Thursday, March 27, 2025

बिच्छू की चाय .. आय हाय ! -१

आनंद बख़्शी जी के शब्दों को लता जी व उदित जी के युगल स्वरों में अपने संगीत से सजा कर "फ़िल्म दिल तो पागल है" के लिए उत्तम सिंह जी ने हमारे समक्ष एक रूमानी गीत की शक़्ल में परोसा था .. जो आज भी ना जाने कितने प्रेमियों को अपनी प्रेमिकाओं के समक्ष चुहलबाजी करने का अवसर प्रदान करता है .. शायद ... 

उस गाने का बोल है - "भोली सी सूरत आँखों में मस्ती आय हाय ~~~"

आज की बतकही से पहले ये गाना ही सुन लेते हैं .. है ना !

यहाँ एक ग़ौर करने वाली बात ये है कि .. आध्यात्मिक या रूहानी सूफ़ी गीतों को जिस तरह फ़िल्मी दुनिया में रुमानियत का पर्याय बना कर पेश किया जाता रहा है और .. अगर इसके विपरीत उपरोक्त रूमानी गाने को प्रेमिका या लड़की की जगह प्रकृति से जोड़ कर सुना जाए तो .. तो .. आप दोबारा सुनिए और .. आनन्द लीजिए .. प्रकृति का .. बस यूँ ही ...

लब्बोलुआब ये है कि आज की बतकही के शीर्षक वाली "आय हाय" तो .. इस गाने से ही ली गयी है और अब .. "बिच्छू की चाय" वाली बात .. आगे आज की बतकही में ...

गंगा .. तथाकथित आस्तिकों के लिए एक तरफ़ तो माँ हैं .. तो स्वाभाविक है, कि वह पूजनीय भी हैं और उनके लिए पौराणिक कथाओं के अनुसार शिव की जटाओं व राजा भगीरथ से सम्बन्धित भी हैं ; परन्तु दूसरी तरफ़ .. उन्हीं की धाराओ में वो सभी तथाकथित आस्तिक अपने-अपने शहर की नाली- नालाओं के माध्यम से अपने अनगिनत त्याज्य अपशिष्ट या अवांछित पदार्थों के साथ-साथ .. अपशिष्ट पूजन सामग्रियाँ तथा तथाकथित देवी- देवताओं की छोटी- बड़ी, नयी- पुरानी मूर्तियाँ .. गंगा-आरती के समय तथाकथित आस्था के नाम पर अज्ञानतावश या जानबूझकर एक दोने में कुछ फूल व मिलावटी तेल या मिलावटी घी के दीये और साथ ही अपने मृत जनों के दाह संस्कार के उपरांत अवशेष रूपी राख को भी अर्पित- समर्पित करते रहते हैं .. शायद ...

वहीं दूसरी ओर .. नास्तिकों के लिए गंगा केवल और केवल एक नदी है , जिसका आविर्भाव हिमालय की पर्वत शृंखलाओं की बर्फ़ के पिघलने और अन्य कई अलग-अलग स्रोतों वाली कई पहाड़ी सहायक नदियों के संगम से हुआ है। जिसे स्वच्छ रखना वे लोग मानव- धर्म भी मानते हैं। वे लोग नदी को नदी, सूर्य को सूर्य और बरगद- पीपल को भी वृक्ष ही मानते हैं तथा इन सभी के भगवानीकरण करने का और तथाकथित भगवान के मानवीकरण करने का पाखंड कतई नहीं करते हैं  .. शायद ...

ठीक वैसे ही .. अपने आस्तिक परिजनों के साथ एक नास्तिक भी अगर किसी तथाकथित तीर्थयात्रा में शामिल होता है ; तो उसे उस यात्रा .. क्षमा करें .. तीर्थयात्रा के दौरान प्रभु दर्शन से प्राप्त होने वाले पुण्य की कामनाओं से इतर .. विराट प्रकृति के गर्भाशय से जन्मे सौंदर्य जनित सुकून का रसास्वादन कुछ विशिष्ट रूप से आह्लादित करता है .. शायद ...

सर्वविदित है, कि अन्य धर्म- संप्रदाय के लोगों की तरह हिन्दुओं के भी समस्त विश्व में अवस्थित कई तीर्थस्थलों के साथ ही भारत में विशेष धार्मिक मान्यताओं वाले चार धामों - बद्रीनाथ (उत्तराखंड), द्वारकापुरी (गुजरात), जगन्नाथ पुरी (उड़ीसा) तथा रामेश्वरम (तमिलनाडु) के साथ-साथ उत्तराखंड राज्य में भी अवस्थित चार धामों - यमुनोत्री (उत्तरकाशी), गंगोत्री (उत्तरकाशी), केदारनाथ (रुद्रप्रयाग) एवं बद्रीनाथ (चमोली) की भी महत्ता हैं। हालांकि .. विशेष बात ये है कि बद्रीनाथ धाम का नाम दोनों ही श्रेणियों में विराजमान है। 


तो .. आइये .. उत्तराखंड के चार धामों की तीर्थयात्रा से जुड़ी आंशिक बातों को .. एक तथाकथित नास्तिक की दृष्टि से कुछेक अंकों की सचित्र बतकही में विस्तार से झेलते हैं। जिसके तहत आज हम अतिगुणकारी पहाड़ी जड़ी-बूटी (?) की भी बात करेंगे .. बस यूँ ही ...

पर इसके लिए हमें जाना होगा "माना" .. दरअसल उपरोक्त बद्रीनाथ नामक हिंदू तीर्थस्थल से लगभग तीन किमी की दूरी पर अलकनंदा नदी एवं सरस्वती नदी के संगम पर उत्तराखण्ड के चमोली जिले में ही भूगोलवेत्ताओं के अनुसार समुद्र तल से मोटा- मोटी (अनुमानतः) लगभग बत्तीस सौ मीटर यानी लगभग साढ़े दस हज़ार फ़ीट ऊपर एक गाँव अवस्थित है - माना / माणा (Mana)। 

अगर हम इस गाँव के नाम से जुड़ी किंवदंती को अपनी आँखें मूँदे मान लें, तो उस किंवदंती के अनुसार तथाकथित शिव भगवान के माणिक शाह नामक एक परम भक्त व्यापारी के नाम से इस गाँव का नाम माणा रखा गया है। लोगों के बीच एक ऐसी भी मान्यता है कि माणा जाने वाला हर व्यक्ति, विशेषकर तथाकथित भक्तगण, माणिक शाह की भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शिव द्वारा मिले वरदान के फलस्वरूप अमीर हो जाता है .. शायद ...

चीन के क़ब्ज़े वाले तिब्बत की सीमा से लगे माना दर्रा से लगभग पच्चीस- छ्ब्बीस किमी पहले यह माणा गाँव आज भारत का पहला गाँव है ; जिसे लगभग दो- तीन वर्ष पहले तक भारत का आख़िरी गाँव बोला जाता था ; परन्तु अपने देश के वर्तमान प्रधानमंत्री द्वारा इसका विशेषण "आख़िरी" से "पहला" में परिवर्तित कर दिया गया है। जिसके फलस्वरूप "सीमा सड़क संगठन" (Border Roads Organization - BRO) के सौजन्य से इस गाँव की शुरुआत में "भारत का प्रथम गाँव माणा" लिखा हुआ एक बड़ा-सा 'बोर्ड' टँगा हुआ दिखता है। 

जो भी लोग दोनों श्रेणियों के चार धामों की यात्रा के तहत या केवल और केवल बद्रीनाथ की तीर्थयात्रा के लिए आते हैं, तो वो लोग यहाँ भी अवश्य ही पधारते हैं। आस्तिकों के लिए तो यहाँ के मुख्य आकर्षण हैं - भीम पुल, व्यास गुफा, गणेश गुफा, सरस्वती धाम और केशव प्रयाग यानी अलकनंदा नदी व सरस्वती नदी के संगम जैसे पौराणिक कथाओं से जोड़े गए तथाकथित कई तीर्थस्थल ; पर .. नास्तिकों के लिए तो होती हैं मन को लुभाती .. केवल और केवल .. प्राकृतिक सौन्दर्य से लबरेज़ नैसर्गिक दृश्यावली .. शायद ...














































आस्तिक परिजनों के साथ-साथ हम भी औपचारिक रूप से उपरोक्त तथाकथित धार्मिक- पौराणिक स्थलों के तथाकथित "दर्शन" करने के पश्चात जगह- जगह उन्हीं बाज़ारों की दुकानों में बीस-बीस रुपए के बदले बिक रहे 'ग्रीन टी' के और "केदार कड़वी" के भी छोटे- छोटे 'पैकेट्स' हमने ख़रीद लिए थे। हालांकि वहाँ की दुकानों में हाथों से ऊन द्वारा बुने हुए विभिन्न प्रकार के गर्म परिधानों का भी अपना एक अनूठा आकर्षण दिखा।




लगभग सभी दुकानदार (ज़्यादातर दुकानदारीन) अपनी शारीरिक बनावट, मुखमंडल व वेशभूषा से तिब्बती लोग ही लग रहे थे। शायद भयवश पलायन करके यहाँ आकर बसे या बसाए गए विस्थापित तिब्बती। वैसे भी उत्तराखंड में देहरादून सहित कई क्षेत्रों में विस्थापित तिब्बतियों के ठिकाने और .. स्वाभाविक है, कि उनकी जनसंख्या भी ठीक-ठाक ही कह सकते है। वैसे तो माणा में वेशभूषा व नाक-नक्श के आधार पर हम कह सकते हैं कि कुछेक दक्षिण भारतीय परिवार भी वहाँ बसे हुए हैं।












अब उपरोक्त धार्मिक- पौराणिक स्थलों की परिचर्चा किसी भावी अंक में .. फ़िलहाल तो हम चाय विशेष की "चुस्की" लेते हैं। उपरोक्त माणा के स्थानीय बाज़ारों में अवलोकन करते हुए .. तभी "भारत का प्रथम गाँव माणा" के तर्ज़ पर ही "भारत की पहली चाय की दुकान" वाले 'बोर्ड' लगे .. कई सारी दुकानों पर दृष्टि पड़ती है। 




कहीं तो .. अभी भी पुरानी सोच के मुताबिक़ "भारत की आख़िरी चाय की दुकान" वाली तख़्ती भी दिखती है। मानो जैसे .. आज एलईडी के युग में भी हम अपनी पुरानी परम्पराओं का निर्वाह करते हुए दीए जलाते ही नहीं, वरन् दीयों की संख्या की होड़ करके 'गिनीज़ बुक' में अपना नाम दर्ज़ करवाने की बात बड़े ही गर्व के साथ कहते हैं .. शायद ...





ख़ैर ! .. अभी दीये को दरकिनार करके .. अपनी बतकही को चाय पर ही केन्द्रित करते हैं। तो .. कई सारी चाय की दुकानों को देख-देख कर .. अब ऐसे में चाय की लत ना भी हो, तो पीने की उत्कंठा जाग ही जाती है। वैसे भी चाय हमारे देश में अंग्रेज़ों द्वारा लाए जाने के पश्चात शायद इकलौता धर्मनिरपेक्ष पेय पदार्थ का पर्याय है। जिससे तथाकथित आस्तिक व नास्तिक दोनों ही अपनी जिह्वा और मन .. दोनों को तृप्त करके तात्कालिक स्फूर्ति की अनुभूति प्राप्त करते हैं। और हाँ .. वो लोग भी नहीं चूकते हैं इसकी चुस्की लेने में , जिनको अँग्रेजी बोलने में तो मानसिक ग़ुलामी नज़र आती है, परन्तु .. अँग्रेजों द्वारा लायी गयी चाय की चुस्की में नहीं .. शायद ...

ख़ैर ! .. अभी आम चाय पुराण त्याग कर माणा वाली भारत  की पहली चाय दुकानों में से किसी एक दुकान से पी गयी चाय की बात करते हैं। तो .. बिना चीनी और दूध की चाय पीने वाला .. मुझ जैसा इंसान भी वहाँ की 'ग्रीन टी' खरीद कर स्वाद चखा। उसका एक अलग ही स्वाद था .. मानो उसमें अदरक के साथ-साथ अजवाइन भी मिलायी गयी हो। पूछे जाने पर दुकान में चाय बनाने वाली भी चाय में अजवाइन मिले होने के लिए हाँ में हाँ मिलायी। जबकि उसकी बात में सत्यता नहीं थी। शायद वह भाषा के कारण मेरे सवाल को समझ ही नहीं पायी होगी .. शायद ...

दरअसल माणा के बाज़ार से हमारे द्वारा खरीदी गयी 'ग्रीन टी' की 'पैकेट्स' और वहाँ वाली भारत की प्रथम चाय की दुकान से पी गयी 'ग्रीन टी' .. दोनों ही 'ग्रीन टी' थी ही नहीं .. वह तो उस से भी बढ़ कर .. अतिगुणकारी एक अलग ही बिच्छू की चाय थी / है .. शायद ...

अब तो .. आज बस इतना ही .. उस बिच्छू की चाय और बद्रीनाथ व माणा से जुड़ी आँखों देखी अन्य बतकही "बिच्छू की चाय .. आय हाय !-२" में .. बस यूँ ही ...


















Thursday, February 6, 2025

मन की आचमनी से .. चुंबन की थाप ...


आज अपनी दो बतकही के साथ ..  दो अतुकान्त कविताओं की शक़्ल में .. बस यूँ ही ...

(१)

मन की आचमनी से ...

रिश्तों की बहती 

अपार गंग-धार से, 

बस अँजुरी भर 

नेह-जल भरे,

अपने मन की 

आचमनी से 

आचमन करके,

जीवनपर्यन्त संताप के

समस्त ताप मेरे,

शीतल करने 

तुम आ जाना .. बस यूँ ही ...


शिथिल पड़े 

जब-जब कभी

बचपना, 

भावना, 

संवेदना हमारी,

संग शिथिल पड़े 

मन को भी,

यूँ कर-कर के 

गुदगुदी ..

हलचल करने 

तुम आ जाना .. बस यूँ ही ...


(२)

चुंबन की थाप ...

शास्त्रीय संगीत की

मध्य लय-सी 

जब-जब मैं 

पहल करूँ,

द्रुत लय की 

साँसों को थामे,

हया की 

विलंबित लय-सी 

हौले - हौले

तब तुम भी 

फटी एड़ियों वाली ही सही

अपना पाँव बढ़ाना .. बस यूँ ही ...


मिल कर फिर 

छेड़ेंगे हम-तुम

प्रेम के सरगम।

मेरे कानों में छिड़ी 

तुम्हारी ...

गुनगुनी साँसों की 

गुनगुनाहट होगी

और होंगी गालों पर, 

होंठों पर,

माथे पर तुम्हारे 

मेरी चुंबन की थाप,

यूँ छेड़ेंगे मदहोश तराना .. बस यूँ ही ...








Thursday, January 30, 2025

ढाई अक्षर वाले .. मुर्दे और प्रेम भी ...


देखा नहीं वापस आते 

श्मशान या क़ब्रिस्तान से

वहाँ तक ले जाए गए मुर्दे कभी।

लोग उन्हें दफ़नाएँ या अंत्येष्टि करें उनकी ,

नहीं फ़र्क़ पड़ता उन मुर्दों को तनिक भी ;

क्योंकि कोई जाति नहीं होती मुर्दों की ,

उन्हें नग्न कर दिए जाने के बाद शायद ;

सिवाय ख़तना , शिखा-चोटी के अंतर के ।

वो भी नर मुर्दों में केवल , 

नारी मुर्दों में तो वो भी अंतर दिखता नहीं

और सुना है कि ढाई अक्षरों वाले दोनों .. 

- मुर्दे और प्रेम के .. होते ही नहीं

ढाई अक्षरों वाले कोई धर्म और ना ही कोई वर्ग , 

कोई समुदाय या कोई जाति भी कभी।

सही मायने में धर्म निरपेक्ष होते हैं ये दोनों ही।

धर्म-मज़हब की बातें तो करती है बस्स्स ...

ज़िंदा भीड़ मुर्दों को दफ़नाने-जलाने वाली .. शायद ...


पर .. मुर्दों के साथ भीड़ जाने वाली

अवश्य ही लौट जाती है .. 

लौट आते हैं लोग घर अपने-अपने।

दफ़ना या दाह दिया हो अगर अब तक तुमने भी 

मृत प्यार के मुर्दे को हमारे तो ..

वापस आना लौट कर कभी 

पास हमारे चंद लम्हों के लिए ही सही।

जब कभी फ़ुरसत भी हो और मौक़ा भी ..

पर तब .. हमारी फुरक़त को कम करने नहीं ;

वरन् .. तथाकथित अकाल मृत्यु से मृत हमारे 

उस प्यार की आत्मा की 

तथाकथित शांति के लिए केवल आना ।

मिल बैठेंगे हमदोनों पास-पास ना सही ,

पर होंगे हम आमने-सामने 

लिए आँसू सिक्त अपनी-अपनी आँखों के पैमाने।

तुम चालीसवाँ का फ़ातिहा बुदबुदा लेना 

और मैं .. पिंडदान कर दूँगा तत्क्षण वहीं .. बस यूँ ही ...


N. B. - चलते- चलते हमारी एक पुरानी बतकही "मचलते तापमानों में ..." में से चुरायी गयी एक आंशिक बतकही का एक नया ... ... ... .. बस यूँ ही ...🙂 

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Saturday, January 4, 2025

कहाँ बुझे तन की तपन ... (३)


गत बतकही "कहाँ बुझे तन की तपन ... (१)" और ... "कहाँ बुझे तन की तपन ... (२)" के अंतर्गत "बाल कवि बैरागी" जी एवं "वर्मा मलिक" जी के बारे में कुछ-कुछ जानने के पश्चात आज .. इस "कहाँ बुझे तन की तपन ... (३)" में एक अन्य अद्भुत रचनाकार के बारे में अपनी बतकही के साथ पुनः उपस्थित ...

जिनका आज ही के दिन सौ साल पहले .. यानी सन् 1925 ईस्वी में 4 जनवरी को यमुना और चंबल नदियों के संगम पर बसे वर्तमान उत्तर प्रदेश के इटावा जिले में जन्म हुआ था। ये वही इटावा है, जहाँ से 1925 में ही अंग्रेजों के विरोध में घटित तत्कालीन "काकोरी षड्यंत्र कांड" के संदर्भ में स्वतन्त्रता सेनानी "ज्योति शंकर दीक्षित" जी को गिरफ्तार करने के बाद, फिर रिहा भी कर दिया गया था।

वह महान रचनाकार अपनी लगभग छः वर्ष की आयु में ही पितृहीन होने के बावज़ूद भी 'हाई स्कूल' की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए थे। फिर जीवकोपार्जन के लिए कचहरी में टंकक यानी 'टायपिस्ट' के काम की शुरुआत करने के बाद एक सिनेमाघर की दुकान पर नौकरी किए। फिर दिल्ली के सफाई विभाग में 'टायपिस्ट' की नौकरी किए। उसके बाद कानपुर के डी०ए०वी कॉलेज में किरानी बने। फिर एक 'प्राइवेट कम्पनी' में लगभग पाँच साल तक पुनः 'टायपिस्ट' का काम किए। जीवकोपार्जन वाली इन सब विभिन्न नौकरियों के साथ-साथ वह 'प्राइवेट' परीक्षाएँ देकर इण्टरमीडिएट, बी०ए० और हिन्दी साहित्य के साथ प्रथम श्रेणी में एम०ए० भी किए। 

मेरठ के मेरठ कॉलेज में हिन्दी व्याख्याता के पद पर कुछ समय तक अध्यापन किए। जहाँ कॉलेज प्रशासन द्वारा उन पर कक्षाएँ न लेने और रोमांस करने के लांछन लगाए गए। जिस कारणवश वह नौकरी से त्यागपत्र दे दिए। उसके बाद वे अलीगढ़ के धर्म समाज कॉलेज में हिन्दी विभाग के प्राध्यापक नियुक्त किए गए थे।

वह हिन्दी साहित्यकार, शिक्षक, कवि सम्मेलनों के लोकप्रिय मंचीय कवि एवं फ़िल्मी गीतकार भी थे। माना जाता है , कि शिक्षा व साहित्य के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री और पद्म भूषण से भी सम्मानित किए जाने वाले वह पहले व्यक्ति थे। फ़िल्मों में सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के कारण उनके गीतों को 1970 से 1972 तक लगातार तीन सालों तक हर बार "सर्वश्रेष्ठ गीतकार फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार" के लिए नामांकित किया तो गया था , परन्तु 1970 में उन्हें यह पुरस्कार मिला था। 

उन गीतों के मुखड़े कुछ यूँ हैं : -

(१) 1970 में फ़िल्म - "चंदा और बिजली" के लिए -

      काल का पहिया घूमे भैया, लाख तरह इंसान चले,

      ले के चले बारात कभी तो, कभी बिना सामान चले ... 

इस गीत के एक अंतरा की एक पंक्ति कितनी प्रायोगिक है, कि - "कर्म अगर अच्छा है तेरा, क़िस्मत तेरी दासी है" ...

 (२) 1971 में फ़िल्म - "पहचान" के लिए -

       बस यही अपराध मैं हर बार करता हूँ,

       आदमी हूँ, आदमी से प्यार करता हूँ ... 

इसके तो सभी अंतरे आज भी उतने ही अर्थपूर्ण लगते हैं, जैसे कि -       "एक खिलौना बन गया दुनिया के मेले में

               कोई खेले भीड़ में कोई अकेले में

               मुस्कुरा कर भेंट हर स्वीकार करता हूँ

               आदमी हूँ आदमी से प्यार करता हूँ   ...

और दूसरा -

             मैं बसाना चाहता हूँ स्वर्ग धरती पर

             आदमी जिस में रहे, बस आदमी बनकर

             उस नगर की हर गली तैयार करता हूँ

             आदमी हूँ आदमी से प्यार करता हूँ   ...

और ये भी , कि -

           हूँ बहुत नादान, करता हूँ ये नादानी

           बेच कर खुशियाँ, खरीदूँ आँख का पानी

           हाथ खाली हैं, मगर व्यापार करता हूँ

           आदमी हूँ आदमी से प्यार करता हूँ   ...

  (३) 1972 में फ़िल्म - "मेरा नाम जोकर" के लिए -

        ऐ भाई ! ज़रा देख के चलो ,

        आगे ही नहीं, पीछे भी, दाएँ ही नहीं बाएं भी,

        ऊपर ही नहीं नीचे भी, ऐ भाई !

उपरोक्त गीत के दो निम्न अंतरों ने तो मानो .. जैसे .. दुनियादारी की गीता या यूँ कहें कि 'इन्साइक्लोपीडिया' यानी विश्वकोश ही रच डाली है -

       क्या है करिश्मा, कैसा खिलवाड़ है 

       जानवर आदमी से ज़्यादा वफ़ादार है 

       खाता है कोड़ा भी, रहता है भूखा भी 

       फिर भी वो मालिक पे करता नहीं वार है 

       और इंसान ये, माल जिसका खाता है 

       प्यार जिस से पाता है, गीत जिस के गाता है 

       उसी के ही सीने में भोकता कटार है

       कहिए श्रीमान आपका क्या विचार है ?

और दूसरा अंतरा ये है, कि -

      हाँ बाबू ये सर्कस है और ये सर्कस है शो तीन घंटे का   

      पहला घंटा बचपन है,दूसरा जवानी है, तीसरा बुढ़ापा है  

      और उसके बाद,माँ नहीं, बाप नहीं,बेटा नहीं बेटी नहीं 

      तू नहीं, मैं नहीं, ये नहीं, वो नहीं कुछ भी नहीं 

      कुछ भी नहीं रहता है, रहता है जो कुछ वो 

      ख़ाली-ख़ाली कुर्सियाँ हैं, ख़ाली-ख़ाली तम्बू है 

      ख़ाली-ख़ाली घेरा है, बिना चिड़िया का बसेरा है 

      न तेरा है, न मेरा है .."

जी हाँ बाबू ! .. ऐसी अर्थपूर्ण रचनाओं के रचनाकार थे / हैं ...  गोपालदास सक्सेना जी, जिन्हें हम सभी  "नीरज" या गोपालदास 'नीरज' के नाम से जानते हैं, सुनते हैं। इस नामचीन कवि की कई लोकप्रिय कविताओं को हम सभी ने पढ़ा- देखा- सुना है।

पर उन सबसे इतर .. चलते-चलते उनके एक रुमानियत की चाशनी में पगे पहाड़ी राग पर आधारित उस गीत को सुनते हैं ; जिसमें उनकी अलग ही शोख़ी भरी सोच और अलबेले बिम्ब वाले रूप देखने- सुनने के लिए मिलते हैं। जिसे 1970 में देवानन्द के निर्देशन में बन कर आयी फ़िल्म - "प्रेम पुजारी" के लिए "नीरज" जी ने लिखा था। संगीत था सचिन देव बर्मन जी का और आवाज़ थी किशोर कुमार की। गीत का मुखड़ा है - 

" लेना होगा जनम हमें, कई कई बार ~~"

यूँ तो गीत की शुरुआत निम्नलिखित पँक्तियों से होने कारण इसके ही मुखड़े होने का भान होता है -

" फूलो के रंग से, दिल की कलम से 

   तुझको लिखी रोज पाती ~~

   कैसे बताऊँ किस-किस तरह से 

   पल-पल मुझे तू सताती ~~ "

आगे तो सारे अंतराओं के सारे बिम्ब अनूठे और ग़ौरतलब हैं .. शायद ... ख़ासकर .. गीत सुनने वालों के लिए नहीं भी हो तो, कम से कम गीत में डूबने वालों के लिए तो है ही .. मसलन -

तेरे ही सपने, लेकर के सोया

तेरी ही यादों में जागा

तेरे ख़्यालों में उलझा रहा यूँ

जैसे के माला में धागा


हाँ, बादल बिजली चंदन पानी जैसा अपना प्यार

लेना होगा जनम हमें, कई कई बार

हाँ, इतना मदिर, इतना मधुर तेरा मेरा प्यार

लेना होगा जनम हमें, कई कई बार


साँसों की सरगम, धड़कन की वीणा, 

सपनों की गीताँजली तू

मन की गली में, महके जो हरदम,  

ऐसी जुही की कली तू

छोटा सफ़र हो, लम्बा सफ़र हो, 

सूनी डगर हो या मेला

याद तू आए, मन हो जाए, भीड़ के बीच अकेला

हाँ, बादल बिजली, चंदन पानी जैसा अपना प्यार

लेना होगा जनम हमें, कई कई बार


पूरब हो पच्छिम, उत्तर हो दक्खिन, 

तू हर जगह मुस्कुराए

जितना भी जाऊँ, मैं दूर तुझसे, 

उतनी ही तू पास आए

आँधी ने रोका, पानी ने टोका, 

दुनिया ने हँस कर पुकारा

तसवीर तेरी, लेकिन लिये मैं, कर आया सबसे किनारा

हाँ, बादल बिजली, चंदन पानी जैसा अपना प्यार

लेना होगा जनम हमें, कई कई बार


हाँ, इतना मदिर, इतना मधुर तेरा मेरा प्यार

लेना होगा जनम हमें, कई कई बार

कई, कई बार ~~ कई, कई बार ~~~



Friday, December 13, 2024

'प्रीपेड' मंच से बतकही - अर्धनारीश्वर

 

अगली बतकही के पूर्व .. किसी फ़िल्म के मध्यांतर स्वरुप हमारे एक Openmic में participation का Vedio .. ज्यों का त्यों .. बस आपके लिए .. बस यूँ ही ...🙂

Thursday, December 12, 2024

कहाँ बुझे तन की तपन ... (२)


आज की बतकही से परे :- 

आज की बतकही शुरू करने से पहले .. अगर सम्भव हो, तो .. दो मिनट का औपचारिक ही सही .. श्रद्धांजलि स्वरुप स्वाभाविक नम आँखों के साथ खड़े होकर मौन धारण कर लें हम सभी .. "अतुल सुभाष" के लिए ; क्योंकि हम और हमारे तथाकथित समाज के तथाकथित बुद्धिजीवियों को समाज की ऐसी विसंगतियों के विरोध में अपने आक्रोश के साथ चीखने की फ़ुर्सत तो है ही नहीं ना .. शायद ...

आज की बतकही :-

गत बतकही "कहाँ बुझे तन की तपन ... (१)" के अंतर्गत बाल कवि बैरागी जी के रूमानी शब्दों को कमायचा जैसे राजस्थानी लोक वाद्य यंत्र की आवाज़ के साथ फ़िल्मी गीत के रूप में सुन कर रोमांच- रोमांस से झंकृत- तरंगित होने के पश्चात आज .. इस "कहाँ बुझे तन की तपन ... (२)" में एक अन्य विलक्षण प्रतिभा वाले अद्भुत रचनाकार के बारे में अपनी बतकही के साथ पुनः उपस्थित ...

प्रसंगवश .. एक तरफ़ .. हम प्रायः देखते हैं , कि हर वर्ष साप्ताहिक या पाक्षिक मनाए जाने वाले हिंदी दिवस के पक्षधर और पुरोधा बने फिरने वाले बहुसंख्यक हिंदी भाषी बुद्धिजीवी गण भी .. अपनी दिनचर्या वाली बोलचाल की भाषा- बोली में अन्य भाषाओं के शब्दों का धड़ल्ले से किए गए घालमेल के बिना तो वार्तालाप कर ही नहीं पाते हैं और .. सर्वविदित भी है, कि अन्य भाषाओं के घालमेल किए गए वो सारे के सारे शब्द प्रायः यहाँ बलपूर्वक आए आक्रांताओं या उनमें से कई छल-बलपूर्वक बन बैठे आक्रांता शासकों की भाषाओं से ही प्रभावित होते रहे हैं .. शायद ...

दूसरी तरफ़ .. कुछेक भजनों एवं दोहे-चौपाइयों को छोड़ कर हिंदी फ़िल्मी दुनिया के अधिकांश गीतों के सृजन की कल्पना बिना उर्दू शब्दों के करना .. किसी शहरी 'मॉल' के प्रांगण में जुगनुओं की चमक दिख जाने की कल्पना करने जैसी ही है .. शायद ...

परन्तु .. उपरोक्त विषम परिस्थितियों में भी अगर कोई विलक्षण प्रतिभा विशुद्ध हिंदी शब्दों के संयोजन से एक कालजयी फ़िल्मी गीत रच जाए और वो भी .. पंजाबी व उर्दू भाषी होने के साथ- साथ पंजाबी फ़िल्मों का एक सफल गीतकार होने के बावजूद। जिनको तब हिंदी लिखने तक नहीं आती थी, तो उन्होंने हिंदी भाषा को बहुत ही तन्मयता के साथ सीख कर आत्मसात किया था। उनकी उस तन्मयता के बारे में उनके उस विशुद्ध हिंदी शब्दों के संयोजन वाले फ़िल्मी गीत को सुनने से पता चलता है। तब तो .. ऐसे में उन्हें मन से नमन करने में कोताही बरतनी उस रचनाधर्मिता का अनादर ही होगा .. शायद ...

विशुद्ध हिंदी शब्दों के संयोजन से सजे उस कालजयी फ़िल्मी गीत को हम इस बतकही के अंत में सुनेंगे भी। उससे पहले उनकी और भी अन्य महत्वपूर्ण उपलब्धियों का अवलोकन कर लेते हैं। वैसे भी तो प्रायः .. साहित्यिक क्षेत्र के कई पुरोधा गण फ़िल्मी गीतकार को एक साहित्यकार मानते ही नहीं हैं , जबकि किसी भी गीत या भजन का सृजन भी किसी रचनाकार के मानसिक- हार्दिक गर्भ से जन्मी एक कविता से ही होता है .. शायद ...

अंग्रेज़ों के शासनकाल में जन्में .. बहुत कम उम्र में ही स्कूल की पढ़ाई के दौरान तत्कालीन स्वतन्त्रता संग्राम के दौर में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ क्रांतिकारी गीत लिखकर .. वह कांग्रेस के जलसों और सभाओं में उन्हें सुनाते- सुनाते कांग्रेस पार्टी के सक्रिय सदस्य बन गए थे। नतीजतन अंग्रेज़ी सिपाहियों द्वारा गिरफ़्तार कर के उन्हें कारावास में रखा तो गया था , परन्तु उनकी कम उम्र होने के कारण उन्हें जल्द ही रिहाई भी मिल गयी थी।

उन दिनों स्वतंत्रता दिवस वाले विभत्स विभाजन ने उन्हें अत्यंत मर्माहत किया था। परन्तु कुछ ही दिनों बाद अपने जीविकोपार्जन के लिए मुम्बई (तत्कालीन बम्बई) आने के बाद उनके क्रांतिकारी विचारों वाले तेवर ने सामाजिक सरोकार वाली विचारधाराओं से सिक्त होकर एक ऐसे गीत का सृजन किया, कि उनके उस गीत को इंदिरा गाँधी वाली कांग्रेस सरकार की ओर से .. तत्कालीन तथाकथित स्वतन्त्र भारत में भी कुछ दिनों की पाबंदी झेलनी पड़ी थी। 

जबकि कांग्रेस सरकार ने ही पहले "गरीबी हटाओ" और "रोटी, कपड़ा और मकान" का नारा दिया था। परन्तु .. कुछ ही माह बाद देश में कांग्रेस सरकार द्वारा आपातकाल लागू करने और फ़िल्म "किस्सा कुर्सी का" की 'रील' जलाने जैसे दुःसाहस भरे कृत्यों वाले कलंक का टीका उस सरकार के माथे पर सुशोभित हुआ था। फ़िल्म "रोटी, कपड़ा और मकान" का सामाजिक सरोकार वाला वह गीत आपको भी याद होगा ही .. शायद ... 

जिसका एक अंतरा कुछ यूँ था, कि ...

" एक हमें आँख की लड़ाई मार गई 

  दूसरी तो यार की जुदाई मार गई 

  तीसरी हमेशा की तन्हाई मार गई 

  चौथी ये ख़ुदा की ख़ुदाई मार गई 

  बाक़ी कुछ बचा तो महंगाई मार गई .. " 

इस गीत के मुखड़े के साथ-साथ इसके हर अंतरे में तत्कालीन महंगाई की पीड़ा सिसकती नज़र आती है .. शायद ...

भले ही कभी .. या आज भी समाज शास्त्र के पाठ्यक्रम के अनुसार मानव जीवन की मूलभूत आवश्यकताएँ रोटी, कपड़ा और मकान है, परन्तु .. इसके बावजूद परोक्ष रूप से आज की मूलभूत आवश्यकताएँ 'मोबाइल' , 'नेट' और 'सोशल मीडिया' हो गयीं हैं .. शायद ...

किसी भी अमीर या ग़रीब के बेटे- बेटियों की पारम्परिक शादी- विवाह के दरम्यान उनकी बारात व विदाई के अवसर पर इनकी लिखी रचनाओं पर आधारित गीतों का बजना .. आज भी वहाँ उपस्थित लोगों को क्रमशः झुमा और रुला देता है .. बस यूँ ही ...

पारम्परिक बारात के समय झुमाने वाला गीत -

" आज मेरे यार कि शादी है .. आज मेरे यार कि शादी है

   अमीर से होती है , गरीब से होती है

   दूर से होती है , क़रीब से होती है

   मगर जहाँ भी होती है, ऐ मेरे दोस्त !

   शादियाँ तो नसीब से होती है ...

  आज मेरे यार कि शादी है .. आज मेरे यार कि शादी है "

और विदाई के वक्त शिद्दत से रुलाने वाले उस गीत का एक अंतरा -

" सूनी पड़ी भैया की हवेली

  व्याकुल बहना रह गई अकेली

  जिन संग नाची, जिन संग खेली

  छूट गई वो सखी सहेली

  अब न देरी लगाओ कहार

  पिया मिलन की रुत आई

  चलो रे डोली उठाओ कहार, पिया मिलन की रुत आई ..."

प्रत्येक वर्ष "फ़िल्मफ़ेयर" अंग्रेज़ी पत्रिका की ओर से भारतीय सिनेमा को सम्मानित करने वाले प्रायोजित "फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार समारोह" के तहत गत सत्तर वर्षों से दिए जाने वाले कई श्रेणियों के फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों में से एक - "सर्वश्रेष्ठ गीतकार फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार" उन्हें दो- दो बार अलग- अलग वर्षों में मिला था।

एक "सर्वश्रेष्ठ गीतकार फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार" तो 1971 में "पहचान" फ़िल्म के एक गीत के लिए , जिसका एक अंतरा निम्न है -

" धर्म- कर्म, सभ्यता- मर्यादा, नज़र ना आई मुझे कहीं

  गीता ज्ञान की बातें देखो, आज किसी को याद नहीं

  माफ़ मुझे कर देना भाइयों, झूठ नहीं मैं बोलूंगा

  वही कहूँगा आपसे, जो गीता से मिला है ज्ञान मुझे

  कौन- कौन कितने पानी में, सबकी है पहचान मुझे

  सबसे बड़ा नादान वही है, जो समझे नादान मुझे ..."

और दूसरा "सर्वश्रेष्ठ गीतकार फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार" 1973 में "बेईमान" फ़िल्म के एक गीत के लिए मिला था , जिसका एक अंतरा है -

" बेईमान के बिना मात्रा होते अक्षर चार

  ब से बदकारी, ई से ईर्ष्या, म से बने मक्कार

  न से नमक हराम समझो हो गए पूरे चार

  चार गुनाह मिल जाएँ होता बेईमान तैयार

  अरे उससे आँख मिलाए, क्या हिम्मत है शैतान की

  जय बोलो बेईमान की , जय बोलो , ओ बोलो !

  जय बोलो बेईमान की, जय बोलो ..."

हालांकि काका हाथरसी जी की एक कालजयी रचना के शीर्षक - "जय बोलो बेईमान की" से इस गीत के मुखड़ा का प्रेरित होने का भान तो होता है , परन्तु इन दोनों रचनाओं के अंतराओं में बहुत ही अंतर है। 

अंग्रेज़ शासित भारतवर्ष में तत्कालीन पंजाब जिले के फ़िरोज़पुर में 13 अप्रैल 1925 को उन महान रचनाकार - "बरकत राय मलिक" का जन्म हुआ था , जो बाद में हिंदी फ़िल्मी दुनिया में अग्रसर होने के पश्चात अपने स्वजनों की राय पर अपना नाम "वर्मा मलिक" रख लिए थे। वह एक क्रांतिकारी विचारों वाले रचनाकार थे। वैसे भी फ़िरोज़पुर को "शहीदों की धरती" भी कहते हैं , जो तथाकथित स्वतंत्रता दिवस के दिन हुए विभत्स विभाजन के दौरान पाकिस्तान में शामिल होने के बजाय, बच कर .. नेहरू जी के प्रयास से भारत में ही रह गया था। 

उनके लिखे तमाम फ़िल्मी गीतों की लम्बी फ़ेहरिस्त में से कुछ मनमोहक गीतें निम्नलिखित हैं -

(१)

" बस्ती बस्ती नगरी नगरी, कह दो गाँव-गाँव में,

  कल तक थे जो सिर पर चढ़े, वो आज पड़े हैं पाँव में …"

(२)

" अरे हाय हाय ये मजबूरी, ये मौसम और ये दूरी,

  मुझे पल-पल है तड़पाए, तेरी दो टकियाँ दी नौकरी, 

  वे ~ मेरा लाखों का सावन जाए …"

(३)

" तेरे संग प्यार मैं नहीं तोड़ना,

  चाहे तेरे पीछे जग पड़े छोड़ना …"

(४)

" पंडितजी मेरे मरने के बाद, बस इतना कष्ट उठा लेना,

  मेरे मुँह में गंगाजल की जगह, थोड़ी मदिरा टपका देना…"

(५)

" एक तारा बोले तुन तुन, क्या कहे ये तुमसे सुन सुन,

  बात है लम्बी मतलब गोल, खोल न दे ये सबकी पोल,

  तो फिर उसके बाद, एक तारा बोले, तुन तुन … "

(६)

" ओ, मेरे प्यार की उमर हो इतनी सनम,

  तेरे नाम से शुरू, तेरे नाम पे ख़त्म… "

(७)

" मैंने होठों से लगाई तो, हंगामा हो गया,

  मुझे यार ने पिलायी तो हंगामा हो गया ..."

(८)

" आय .. हाय ...

  कान में झुमका, चाल में ठुमका, कमर पे चोटी लटके,

  हो गया दिल का पुर्ज़ा-पुर्ज़ा, लगे पचासी झटके,

  हो~~ तेरा रंग है नशीला, अंग-अंग है नशीला ... "

सबसे क़माल की बात तो ये है, कि सम्भवतः ये पहले ही गीतकार / रचनाकार रहे होंगे, जिन्होंने "कान में झुमका, चाल में ठुमका... " वाले अपने रूमानी मनचले-से फ़िल्मी गीत में "दिल के टुकड़े- टुकड़े" कहने के लिए .. "दिल का पुर्ज़ा- पुर्ज़ा " शब्द को पहली दफ़ा व्यवहार में लाया होगा .. शायद ...

पर .. एक सबसे दुःखद बात तो ये है , कि उनकी इतनी सारी विलक्षण प्रतिभाओं के बाद भी .. जब चौरासी वर्ष की आयु में 2009 में उनका निधन हुआ था , तो उन्हें कहीं भी 'मीडिया' में स्थान नहीं मिला था। मगर वहीं किसी 'वायरल' "...(?)... चौधरी" जैसी फुहड़ नृत्यांगना की मृत्यु हो जाए, तो वही 'मीडिया' अपनी तथाकथित 'टीआरपी' के लिए सारा दिन उसे दिखलाती रहेगी। यही है हमारे तथाकथित समाज और तथाकथित 'मीडिया' का मानसिक स्तर .. शायद ... 

ख़ैर ! .. जो अपने वश में नहीं, उनका कैसा शोक मनाना भला .. आइए उन महान हस्ती के मानसिक- हार्दिक गर्भ से जन्मी विशुद्ध हिंदी शब्दों के संयोजन वाली उस कविता को एक कालजयी फ़िल्मी गीत के तौर पर .. लगभग तिरपन साल पुराने इस गीत के मुखड़े एवं इसके एक- एक अंतरा को मिलकर ध्यानपूर्वक सुनते हैं और उनमें अन्य भाषाओं के कोई भी एक शब्द तलाशने का प्रयास करते हैं .. जो शायद है ही नहीं इसमें .. तो .. तन्मयता के साथ सुनिए .. वर्मा मलिक जी के शब्दों को .. बस यूँ ही ...

इस बतकही के शेष-अवशेष को हम "कहाँ बुझे तन की तपन ... (३) में साझा करने का प्रयास करेंगे और .. ऐसी ही एक अन्य विलक्षण बहुमुखी प्रतिभा को जानेंगे- सुनेंगे .. बस यूँ ही ...


Sunday, December 1, 2024

कहाँ बुझे तन की तपन ... (१)


हमारी बतकही का मक़सद स्वज्ञान या शेख़ी बघारते हुए लोगों को कुछ बतलाना या जतलाना नहीं होता, वरन् स्वयं ही को जब पहली बार किसी नयी जानकारी का संज्ञान होता है और वह हमें विस्मित व पुलकित कर जाता है, तो उसे इस पन्ने पर उकेर कर सहेजते हुए संकलन करने का एक तुच्छ प्रयास भर करते हैं हम .. बस यूँ ही ... 

साथ ही .. आशा भी है, कि जो भी इसे पढ़ पाते हैं, उन्हें भी अल्प ही सही पर .. रोमांच की अनुभूति होती होगी ; अगरचे वो पहले से ही सर्वज्ञानी ना हों तो.. शायद ...

उपरोक्त श्रेणी की ही है .. आज की भी बतकही, कि .. इस समाज में तथाकथित जाति-सम्प्रदाय की तमाम श्रेणियों की तरह ही अक्सर लोगबाग ने रचनाकारों को भी वीर रस के कवि-कवयित्री, श्रृंगार रस के कवि-कवयित्री इत्यादि जैसी कई श्रेणियों में बाँट रखा है। जबकि ऐसे कई सारे उदाहरण मिल जाते हैं, जिनसे किसी भी साहित्यकार या रचनाकार की रचनाधर्मिता को किसी श्रेणी विशेष से बाँध पाना उचित नहीं लगता है।

इस बतकही के तहत हमें सबसे पहले मध्य प्रदेश के तत्कालीन मंदसौर जिले से विभक्त होकर बने वर्त्तमान नीमच जिले में अवस्थित मनासा नामक शहर जाना होगा, भले ही कल्पनाओं के पंखों के सहारे अभी जाना पड़े, जिसने बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न नन्द रामदास जैसे रचनाकार को अपनी मिट्टी से रचा था। जिन्हें हम आज बाल कवि बैरागी के नाम से ज़्यादा जानते हैं। 

वह कवि और राजनीतिज्ञ के साथ-साथ फिल्मी दुनिया के गीतकार भी थे। राजनीतिज्ञ के रूप में तो उनका राज्य सभा के सांसद से लोकसभा के सांसद तक का पड़ाव तय करते हुए कैबिनेट मंत्री तक का सफ़र रहा था। 

इस तरह की चर्चा करते हुए, अभी अटल जी अनायास परिलक्षित हो रहे हैं। हालांकि वह जनसामान्य के बीच कवि के रूप में थोड़ा कम और राजनीतिज्ञ के रूप में थोड़ा ज़्यादा विख्यात हैं। दूसरी तरफ़ .. बैरागी जी कवि के रूप में थोड़ा ज़्यादा प्रख्यात हैं, तो राजनीतिज्ञ के रूप में थोड़ा कम .. शायद ...

एक तरफ़ तो वह लिखते हैं, कि -

" मुझको मेरा अंत पता है, पंखुरी-पंखुरी झर जाऊँगा

  लेकिन पहिले पवन-परी संग, एक-एक के घर जाऊँगा

  भूल-चूक की माफ़ी लेगी सबसे मेरी गंध कुमारी

  उस दिन ये मंडी समझेगी किसको कहते हैं खुद्दारी

  बिकने से बेहतर मर जाऊं अपनी माटी में झर जाऊँ

  मन ने तन पर लगा दिया जो वो प्रतिबंध नहीं बेचूँगा

  अपनी गंध नहीं बेचूँगा- चाहे सभी सुमन बिक जाएँ। "

वहीं दूसरी तरफ़ बच्चों के लिए बच्चा बन कर भी लिखते हैं , कि - 

" पेड़ हमें देते हैं फल,

  पौधे देते हमको फूल ।

  मम्मी हमको बस्ता देकर

  कहती है जाओ स्कूल। "

वही बाल कवि बैरागी जी देशभक्ति और बाल गीत वाली तमाम प्रतिनिधि रचनाओं से परे एक विशेष फ़िल्मी रूमानी गीत रच जाते हैं, जिसे आज भी सुनने पर वह मन को रोमांच- रोमांस से झंकृत- तरंगित कर जाता है .. शायद ...

वैसे तो इसकी विस्तारपूर्वक सारी जानकारी 'यूट्यूब' या 'गूगल' पर भी उपलब्ध है ही। पर प्रसंगवश केवल ये बतलाते चलें, कि राजस्थानी पृष्ठभूमि पर बनी फ़िल्म होने के कारण वहाँ के प्रचलित "राग मांड" पर इस गीत का संगीत आधारित है और इसमें अन्य कई भारतीय वाद्ययंत्रों के साथ-साथ वहाँ के मांगणियार समुदाय के लोगों द्वारा बजाए जाने वाले एक तार से सजे "कमायचा" नामक लोक वाद्ययंत्र का भी इस्तेमाल किया गया है ; ताकि इस गीत को जीने (केवल सुनने वाले को नहीं) वाले श्रोताओं को अपने आसपास रूमानी राजस्थानी परिदृश्य परिलक्षित हो पाए। 

अब .. प्रसंगवश यह भी चर्चा हम करते ही चलें, कि उपलब्ध इतिहास के अनुसार उस "नीमच" (NEEMUCH = NIMACH)) जिला के नाम की उत्पत्ति अंग्रेजों के शासनकाल में वहाँ स्थित तत्कालीन "उत्तर भारत घुड़सवार तोपखाना और घुड़सवार सेना मुख्यालय" (North India Mounted Artillery and Cavalry Headquarters - NIMACH) के संक्षेपण (Abbreviation) से हुई है। जहाँ आज स्वतन्त्र भारत में "केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल" (CRPF) के आठ रंगरूट प्रशिक्षण केन्द्रों में से एक रंगरूट प्रशिक्षण केन्द्र है। ये "रंगरूट" शब्द भी अंग्रेजी के रिक्रूट (Recruit) शब्द का ही अपभ्रंश है।

अब तो .. इस बतकही के शेष-अवशेष को हम "कहाँ बुझे तन की तपन ... (२) में साझा करने का प्रयास करेंगे और .. ऐसी ही एक अन्य विलक्षण बहुमुखी प्रतिभा को जानेंगे- सुनेंगे। तब तक .. फ़िलहाल तो .. हम सभी मिलकर बाल कवि बैरागी जी के शब्दों और मधुर संगीत में पगे उस गीत के बोलों को और "कमायचा" की आवाज़ को सुनकर कुछ देर के लिए ही सही .. पर भाव- विभोर हो ही जाते हैं ... बस यूँ ही ...