(1) मानो इस संस्कारी बुद्धिजीवी समाज को आज तक भी किसी मैना बाई की प्रतीक्षा हो।
(2) अपने ऊपर होने वाली हिंसा के विरोध में प्रदर्शन के लिए लाल छतरी को प्रतीक चिन्ह की तरह प्रयोग किया था, जिसे आज भी व्यवहार में लाया जाता है।
(3) वह भी तब, जबकि इस की दशा (दुर्दशा) समाज या सरकार की नज़र में धूम्रपान की तरह केवल सार्वजनिक स्थानों के लिए तो निषेध हैं, परन्तु पूरी तरह वर्जित नहीं है।
(4) ये शरीफ़ों का शहर है,
यहाँ शरीफ़ों की बस्ती है,
हर तरफ शराफ़त बरसती है
पर थोड़ी सी मौकापरस्ती है।
(निम्नलिखित "मचलते तापमानों में ... " नामक बतकही/रचना/विचार के चारों खण्डों से हैं उपर्युक्त पंक्तियाँ ...)
मचलते तापमानों में ... (खण्ड-१) :-
मुहल्ले से बचने के लिए :-
कभी .. कहीं .. विवेकानंद जी के एक आत्मसंस्मरण में पढ़ा था, कि वह जब युवावस्था में पहली-पहली बार धर्म की ओर अग्रसर हुए थे, तो उनके घर का रास्ता वेश्याओं के मोहल्ले से होकर गुजरने के कारण, स्वयं को संन्यासी और त्यागी मानते हुए उस मुहल्ले से बचने के लिए मील-दो मील अतिरिक्त घूम कर इतर रास्ते से कलकत्ता (कोलकाता) के गौरमोहन मुख़र्जी 'लेन/स्ट्रीट' में अवस्थित अपने घर आया जाया करते थे।
प्रभु मेरे अवगुण चित ना धरो :-
इतिहास की मानें तो राजपूताना वंश की एक शाखा- शेखावत (क्षत्रिय) वंश के राजा अजीत सिंह ने झुंझुनूं (राजस्थान) के अपने खेतड़ी कस्बे में एक बार विविदिशानंद जी को स्वामी के रूप में आमन्त्रित किया था। स्वामी जी के जीवन में राजा साहब की एक अहम भूमिका रही थी। इनको विश्व स्तर पर प्रसिद्धि प्रदान करने वाले शिकागो के धर्म सम्मेलन में इनके जाने के लिए उन्होंने ही अपने दीवान- जगमोहन लाल के मार्फ़त आर्थिक सहायता देकर सारी व्यवस्था करवायी थी। वहाँ जाने से पहले उन्होंने ही इनको विविदिशानंद की जगह विवेकानंद नाम दिया था। शिकागो के धर्म सम्मेलन में इनके पहने गए पोशाक- चोगा, कमरबंद (फेंटा), साफ़ा (पगड़ी) आदि तक राजा साहब की ही सप्रेम भेंट थी। बाद में स्वामी जी के रामकृष्ण मिशन की शुरुआत करने वाले सपने के सच हो पाने में भी आर्थिक सहयोग का उनका योगदान रहा था।
उन्हीं राजा साहब ने एक बार अपने राजा-रजवाड़े की परम्परा के अनुसार विवेकानंद जी के स्वागत-समारोह के लिए राज नर्तकी- मैना बाई को बुलवा लिया था। सन्यासी विवेकानंद जी उस वक्त अपनी युवावस्था में अपनी इंद्रियों को पूरी तरह वश में करना नहीं सीख पाए थे। अतः ब्रह्मचर्य टूटने के भय से स्वयं को एक कमरे में बंद कर लिए थे। तब इस घटना को मैना बाई ने अपनी कला और अपने आप को तिरस्कृत समझ कर, स्वामी जी को लक्ष्य करते हुए, सूरदास जी के भजन को बहुत ही तन्मयता से गाया :-
"प्रभु मेरे अवगुण चित ना धरो |
समदर्शी प्रभु नाम तिहारो, चाहो तो पार करो ||
एक लोहा पूजा मे राखत, एक घर बधिक परो |
सो दुविधा पारस नहीं देखत, कंचन करत खरो ||
एक नदिया एक नाल कहावत, मैलो नीर भरो |
जब मिलिके दोऊ एक बरन भये, सुरसरी नाम परो ||
एक माया एक ब्रह्म कहावत, सुर श्याम झगरो |
अबकी बेर मोही पार उतारो, नहि पन जात तरो ||"
बंद कमरे में भी स्वामी जी तक उसकी दर्द भरी, पर सुरीली आवाज़ पहुँच पा रही थी। वह उसकी भावना को समझ पा रहे थे। वह भजन के माध्यम से बतलाना चाह रही थी, कि एक लोहे का टुकड़ा तो पूजा के घर में भी होता है और कसाई के द्वार पर भी पड़ा होता है। दोनों ही लोहे के टुकड़े होते हैं। लेकिन पारस की खूबी तो यही है कि वह दोनों को ही सोना कर दे। अगर पारस पत्थर देवता के मंदिर में पड़े लोहे के टुकड़े को ही सोना कर दे और कसाई के घर पड़े हुए लोहे के टुकड़े को नहीं कर सके, तो वह पारस के नकली होने में कतई संदेह नहीं होना चाहिए।
कहा जाता है, कि स्वामी जी ने राज नर्तकी के इस भजन से प्रभावित होकर मैना बाई को नमन कर के कहा कि - "माता मुझसे भूल हुई है। मुझे माफ कर दो। मुझे आज ज्ञान की प्राप्ति हुई है।" तत्पश्चात उस दिन उन्होंने माना था, कि उस राज नर्तकी को देखकर पहली बार उनके भीतर ना तो आकर्षण हुआ था और न ही विकर्षण। उसके लिए ना प्रेम जागा और न ही नफरत। उन्होंने माना कि - "अब मैं पूरी तरह से संन्यासी बन चुका हूँ। क्योंकि यदि विकर्षण भी हो, तो वह आकर्षण का ही रूप है, बस दिशा विपरीत है। नर्तकी या वेश्या से बचना भी पड़े तो कहीं अचेतन मन के किसी कोने में छिपा हुआ यह वेश्या का आकर्षण ही है; जिसका हमें डर रहता है। दरअसल वेश्याओं से कोई नहीं डरता, वरन् अपने भीतर छिपे हुए वेश्याओं के प्रति आकर्षण से डरता है।"
जिन्हें तुम सज्जन कहते हो :-
एक बार एक प्रतिष्ठित व्यक्ति की इस शिकायत पर कि कलकत्ता के दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण परमहंस के वार्षिकोत्सव में बहुत सारी वेश्याओं के आने के कारण बहुत से सभ्य लोग वहाँ आने से कतराते हैं; उन्होंने अपनी इतर राय देते हुए कहा था, कि "जो लोग मन्दिर में भी यह सोचते हैं, कि यह औरत एक वेश्या है, यह मनुष्य किसी नीच जाति (तथाकथित) का है, दरिद्र है या फिर यह एक मामूली आदमी है; ऐसे लोगों की संख्या, जिन्हें तुम सज्जन कहते हो, यहाँ जितनी कम हो उतना ही अच्छा होगा। क्या वे लोग, जो भक्तों की जाति, लिंग या व्यवसाय देखते हैं, हमारे प्रभु को समझ सकते हैं? मैं प्रभु से प्रार्थना करता हूँ, कि सैकड़ों वेश्याएँ यहाँ आयें और ईश्वर के चरणों में अपना सिर नवायें और यदि एक भी सज्जन (?) न आये तो भी कोई हानि नहीं। आओ वेश्याओं, आओ शराबियों, आओ चोरों, सब आओ, श्री प्रभु का द्वार सबके लिए खुला है।"
स्वामी विवेकानंद जी के जीवन से जुड़े उपर्युक्त तीनों बिन्दुओं का लब्बोलुआब ये है, कि जो स्वामी जी अपने शुरूआती दौर में वेश्यालयों से कतरा कर गुजरते थे, वही मैना बाई के गाए भजन से प्रेरित हो कर बाद में उन लोगों के लिए धर्मालयों में भी प्रवेश की वक़ालत करने लगे थे। पर .. हमारा संस्कारी बुद्धिजीवी समाज आज भी इन के विषय में खुल कर बातें करने से भी कतराता है। दूसरों को भी बातें करने की अनुमति नहीं देता है। पर प्रायः लोगबाग किसी यौन रोगों की चर्चा की तरह दबी जुबान में बातें करते मिलते हैं। मानो इस संस्कारी बुद्धिजीवी समाज को आज तक भी किसी मैना बाई की प्रतीक्षा हो।
मचलते तापमानों में ... (खण्ड-२) :-
लाल छतरी :-
तभी तो वर्तमान दौर में मनाए जाने वाले तमाम "विश्वस्तरीय दिवसों" की होड़ में हमारे संस्कारी बुद्धिजीवी समाज ने लगभग एक माह पहले, 2 जून को मनाए जाने वाले "अंतरराष्ट्रीय वेश्या दिवस" की अनदेखी की है। जबकि सर्वविदित है, कि सन् 1975 ईस्वी में फ्रांस के ल्योन शहर में 2 जून को, वहाँ की पुलिस द्वारा वहाँ के यौनकर्मियों के साथ क़ानून की आड़ में ग़ैरक़ानूनी तरीके से अत्यधिक ज़ुल्म किए जाने के विरुद्ध में, जुलूस और धरना-प्रदर्शन के माध्यम से लगभग सौ यौनकर्मियों ने एकत्रित होकर विरोध प्रकट करने का साहस किया था। उसके अगले वर्ष, सन् 1976 ईस्वी से इसी दिन यानी 2 जून को "अंतरराष्ट्रीय वेश्या दिवस" (International Whores’ Day या International Sex Worker's Day) के रूप में हर साल मनाया जाता है। यह दिन उन को सम्मानित करने और उनके द्वारा हमारे समाज में झेली जाने वाली तमाम कठिनाइयों को पहचान कर दूर करने के लिए मनाया जाता है।
यूँ तो संयुक्त राज्य अमेरिका के वाशिंगटन में सन् 2003 ईस्वी के 17 दिसम्बर को "अंतरराष्ट्रीय यौनकर्मियों के हिंसा का अन्त दिवस" (International Day to End Violence Against Sex Workers) मनाए जाने के बाद से इस दिवस को भी हर साल मनाया जाता है। सर्वप्रथम सन् 2001 ईस्वी में इटली के वेनिस में यौनकर्मियों ने अपने ऊपर होने वाली हिंसा के विरोध में प्रदर्शन के लिए लाल छतरी को प्रतीक चिन्ह की तरह प्रयोग किया था, जिसे आज भी व्यवहार में लाया जाता है।
इन दो दिवसों के विपरीत संयुक्त राज्य अमेरिका के ही कैलिफोर्निया में 5 अक्टूबर, सन् 2002 ईस्वी को "अंतरराष्ट्रीय वेश्यावृति उन्मूलन दिवस" (International Day of No Prostitution / IDNP) मनाए जाने के बाद से इसे भी हर वर्ष मनाया जाता है।
मचलते तापमानों में ... (खण्ड-३) :-
वैसे तो सच्चाई यही है, कि समाज का कोई भी अंग या इतिहास का कोई भी कालखंड, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से, इनसे विहीन नहीं था और ना ही है और ना शायद रहेगा भी। समाज के विकास का इतिहास और इनके विकास का इतिहास समानांतर चलता रहा है। जो हमारे वैदिक काल में अप्सराएँ और गणिकाएँ कहलाती थीं, वही मध्ययुग में देवदासियाँ और नगरवधुएँ .. कहीं-कहीं गोलियाँ और लौंडियाँ ग़ुलामें भी पुकारी जाती रहीं तथा मुग़ल काल में तवायफ़, वारांगनाएँ या वेश्याएँ बन गर्इं, जो नाम आज भी उपस्थित हैं। और हाँ .. यौनकर्मियों जैसी संज्ञा या सम्बोधन भी जोड़ा है हमारे आधुनिक वर्तमान समाज ने।
प्रारंभ में ये धर्म से संबद्ध थीं और चौसठों कलाओं में निपुण मानी जाती थीं। मध्ययुगीन काल में सामंतवाद की प्रगति के साथ इनका पृथक् वर्ग बनता चला गया और कलाप्रियता के साथ कामवासना संबद्ध हो गईं, पर यौनसंबंध सीमित और संयत था। कालांतर में नृत्यकला, संगीतकला एवं सीमित अनैतिक यौनसंबंध द्वारा जीविकोपार्जन में असमर्थ वेश्याओं को बाध्य होकर अपनी जीविका के लिए तथाकथित समाज की तय की गई सीमारेखा वाली लज्जा तथा संकोच को छोड़ कर अश्लीलता की हद को भी पार कर के अपना जीविकोपार्जन चलाना पड़ा।
समाज में बहु विवाह, रखैल प्रथा और दासी प्रथा ने भी वैश्यावृति को प्रोत्साहित किया। पहले अनेक वेश्याएँ छोटी उम्र की लड़कियों को खरीद लेती थीं, ताकि अपने बुढ़ापे में उनके युवा होने पर उनसे अनैतिक पेशा करवा कर अपनी जीविका चला सकें। पहले संगीत और नृत्य में निपुण प्रमुख वेश्याओं को तो राजकीय संरक्षण प्रदान किया जाता था और उन्हें राजकोष से नियमित कई तरह के भत्ते भी दिए जाते थे। अनेक वेश्याओं द्वारा कई मंदिरों में भी नृत्य-गान की प्रथा थी, जिस के बदले में उन्हें धन आदि मिलता था। सामान्य वेश्याएँ नृत्य-संगीत तथा यौन व्यापार के मिलेजुले कार्य द्वारा अपना जीवन निर्वाह करती थीं। आज हमारे तथाकथित आधुनिक समाज में उसी के बदले हुए रूप में 'रेड लाइट एरिया' (Red Light Area) और 'डांस बार' (Dance Bar) जैसे ठिकाने मौजूद हैं।
तमाम तथाकथित रोकथाम संशोधन अधिनियम या उन्मूलन विधेयक के होते हुए भी समाज के अपेक्षित नैतिक योगदान के अभाव में इस समस्या का समाधान संभव नहीं है। वह भी तब, जबकि इस की दशा (दुर्दशा) समाज या सरकार की नज़र में धूम्रपान की तरह केवल सार्वजनिक स्थानों के लिए तो निषेध हैं, परन्तु पूरी तरह वर्जित नहीं है। वेश्यावृत्ति को प्रोत्साहन प्रदान करने वाली मान्यताओं और रूढ़ियों का बहिष्कार करना होगा। परन्तु आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती जी की तरह नहीं, जिन्होंने इस कुप्रथा का विरोध करते हुए, जोधपुर के महाराज यशवंत सिंह को इन सब से विमुख करने की कोशिश की थी, तो इतिहासकारों के मुताबिक़ महाराज के दरबार की ही नन्हीं जान नाम की एक वेश्या ने रसोइए से स्वामी जी के खाने में जहर डलवा कर उनकी हत्या करवा दी थी। अतः हमें तो ईमानदारी और मनोयोग से उनके और उनके आश्रितों के जीविकोपार्जन के लिए यथोचित प्रतिस्थापन को भी तलाशना ही होगा .. शायद ...
मचलते तापमानों में ... (खण्ड-४) :-
ऐसी बहुत ही कम लड़कियाँ या महिलाएं होती हैं, जो अपनी मर्जी से देह व्यापार के धंधे में आती हैं। ज़्यादातर महिलाएं ऐसी ही होती हैं जिनके सामने या तो कोई मज़बूरी होती है या अनजाने में ही इन्हें इन बदनाम बाज़ारों में बेच दिया जाता है। ऐसी ही मज़बूर यौनकर्मियों की अनकही पीड़ा और पीड़ा की कोख़ से जन्मे चीत्कारों को समर्पित हैं, शब्दकोश से उधार लिए निम्नलिखित कुछ शब्दों की तहरीर .. बस यूँ ही ...
(१)
मुश्किल भरे चार दिन :-
यूँ मुश्किल भरे जो लगते हैं
हर महीने के चार दिन तुम्हें,
मिलती है निजात ग्राहकों से,
मिलते हैं उन्हीं दिनों चैन हमें।
(२)
सजी .. सुलगती ..
चंद रुपयों में
क़ीमत अदा
करने वाले शरीफ़ों !
सौन्दर्य प्रसाधनों से
सजी .. सुलगती ..
गोश्त लगी बोटियों की,
हमारे गर्म-नर्म लोथड़ों की ...
पर दर्द से
कटकटाती
हड्डियों की,
मन में दबे
अरमानों की,
सपनों की उड़ानों की
क़ीमत भी दे दो ना ! ...
(३)
सौभग्य बनाम सौ भाग्य :-
पाकर जीवन में बस.. एक सुहाग,
सौभाग्यवती तुम तो कहलाती हो।
भाग्य पर घर वाले खूब इतराते हैं।
भाग्य तनिक तुम मेरे भी तो देखो,
सौ भाग्य चल द्वार हर रात हमारे,
रोटी की यूँ तक़दीर बनाने आते है।
(४)
मचलते तापमान में :-
ये शरीफ़ों का शहर है,
यहाँ शरीफ़ों की बस्ती है,
हर तरफ शराफ़त बरसती है
पर थोड़ी सी मौकापरस्ती है।
आदम की औलाद,
बने फ़िरते हैं मर्द, फ़ौलाद,
मौका मिले तो भला कब,
छोड़ते ये मस्ती हैं ?
फिर भी भईया !!! ...
ये मस्ती की बातें,
कोठे की रातें,
रंगीन रातों की बातें,
ये सब किसी से ना कहना;
क्योंकि ...
ये शरीफ़ों का शहर है,
यहाँ शरीफ़ों की बस्ती है,
हर तरफ शराफ़त बरसती है,
पर थोड़ी सी मौकापरस्ती है।
अरी सलमा !
ओ री नग़मा !
तू बता ना जरा
फिर हर शाम भला
किसकी जाम छलकती है ?
किसके लिए तू मटकती है,
तू इतनी सजती-संवरती है,
लिपस्टिक-पाउडर चुपड़ती है।
सारी रात जाग-जाग कर,
सारा दिन तू कहँरती है।
ये सब किसी से ना कहना;
क्योंकि ...
ये शरीफ़ों का शहर है,
यहाँ शरीफ़ों की बस्ती है,
हर तरफ शराफ़त बरसती है,
पर थोड़ी सी मौकापरस्ती है।
पेट की आग बुझाने और
चूल्हा जलाने की ख़ातिर,
लंपटों की तू लपटें बुझाती है,
जो नसों में उनके लपलपाती है।
ना जाने कितनों के बदन की
तू गर्मियाँ सोखती है ?
अलग-अलग मनचलों के
मचलते तापमानों में
अपने बदन के तापमान,
थर्मामीटर-सा तू बदलती है ?
ये सब किसी से ना कहना;
क्योंकि ...
ये शरीफ़ों का शहर है,
यहाँ शरीफ़ों की बस्ती है,
हर तरफ शराफ़त बरसती है,
पर थोड़ी सी मौकापरस्ती है।
यूँ हैं तो इस शहर के मर्द सारे,
स्कूल-कॉलेजों से मिले
"चरित्र प्रमाण पत्र" वाले,
शरीफ़ हैं सारे, जो आ नहीं सकते।
तो ऐसे में अहिल्या वाले इंद्र या
क्या कुंती वाले सूरज देव की
छली नज़रें तुम्हें रोज़ छलती हैं ?
उघाड़ने वाले तमाशबीनों में
लगाता है क्या कोई पैबंद भी वहाँ,
जहाँ से तुम्हारी नन्हीं-नन्हीं
अक़्सर आशाएं रिसती हैं ?
ये सब किसी से ना कहना;
क्योंकि ...
ये शरीफ़ों का शहर है,
यहाँ शरीफ़ों की बस्ती है,
हर तरफ शराफ़त बरसती है,
पर थोड़ी सी मौकापरस्ती है।
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार २ जुलाई २०२१ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
जी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteउव्वाहहहह..
ReplyDeleteबंद कमरे में भी स्वामी जी तक उसकी दर्द भरी, पर सुरीली आवाज़ पहुँच पा रही थी। वह उसकी भावना को समझ पा रहे थे। वह भजन के माध्यम से बतलाना चाह रही थी, कि एक लोहे का टुकड़ा तो पूजा के घर में भी होता है और कसाई के द्वार पर भी पड़ा होता है। दोनों ही लोहे के टुकड़े होते हैं। लेकिन पारस की खूबी तो यही है कि वह दोनों को ही सोना कर दे। अगर पारस पत्थर देवता के मंदिर में पड़े लोहे के टुकड़े को ही सोना कर दे और कसाई के घर पड़े हुए लोहे के टुकड़े को नहीं कर सके, तो वह पारस के नकली होने में कतई संदेह नहीं होना चाहिए।
सादर..
जी ! नमन संग आभार आपका .. समाज से बहिष्कृत विषय वाली बातों/विचारों पर नज़र डालने के लिए .. पुनः धन्यवाद आपको .. बस यूँ ही ...
Deleteमनचले तापमानों में ..... अलग अलग खंड में अपनी पूरी बात कही है । विवेकानंद जी का नाम खेतड़ी के महाराजा जी का दिया हुआ है , और हमने अपनी ज़िन्दगी के 25 साल खेतड़ी में ही व्यतीत किये हैं । मेरे पति खेतड़ी कॉपर प्रोजेक्ट में ही कार्यरत थे ।
ReplyDeleteमैना बाई का किस्सा भी पूरी तरह से याद नहीं था । पढ़ कर बहुत अच्छा लगा । हर कोई पारस कहाँ हो पाता है ।
अंतरराष्ट्रीय वैश्या दिवस भी होता है ...इसकी जानकारी नहीं थी ।
मुश्किल भरे चार दिन ..... कितने सुकून के बीतते होंगे ।
बाकी तो आपने कहा ही दिया कि प्रमाण पत्र लिए चरित्र का ....ये शरीफों की बस्ती है ।
कितना अद्भुत लिखा है ....
जी ! नमन संग आभार आपका .. आपको सपरिवार स्वामी जी और राजा साहब से जुड़े हुए खेतड़ी में जीवन के 25 साल बिताने का मौका मिला, ये जानकर अच्छा लगा। यूँ तो मैना बाई, दिवस विशेष जैसी जानकारियाँ तो सहज ही उपलब्ध हैं, पर हम और हमारा समाज इन सब से या इनकी चर्चा करने तक से कतराता है .. शायद ...
Deleteआपकी प्रतिक्रिया के शब्दों से स्पष्ट हो रहा है कि आपने चारों खण्डों को बड़े ही मनोयोग से समय दिया है, इसके लिए पुनः आभार आपका ..
काश ! मैं भी आपकी तरह एक कुशल पाठक बन पाता .. बस यूँ ही ...
सुबोध जी ,
Deleteजो स्वयं कुशल होता है वही बारीकी से दोसरे की कुशलता पकड़ पाता है । आपकी टिप्पणियाँ कह देती हैं कि कितने मन से आपने कोई भी रचना पढ़ी । वैसे मैं कुशल पाठक की श्रेणी में हूँ या नहीं ये तो नहीं कह सकती बस इतना ज़रूर है कि बिना पढ़े और उसे बिना समझे कोई टिप्पणी नहीं कर पाती । आपने जो विषय उठाया व्व निश्चय ही सराहनीय है । आम तौर पर ऐसे विषय मिलते नहीं हैं पढ़ने को ।
ये शरीफों का शहर है ..... इसकी एक एक पंक्ति जैसे समाज के मुँह पर पड़ा तमाचा हो । मन पीड़ा से भर गया । बहुत ही संवेदनशील लिखी है ।
जी ! नमन संग आभार आपका .. दरअसल मैं भी एक आम इंसान हूँ और इसी नाते प्रशंसा से ख़ुश होने वाली कमज़ोरी मुझ में भी होना स्वाभाविक ही जान पड़ता है .. अतः आपकी प्रशंसा से अभी-अभी प्रसन्नता मिली .. बस यूँ ही ...☺☺
Deleteमैं प्रभु से प्रार्थना करता हूँ, कि सैकड़ों वेश्याएँ यहाँ आयें और ईश्वर के चरणों में अपना सिर नवायें और यदि एक भी सज्जन (?) न आये तो भी कोई हानि नहीं।
ReplyDeleteगहन चिंतन
सादर..
जी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteआदरणीय सर। बहुत ही सुंदर और सशक्त लेख, आध्यात्मिकता, दार्शनिकता और सामाजिकता से परिपूर्ण। पढ़ कर आनंद आया और बहुत कुछ सीखने को मिला, कितनी नयी प्रेरणा मिली। वैसे तो मैं इस लेख को पढ़ चुकी हूँ पर एक बार और पढूँगी। हृदय से आभार इस सुंदर रचना के लिए व आपको प्रणाम।
ReplyDeleteजी ! शुभाशीष संग आभार आपका .. हमें, ख़ासकर बच्चों और युवाओं को, हमेशा अंधानुकरण से बचना चाहिए .. हो सकता है एक नयी मैडम क्यूरी मिल जाए देश-समाज को .. शायद ...
Deleteये सब किसी से ना कहना;
ReplyDeleteक्योंकि ...
ये शरीफ़ों का शहर है,
यहाँ शरीफ़ों की बस्ती है,
हर तरफ शराफ़त बरसती है,
पर थोड़ी सी मौकापरस्ती है।
ओह!!!
ऐसी मौकापरस्ती !!
मचलते तापमानों में....
पेट की आग बुझाने और
चूल्हा जलाने की ख़ातिर,
मजबूरों की मजबूरी का फायदा उठाने वालों की कमी नहीं है यहाँ..
दुर्भाग्य है ये देश का...ऐसे घिनौने सत्य को स्पष्टता से लिखने की हिम्मत को नमन...इस अनछुए अस्पृश्य से विषय पर प्रकाश डाला जाये तो शायद इन अंधेरी गलियों में कभी कोई उजाले की किरण पहुँच पाये...।बहुत ही संवेदनशील एवं विचारणीय सृजन।
जी ! नमन संग आभार आपका ... यह देश की ही नहीं, कमोबेश पूरे विश्व की दुर्भाग्यपूर्ण समस्या है .. पर शुतुरमुर्ग की तरह रेत में अपनी मुंडी गोत कर, आँधी से बचे रहने का आडंबर करके अपनी गर्दन अकड़ाते रहते हैं हम प्रायः .. शायद ... इस उम्मीद पर कि - वो सुबह कभी तो आएगी ...
Deleteबहुत अच्छी जानकारी है
ReplyDeleteजी ! शुभाशीष संग आभार आपका ...
Deleteसुबोध जी, आपके इस शानदार लेख को आपकी सबसे बढ़िया प्रस्तुतियों में एक कहूँ तो अतिश्योक्ति नहीं होगी | संभवतः मेरे शब्द कम पड़ेंगे | एक कथित वर्जित विषय पर ये पोस्ट निःशब्द करती है | बदनाम गलियों की उन असहाय आत्माओं की व्यथा आपने जो कविता के माध्यम से लिखी उसका को जोड़ ही नहीं |देहव्यापार निसहाय नारी जीवन की सबसे बड़ी पीड़ा बनकर सदियों से रहा है जैसा कि आपने लिखा भी है गणिका देवदासी , नगरवधू इत्यादि बनकर नारी ने इस दुखद इतिहास को जिया है |रूप सौन्दर्य और गीत- संगीत भी इनके लिए अभिशाप ही रहे होंगे शायद | क्योंकि कोई नगरवधू कुरूप अथवा औसत बुद्धि की रही हो ऐसा किसी इतिहास में सुनने में नहीं आता |[ यूँ ये भी सुना जाता है , गणिका, नगरवधू इत्यादि- वेश्या वर्ग से कहीं ज्यादा सम्मान पाती थी - राजकीय कार्यों में इनका परामर्श भी लिया जाता था कहीं- कहीं ] अपने रूपसी होने की सजा भुगतती ये नारियां सभ्य समाज में किस तरह जीती हैं या जीती होंगी ये कल्पना ही रौंगटे खड़े कर देती है | यौन सुख के लिए पुरुषों ने कैसे अबला नारियों को अपना मोहरा बनाया ये बात भीतर विकलता पैदा करती है | यूँ भी अनैतिक यौनसंबंध द्वारा जीविकोपार्जन एक वीभत्स व्यवस्था को दर्शाता है | सबसे बड़ा प्रश्न -- सुसंस्कारी राष्ट्र में वे कौन छद्म वेशधारी , सफेदपोश हैं जिनके बूते ये बदनाम गलियां आबाद हैं ? और इतने कथित सभ्य- सुसंकारी लोग सत्तासीन हुए पर क्यों कोई मसीहा इन निरीह नारियों का मुकद्दर ना बदल सका ?सच इस संस्कारी बुद्धिजीवी समाज को आज तक भी किसी मैना बाई की प्रतीक्षा हो है जो कथित पाखंडी लोगों और दोहरे आचरण का मुलम्मा ओढ़े समाज के ज्ञान चक्षु खोल सके |
ReplyDeleteखैर, आपके लेख के बहाने से बहुत सी बाते जानी कि संन्यास का अर्थ ये भी है कि एक समाज की नज़रों में पतित कही जाने वाली नारी को यदि कोई सन्यासी अपने मन में ही धारण किये रहता है तो उसका संन्यास का कोई अर्थ नहीं | विवेकानंद जी के बारे में बहुत अच्छा लगा जानकार कि उनका संन्यास किन- किन पडावों से गुजर सार्थकता को प्राप्त हुआ और |एक मैना बाई ने उनके दिलोदिमाग की सारी मैल धो डाली और उनकी दृष्टि को पारदर्शिता प्रदान की न कि वे आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती जी की तरह दोहरी मानसिकता का शिकार हुए | क्योंकि एक सन्यासी के लिए वेश्या और साधारण नारी में अंतर कैसा ? | जोधपुर के महाराज यशवंत सिंह का प्रकरण स्तब्ध कर गया ! राजा अजीत सिंह ने स्वामीविविदिशानंद को कैसे विवेकानद बनाया पढ़कर बहुत अच्छा भी लगा और हैरानी भी हुई कि आज तक ये महत्त्वपूर्ण बात क्यों नहीं जान सकी ?शिकागो के धर्म सम्मेलन में स्वामी जी के हार- श्रृंगार से लेकर रामकृष्ण मिशन की स्थापना में योगदान देकर उन्होंने सनातन संस्कृति की आभा कई गुना बढ़ा दी क्योंकि आम तौर पर राजपुताना के शासक आपसी फूट और व्यर्थ की लड़ाईयों के लिए ज्यादा जाने हैं |
''अंतरराष्ट्रीय वेश्या दिवस ' के बारे में जानना बहुत चौंकाने वाला रहा | संभवतः इसलिए ज्यादा ख्याति ना मिल सकी -- एक दैहिक कुकृत्य पर आधारित दिवस पर किसे गर्व होगा जो इसे लाइमलाइट में लाया जाए |
समाज द्वारा वर्जित और त्राज्य
बदनाम गलियों की मल्लिकाओं के हँसते चेहरों के पीछे छलकती मज़बूरी और लाचारी जो आपने कविता के माध्यम से शब्दांकित की है वो बहुत अधिक भावपूर्ण है |
देह पर अत्याचार सहती अबलाओं के मन की प्रगाढ़ अनुभूतियों में, उनकी बेबसी , लाचारी छलक रही है |अपनी आजादी के लिए वर्जित चार दिनों के इन्तजार की कल्पना ह्रदय छलनी कर गयी --------
यूँ मुश्किल भरे जो लगते हैं
हर महीने के चार दिन तुम्हें,
मिलती है निजात ग्राहकों से,
मिलते हैं उन्हीं दिनों चैन हमें।
हैरानी की बात है -- सब खेल खेलकर भी छद्म लोग अपनी शराफत की दावेदारी से बाज़ नहीं आते | ------
ये शरीफ़ों का शहर है,
यहाँ शरीफ़ों की बस्ती है,
हर तरफ शराफ़त बरसती है,
पर थोड़ी सी मौकापरस्ती है।
हार्दिक आभार इस ज्वलंत आलेख के लिए , जिसे बड़ी संवेदशीलता से संजोया गया |
जी ! नमन संग आभार आपका ... ज्वलंत कितना है, ये तो आप ही टी करेंगी, हमारे तो मन में जो अटकी-सी लगी, वो बातें कह दी .. बस्स !! ..
Deleteआपकी एक सार्थक समीक्षा वाली प्रतिक्रिया ने इस सोच, इस मानसिकता के लिए एक उत्प्रेरक की तरह काम करेगा .. बतकही के साथ-साथ कविताओं (?) की आत्माओं को भी आपने बख़ूबी स्पर्श किया है .. पुनः धन्यवाद आपको .. काश ! यह बातें जमीनी सतह पर बीज की तरह रोप भी पाता तो इसकी सार्थकता और भी सार्थक होती .. बस यूँ ही ...🙏🙏🙏