अलाव पहला जलाया होगा आदिमानव ने
हिंसक जंगली पशुओं से रक्षा की ख़ातिर
जब चिंगारी चमकी होगी अचानक पत्थरों से
अब भी यूँ तो जलते आए हैं अलाव हर साल
कड़ाके की ठंड से बचने की ख़ातिर
हर बार गाँव के खेतों-खलिहानों में
घर-आँगन और चौपालों में
होते हैं सरकारी इंतजाम इस के
कभी-कभी शहरी चौक-चौराहों पर
सार्वजनिक बाग़-बगीचे .. मुहल्लों में
तापते हैं जिसे वृद्ध-युवा, अमीर-गरीब
हिन्दू-मुसलमान सभी बिना भेद-भाव किए ...
पर जलते हैं अलाव और भी तो कई यहाँ
होते हैं मौके भिन्न-भिन्न .. तरीके भी कई-कई
मसलन ... दुःख से सिक्त किसी अपने की
लपलपाती लौ लिए चटकती चिता
या फिर ख़ुशी बटोरे आई होली के पहले
फ़ाल्गुनी पूर्णिमा की जलती होलिका
फिर कभी लोहड़ी के मचलते लौ संग नाच बल्ले-बल्ले
और साथ मिठास घोलती लाई और लावा
या फिर गाँव-शहर का हो रावणदहन
संग पहने आतिशबाज़ी का जामा
सेनाओं की उत्सवाग्नि हो या फिर ..
बलात्कार के बाद गला घोंटी हुई
या कराहती .. छटपटाती .. अधमरी-सी ज़िन्दा
सरे राह जलाई गई निरीह कोई बाला
कहीं यतायात बाधित करती उन्मादित भीड़
जलाए गए टायर .. उड़ता काला धुआँ
और सुना है ... विरहनी हो या बेवा कोई
तपता है मन-तन दोनों सुलगते अलाव-सा ...
जल चुके अब तक बहुत सारे अलाव यहाँ
अब आओ ना हम सब मिलकर ...
अपनी सोयी सोचों को सुलगाते हैं
नए विचारों की लौ धधकाते हैं
अब आओ ना हम सब मिलकर ...
एक परिवर्त्तन का अलाव जलाते हैं
जलाते हैं उनमें बाँटते इन्सानों वाले
हर किताबों को .. इमारतों को ..
जबरन चन्दा वाले पंडालों को
बड़े-बड़े कँगूरों को .. ऊँची मीनारों को
अन्धपरम्पराओं को .. कुरीतियों को
जाति-धर्म के बँटवारे वाली सोचों को
हर पल .. हर घड़ी .. बाँटती है जो
एक ही क़ुदरत से बने हम इंसानों को ...
हिंसक जंगली पशुओं से रक्षा की ख़ातिर
जब चिंगारी चमकी होगी अचानक पत्थरों से
अब भी यूँ तो जलते आए हैं अलाव हर साल
कड़ाके की ठंड से बचने की ख़ातिर
हर बार गाँव के खेतों-खलिहानों में
घर-आँगन और चौपालों में
होते हैं सरकारी इंतजाम इस के
कभी-कभी शहरी चौक-चौराहों पर
सार्वजनिक बाग़-बगीचे .. मुहल्लों में
तापते हैं जिसे वृद्ध-युवा, अमीर-गरीब
हिन्दू-मुसलमान सभी बिना भेद-भाव किए ...
पर जलते हैं अलाव और भी तो कई यहाँ
होते हैं मौके भिन्न-भिन्न .. तरीके भी कई-कई
मसलन ... दुःख से सिक्त किसी अपने की
लपलपाती लौ लिए चटकती चिता
या फिर ख़ुशी बटोरे आई होली के पहले
फ़ाल्गुनी पूर्णिमा की जलती होलिका
फिर कभी लोहड़ी के मचलते लौ संग नाच बल्ले-बल्ले
और साथ मिठास घोलती लाई और लावा
या फिर गाँव-शहर का हो रावणदहन
संग पहने आतिशबाज़ी का जामा
सेनाओं की उत्सवाग्नि हो या फिर ..
बलात्कार के बाद गला घोंटी हुई
या कराहती .. छटपटाती .. अधमरी-सी ज़िन्दा
सरे राह जलाई गई निरीह कोई बाला
कहीं यतायात बाधित करती उन्मादित भीड़
जलाए गए टायर .. उड़ता काला धुआँ
और सुना है ... विरहनी हो या बेवा कोई
तपता है मन-तन दोनों सुलगते अलाव-सा ...
जल चुके अब तक बहुत सारे अलाव यहाँ
अब आओ ना हम सब मिलकर ...
अपनी सोयी सोचों को सुलगाते हैं
नए विचारों की लौ धधकाते हैं
अब आओ ना हम सब मिलकर ...
एक परिवर्त्तन का अलाव जलाते हैं
जलाते हैं उनमें बाँटते इन्सानों वाले
हर किताबों को .. इमारतों को ..
जबरन चन्दा वाले पंडालों को
बड़े-बड़े कँगूरों को .. ऊँची मीनारों को
अन्धपरम्पराओं को .. कुरीतियों को
जाति-धर्म के बँटवारे वाली सोचों को
हर पल .. हर घड़ी .. बाँटती है जो
एक ही क़ुदरत से बने हम इंसानों को ...
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
१६ दिसंबर २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
नमन और आभार आपको मेरी रचना साझा करने के लिए ...
Deleteसुबोध जी, अलाव विषय को सार्थक करते इस निबंध काव्य में आपने जिस तरह से इस विषय पर लिखा है , अत्यंत सराहनीय है ।मेरे दिवंगत् दादा जी हमें बचपन में बताया करते थे कि किस तरह वे अपने बचपन में किसी बाहरी निर्जन स्थान पर अपने दोस्तों के साथ अलाव जलाकर पूरी रात उसे सेकते हुये कहानियों और किस्सों का आपस में आदान प्रदान करते थे । इन अलावो को गली मुहल्ले में लड़कियाँ तो शायद ही सेकती होंगी, पर बचपन में हर साल लोहडि के अलाव का आनंद सबके साथ मैंने भी खूब लिया है। सौहार्द की आंच भरे उस अलाव का आनंद शब्दों में लिखा नहीं जायेगा। आपने जिस तरह से समस्त अलावों पर दृष्टिपात किया है, उसकेलिए हार्दिक शुभकामनाएँ। बहुजनहिताय कल्याणकारी भावनाएं शब्दांकित करना और सद्भावना के अलाव की कामना करना ही एक सच्चे कवि का परम_धर्म हैं। ईश्वर करे ये कामना जरूर फलीभूत हो यही दुआ है।
ReplyDeleteनमन और आभार आपकी विश्लेषणात्मक प्रतिक्रिया के लिए ..सच कहूँ तो लोहड़ी भी लिखना था, किसी अंजान कारणवश भूल से नहीं जोड़ पाया, पर आपकी प्रतिक्रिया के बाद मैंने सोची हुई पंक्तियाँ जोड़ दी है .. इसके लिए अलग से आभार आपका ...
Delete"फिर कभी लोहड़ी के मचलते लौ संग नाच बल्ले-बल्ले
और साथ मिठास घोलती लाई और लावा"...
😊😊
Deleteअलाव का सार्थक सृजन
ReplyDeleteप्रतिक्रिया के लिए नमन और आभार आपका ...
Deleteबहुत सुंदर और सार्थक रचना
ReplyDeleteरचना के मर्म तक आने के लिए नमन और आभार आपका ...
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (17-12-2019) को "मन ही तो है" (चर्चा अंक-3552) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
नमन आपको महाशय और आभार भी मेरी रचना को अपने मंच पर साझा करने में लिए ....
Deleteजल चुके अब तक बहुत सारे अलाव यहाँ
ReplyDeleteअब आओ ना हम सब मिलकर ...
अपनी सोयी सोचों को सुलगाते हैं
नए विचारों की लौ धधकाते हैं
अब आओ ना हम सब मिलकर ...
एक परिवर्त्तन का अलाव जलाते हैं
बहुत सी सुंदर संदेश ,सादर नमन
This comment has been removed by the author.
Deleteसादर का तो पता नहीं (मतलब सादर लायक मैं हूँ भी या नहीं ... ये पता नहीं ) , पर मन से नमन आपको भी और साथ आभार भी रचना के मर्म को स्पर्श करने के लिए ...
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