Sunday, October 6, 2019

चलो ... बुत बन जाएं - चन्द पंक्तियाँ - (१९) - बस यूँ ही ...

(१)
पत्थर-दिल
हो गए हैं

मेरे शहर
के लोग ...

'पत्थरों' को
पूजते-पूजते

(२)
सुना है ...
अयोध्या में
'राम-मंदिर' बनवाने में
हैं अनगिनत अवरोध ...

'अयोध्या' बन जाएगा
हर गाँव-शहर
अगर ...
तू 'राम' बनने की सोच ...

(३)
शहर में इन दिनों
'पैरोडी' का शोर
है क्यों कर ...

शायद 'श्रद्धा'
जताने का हो
कोई नया चलन

यूँ 'प्यार' तो ये शहर 
ख़ामोशी से ही
जताता हैं अक़्सर ...

(४)
अपने शहर में ....
इन्सानों की भला
है अब क़द्र कहाँ !?

चलो... बुत बन जाएं
बुतों की हीं
है क़द्र अब यहाँ ...

(५)
त्योहारों के
मौसम में
विज्ञापनों के
होड़ ने
ग़रीब-सा
कर दिया

इतने भी तो
हम ना थे
कभी ग़रीब ......

(6)
हे तथाकथित
जग के पालनहार!
अख़बारों की
सिसकती
सुर्खियाँ


आए दिन
सुबह-सवेरे तेरी '
मौज़ूदगी' पर ही
एक सवाल-सी
उठाती है ...








2 comments:

  1. कोमल भावनाएँ शब्दों से बाहर झांकती हुई

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    1. हार्दिक आभार बंधु रचना को समय देने के लिए ..

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