाई करने आये हो ? अभी ग्यारहवीं में 'एडमिशन' लिए हो ? "
समर - " हाँ .. पर अभी 'क्लासेज' शुरू नहीं हुई है। "
रेशमा - " हमारी पढ़ाई भी बारहवीं तक ही हुई है .. आगे की पढ़ाई करने की कोशिश कर रहे हैं .. पर .. "
समर - " पर क्या ? ..."
रेशमा - " पर कुछ नहीं। हमारी जाने भी दो। हम किन्नर अगर इतना भी पढ़ पाए तो बहुत है। "
समर - " कौन कहता है .. अब तो किन्नर की भलाई के लिए बहुत सारे समर्थन में देश के क़ानून बने हैं .. कई एन जी ओ काम कर रही है .. "
रेशमा व्यंग्यात्मक मुस्कान के साथ - " क़ानून और एन जी ओ .. सही कह रहे तुम .. वैसे तो .. "
【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को .. "पुंश्चली .. (२२) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】