गाँव के खेत-खलिहानों में कहीं
तो खेल के मैदानों में कभी
लालसा बस छू भर लेने की
उस जगह को जो अक़्सर थी
आभास-सी कराती कि .. धरती
आसमान से हो मानो मिल रही ...
बालमन ने होड़ लगाई कितनी
कई लगाई बालतन ने दौड़ भी
ना मिलनी थी .. ना ही मिली कभी
सफलता किसी जगह .. कभी भी
राह रोकता हुआ कोई जब कि
दिखा नहीं व्यवधान कहीं भी ...
है तो बस केवल एक आभासी
आँखों का एहसास भर ही
जिसे क्षितिज कहते थे गुरु जी
ये शब्द .. ये बातें .. सारी ज्ञान की
बाद में मैं था जान पाया
स्कूल की पढ़ाई के दौरान ही ...
घने अरण्य में बारहा
है बीच तपती दुपहरी
प्यासी भटकती झुण्ड हिरणों की
जिन्हें मृग मरीचिका है लुभाती
पर जल-स्पर्श नदारद
हर बार ठीक क्षितिज-सी ...
बालतन लाख हो गया बड़ा
आज बड़ा और बूढा भी
पर बालमन था जहाँ
है ठिठका खड़ा वहीं
चाह लिए मन में अपने
मिल जाने के आज भी ...
काश ! मिल पाते कभी
सच्चे मन से दो रिश्तेदार सगे
रिश्तों के आभासी क्षितिज पर
मिल पाती उसे तृप्ति भी कभी
जो भटक रहा ताउम्र अनवरत
रिश्तों की मृग मरीचिका के पीछे
प्यास लिए अपनापन की ...
प्यास लिए .. ये आस लिए कि
क्षितिज-से आभासी रिश्तों के बीच
इन्हीं आभासी क्षितिज से
कभी तो उगेगा कोई दूर ही सही
पर एक अपना-सा सूरज
अपनापन की किरणों वाली
गर्माहट लिए एहसासों के धूप की ...
तो खेल के मैदानों में कभी
लालसा बस छू भर लेने की
उस जगह को जो अक़्सर थी
आभास-सी कराती कि .. धरती
आसमान से हो मानो मिल रही ...
बालमन ने होड़ लगाई कितनी
कई लगाई बालतन ने दौड़ भी
ना मिलनी थी .. ना ही मिली कभी
सफलता किसी जगह .. कभी भी
राह रोकता हुआ कोई जब कि
दिखा नहीं व्यवधान कहीं भी ...
है तो बस केवल एक आभासी
आँखों का एहसास भर ही
जिसे क्षितिज कहते थे गुरु जी
ये शब्द .. ये बातें .. सारी ज्ञान की
बाद में मैं था जान पाया
स्कूल की पढ़ाई के दौरान ही ...
घने अरण्य में बारहा
है बीच तपती दुपहरी
प्यासी भटकती झुण्ड हिरणों की
जिन्हें मृग मरीचिका है लुभाती
पर जल-स्पर्श नदारद
हर बार ठीक क्षितिज-सी ...
बालतन लाख हो गया बड़ा
आज बड़ा और बूढा भी
पर बालमन था जहाँ
है ठिठका खड़ा वहीं
चाह लिए मन में अपने
मिल जाने के आज भी ...
काश ! मिल पाते कभी
सच्चे मन से दो रिश्तेदार सगे
रिश्तों के आभासी क्षितिज पर
मिल पाती उसे तृप्ति भी कभी
जो भटक रहा ताउम्र अनवरत
रिश्तों की मृग मरीचिका के पीछे
प्यास लिए अपनापन की ...
प्यास लिए .. ये आस लिए कि
क्षितिज-से आभासी रिश्तों के बीच
इन्हीं आभासी क्षितिज से
कभी तो उगेगा कोई दूर ही सही
पर एक अपना-सा सूरज
अपनापन की किरणों वाली
गर्माहट लिए एहसासों के धूप की ...
क्षितिज के छोर पर उगे इंद्रधनुष
ReplyDeleteअर्थों के धुंध में धुंधला जाते है
आभास में एहसास की ख़्वाहिश
हक़ीकी आईना दिखला जाते हैं
----
"क्षितिज"मानवीय मन के अधूरी ख़्वाहिशों अनुभूतियों की सुंदर अभिव्यक्ति।
जी ! आभार आपका रचना तक आने और एक भावपूर्ण काव्यात्मक प्रतिक्रिया देने के लिए ...
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में सोमवार 18 मई 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसुप्रभात संग नमन आपको और आभार आपका इस रचना/विचार को अपने मंच पर साझा करने के लिए ...
Deleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteजी ! आभार आपका ...
Delete
ReplyDeleteप्यास लिए .. ये आस लिए कि
क्षितिज-से आभासी रिश्तों के बीच
इन्हीं आभासी क्षितिज से
कभी तो उगेगा कोई दूर ही सही
पर एक अपना-सा सूरज
अपनापन की किरणों वाली
गर्माहट लिए एहसासों के धूप की
लाजवाब सृजन...
जी ! आभार आपका मेरी रचना/विचार तक आने के लिए ...
Deleteकाश ! मिल पाते कभी
ReplyDeleteसच्चे मन से दो रिश्तेदार सगे
रिश्तों के आभासी क्षितिज पर
मिल पाती उसे तृप्ति भी कभी
जो भटक रहा ताउम्र अनवरत
रिश्तों की मृग मरीचिका के पीछे
प्यास लिए अपनापन की ... वाह! आज के रिश्तों के सच को निचोड़कर रख दिया आपने। बहुत कम रिश्ते ही आभासी नहीं हैं और छलावे से दूर हैं।
जी !आभार आपका ...सच में .. रिश्तों की कतार में अपनापन की आस ताउम्र रह जाती है ...
ReplyDelete