Saturday, October 12, 2019

भेद का पर्दा

पर्दा का उठना-गिरना ...
गिरना-उठना है एक
अनवरत सिलसिला
पलकों के उठने-गिरने ...
गिरने-उठने जैसा
मानो हो दिनचर्या का अंग
पर्दा है कभी क़ुदरती नियामत
मसलन -  नयनों की पलकें
सुरक्षा-कवच ... ओज़ोन की परत
मानव-तन पर त्वचा का आवरण ...

कभी होता है जरुरी हटना भी
पर पर्दे का कई बार
हो जो अगर पड़ा अक्ल पर
और समय से उठना भी
प्रदर्शन शुरु होने से पहले
किसी भी मंच पर
और हाँ !!! ...
हटा रहे मन से भी
हर एक भेद का पर्दा 
जो हो मन से मन का
रिश्ता कोई प्रगाढ़ अगर ...
लगते हैं नागवार भी
कई बार यही पर्दे
अगर अनचाहा हो घुँघट या
फिर ज़बरन थोपा गया
कोई मज़हबी बुर्क़े का चलन ...

सृजन के लिए भी
कभी भी .. कोई भी ... 
सृष्टी की कड़ी
होता है निहायत ज़रूरी
पर्दे का हटना हाल में हर
मसलन - अमूमन अंकुरण के लिए
हटना हो बीज का आवरण
या गर्भ की झिल्ली के फटने के
बाद हो मानव-अवतरण
या मानव-सृजन के बुनियाद के
पल भी उतरना हो रचयिता
नर-नारी युगल का वसन ...


4 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 12 अक्टूबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. आपका हार्दिक आभार यशोदा जी ...

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  2. घूंघट या बुर्का कहीं न कहीं नारी समाज की गुलामी का घोतक है।
    इस मानसिकता पर प्रहार जरूरी है साहित्यिक और न्यायिक दोनों ओर से।
    सच... पर्दा या आवरण हटना कई बार कितना जरूरी होता है।
    बहुत आला दर्जे की रचना है।

    नई पोस्ट पर स्वागत है आपका 👉🏼 ख़ुदा से आगे 

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  3. यथोचित आकलन के लिए नमन और रचना तक आने के लिए आभार आपका ...

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