Thursday, November 23, 2023

पुंश्चली .. (२०) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)


प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (१९)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (२०) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

अब इन लोगों को अपनी चाय की दुकान की ओर आता देखकर रसिकवा का नाबालिग 'स्टाफ'- कलुआ अपनी (?) चाय की दुकान के सामने रखे दोनों बेंचों को कपड़े से जल्दी-जल्दी पोंछने लगा है। साथ में .. उनके पीछे से मन्टू की टोली भी फिलहाल अंजलि के वर्तमान प्रकरण को अपने दिमाग़ से झटकने की कोशिश करते हुए,  नगर निगम वाले कचड़े के डब्बों के पास से चाय की दुकान की ओर बढ़ चली है ..

गतांक के आगे :-

रेशमा .. एक किन्नर .. सात किन्नरों की टोली की 'हेड' होते हुए भी पूरे मुहल्ले के लोगों से सम्मान पाती है। उसे सम्मान मिले भी भला क्यों नहीं ? .. वह है ही ऐसे स्वभाव और सोच की .. यूँ तो प्रायः कोई बुज़ुर्गवार ही अपनी टोली की 'हेड' होती है। परन्तु रेशमा के साथ ये बात लागू नहीं होती। वह तो अभी महज़ छ्ब्बीस वर्ष की ही है। पर अपनी क़ाबिलियत के दम पर अपनी मंजू माँ, जो इसके पहले इस टोली की 'हेड' थी और रेशमा की पालनहार थी .. जिसको टोली के सभी किन्नर ही नहीं सारे मुहल्ले वाले भी इसी नाम से बुलाते थे, के मरने के बाद टोली में सबसे कम उम्र की होने के बावजूद भी आपस में सब के द्वारा टोली की 'हेड' मान ली गयी थी। आज तक इस जिम्मेवारी को यह बख़ूबी निभा भी रही है। 

लगभग दो वर्ष की रही होगी, जब मंजू माँ इसे रेलवे यार्ड में खड़ी किसी मालगाड़ी के एक खाली डब्बे से बेहोशी की हालत में ले कर आयी थी। दरअसल मंजू माँ को रोजाना सुबह-सुबह भटकते लावारिस जानवरों को कुछ-कुछ खिलाने की आदत थी। ख़ासकर कुत्तों को .. इसी क्रम में वह उस दिन रेलवे यार्ड में भटकते कुत्तों को रोटी खिलाने गयी थी। जहाँ खिलाने के क्रम में एक डब्बे में घुसते कुत्ते का पीछा करते हुए जब मंजू माँ डब्बे में उचक कर झाँकी तो एक बदहाल बच्ची को देख कर भौंचक्की रह गयी थी। बाद में सभी को समझ में आया था, कि ये भी उन्हीं की बिरादरी की है। शायद इसे इसी कारण से इसके निर्दयी माँ-बाप ने अपनी जगहँसाई के भय से अपना पीछा छुड़ाते हुए लावारिस मरने के लिए छोड़ दिया था। 

वो तो भला हो मंजू माँ की, कि उसकी नेक नीयत ने इसकी नियति सुधारते हुए इसे रेशमा नाम देकर अपनी जान से भी ज्यादा प्यार-दुलार से पालन-पोषण किया था। ऐसे में मंजू माँ की परवरिश और उसके स्वयं के जन्मजात संस्कार ने, किन्नरों के बीच पलते-बढ़ते हुए और स्वयं किन्नर होने के बावज़ूद भी एक समझदार और संवेदनशील इंसान है रेशमा। मंजू माँ रेशमा को भले स्कूल नहीं भेजती थी, पर मोनिका भाभी के पी जी में रहने वाले पढ़े-लिखे लोगों के पास पढ़ने अवश्य भेजती थी। उसी पी जी में रहने वाले मयंक और शशांक भी रेशमा की कुशाग्रता के क़ायल हैं। रंजन भी जब जीवित था , तो उससे भी रेशमा पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ देश-दुनिया की ख़बरों की बातें किया करती थी। अक़्सर रंजन को चिढ़ाती हुई, ख़ासकर अंजलि और शनिचरी चाची के सामने कहती थी, कि- "ऐ रंजन भईया ! .. एक और शादी कीजिए ना .. तब फिर से हफ़्तों बुनिया खाने के लिए मिलेगा।" 

ऐसे मौके पर अंजलि केवल मुस्कुराती रहती और शनिचरी चाची भी मज़ाक-मज़ाक में उससे कहतीं कि - "तुम्हीं कोई अपनी पसन्द की लड़की बतलाओ, तो तुमको बुनिया खिलाने के लिए रंजनवा का फिर से ब्याह कर देंगे। अंजलि और वो .. दोनों मेरे घर में रहेगी।"

फिर सब मिलकर हँस पड़ते थे। तभी गम्भीर हो कर रेशमा कहती थी, कि - " सच में चाची .. अब तो 'कैटेरिंग-बुफे कल्चर' में भोज के बाद भी हफ़्तों बुनिया खाना और बाँटना लुप्तप्राय ही हो गया है। है ना चाची ?

शनिचरी चाची - "हाँ .. ठीक ही तो कह रही हो ..भोज-भात के बाद भी तब के समय हफ़्तों बुनिया की बहार रहती थी।"

अब रेशमा अगर किन्नर है तो .. किन्नर होना कोई गुनाह भी तो नहीं .. वो तो तथाकथित समाज की थोथी सोचों और मान्यताओं ने इन्हें जबरन गुनाहगार बना रखा है .. शायद ... आख़िर क्या गुनाह है इनका जो इन्हें हमारे तथाकथित मानव समाज में ससम्मान साँस लेने की अनुमति नहीं मिली है ? ये एक अपवाद ही है, जो इस मुहल्ले में किन्नरों की टोली को इतना सम्मान मिलता है।पर .. वैसे .. केवल किसी इंसान के जननांग की प्राकृतिक विकृति भर उस इंसान की अवमानना की वजह कैसे बन सकती है भला ? किसी भी इंसान का कोई भी बाहरी या भीतरी अंग प्राकृतिक रूप से या किसी भी अन्य दुर्घटना से विकृत हो जाए तो यह विकृति उसकी सोच को .. उसकी संवेदनशीलता को भी विकृत कर देती है क्या ? .. कर देती है क्या ? .. शायद नहीं ...

अभी सभी लोगों में से कुछ लोग दोनों बेंचों पर और कुछ लोग पिलखन के पेड़ के नीचे चाय की प्रतीक्षा में बैठ कर इधर-उधर की बातें कर ही रहे हैं .. तब तक कुछ देर पहले मन्टू के मारे गए पत्थर से चोटिल कुतिया-बसन्तिया अपने काले शरीर और मुँह के बीच अपनी गुलाबी जीभ निकाले आकर रेशमा के पाँव के पास बैठ गयी है। रेशमा को पता है कि इस बसन्तिया को जब भूख लगी होती है, तभी वह रेशमा के पास प्यार जतलाने आ जाती है, वर्ना मुहल्ले भर में मटकती फिरती है। वैसे भी इसको मुहल्ले भर में दरवाजे-दरवाजे जाकर चाटने की आदत है। बहुत ही चटोरी है ये बसन्तिया। पर .. ये भी ख़ासियत है इसमें कि जब कभी भी इसका पेट भर जाता है, तो एक चुटकी भर भी खाने का सामान मुँह में नहीं डालती है।

रेशमा - "रसिक भईया आप अपनी स्वादिष्ट चाय के पहले कलुआ से दो पाव भेज दीजिए .. हम सब की दुलारी बसन्तिया को भूख लगी है। उस पर तनिक दूध टपका भर दीजिएगा।"

पल भर में कलुआ एक प्लेट में दो पाव लिए हाज़िर हो गया है। बसन्तिया पाव आता देखकर अपने मुँह पर अपनी जीभ फिराने लगी है। अब दूध में भींगे हुए पाव को टुकड़ा-टुकड़ा करके रेशमा उसको खिलाने लगी है। तभी सड़क उस पार से मुहल्ले में ही घर-घर भटकने वाला एक मोटा-ताजा बिल्ला .. बसन्तिया को पाव खाता देखकर इस तरफ दौड़ता आ रहा है। 

तभी पास के ही सरकारी स्कूल में सुबह-सुबह पढ़ने जाने वाले मुहल्ले के कुछ बच्चों की एक टोली जाते-जाते अचानक रुक जाती है। उनमें से एक बच्ची एक क़दम आगे बढ़ कर .. थू-थू कर थूकती है और एक साइकिल वाले के गुजरने के बाद ही फिर सभी बच्चे स्कूल की ओर बढ़ने ही वाले हैं , कि .. रेशमा थूकने वाली बच्ची को अपने पास इशारे से बुलाती है - "सुनो .. यहाँ आओ .. मेरे पास .."

वह बच्ची सकुचाती-सी रेशमा के पास आ जाती है।

रेशमा - "अभी तुम सभी स्कूल जाते-जाते रुक क्यों गयी थी ?"

बच्ची - "अभी एक बिल्ली रास्ता काट गयी थी, ..."

रेशमा - "वैसे भी वो बिल्ली नहीं .. बिल्ला है .. तो इसके गुजरने से तुम लोगों के रुकने की वजह नहीं समझ आयी मुझे .."

बच्ची - "इस से दिन ख़राब हो जाता है .."

रेशमा - "ऐसा किसने कहा तुम लोगों से ?"

बच्ची - "मम्मी-पापा और .. टीचर मैम ने भी ..."

रेशमा - "ऐसा कुछ भी नहीं होता .. तुम्हारी किताबों में भी ऐसा लिखा है क्या ?"

बच्ची - "ऊँहुँ .. नहीं .."

रेशमा - "ये सब गलत बातें हैं बच्चों .. अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो .. अब जाओ भी .. देर हो गयी तो मैम मारेंगी .. जल्दी जाओ .."

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (२१) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】


"उज्यालू आलो अँधेरो भगलू" ...



यूँ तो सर्वविदित है कि देशभर में या विश्व भर में जहाँ-जहाँ हिन्दूओं की जनसंख्या वास करती है, वहाँ-वहाँ चन्द्र-पंचांग पर आधारित कार्तिक माह में कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी, चतुर्दशी और अमावस्या को क्रमशः धनतेरस, छोटी दीपावली और बड़ी दीपावली यानी दिवाली धूमधाम से मनायी जाती है।

इनके अलावा इसी माह में "देव दीपावली" और "बूढ़ी दीपावली" भी क्रमशः देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग मान्यताओं के अनुसार मनायी जाती है। जिनमें देव दीपावली, तथाकथित राक्षस त्रिपुरासुर पर भगवान शिव की जीत के रूप में, दिवाली के पन्द्रह दिनों के बाद कार्तिक माह के पूर्णिमा के दिन विशेष तौर पर उत्तरप्रदेश में मनायी जाती है। जिसे लोग "त्रिपुरोत्सव" भी कहते हैं। 

वैसे भी सनातन धर्म की मान्यताओं के अनुसार कार्तिक मास को सर्वाधिक पुण्यप्रद मान कर हर दिन पर्व की तरह मनाने का विधान है। चन्द्र-पंचांग के प्रत्येक माह में होने वाली दो एकादशी तिथियों की तरह विशेष तौर पर पुराण-सम्मत कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी को "रमा एकादशी" और शुक्ल पक्ष की एकादशी को "प्रबोधिनी एकादशी" कहा जाता है।

इसी शुक्ल पक्ष की एकादशी को लोक मान्यताओं के अनुसार कई क्षेत्रों में हिन्दुओं द्वारा तथाकथित भगवान विष्णु की विधि पूर्वक पूजा-आराधना करने का विधान है, जिसके अनुसार इस दिन पीला वस्त्र धारण करके उनको श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हुए उनके सहस्त्रनाम का पाठ किया जाता है। इन सब के अलावा .. नेक संदेशें देती जो सबसे ख़ास धर्म-सम्मत बातें हैं .. इस दिन गरीब-असहाय लोगों की सहायता करने की और झूठ-अन्याय से बचने वाली मान्यताओं की, जो कर्मकांडों की धुँध में लगभग गौण ही हो चुकी हैं .. शायद ...

इन सभी से परे उत्तराखंड में इसी शुक्ल पक्ष की एकादशी को यानी देश भर में मनायी जाने वाली दीपावली के ग्यारह दिनों के बाद एक लोकपर्व- "बूढ़ी दीपावली" श्रद्धा और उल्लास के साथ मनायी जाती है, जिसे स्थानीय भाषा में "इगास बग्वाल" कहा जाता है, क्योंकि गढ़वाली भाषा के अनुसार एकादशी को "इगास" और दीपावली को "बग्वाल" बोला जाता है। जिसके तहत दीयों और पटाखों की जगह पर सांस्कृतिक व लोक परम्परागत तरीके से "भैलो" खेली जाती है। 

आपसी सौहार्द और सहभागिता का संदेश देता पारम्परिक "भैलो नृत्य" इस लोक पर्व का खास आकर्षण होता है।
"भैलो" भी एक गढ़वाली भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है .. मशाल, लुआठी या लुकाठी; जो विशेष तौर से चीड़ की लकड़ी से बनायी जाती है। जिसके लिए चीड़ की लकड़ियों की छोटी-छोटी गाँठ एक रस्सी या तार से बाँधी जाती है। सर्वविदित है कि चीड़ की लकड़ी में प्राकृतिक रूप से उपलब्ध तेल, जिनसे तारपीन का तेल बनता है और चिपचिपे गोंद, जिनसे औषधीय गुणों वाले गंधविरोजा का निर्माण होता है, के कारण इससे बनी "भैलो" काफ़ी देर तक तेज प्रकाश बिखेरती हुई जलने की क्षमता रखती है। 

इनके अलावा पहाड़ी उपजों- भाँग, तिल, छिल्ले, हिसर आदि की सूखी लकड़ियों के गट्ठर को सिरालू या मालू की रस्सी से बाँध कर शाम के समय गाँव के किसी खाली खेत-खलिहान में या चौक-चौराहे जैसे किसी भी सार्वजनिक स्थल पर जलाया जाता है। जिसकी आग से "भैलो" को जलाने की परम्परा है और "भैलो" की रस्सी या तार को पकड़कर नृत्य करते हुए कलात्मक व लयबद्ध तरीके से अपने सिर के ऊपर से घुमायी जाती है। 

इस दौरान सामुदायिक रूप से लोक वाद्य-यंत्रों .. ढोल-दमाऊँ की थाप पर पारम्परिक लोकनृत्य "चाँछड़ी और झुमेलों" के साथ-साथ गीत-संगीत और आमोद-प्रमोद का माहौल व्याप्त रहता है। इस अवसर पर प्रसिद्ध गढ़वाली लोकगीतों- "भैला ओ भैला, चल खेली औला, नाचा कूदा मारा फाल, फिर बौड़ी एगी बग्वाल" या "भैलो रे भैलो, काखड़ी को रैलू, उज्यालू आलो अँधेरो भगलू" आदि को गाए जाते हैं। इस अवसर पर कहीं-कहीं पर "गैड़" यानी रस्साकस्सी का भी खेल खेला जाता है।

उत्तराखंडी पहाड़ी लोक संस्कृति से जुड़े इस लोक पर्व के दिन लोग घरों की विशेष साफ-सफाई के बाद मीठे-मीठे पकवान बनाते हैं और अपनी आस्था के अनुसार अपने देवी-देवताओं के साथ-साथ गाय-बैलों की भी पूजा करते हैं। यूँ है तो यह भी प्रकाश का ही पर्व, परन्तु सबसे ख़ास और अनुकरणीय बात है, "इगास बग्वाल" के अवसर पर विषाक्त पटाखों का उपयोग नहीं किया जाना। 

अन्य त्योहारों या लोक पर्वों की तरह इस लोक पर्व के पीछे की भी कई लोक मान्यताएँ हैं, जिनमें एक सबसे प्रमुख किंवदंती है, कि तथाकथित पुरूषोत्तम राम द्वारा रावण का वध करके अपने चौदह वर्षों के वनवास के पश्चात कार्तिक कृष्ण अमावस्या के दिन अयोध्या पहुँचने की जानकारी दूरस्थ पहाड़ वासियों को ग्यारह दिनों बाद मिली; तो इनके पुरख़े लोग मूल दिवाली के ग्यारह दिनों के बाद कार्तिक शुक्ल एकादशी को ख़ुशी प्रकट करने के लिए दिवाली मनाए थे, जिसे गढ़वाली भाषा में "इगास बग्वाल" कह कर आज भी मनाने की परम्परा है।

दूसरी किंवदंती ये भी है कि दिवाली के समय गढ़वाल के वीर माधो सिंह भंडारी के नेतृत्व में गढ़वाल की सेना तिब्बत और दापाघाट का युद्ध जीतकर दिवाली के ग्यारहवें दिन अपने-अपने घर पहुँची थी, तो उसी की खुशी में उस समय समस्त गढ़वाल में दिवाली मनाई गई थी .. शायद ...

तीसरी मान्यता ये भी है कि शुक्ल पक्ष की इसी "प्रबोधिनी एकादशी" या "हरिबोधनी एकादशी" के दिन तथाकथित श्रीहरि यानी विष्णु जी नाग शैया पर सोते हुए से जागते हैं, जिससे इसे "देवउठनी एकादशी" या अपभ्रंश रूप में "देवठान" भी कहते हैं। इसीलिए इस दिन विष्णु भगवान की पूजा का भी विधान है। यूँ तो उत्तराखंड में कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी यानी धनतेरस से ही दीप पर्व शुरू हो जाता है, जो कि इस दिन शुक्ल पक्ष की एकादशी तक चलता रहता है। 

अब विष्णु की बात हो और धन की तथाकथित देवी लक्ष्मी की चर्चा ना हो तो यह अन्यायपूर्ण कृत्य माना जाएगा .. शायद ... तो चौथी मान्यता ये भी है कि इस दिन ऐसा करने वालों को माता लक्ष्मी कष्टों को दूर करने के संग-संग सुख-समृद्धि भी देती हैं। 

हालांकि ये भी कहा जाता है कि दीपावली के समय पहाड़ों में लोग खेती में व्यस्त रहते हैं। इसीलिए खेती के काम को निपटाने के बाद वे लोग यह पर्व मनाते हैं।

ख़ैर ! .. जो भी हो .. लब्बोलुआब यही है कि सबसे बड़ा मानव-धर्म मानते हुए, हमें सामुदायिक रूप से अँधेरे को भगाने का प्रयास निरन्तर करते रहना चाहिए .. चाहे वो अँधेरा हमारे घर के किसी कोने का हो या मन के कोने का या फिर समाज में व्याप्त अंधपरम्पराओं का हो .. और .. विषाक्त आतिशबाज़ी को प्रतिबन्धित करते हुए अपने आसपास स्वच्छता के संग-संग गीत-संगीत, आमोद-प्रमोद और कोमल भावनाओं की मिठास को घोलने के लिए प्रयासरत रहना चाहिए .. बस यूँ ही ...


Thursday, November 16, 2023

पुंश्चली .. (१९) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)


प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (१८)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (१९) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

मन्टू - " और तो कोई औरत रहती नहीं है उस घर में .. हमारे तो सपनों का महल ही ढह गया है .. आख़िर अंजलि ने ये सब किसके साथ किया होगा। हमको तो ये पता लगाना ही पड़ेगा ... "

गतांक के आगे :-

चाँद - " मन्टू यार ! .. अब तक हमारे सर-ज़मीन ही नहीं, बल्कि सारे ज़मीन पर इल्म ने कितनी भी तरक्क़ी कर ली हो, पर .. आज तक मन की सफ़ाई के लिए ना तो किसी 'वाशिंग मशीन' की ईजाद हुई है और ना ही कहीं भी 'लॉन्ड्री' खुली है .. "

भूरा - " अब ये मन और सेर-पसेरी का तो ज़माना रहा नहीं  ना मन्टू भाई ? आयँ ? अब तो किलो और ग्राम .. "

मन्टू - " अबे गधे ! .. ये उस मन की बात नहीं हो रही .. "

चाँद - " हर बात में तुमको टपकना जरुरी है ? .. है ना ? "

मन्टू - " सही फ़रमा रहे हो चाँद भाई .. किसके मन में क्या चल रहा है .. क्या पक रहा है .. जानना-समझना बहुत ही मुश्किल .. "

चाँद - " मुश्किल ना भाई .. मान लो कि एकदम से नामुमकिन है ये .. "

मन्टू - " ये भी सही है .. अब देखो ना जरा .. अंजलि को देख कर .. कोई भी कहेगा कि ये औरत रंजन के इस दुनिया से जाने के बाद ऐसा-वैसा कुछ भी करेगी .. कोई गलत क़दम उठाएगी ? .. नहीं ना ? .. " 

चाँद - " इस बदज़ात औरत ने रंजन के एहसान का क्या ही सिला दिया है .. और .. तुमने भी तो इतना सब कुछ किया .. इसके लिए भी और .. रंजन के लिए भी .. है कि नहीं ? .. " 

भूरा - " हमको तो बीच में टपके बिना रहा ही नहीं जाता है चाँद भाई .. हम लोगों के दुःख का सबसे बड़ा कारण यही तो है, कि हम किसी की सहायता करके .. उसके बदले में सामने वाले से उस सहायता की क़ीमत मिलने की उम्मीद रखते हैं और नहीं मिलने पर मायूस हो जाते हैं .. मन्टू भाई की तरह .. "

मन्टू - " बन्द कर बे .. अपने ज्ञान की पोटली .. "

भूरा - " भईया .. हम कोई ज्ञान नहीं बाँट रहे हैं .. पुरखों ने भी तो वर्षों पहले यही सलाह दी है, कि नेकी कर दरिया में डाल .. समझ रहे है ना ? .. "

चाँद - " अभी ज्यादा ज्ञान बघारने का 'टाइम' नहीं है .. समझे कि नहीं .. अभी मन्टू को 'सपोर्ट' करने का समय है। .. अंजलि की कारिस्तानी का पर्दाफाश करके उस को उजागर करना है .. ख़ास करके शनिचरी चाची के सामने .." 

मन्टू - " हाँ .. जिनकी नज़र में वो एकदम सती सावित्री दिखती है .. एकदम से पाक-साफ़ .. "

भूरा - " भईया .. मन के विचारों की एक्सरे मशीन की ख़ोज वैज्ञानिकों ने अगर जो आज कर दी तो .. ना जाने यहाँ कितने तलाक़ और मार-काट हो जाएँ .. "

चाँद - " अरे ... एक्सरे मशीन की छोड़ो .. अगर जो .. सारी औरतें स्वाबलंबी बन गयीं ना .. तो ... तो पश्चिमी विदेशों से भी ज्यादा तलाक़ हमारे देश में होने लग जायेगी .. हमारे देश में लोगों का कहना है, कि यहाँ की औरतें पतिव्रता हैं, इसीलिए तलाक़ कम होते हैं .. पर नहीं .. भाई .. वो अपने-अपने पति के ऊपर आर्थिक रूप से आश्रित होने की वजह से बहुत सारे समझौते करती हैं .. तो .. तलाकें नियंत्रित जान पड़ते हैं .. "

भूरा - " अब ये सब बात हमारे समझ से बाहर की है भाई .. ये सब बात तुम ... "

अभी भूरा अपनी बात पूरी कर ही पाता .. तब तक रोज की तरह अपने धंधे पर जाने के पहले रसिकवा की कड़क चाय पीने जाने के क्रम में सामने से गुजरती रेशमा की टोली अपने अंदाज़ में ताली पीटते हुए मन्टू को सम्बोधित करके कह रही है - " आय-हाय ! .. राधे-राधे .. मन्टू भईया ! .. अभी आपकी हवा-हवाई खाली है ? .. चाय पीकर हमलोगों को अस्पताल रोड वाले दो-तीन 'नर्सिंग होम' ले चलेंगे ? .. फिर उसके बाद .. "

मन्टू - " हाँ .. हाँ .. खाली है- खाली है .. चलेंगे .. जहाँ कहीं भी जाना हो .. "

मन्टू जान रहा है, कि अभी सुबह-सुबह की सवारी को ना करके वह अपनी बोहनी ख़राब नहीं कर सकता। अंजलि वाली गुत्थी से मन उदास रखने से अपने पेट भरने की समस्या का हल नहीं मिल पाएगा। उसके लिए तो मन को नियंत्रित करके .. मन में दबी हर पीड़ा को दबा कर फ़िलहाल तो परिश्रम करना ही पड़ेगा। अपने-अपने काम-धंधे में लगना ही पड़ेगा ...

रेशमा - " आइए ना मन्टू भईया आप सब लोग भी .. हमलोगों के साथ .. सब लोग मिलकर रसिकवा की दुकान की कड़क चाय पीते हैं। "

रेशमा .. सात किन्नरों की एक टोली की 'हेड' है, जो इस मुहल्ले से कुछ ही दूरी पर बसी झोपड़पट्टी में अपनी टोली के साथ रहती है।  

अब इन लोगों को अपनी चाय की दुकान की ओर आता देखकर रसिकवा का नाबालिग 'स्टाफ'- कलुआ अपनी (?) चाय कदुकान के सामने रखे दोनों बेंचों को कपड़े से जल्दी-जल्दी पोंछने लगा है। साथ में .. उनके पीछे से मन्टू की टोली भी फिलहाल अंजलि के वर्तमान प्रकरण को अपने दिमाग़ से झटकने की कोशिश करते हुए,  नगर निगम वाले कचड़े के डब्बों के पास से चाय की दुकान की ओर बढ़ चली है ..

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (२०) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】

Thursday, November 9, 2023

पुंश्चली .. (१८) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)


प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (१७)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (१८) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

इसी से उसे हर माह पता चलता रहता है, कि अंजलि के "मुश्किल से भरे वो चार दिन" कब शुरू होते हैं और कब ख़त्म .. जिसके बाद उसके 'शैम्पू' किए .. अपने खुले बालों में उसके दर्शन हो जाने से वह मन ही मन .. बहुत ही खुश होता रहता है। पर ये क्या .. अभी तो उसकी आँखें फ़टी की फ़टी रह गयीं है .. चेहरे पर एक तनाव की गहरी रेखा अचानक खींच गयी है। आख़िर ऐसा क्या दिख गया भला उसे अंजलि के घर से निकले आज के कचरे में ... ? 

गतांक के आगे :-

अभी मुहल्ले में चौक के पास ही रसिक चाय दुकान के निकट नगर निगम द्वारा रखे गए कचरे के बड़े डब्बे में अपने तीन वर्षीय इकलौते बेटे अम्मू के साथ रोज की तरह स्कूल जाने के दौरान अंजलि द्वारा उसके घर के कचरों से भरी फेंकी गयी थैली से मिले उस सामान विशेष को मन्टू अपने हाथों में उलट-पलट कर उसकी गुत्थी सुलझाने की कोशिश कर ही रहा है, तभी काफ़ी देर से अपनी चांडाल चौकड़ी के बीच से गायब मन्टू को तलाश करते हुए उसकी चांडाल चौकड़ी के अन्य दो सदस्य- भूरा और चाँद उसके पास आ गए हैं। वे दोनों भी मुहल्ले भर की चहेती गली की कुतिया- बसन्तिया, मन्टू और अंजलि के घर के कचरे की थैली की त्रिकोणीय गुत्थमगुत्थी वाली दिनचर्या से भली-भाँति परिचित हैं।

अचानक भूरा मन्टू की दायीं हथेली से उस वस्तु विशेष को लपक लेता है और उसे उलट-पुलट कर हैरत भरी नज़रों से निहारते हुए - " ये तो किसी टूटे हुए थर्मामीटर का कचरा लग रहा है चाँद भाई .. है ना ? "

चाँद - " नहीं रे बकलोल .. ये .. इसको 'प्रेगनेंसी टेस्ट स्ट्रिप' कहते हैं। ... "

भूरा - " तुमको कैसे पता ? .. ऐसा तो गाहे-ब-गाहे हमारी नगर निगम वाली गाड़ी में मुहल्ले भर के घर-घर से डाले जाने वाले कचरों में नज़र आता ही रहता है भाई .. हम तो उन्हें भी आज तक टूटा थर्मामीटर ही समझते रहे हैं। वैसा ही तो लगता है .. नहीं मन्टू भाई ? " - अपनी बात और समझ के समर्थन के लिए मन्टू को भूरा टटोलने की कोशिश भर करता है। पर ..

मन्टू - " अबे ! .. जब चाँद भाई कह रहे हैं, कि ये 'प्रेगनेंसी टेस्ट स्ट्रिप' है तो .. फिर तू अपना ज्ञान क्यों बघार रहा है। " मन्टू चिड़चिड़ाहट के साथ भूरा को झिड़क दिया है।

भूरा - " ना भाई .. हम चाँद भाई की बात काट नहीं रहे .. हम तो अपनी कम जानकारी को बतला रहे हैं .. बस ... अब चाँद भाई तो अपनी 'टैक्सी' में दिन-रात गिटिर-पिटिर बोलने वाले बड़े-बड़े साहब-मेम साहब को इधर-उधर घुमाते रहते हैं और हम दिन भर घर-घर से कचरा बटोरते चलते हैं .. तो हमारे दिमाग़ में तो कचरा ही होगा ना भाई और ... चाँद भाई आप ही की तरह ज्ञानी प्राणी .. है ना भाई ? .. "

चाँद - " अब ज्यादा 'इमोशनल कार्ड' खेलने की ज़रूरत नहीं है .. बल्कि ... "

भूरा - " अब ये 'इमोशनल कार्ड' क्या .. .. " - भूरा के इस सवाल को बीच में ही काटते हुए मन्टू उसको चुप करा रहा है।

मन्टू - " अबे चुप हो जा तू भूरा के बच्चे ! .. सुबह-सुबह और ज्यादा दिमाग़ को मत पकाओ .. मेरा दिमाग़ ऐसे ही घुम रहा है .. "

 भूरा - " क्या हुआ ? .. दिमाग़ क्यों घुमने लगा ? .. खाली पेट में चाय पीने से गैस तो नहीं बन गयी कहीं ? .. "

 चाँद - " तू चुप भी करेगा ? .. या .. ऐसी ही बेसिर-पैर की अटकलें लगाता रहेगा ? .. "

चाँद की झिड़की सुनकर भूरा सिटपिटा गया है और मोहन दास करमचन्द गाँधी जी के तथाकथित पालतू (?) तीन बन्दरों में से एक बन्दर की तरह .. अपने बन्द होठों पर अपनी दायीं तर्जनी का ताला जड़ते हुए बोल रहा है - " अच्छा भाई .. अभी से हम चुपचाप .. केवल आप दोनों की बातें सुनते हैं हम .. ठीक ? .."

मन्टू - " चाँद ! .. इस 'स्ट्रिप' की दोनों 'लाइनें' गहरे गुलाबी रंग की हैं .. इसका मतलब तो .. " - लगभग मायूस होकर उदासी भरी आवाज़ में मन्टू अपनी शंका ज़ाहिर कर रहा है।

चाँद - " हाँ .. इसका मतलब तो यही है कि जिसने भी इस 'स्ट्रिप' से अपनी जाँच की है, उसके गाभिन होने का खटका है .."

भूरा - " आपको कैसे पता ? .."

मन्टू - " फिर बीच में टपका बुड़बक कहीं का .. "

चाँद - " 'भेरी सिम्पल' यार .. कई दफ़ा कोई-कोई साहब-मेमसाहब तो हमारे टैक्सी में ही सफ़र के दौरान बैठे-बैठे इसी तरह की 'स्ट्रिप' की दोनों गहरी गुलाबी 'लाइनों' की ज़िक्र करके आपस में लड़ पड़ते हैं। कभी साहब को बच्चा नहीं चाहिए होता है, कभी मेमसाहब को। "

भूरा - " उन लोगों को घर में जगह नहीं मिलता क्या झगड़ने के लिए ? "

चाँद - " अबे पागल .. फिर बीच में टपका .. बिना बीच में टपके तुमको चैन ही नहीं है .. उनमें सौ फ़ीसदी जोड़े नाज़ायज रिश्ते वाले साहब-मेमसाहब का ही होता है। तो फिर उनका घर कहाँ और कैसे होगा ? .. बोलो ! .. उनका घर तो .. या तो होटल, पार्क, सिनेमा घर ता फिर हमारे जैसों की टैक्सी ही है। हाँ .. कभी-कभार वैसे भी जोड़े आते हैं, जो सही मायने में पति-पत्नी होते हैं, पर .. एक ही छोटे-से घर के कम जगह में ही बहुत सारे लोगों के परिवार के बीच अपनी आपसी बहुत सारी पोशीदा बातें नहीं कर पाने वाले बेचारे लोग होते हैं .. जो घर से निकल कर मेरी टैक्सी में यूँ तो बैठते हैं किसी पार्क या चिड़िया घर जा कर अपने पोशीदा मसले सुलझाने के लिए .. पर .. " - अपने ज्ञान की पोटली खोले अपनी बकबक में मशगूल चाँद की निगाह अचानक मन्टू के उदास चेहरे पर पड़ी है, तो वह अपनी मुस्कुराहट को जैसे जज़्ब करते हुए गम्भीर मुद्रा में अपने ज्ञान को पुनः परोसने लगा है - " घर से निकल कर जैसे ही मेरी टैक्सी में बैठती हैं ऐसी जोड़ी तो .. अपनी मंज़िल के आने का इंतज़ार नहीं होता है इनसे .. इधर हम अपनी टैक्सी के गियर बदलते हैं, उधर उनके सब्र के बाँध टूटने के साथ-साथ उनके सुर बदलते हैं। जो बातें घर में परिवार वाली लाज-लिहाज़ से वो नहीं करते, पर टैक्सी में बैठते ही करने लग जाते हैं। "

भूरा - " अच्छा ! ?.. "

चाँद - " और नहीं तो क्या .. उन्हें आगे बैठा मेरे जैसा ड्राईवर भी गाड़ी का पार्ट-पुर्जा ही लगता है रे .. "

चाँद और भूरा की बातें मन्टू को अभी अपनी उलझन के सामने अनर्गल लग रही है। उसका सारा ध्यान अंजलि और उस दो 'लाइनों' वाली 'स्ट्रिप' पर ही केन्द्रित है इस वक्त .. उसे इस वक्त कुछ भी नहीं सूझ रहा है।

मन्टू - " अरे यार चाँद .. तू इस के साथ बकबक करता ही रहेगा या मेरी समस्या को भी सुलझाएगा ? .. बता ! ? .. जब से ये दो धारियों वाली 'किट' मेरे हाथ आयी है ... तब से मेरे माथे में दोधारी तलवार चल रही है भाई ... " - मन्टू कहते-कहते रुआँसा-सा हो गया है। कल तक दूसरों की सहायता के लिए तत्पर खड़ा रहने वाला मन्टू आज अपनी उलझन की बारी आयी है तो स्वयं को निःसहाय महसूस कर रहा है .. शायद ... 

चाँद - " यार सुन .. साहब और मेमसाहब लोगों की जो बकवासें हमने सुनी हैं .. उनके मुताबिक़ तो .. 'प्रेगनेंसी टेस्ट किट' की इस 'स्ट्रिप' पर जो दो 'लाइनें' हैं, उन्हें 'टेस्ट लाइन' और 'कंट्रोल लाइन' कहते हैं और..अगर दी गयी तज्वीज़ के मुताबिक़ आज़माइश के वक्त इस 'स्ट्रिप' पर  'यूरिन' की चंद बूँदें 'ड्रॉपर' से टपकाने पर एक ही 'लाइन' का रंग गहरा गुलाबी हो तो उसे 'नेगेटिव रिजल्ट' कहते हैं .. मतलब वो गाभिन यानी गर्भवती नहीं है और .. "

मन्टू - " और ? .."

चाँद - " और .. अगर .. इस 'स्ट्रिप' की तरह अगर .. दोनों ही 'लाइनें' गहरा गुलाबी हो जाएं तो इससे मालूम होता कि .. "

मन्टू - " पर ये कैसे सम्भव है ? रंजन को गुज़रे तो साल भर से ज्यादा हो गया .. फिर ये कैसे हो सकता है चाँद भाई ? बोलो ना जरा ... "

दरअसल रंजन से मन्टू की बहुत गहरी दोस्ती थी। रंजन के गुजरने के बाद रज्ज़ो के प्रेम से वंचित मन्टू मन ही मन अंजलि को चाहने लगा था। 

 चाँद - " और तो उस घर में शनिचरी चाची रहती हैं। उनसे भी तो ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती। है ना ? '''

 मन्टू - " और तो कोई औरत रहती नहीं है उस घर में .. हमारे तो सपनों का महल ही ढह गया है .. आख़िर अंजलि ने ये सब किसके साथ किया होगा। हमको तो ये पता लगाना ही पड़ेगा ..."

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (१९) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】



Tuesday, November 7, 2023

"क" से कलावती, करवा चौथ या क्यूरी ?

"कलावती" नाम कम से कम समस्त हिन्दू धर्मावलम्बियों के लिए तो एक जाना-पहचाना नाम है, जो पाँच अध्यायों वाली सत्यनारायण स्वामी की कथा की केन्द्रीय नायिका है। साथ ही सर्वविदित है, कि भारत के कई राज्यों में वैदिक पंचांग के अनुसार प्रत्येक वर्ष कार्तिक महीने के कृष्ण पक्ष की चौथी तिथि को प्रत्येक विवाहिता व पतिव्रता सधवा हिन्दू महिला द्वारा लगभग बारह-तेरह घन्टे का निर्जला उपवास रख कर लोक मान्यताओं के आधार पर अपने पति की लम्बी आयु के लिए "करवा चौथ" का व्रत किया जाता है और .. शाम में चाँद के उगने पर चाँद को अर्घ्य देकर अपने-अपने पति लोगों के हाथों से ही पानी पीकर व्रत तोड़ती हैं, जिनमें तथाकथित पढ़े-लिखे पति लोग भी शामिल होते हैं .. शायद ...

हर वह व्यक्ति जो स्वयं को आस्तिक और सनातनियों के वंशज मानते हुए अपने आप को हिन्दू धर्मावलम्बी कहने में गर्व महसूस करते हैं, वे लोग अपनी संतानों को अवश्य ही सत्यनारायण स्वामी की कथा के आधार पर "कलावती" के पति की नैया के डूबने के कारण और फिर उसके उबरने की युक्ति व विधि की विधिवत चर्चा करते हैं और तथाकथित सभ्य-सुसंस्कृत महिलाएँ भी अपने परिवार की युवतियों के समक्ष "करवा चौथ" व्रत की महिमा के गुणगान के साथ बखान करने से नहीं चूकतीं हैं .. शायद ...

परन्तु इसी धरती पर जन्मीं एक बालिका .. जो ना कभी "करवा चौथ" जैसे व्रत-उपवास कीं और ना ही "कलावती" वाली कथा को सुनीं-जानीं .. ना ही मोक्ष प्राप्ति के लिए तथाकथित पुत्र रत्न के लिए बावली हुईं और ना ही किसी विदेशी से शादी करने से उनकी नाक कटी .. जिन क्रिया-कलापों की अवहेलना आज भी अमूमन हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी व सभ्य-सुसंस्कृत समाज में भी की जाती हैं। 

फिर भी आज वर्षों बाद भी उन महिला का नाम विश्व पटल पर आदर के साथ अंकित है और जब तक धरती पर विज्ञान रहेगा, तब तक वह नाम अमर भी रहेगा .. शायद ... 

उनकी उपलब्धियों में से सबसे बड़ी उपलब्धि है .. उनके साथ-साथ उनके एक ही परिवार के सदस्यों को पाँच-पाँच नोबल पुरस्कार की प्राप्ति होनी .. इसके बारे में जब अधिकांश तथाकथित पढ़े-लिखे अभिभावक ही अनभिज्ञ हों, तो अपनी संतानों से इनकी चर्चा करने की चूक (?) कैसे कर सकते हैं भला ? जिन्हें मालूम भी है .. वे लोग भी इन घटनाओं को इसी धरती की एक महत्वपूर्ण घटना होने के बावजूद .. विदेशी मानते हुए उनसे दूरी बना कर अपने धर्म-सभ्यता-संस्कृति बचे रहने की बात सोचते हैं .. शायद ...

दरअसल आज ही के दिन .. 7 नवम्बर को वर्ष 1867 में एक यूरोपीय देश- पोलैंड में मैरी स्क्लाडोवका (Maria Salomea Skłodowska) का जन्म हुआ था, जो बाद में दूसरे यूरोपीय देश- फ़्रांस के प्येर क्यूरी (Pierre Curie) से प्रेम-विवाह कर के "मैरी स्क्लाडोवका क्यूरी" हो गयीं थीं। जिन्हें रेडियम की खोज करने के कारण विज्ञान से जुड़े लोग जानते हैं या फिर अधिकांशतः अंक प्राप्ति के लिए पढ़ने वाले विद्यार्थीगण मैडम क्यूरी या मैरी क्यूरी के नाम को रटते हैं।

प्रसंगवश .. वैसे तो शादी के बाद पत्नी के नाम के साथ पति के उपनाम के जुड़ जाने जैसा प्रचलन हमारे देश में भी है। हिमानी भट्ट से हिमानी शिवपुरी बन जाने की हिमानी शिवपुरी जी से सम्बन्धित जिस बात की चर्चा अपनी बतकही "अँधेरे से डरता हूँ मैं ..." में हमने की भी है .. बस यूँ ही ...

सर्वविदित है कि भौतिक और रसायन विज्ञान .. दोनों में ही मैरी क्यूरी की गहरी पकड़ थी। जिस वजह से वह दोनों विषयों में नोबेल पुरस्कार पाने वाली आज तक की पहली और आख़िरी वैज्ञानिक महिला हैं और शायद रहेगीं भी। उनकी दो बेटियों में से एक- आइरीन (इरेन जुलियो क्यूरी) और उनके पति- जीन फ्रेडरिक जूलियट-क्यूरी को भी संयुक्त रूप से "प्रेरित रेडियोधर्मिता" की ख़ोज के लिए रसायन विज्ञान में और दूसरी बेटी- इव (एव डेनिस क्यूरी लाबौइस) के पति हेनरी रिचर्डसन लाबौइस जूनियर को "शांति" के लिए नोबेल पुरस्कार 'यूनिसेफ' ( UNICEF ) की ओर से मिला है। 

दरअसल पोलैंड में तत्कालीन चलन के मुताबिक महिलाओं के लिए उच्च शिक्षा पर पाबंदी होने के कारण आगे भौतिकी और गणित की पढ़ाई के लिए फ़्रांस की राजधानी- पेरिस जाकर 'डॉक्टरेट' करने वाली वह पहली महिला थीं। साथ ही पेरिस विश्वविद्यालय में 'प्रोफ़ेसर' बनने वाली भी पहली महिला थीं। यहीं उनकी मुलाक़ात उनके प्रेमी सह भावी पति- पियरे क्यूरी से हुई थी।

इस वैज्ञानिक दम्पती ने पोलोनियम ( Polonium ) की ख़ोज की थी, जिसका इस्तेमाल चिकित्सा विज्ञान में एक घटक के रूप में किया जाता है। वह "रेडियोसक्रियता" (Radioactivity) की भी खोज की थीं, जिसके लिए उन्हें, उनके पति- पियरे क्यूरी और हेनरी बैकेरल को संयुक्त रूप से भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला था। बाद में कुछ ही महीने बाद पति- पियरे क्यूरी की मृत्यु के बाद उन्होंने आंद्रे लुई डेबिरने ( André Louis Debierne ) की सहायता से रेडियम (Radium) की भी खोज की थीं और रेडियम के शुद्धीकरण (Isolation of Pure Radium) की ख़ोज के लिए रसायनशास्त्र का भी नोबेल पुरस्कार मिला था।

मैरी क्यूरी से जुड़ी उपरोक्त और इनके अलावा अन्य विस्तृत जानकारियाँ पाठ्यक्रम की पुस्तकों में या अन्य सम्बंधित पुस्तकों में या फिर 'गूगल' पर तो उपलब्ध हैं ही .. तो .. आज की अपनी अनर्गल बतकही को आप सभी सभ्य-सुसंस्कृत, बुद्धिजीवी, सुधीजन के समक्ष केवल इस प्रश्न से समाप्त करते हैं कि .. "क" से कलावती, करवा चौथ या क्यूरी ? .. बस यूँ ही ...


 

Thursday, November 2, 2023

पुंश्चली .. (१७) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- पुंश्चली .. (१) से पुंश्चली .. (१६) तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (१७) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

इन्हीं बातों को सुनकर मन्टू को अंजलि के घर के कचरों से जासूसी करने वाली 'आईडिया' आयी थी। इसी से उसे अंजलि की कई अनबोले बातों की जानकारी होती रहती है।  इंसान को जिसमें भी दिलचस्पी होती है, वह उसके बारे में जितना भी जान ले .. उसे कम ही महसूस होता है। अब मन्टू क्या-क्या जानता रहता है अंजलि के बारे में .. ये सब तो हमलोगों को भी जानना ही चाहिए .. शायद ...

गतांक के आगे :-

स्वच्छ भारत अभियान के तहत या उससे पहले से भी स्वच्छता पसंद कोई भी प्राणी अपनी दिनचर्या के दौरान उत्पन्न कचरों का यथोचित निष्पादन करके स्वयं के एक जिम्मेवार नागरिक होने का परिचय सदैव देता रहा है। परन्तु हम अपने घरों के अनुपयोगी कचरों को यथोचित स्थान पर डाल कर उसे प्रायः भूल ही जाते हैं। यूँ तो हमारा ऐसा करना स्वाभाविक भी है और .. उचित भी है ही .. शायद ...

परन्तु इस प्रक्रिया में हम जाने-अंजाने अपनी दिनचर्या की कई सारी निजी बातें सार्वजनिक करने से भी नहीं चूकते हैं। मसलन - कचरे में शामिल हमारे द्वारा खाए गए फलों और सब्जियों के अनुपयोगी छिलके या लहसुन-प्याज के छिलके, 'ब्रेड' के 'रैपर', 'कोल्ड ड्रिंक' के खाली 'कैन' या बोतल, 'केचप'-'सॅस' की खाली बोतलें या 'पाउच', 'चॉकलेट'-'टॉफ़ी' के 'रैपर', विभिन्न प्रकार के 'ब्रांडेड' मसालों के खाली 'पाउच' या 'पैकेट्स' के 'ब्रांड' या 'साइज़' इत्यादि हमारे खानपान के बारे में बहुत कुछ बोल देते हैं। इनके अलावा कचरे में माँसाहारी परिवार के घरों से डाले गए शेष बचे अंडे के छिलके, मछलियों के काँटे या माँस की बड़ी या छोटी आकार की हड्डियाँ हमारे माँसाहारी होने की चुग़ली तो करती ही हैं और .. बड़ी या छोटी हड्डियाँ क्रमशः "बड़का" (बीफ /Beef) या "छोटका" (मटन/Mutton) के मुर्दे-माँस को खाने वालों की श्रेणी में हमें स्वतः बाँट देती हैं। इसी प्रकार हमारे 'अंडरगारमेंट्स' या अन्य नए खरीदे गए परिधानों के अनुपयोगी डब्बे हमारी रूचि के साथ-साथ हमारे जीवन स्तर और ... हमारे 'अंडरगारमेंट्स' के माप की भी जानकारी आम करते हैं .. शायद ...

इन सब के अलावा हमारे द्वारा कचरे में फेंकी गयी 'टॉनिक' की खाली शीशी, 'टैबलेट' के खाली 'रैपर', 'इन्सुलिन' की खाली 'पैकिंग', 'सिरिंज', 'नीडल', 'बैंडेज' इत्यादि हमारे द्वारा या हमारे परिवार में किसी भी सदस्य के द्वारा भी सेवन की गयी दवाईयों और उनसे सम्बंधित हमारी विभिन्न बीमारियों की पोल खोल देती हैं। दूसरी तरफ ... घर से निकले कचरों में पड़े सिगरेट के शेष बचे 'फिल्टर'युक्त टुकड़े, शराब की छोटी शीशी या बड़ी बोतलें, चखना के तौर पर 'चिप्स' या 'मिक्सचर्स' के 'रैपर्स' .. धूम्रपान या मद्यपान या फिर दोनों ही के हमारे आदी होने की ओर इंगित करते हैं .. शायद ...

अक़्सर दूरदर्शन पर विभिन्न समाचार 'चैनलों' द्वारा हम दर्शकों को किसी भी घटना से सम्बन्धित विचलित करने वाले दृश्यों या दृश्य के कुछ हिस्सों को 'ब्लर' (धुँधला) कर दिया जाता है। यथासम्भव यह क़ानून की हद का भी ध्यान रखते हुए किया जाता है। परन्तु शब्दों के माध्यम से कुछ भी कहने (लिखने) के क्रम में 'ब्लर' करने जैसी कोई तकनीक अभी तक नहीं बन पायी है और अगर होगी भी तो मुझे ज्ञात नहीं है। अब ऐसे में अगर कथ्य के संदर्भ में शर्म, लज्जा, संकोच, झिझक या हिचकिचाहट की जाए तो तथ्य के साथ न्याय नहीं हो पाता .. शायद ... अब तथ्य या कथ्य ? .. दोनों में से एक के चुनाव के लिए हम जैसे अनुभवहीन और अतुकांतों की बतकही करने वालों के लिए तो तथ्य ही महत्वपूर्ण है .. शायद ...

तथ्यों को उजागर करने के लिए हो सकता है कई सारे आपत्तिजनक शब्दों या शब्द-चित्रों को भी इस्मत आपा जी (इस्मत चुग़ताई) या मंटो जी (सआदत हसन मंटो) की तरह (?) लिखनी पड़ जाए या यूँ कहें कि लिखना पड़ रहा है, तो .. मेरी बतकही पर अपनी सरसरी नज़र दौड़ाने वाले या वाली आप सभी सभ्य-सुसंस्कृत लोगों से .. अग्रिम क्षमाप्रार्थी ...

हाँ .. तो .. प्रसंगवश उपरोक्त क्षमा याचना के पश्चात कचरे के कुछ और भी गुणगान-बखान कर ही लेते हैं। मसलन .. सर्वप्रथम तो कचरे में पड़े अगर रक्तसिक्त कपड़े के टुकड़े हों, तो यह तय कर पाना थोड़ा मुश्किल हो जाता है, कि घर के किसी सदस्य के किसी अंग के कटने से बहे हुए ये रक्त हैं या किसी सदस्या के रजस्वला होने के कारण बहे रक्त से सने कपड़े का टुकड़ा है। पर हाँ .. अगर कचरे में व्यवहार किए गए रक्तसिक्त 'सैनिटरी नैपकिन' यानी 'पैड्स'हो या 'टैम्पोन' या फिर 'मेन्सट्रुअल कप' हो, तो यकीनन उन कचरों को बाहर फेंकने वाले घर में किसी के रजस्वला होने की ओर इंगित करता है। साथ ही इन सारे विभिन्न साधनों से उस परिवार विशेष की जीवन शैली और जीवन स्तर का भी पता चलता है .. शायद ... 

कभी-कभी किसी तो यूँ .. घर-परिवार विशेष के फेंके गए कचरे में पड़ी 'प्रेगनेंसी टेस्ट किट' और 'किट' पर रंगहीन या गुलाबी-नीली रेखाएँ भी बहुत कुछ कह जाती हैं और कई दफ़ा तो इस्तेमाल किए गए वीर्य से लथपथ 'कंडोम' और साथ में उसके 'रैपर' बीती रात की निजी घटना को सार्वजनिक कर जाते हैं .. और 'रैपर' के 'ब्रांड' से उस युगल जोड़ी की पसंद या उनके जीवन स्तर की जानकारी सार्वजनिक हो जाती है .. शायद ...

अपनी-अपनी बुद्धिमत्ता के अनुसार हालांकि हम अपने अत्यंत निजी प्रसंग से जुड़े कूड़े को पुराने अख़बार के पन्ने या घर के बेकार ठोंगे या 'पॉलीथीन बैग' में लपेट कर उन मामलों को सार्वजनिक होने से बचाने का भरसक प्रयास करते तो हैं ही, पर .. मंडला (मध्य प्रदेश) के एक शिक्षक- श्याम बैरागी जी की रची और गायी हुई पंक्तियाँ .. "गाड़ी वाला आया, घर से कचरा निकाल" ... बजाते हुए आने वाली नगर-निगम की गाड़ी पर सवार निगमकर्मी जब अपनी 'ड्यूटी' निभाते हुए "सूखा कूड़ा" और "गीला कूड़ा" अलग-अलग करने के क्रम में हमारे कूड़ेदान को पलट कर सारे कचरों को अपने पैरों से बिखेर कर अलग-अलग करते हैं या हमारे फेंके गए बेकार कचरों में से अपने जीवन आधार को बीनने वाले नाबालिग़ बच्चों द्वारा उसे कुरेदे जाते हैं या फिर ज़ंजीर से जकड़े पालतू विदेशी नस्ल के किसी कुत्ते-कुतिया की तरह खाने-पीने व रहने की उचित व व्यवस्थित व्यवस्था नहीं होने के कारण अपनी जठराग्नि को बुझाने की कुछ भी सामग्री मिल जाने की आस लिए गली-मुहल्ले के स्वतन्त्र कुत्ते-कुतिया द्वारा उन कचरों को उलट-पलट कर बिखेरे जाते हैं, तो हमारे द्वारा की गयी अत्यन्त निजी क्रिया-कलापों से उत्पन्न कचरों को ढँक-तोप कर छुपाने की हमारी बुद्धिमत्ता तो धरी की धरी ही रह जाती है .. शायद ...

और हाँ .. यही सारी बातें कचरे के साथ-साथ कबाड़ के साथ भी लागू होती हैं। हमारे घर से छाँट कर कबाड़ी को बेचे गये कबाड़ से भी हमारे जीवन स्तर का पता चलता है।कभी-कभी तो अचरज भी होता है .. जब कभी मुहल्ले भर की नज़रों में किसी व्यक्ति विशेष की छवि निहायत शरीफ़ और चरित्रवान इंसान की बनी हो और कबाड़ी वाला उसके घर से अक़्सर शराब की बोतलें गिन कर या तौल कर ले जाता हो या प्रतिदिन सुबह-सुबह जोर-जोर से शंख बजाने और मन्त्रोच्चार करने की वजह से किसी सभ्य समाज द्वारा किसी सभ्य माने जाने वाले व्यक्ति के घर से रद्दी वाले प्रायः पुराने अख़बारों के बीच फ़ुटपाथी अश्लील (?) किताबें भी लेकर निकलते हों .. जिनका प्रचलन आजकल 'यूट्यूब' जैसी सुविधा-साधन पर अनगिनत 'पोर्न साइट्स' उपलब्ध होने के कारण कम-सा हो गया है .. शायद ...

ख़ैर ! .. ये सब तो चलता ही रहेगा .. लोग दिन के उजाले में चालीसा भी चिल्लाएंगे और रात के अँधियारे में 'पोर्न साइट्स' भी देखने से नहीं चूकेंगे .. दोहरी मानसिकता .. दोहरे चरित्र .. सदियों से होते रहे हैं .. होते ही रहेंगे .. बस यूँ ही ... 

इतनी विस्तृत अनर्गल बतकही वाली भूमिका के बाद लौटते हैं हम .. हमारे धारावाहिक के जीवंत पात्रों की ओर .. तो .. मन्टू अभी-अभी प्रतिदिन सुबह-सुबह स्कूल जाते समय अंजलि द्वारा फेंकी गयी घर के कूड़ों से भरी थैली के 'पोस्टमार्टम' के लिए मुहल्ले भर की दुलारी गली की काली कुतिया- बसन्तिया को पुचकार कर, फिर ना मानने पर पत्थर से मार कर भी रोज की तरह सामान्य रूप से उसकी बात मान लेने वाली बसन्तिया को ना मानने पर .. सब की नज़र बचा कर पहले अपने दाएँ पैर से और फिर .. अपने हाथों से उस थैली के कचरों को बिखेर कर अंजलि की दिनचर्या का 'पोस्टमार्टम' करने लगा है। इसी से उसे हर माह पता चलता रहता है, कि अंजलि के "मुश्किल से भरे वो चार दिन" कब शुरू होते हैं और कब ख़त्म .. जिसके बाद उसके 'शैम्पू' किए .. अपने खुले बालों में उसके दर्शन हो जाने से वह मन ही मन .. बहुत ही खुश होता रहता है। पर ये क्या .. अभी तो उसकी आँखें फ़टी की फ़टी रह गयीं है .. चेहरे पर एक तनाव की गहरी रेखा अचानक खींच गयी है। आख़िर ऐसा क्या दिख गया भला उसे अंजलि के घर से निकले आज के कचरे में ... ? 

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (१८) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】


Monday, October 30, 2023

मस्जिदों की सीढ़ियों पर ...


दोहरे चरित्र वाले इंसानों की उपस्थिति हमारे हर समाज, मुहल्ले, गाँव, शहर, राज्य, देश, विदेश में प्रायः होती ही होती है .. शायद ...

मसलन .. कई दफ़ा रामनवमी के मौके पर निकलने वाली शोभायात्राओं में कई युवाओं या वयस्कों के मुँह में घुलते गुटखे, एक हाथ में सुलगते सिगरेट, दूसरे में नंगी तलवार .. और .. गुटखे चबाने वाले और धुएँ के छल्ले उगलने वाले उसी मुँह से चीख़ती हुई निकलती आवाज़ .. जय श्री राम.. देखने-सुनने के लिए मिलती है .. शायद ...

अक़्सर राहों से गुजरते वक्त सफ़ेद और लम्बी दाढ़ीधारी मौलाना 'टाइप' कुछेक इंसानों को सार्वजनिक स्थल पर या कई दफ़ा तो मस्जिद की चौखट या सीढ़ी पर बैठ कर बीड़ी फूँकते हुए देख लेने पर उन्हें हम तो टोक ही देते हैं। उनकी उम्र और मज़हब का लिहाज़ किए बिना कहना पड़ता है कि - " श्रीमान ! .. आप तो दो-दो गुनाह एक साथ कर रहे हैं .. एक तो आपके मज़हब के मुताबिक़ किसी भी तरह का नशा हराम है। दूजा अपने देश के संविधान के अनुसार सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान वर्जित और क़ानूनन अपराध भी है। " 

ऐसे में सामने वाला कितना भी अक्खड़ वाला हो, अकड़ वाला हो, उनकी गर्दन झुक ही जाती है और बीड़ी या सिगरेट को जकड़ने वाली तर्जनी और मध्यमा उनके चूतड़ की पृष्ठभूमि में स्वतः चली जाती है या फिर शेष बची बीड़ी या सिगरेट उनकी उँगलियों की गिरफ़्त से आज़ाद हो कर झट से जमीन में पड़ी धूल चाटती हुई नज़र आने लगती है .. शायद ...

कई-कई बार तो प्रायः कई सज्जन पुरुष (नारी भी) स्वयं को किसी भी महापुरुष का अनुयायी स्वघोषित करते नज़र आ जाते हैं .. ख़ासकर 'सोशल मीडिया' पर। वह किसी एक महान व्यक्ति के अपने मन-हृदय में बसने की भी बात करते हैं, परन्तु व्यवहारिक रूप से वे उनके आदर्शों से कोसों दूर नज़र आते हैं .. शायद ...

तो क्या ..  ऐसे दोहरे चरित्र वाले सज्जन इंसानों को सामने से टोकना या पीछे से दर्पण दिखलाना किसी हिंसा की श्रेणी में रखा जाएगा ? शायद नहीं .. तो आज से .. अभी से .. हम सभी को .. जब कभी भी ऐसे लोग नज़र आएँ तो उन्हें सामने से दिखें टोक कर, एक जागरूक नागरिक होने के नाते हमें अपना यथोचित कर्तव्य निभाने की कोशिश करनी ही चाहिए .. बस यूँ ही ...

ऐसे एक व्यक्ति को टोक कर उन्हें उनकी भूल और साथ ही शर्मिंदगी का एहसास कराना .. हमारे-आपके द्वारा हर वर्ष 'व्हाट्सएप्प' पर भेजे जाने वाले 'कॉपी & पेस्ट' वाले 'हैप्पी रिपब्लिक डे' या 'हैप्पी इंडिपेंडेंस डे' जैसे सैकड़ों 'मैसेजों' से कई गुणा बेहतर है .. शायद ...

अभी हाल ही में एक प्रसिद्ध स्वयंसेवी संस्थान (जिनका यहाँ नाम लेना उचित नहीं .. शायद ...) द्वारा एक सरकारी विद्यालय की चहारदीवारी के भीतर परती जमीन में  आयोजित वृक्षारोपण कार्यक्रम में शामिल होने का मौका मिला, तो कार्यक्रम के दौरान वहाँ उपस्थित कुछ स्वयंसेवकों को बाहरी चिलचिलाते धूप से बचने के लिए एक कार के भीतर बैठ कर "चखने" के साथ मद्यपान करते और कार से बाहर धूम्रपान करते देख कर .. तो हमारा मन विचलित-सा हो गया .. तत्क्षण सोचने लगा कि दुनिया में ना जाने ऐसे कितने सारे दोहरे चरित्र वाले सज्जन लोग भरे पड़े हैं .. शायद ... 

इन विसंगतियों से भरी आबनूसी काली अँधेरी रात में ज्यादा कुछ नहीं तो कम से कम हम एक जुगनू तो बन ही सकते हैं .. शायद ...  ऐसी ही सारी विसंगतियों से भरी घटनाओं से अभिप्रेरित होकर मन में ऊपजी कुछ तुकबन्दियों वाली बतकही आपके समक्ष है .. बस यूँ ही ...

मस्जिदों की सीढ़ियों पर ...

कई सनातनियों के मुख से यूँ निकलते तो हैं जय श्री राम,

उसी मुख के गुटखे हैं बनाते दीवारों-सड़कों को पीकदान ?


जाने क्यूँ बन्दे ख़ुदा के ख़ुद को कहने वाले यूँ कुछ इंसान, 

प्रायः बैठे मस्जिदों की सीढ़ियों पर करते हैं भला धूम्रपान ?


हों जिनके आदर्श, करने वाले बकरी के दूध का दुग्धपान,  

भला करते हैं क्यों और क्योंकर वे महान जन मदिरापान ?


करते हैं क्यों हर बात में अमित्र करने की बात कई इंसान,

जो कहते हैं स्वयं को हर बार अहिंसा-पुजारी के कद्रदान ?


सोचो-सोचो जीते जी, करो भलाई किसी अमित्र की भी,

मरने पर ना जा के क़ब्रिस्तान, ना श्मशान, करके देहदान।