Sunday, June 25, 2023

'नागिन' की आत्मकथा" ...

 बस यूँ ही ...

गत दिनों 'सोशल मीडिया' पर नज़र से एक नाम गुजरा .. गुजरा ही नहीं, बल्कि उस पर नज़र ठिठकी .. स्वाभाविक है, क्योंकि ना तो ये नाम कभी इतिहास की किताबों में पढ़ने मिला था या मिलता है और ना ही इससे पहले किसी से मौखिक सुनने के लिए मिला है कभी .. वह नाम है - नीरा आर्य 'नागिन' ...

एक बकलोल और आलसी पाठक होने के बाद भी इन नाम से जुड़ी जो भी 'पोस्ट' सामने से गुजरी सभी को तन्मयता से पढ़ा। इन से जुडी मार्मिक घटनाओं के बारे में छिटपुट पढ़ कर इनके बारे में जानने की और भी उत्सुकता बढ़ती गयी। तभी सहज-सुलभ उपलब्ध 'गूगल' पर 'सर्च' करके तसल्ली हुई कि ये सारे दिख रहे 'पोस्ट' 'फेक' नहीं हैं। फिर 'अमेजॉन' पर खँगालने पर मिल ही गयी, वह मार्मिक इतिहास के घटनाक्रम की दफ़न पवित्र गीता .. शायद ... जिसका नाम है - "मेरा जीवन संघर्ष (दुर्लभ चित्रों सहित) -नीरा आर्य 'नागिन' की आत्मकथा" ...

वैसे प्रसंगवश हमको सही-सही ज्ञात नहीं कि "घटना" को भी "कहानी" कहते-लिखते हुए लोगबाग सुने-पढ़े जाते हैं, तो किसी घटनाक्रम को कहानी कहना कहाँ तक उचित है, ये सच में नहीं मालूम हमको। वैयाकरण महानुभावों के दृष्टिकोण में क्या सही, क्या गलत .. ये छिद्रान्वेषण उनके जिम्मे है .. मेरे नाम के आगे 'डॉक्टर' भी तो नहीं लगा हुआ है .. ख़ैर ! ... आगे मन नहीं माना .. 'आर्डर' लगा दिया 'अमेजॉन' को, पर आया भारतीय डाक विभाग के 'बुकपोस्ट' द्वारा .. उनकी आपसी कुछ ऐसी अंदरुनी व्यवस्था रही होगी। उनसे हमें क्या करना भला, हमें तो बस सुविधा भर चाहिए .. शायद ...

यूँ तो दो दिन पहले ही यह किताब घर आ गयी थी। पर व्यस्त दिनचर्या की वजह से आज-अभी किताब को महक पाया और हमेशा की तरह पुनः सोचने पर विवश हो गया कि सदियों स्वयं को क़बीलों में रख कर सुरक्षित मानने वाले हम मनुज आज भी प्रायः किसी राजनीतिक दल से, समुदाय से, सम्प्रदाय से, जाति से या किसी भी झुण्ड से स्वयं को  जोड़ कर या सामने वाले को भी ज़बरन जोड़ कर ही दम लेते हैं। जबकि हमें किसी भी दलगत सोच से तटस्थ हो कर, उस से बिना जुड़े या जोड़े, अपनी स्वयं की विचारधारा कहने की स्वतंत्रता होनी ही चाहिए, तभी हम सही इतिहास पढ़ भी सकते हैं और .. गढ़ भी सकते हैं .. शायद ... 


हम तो अक़्सर देखते हैं कि किसी दलगत विशेष के समर्थक, अन्य किसी दलगत विशेष के समर्थक के लिए "अंधभक्त" जैसा विशेषण धड़ल्ले से व्यवहार में लाते हुए पाए जाते हैं, जबकि इस तरह के प्रमाणित इतिहास वाली किताब पढ़ने के बाद वो सारे तुलनात्मक और भी बड़े वाले अंधभक्त नज़र आने लगते हैं .. शायद ...

इसी किताब के एक पन्ने पर उकेरी गयी, स्वामी दयानन्द सरस्वती जी की विचारधारा :-


काश ! .. अगर हम नहीं तो कम से कम हम अपनी नयी पीढ़ी को तो इतिहास या अन्य सभी विषय केवल 'मार्क्स' या 'क्लास-डिवीज़न' प्राप्ति के बाद नौकरी पाने के उद्देश्य से परे उन्हें अपनी दिनचर्या में सुधार या उपयोग के लिए पढ़ने हेतु प्रेरित कर के एक सफल समाज की नींव रख पाते ...


शहीद दिवस, शिक्षक दिवस और बाल दिवस के झुनझुने की आवाज़ में इतिहास की तमाम सिसकियाँ और चीखें तिरोहित हो कर रह गयीं .. शायद ...
इस किताब को 1966 के प्रथम संस्करण के बाद ही तत्कालिक सरकार द्वारा प्रतिबन्धित कर दिया गया था। वर्षों के बाद 2022 में दोबारा छापा गया है। इसमें उपलब्ध मार्मिक ऐतिहासिक घटनाक्रमों को पढ़ने के बाद रोम-रोम सहम-सिहर जाता है। कुछ बुद्धिजीवियों द्वारा वर्तमान सरकार के कुशल कार्यों में कई सारे मीनमेख निकालने में हिचक नहीं होती है या शर्म नहीं आती, जबकि तत्कालिक दौर में भी वही सब खेल-प्रपंच घट रहा था, चाहे ज़बरन धर्मपरिवर्तन वाले खेल हों या नाम परिवर्तन वाले ;  जिसे वर्त्तमान सरकार द्वारा उकसाया हुआ बताया जाता है .. शायद ...
हाथ कंगन को आरसी क्या भला ...

 ख़ैर ! .. हमें किसी जागरण, माता की चौकी, शिव चर्चा, प्रवचन, रामायण पाठ, गीता व्याख्यान, गरुड़ पुराण, हनुमान चालीसा, तीज-त्योहारों में छदम ख़ुशी, व्रत-उपवास, चार धामों के तीर्थाटन, स्त्री विमर्श, जन्मदिन पर केक व पार्टी, 'सेल्फ़ी'प्रधान दिवसों जैसी बातों से कभी फ़ुर्सत मिली तो सोचेंगें कि .. होगी कोई पगली 'नागिन' जो स्वतंत्रता की लड़ाई की अग्नि में होम होकर भी स्वतन्त्र भारत में वृद्धावस्था में भी फूल बेच-बेच कर जीवनयापन करती हुई स्वावलम्बी ही रही और गोरों द्वारा पीड़ित अपनी काया त्याग गयी .. ताकि हम वर्तमान सरकार के अच्छे कामों की भी नुक्ताचीनी करते रहें और स्वयं अंधभक्त हो कर भी सामने वाले को अंधभक्त कहते रहें .. बस यूँ ही ...




Saturday, June 24, 2023

साधन मन मचलन का ...

सदा पुष्पगुच्छ से अछूते, 

मंदिरों के दर तक ना पहुँचे कभी।

ना साज सज्जा में कभी गुँथे, 

ना मज़ारों के चादर भी बने कभी।

गुण तो कुछ-कुछ हैं भी इनमें मगर, 

सहज उपलब्धता ही हो बनी 

सम्भवतः कारण इनके उपेक्षित होने की।

यूँ तो कुछ-कुछ ही नहीं, 

हैं सर्वदा कई-कई गुण भरे हुए औषधीय इनमें,

भूल बैठे हैं जिन्हें हम मनुज ही

कदाचित् बन कर आधुनिक और ज्ञानी अति।

सुगंध सोंधी-सी भी है इनमें,

मगर आँखें मूँदने तक घुल सकें किसी की भी 

नम .. नर्म-गर्म साँसों में,

ऐसी घड़ी ना आयी है और ना आएगी कभी .. बस यूँ ही ...


अवगुण या वजह भला मान भी लें कैसे 

इनसे लिपटे काँटों को,

हम सभी के इनसे किनारे करने की।

भरी पड़ी तो यूँ होती ही हैं,

जबकि काँटों से टहनियाँ सारी की सारी 

दुनिया भर के गुलाबों की।

'पोनीटेल', जुड़े या वेणी तक भी भला 

कब हो पाती है पहुँच उपेक्षित-से इन

राईमुनिया या सत्यानाशी के फूलों की !?

                             और .. जानम ! .. 

जनम-जनम .. 

हम .. इन्हीं उपेक्षित 

राईमुनिया और सत्यानाशी की तरह ही

साधन मन मचलन का तुम्हारे 

बन ना पाए हैं और बन ना पाएंगे भी कभी .. बस यूँ ही ...









Thursday, June 8, 2023

चस्का चुस्की का

ऐ साहिब !!! ...

                       ए साहिब !! ..

                                            साहिब ! ...

मनाते हैं हम सभी जब कभी भी 

हिंदी दिवस और हिंदी पखवाड़ा भी ख़ाली-पीली,

चप्पे-चप्पे में देते हैं भाषण चीख़-चीख़ कर हर कहीं

और संग चुस्की के चाय की करते हैं काव्य गोष्ठी भी।

हर चुस्की पर हमारी, है खिलती चाय की मुस्की तभी 

और लगाकर चस्का चुस्की का, ग़ुलाम बनाने वाली,

पड़ी-पड़ी कप, कुल्हड़ या प्याली में आधी या भरी,

चपला-सी चाय है हम सभी को देखती, निहारती, घूरती।

गोया हम सभी वो भीड़ हैं तथाकथित इंसानी , 

जो भीड़ दिन के उजाले में तो यूँ है आदतन कतराती

करने में मंटो जी के नाम का ज़िक्र भर भी 

और रात में नाप आती है मुँह छुपाए किसी कोठे की सीढ़ी।

गर है अंग्रेजी से हम सभी को नफ़रत ही जो इतनी

और है ज़िद हमारी, फ़ितरत भी हमारी, चोंचलेबाजी भी

बचाने की सभ्यता-संस्कृति और भाषा भी हिंदी,

तो कर क्यों नहीं देते फिर हम चाय की भी ऐसी की तैसी .. बस यूँ ही ...



ऐ साहिब !!! ...

                       ए साहिब !! ..

                                            साहिब ! ...

यूँ तो सदा ही रहा है मतभेद सदियों से,

दो पीढ़ियों के बीच पीढ़ी-दर-पीढ़ी।

पर ये क्या कि कोसते हैं दिन-रात हम सभी,

खाती है नयी पीढ़ी चाऊमीन जब कभी भी।

शादी वाले घर में रंगीन झालर-सी लटकती

चाऊमीन, खाते वक्त मुँह से हर युवा-बच्चे की,

देती है नसीहत सभी वयस्क पीढ़ी को व्यंग्य से घूरती।

गोया हम हैं ऐसे पिता सभी के सभी, 

धारा-376 के तहत जिसने हो काटी सजा लम्बी कभी

और मचा रहे अब बवाल, जब निज बेटे या बेटी ने किसी

रचा ली हो अन्तर्जातीय प्रेम विवाह वाली शादी।

चाऊमीन ने तो बस थोड़े से ज़ायके भर हैं बदले 

और माना तनिक सी सेहत भी है बिगाड़ी।

पर उन दिनों की मिल रही शुरूआती मुफ़्त वाली, 

पी-पीकर हमने तो चाय की चुस्की ख़ाली-पीली,

स्वदेश को दी थी कई सौ वर्षों वाली सितमगर ग़ुलामी .. बस यूँ ही ...







Monday, June 5, 2023

हृदय स्पंदन बनाम पर्यावरण दिवस ...

बस यूँ ही ...

साहिबान !!!


आप सभी को मन से नमन 🙏


आज 'सोशल मीडिया' पर तथाकथित "पर्यावरण दिवस" की बहुत ही हलचल है और आज इसी बहाने 'सेल्फ़ी' चमकाने और उसे 'सोशल मिडिया' की दीवार को भी भरने के दिन हैं।


इनमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने वाले ज्यादातर दोपाया तथाकथित बुद्धिजीवी प्राणीगण वही लोग हैं जो लोग अपनी-अपनी दिनचर्या के साथ-साथ मरने पर भी श्मशान में मनों लकड़ी जलाकर पर्यावरण का दोहन करते हैं .. शायद ...


कुछेक हिम्मत करने वाले अब विद्युत शवदाह गृह में जलने की बात करते हैं, वर्ना आडम्बरी तथाकथित सनातनियों को तो सात या नौ मन लकड़ी जलाए बिना मोक्ष की प्राप्ति ही नहीं होगी .. शायद ...

 
साहिबान !!!! ... देहदान के बारे में भी विचार किया जाए एक बार, ताकि वृक्ष के साथ-साथ विद्युत की भी बचत हो सके, जिसका उत्पादन भी पर्यावरण के दोहन से ही होता है .. शायद ...


साथ ही देहदान के फलस्वरूप हमारे मृत शरीर के उपयोगी अंगों से किसी ज़रूरतमंद को आँखों की रोशनी, किसी को हृदय स्पन्दन दे सके, किसी को Dialysis जैसे मंहगे उपचार से छुटकारा दिला सके .. और तो और .. हमारे मृत शरीर का कंकाल देश के चिकित्सा विज्ञान के युवा विद्यार्थीयों के भी काम आ सकेगा .. इस तरह हम मर कर भी कुछ समाज सेवा भी कर जायेंगे और पर्यावरण को भावी पीढ़ियों के लिए संरक्षित छोड़ जायेंगे .. शायद ... 🙏 .. बस यूँ ही ...



Friday, May 26, 2023

साँसों की ओलती ...

दूरदर्शन, उत्तराखण्ड द्वारा एक कार्यक्रम का प्रसारण 27 मई 2023, कल शनिवार को शाम 5.00 बजे से दूरदर्शन, उत्तराखण्ड 'टी वी चैनल' एवं dd uttarakhand 'यूट्यूब चैनल' पर भी एक साथ प्रसारित होगा।

अगर आपके 'टी वी' में दूरदर्शन, उत्तराखण्ड 'चैनल' उपलब्ध है, तो ठीक, अन्यथा आप अपने 'मोबाइल' में 'यूट्यूब' पर dd uttarakhand के निम्न 'लिंक' द्वारा उस कार्यक्रम का रसास्वादन ले सकते हैं .. बस यूँ ही ...


https://youtube.com/@DoordarshanUttarakhand

यूँ तो .. कार्यक्रम का विषय 27 मई 2023, कल शनिवार को शाम 5.00 बजे अपने 'टी वी' या 'मोबाइल' पर देख कर आप जान ही जायेंगे .. शायद ...
अनुरोध है, कि पाँच मिनट पहले ही उपरोक्त 'लिंक' खंगालने की कोशिश कर लीजिएगा .. बस यूँ ही ...

बाक़ी 23 मई 2023, मंगलवार को कार्यक्रम की 'रिकॉर्डिंग' के दौरान वाली अनुभूति कुछेक उपलब्ध pics के साथ हम किसी अगले 'पोस्ट' में साझा कर पाएँ .. शायद ...

फिलहाल अब आज की बतकही को झेलने की बारी  ...

साँसों की ओलती ...

पूछ भर लिया क्या एक बार,

मंच पर सामने से रूमानी अंदाज़ में

'स्टैंड-अप कॉमेडियन' जाकिर खान ने 

कि - "लड़कियाँ इतनी महकती क्यों हैं ?"

या .. 'यूट्यूब' पर या फिर कभी 

'जश्न-ए-रेख्ता' के मंच से कभी 

बोल भर दिया कि- "लड़कियों में ख़ुश्बू होती है एक, 

जो सिर्फ हमें पता होता है।" तो ...

हठात् हँस पड़े तुम ताली पीटते हुए सारे के सारे

लयबद्ध "ओय-होय" की गूँज संग .. बस यूँ ही ...


भला हँसे भी क्यों ना भीड़ तुम्हारी ?

वो जो है एक मशहूर 'स्टैंड-अप कॉमेडियन' 

और ठहरे तुम सारे .. सात जन्मों के सम्बन्धों को

बस .. सात दिनों के 'वैलेंटाइन वीक' में 

किसी 'फ़ास्ट फ़ूड' की तरह 

'फ़ास्ट' .. 'फ़ास्ट' निपटाने वाले .. हैं ना ?

हाँ !!! ... ये सच है कि लड़कियाँ महकती हैं,

सोंधी .. सोंधेपन लिए हुए नाना प्रकार के,

जो सुगंध थी, है व रहेगी एक विशुद्ध विज्ञान की पोटली,

मिला जो हमें प्रकृति प्रदत्त एक वरदानरूपी .. बस यूँ ही ...


कब रही फ़ुर्सत तुमको भला ?

शुद्ध, सात्विक, सोंधी सुगंध ...

मन से सूँघने की .. साँसों में भरने की।

रहते हो तुम और टोलियाँ तुम्हारी सारी की सारी,

तो बस .. बनावटी और रसायनयुक्त,

व्यवसायिक विज्ञापनों वाली 

तथाकथित हवा भरी या फिर .. शायद ...

चौबीस घंटे तक चलने वाली 'डिओडोरेंट' की

फुहारों में अक़्सर .. फ़ुस्स,

फ़ुस्स .. फ़ुस्स .. बस और बस फ़ुस्स .. बस यूँ ही ...


इत्मीनान से खुले बालों में उसके कभी

कंपकपाती उँगलियों से अपनी

काढ़ कर लकीर एक लम्बी माँग की, 

कतार-सी टिमटिमाती जुग्नूओं की,

हो जो मानो अँधेरी रातों में भादो की ..

फिर .. समानांतर लकीर के, काढ़ी गयी माँग की, 

बहाना कभी अपनी नर्म-गर्म साँसों की ओलती।

और .. सुनो ! .. उस शुद्ध, सात्विक और सोंधी,

सुगंध से कर लेना तर-ब-तर कभी

साँसों और फेफड़ों की धौंकनी अपनी .. बस यूँ ही ...




Tuesday, May 23, 2023

बौद्धिक विकलांगता

हिन्दूओं की धार्मिक मान्यता के अनुसार प्रत्येक वर्ष कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को तुलसी विवाह किया जाता है। इस तथाकथित मान्यता के अनुसार ही इस दिन ऐसा करना-कराना अत्यधिक शुभ होता है और घर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। साथ ही मान्यता यह भी है कि इस दिन तुलसी विवाह कराने से, जिस घर में बेटी ना भी हो तो, कन्यादान जितना पुण्य मिलता है। कहा तो ये भी जाता है, कि इसके एक दिन पहले चार मास तक सो कर विष्णु देव के जागने के बाद तथाकथित आस्थावान धर्मी लोगों के घरों में शुभ और मांगलिक कार्य शुरू हो जाते हैं।


तुलसी चौरा या तुलसी के गमले की मिट्टी में ही एक गन्ना लगा कर, उस पर लाल चुनरी से मंडप सजाने का एक तथाकथित पूजन विधान है। दूध में भिंगोए हल्दी लगे शालिग्राम पत्थर को भी उसी गमले में रखने का भी विधान है। साथ ही तुलसी के पौधे और गन्ने के मंडप पर भी हल्दी के लेप लगाने के भी। पर प्रायोगिक रूप से प्रायः हर घरों में यह देखने के लिए मिलता है, कि लोग लाल कपड़े से पौधे को पूरी तरह लपेट कर ढकते हुए उसका दम घोंटने में कोई भी कसर नहीं छोड़ते हैं .. शायद ...


छठी से लेकर दसवीं कक्षा तक में पढ़ने वाले तमाम विद्यार्थियों को ज्ञात है, कि तमाम पेड़-पौधों की हरी पत्तियाँ अपने 'क्लोरोफिल' नामक वर्णक की उपस्थिति में सूर्य-प्रकाश के सहयोग से हवा के कार्बनडाइऑक्साइड गैस और मिट्टी के जल के द्वारा कार्बोहाइड्रेट नामक अपना भोज्य पदार्थ का निर्माण करती हैं और इस प्रक्रिया में ऑक्सीजन गैस बाहर निकालती हैं। इस प्रकाश संश्लेषण नामक प्रक्रिया के तहत बने कार्बोहाइड्रेट तो तमाम पेड़-पौधों को जीवित रहने के लिए आवश्यक तो है ही और ऑक्सीजन गैस हम मानव सहित धरती के समस्त प्राणियों के जीवित रहने के लिए।


पर हमारा तथाकथित आस्थावान बुद्धिजीवी समाज यह सब जानकर भी धर्मान्धता में सब दरकिनार कर देता है और तभी तो इस अवसर पर तुलसी के पौधे को लाल चुनरी से इस क़दर ढक देता है कि विष्णु-तुलसी के तथाकथित विवाह के नाम पर बेचारे तुलसी के मासूम पौधे का दम ही घुंट जाता होगा .. शायद ...


दूसरी तरफ हम फ़िलहाल तथाकथित "कन्यादान" करने से मिलने वाले तथाकथित पुण्य या पाप के विषय पर तो मनन-चिंतन को दरकिनार ही कर दें, उस से पहले तो "कन्यादान" शब्द की ही सार्थकता और औचित्यता पर गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है .. अगर आज भी हमारा बौद्धिक समाज "कन्यादान" जैसे शब्द पर आपत्ति नहीं जताता है, तो लानत है ऐसे बुद्धिजीवी समाज पर। इस संदर्भ में तथाकथित सभ्य समाज के इस बौद्धिक विकलांगता को बौद्धिक विकलांगता के वर्गीकृत चार वर्गों में से तीसरे और चौथे वर्गों - "गंभीर" और "गहन" की श्रेणी में रखी जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी .. शायद ... नहीं क्या ? हाय री ! .. बौद्धिक विकलांगता .. वाह !!! ...




Sunday, May 21, 2023

अश्लीलता के बहाने .. बस यूँ ही ...

आज के शीर्षक से आप भ्रमित ना हों, हम अपनी बतकही में आपके समक्ष कुछ भी ऐसा-वैसा अश्लील नहीं परोसने वाले .. शायद ...

गत दिनों मैंने "बस यूँ ही ..." नामक अपनी एक कहानी प्रसार भारती के तहत आकाशवाणी, देहरादून के माध्यम से पढ़ी थी। जिसे बहुत से अपने शुभचिन्तक लोग अपने-अपने मोबाइल में उनके भिन्न 'Android' होने के कारण 'App' - "Newsonair" को नहीं 'Download' कर पाने की वजह से उस कहानी का प्रसारण नहीं सुन पाए थे। अफ़सोस भी हुआ था, दुःख भी। तो आज उसकी 'रिकॉर्डिंग' यहाँ साझा कर रहे हैं। पर यह कहानी केवल और केवल आर्थिक रूप से मध्य या निम्न-मध्य वर्ग के लोगों को सुनने के लिए है और .. आर्थिक रूप से उच्च वर्ग के लोगों के लिए सुनना पूर्णरूपेण निषेध है .. बस यूँ ही ... सोच रहा हूँ कि .. उन्हें बुरी लग जाए कहानी की बातें .. शायद ...

पर उस से पहले एक महान और भले ही शारीरिक रूप से दिवंगत हो चुके .. फिर भी अपनी रचनाओं में आज भी अजर-अमर, जिनके इसी माह जन्मदिन पर विश्व भर में उनके चाहने वालों द्वारा विभिन्न तरीकों से उन्हें याद भी किया गया है .. बस यूँ ही ...

हमारे समाज, ख़ासकर तथाकथित बुद्धिजीवी समाज में भी, व्याप्त तमाम कुरीतियों वाले दुर्गन्धित कचरों के ढेर को तथाकथित संस्कृति नामक सुगन्धित पैरहन से ढक कर या फिर पुरखों की थाती नामक चाँदी के वरक़ से ढक कर ढोने वालों की भीड़ तब भी थी और आज भी है, जो भले ही नहीं पचा पाती हो .. सआदत हसन मंटो जी की थाती को और उन थाती को किसी 'ए सर्टिफिकेट' वाली फ़िल्मों की श्रेणी में रखकर भले ही आँकती हो और .. और तो और .. मानसिक रूप से अश्लील इसी तथाकथित समाज के कई लोगों ने जो बाह्य रूप से सभ्य-सुसंस्कृत वाला लिहाफ़ ओढ़े हुए थे और आज भी हैं .. उनकी भीड़ ने भी मंटो जी की कहानियों में अश्लीलता की बू आने की बातें करके, उनके द्वारा वर्जनाओं को तोड़ने की हिमाक़त करने की बातें करके और उनके द्वारा भाषायी मर्यादाओं के खंडन करने की बातें कर-कर के .. उन पर छदम् आरोप लगा कर उन को छह बार अदालत जाने के लिए मजबूर किया, जिनमें से तीन बार हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के अनचाहे और विभत्स बँटवारे से पहले और तीन बार बँटवारे के बाद .. लेकिन अफ़सोस ... एक भी बार उन पर आरोपित मामला साबित नहीं हो पाया।

एक तरफ तो ये समाज, जो यदा-कदा स्वयं भी मानसिक रूप से लम्पट होकर, हर उस लम्पट को सिर-आँखों पर चढ़ा कर रखता है, जो इसी मुखौटेधारी समाज की तरह ताउम्र शराफ़त के पैरहन पहने सभ्य-सुसंस्कृत बने रहने की औपचारिकता भर करता है।

दूसरी तरफ समाज को समय से पहले पनपी कोई भी बात कृत या कृति, किसी अनब्याहता के गर्भवती हो जाने की तरह ही, सहजता से स्वीकार्य नहीं है। कभी ऐसा ही हुआ होगा, 1970 में राजकपूर जी की फ़िल्म "मेरा नाम जोकर" के साथ, समय से बहुत पूर्व फिल्माए गए गूढ़ दर्शन को हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी समाज की भीड़ ने उस वक्त सिरे से नकार दिया, परन्तु विदेशों में धूम मचाने और कई पुरस्कारों को हासिल करने के बाद हमारे देश-समाज के लोगों ने उसे हाथों-हाथ लिया। इसी तरह ही नकारा गया होगा कभी मंटो जी को। तब की क्यों कहें, आज भी स्वयं को पाक-साफ़ दर्शाने के लिए कई लोग मंटों जी के नाम और कृतियों की चर्चा से परहेज़ या गुरेज़ करते नज़र आते थे या हैं, भले ही तब उनके बिस्तर या तकिए के नीचे दबायी-छुपायी 'डेबोनियर' अंग्रेजी पत्रिका रखी मिलती थीं या आज अकेले में बिस्तर पर पड़े-पड़े उनकी नज़रें अश्लील 'यूट्यूब' या अन्य 'सोशल मीडिया' पर गड़ी रहती हों .. शायद ...

जब तक हम या हमारी युवा पीढ़ी मंटो जी को तन्मयता से पढ़ेंगी नहीं, तब तक यह जान पाना या समझ पाना नामुमकिन है, कि उन दकियानूसी सामाजिक हालातों में भी स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर मंटो जी कितनी प्रगतिशील सोच रखते थे। उन्हीं की अलहदा सोच थी, कि - "औरतें बिक नहीं रहीं, लोग उन्हें धीरे धीरे खरीद रहे हैं ।"

उन्होंने ही उस दौर में भी ये कहने की हिम्मत की, कि "वेश्या का वजूद ख़ुद एक जनाज़ा है, जो समाज ख़ुद अपने कंधों पर उठाए हुए है। वो उसे जब तक कहीं दफ़न नहीं करेगा, उस के मुताल्लिक़ बातें होती रहेंगी।"

अपने बारे में कहते हुए उन्होंने लिखा था, कि "मैं अफ़्साना इसलिए लिखता हूँ, कि मुझे अफ़्साना-निगारी की शराब की तरह लत पड़ गई है। मैं अफ़्साना ना लिखूँ तो मुझे ऐसा महसूस होता है कि मैंने कपड़े नहीं पहने या मैंने ग़ुसल नहीं किया या मैं ने शराब नहीं पी।"

उनकी बेबाक़ी ही कह पायी, कि "अगर आप मेरी बातों को बर्दाश्त नहीं कर सकते .. मतलब .. ज़माना ही ना-क़ाबिल-ए-बरदाश्त है।"

हमारा तत्कालीन या वर्त्तमान बुद्धिजीवी समाज भले ही 'ए सर्टिफिकेट' वाली फ़िल्मों की तरह या उस से भी बदतर श्रेणी में उनकी लेखनी को घसीटता हो, पर उनका बिंदास लेखन उनके बिंदास शख़्सियात की ताकीद करता है। 

यूँ तो सर्वविदित है, कि वह एक मुक़म्मल उर्दू लेखक थे, जो अपनी लघु कथाओं - बू, खोल दो, ठंडा गोश्त और चर्चित टोबा टेकसिंह के लिए प्रसिद्ध हुए। कहानीकार होने के साथ-साथ वे फिल्म और रेडिया पटकथा लेखक और पत्रकार भी थे। अपने छोटे से जीवनकाल में उन्होंने बाइस लघु कथा संग्रह, एक उपन्यास, रेडियो नाटक के पाँच संग्रह, अन्य रचनाओं के तीन संग्रह और व्यक्तिगत रेखाचित्र के दो संग्रह लिखे थे, जो समय-समय पर प्रकाशित भी होते रहे थे। इनमें से कई रचनाएँ अन्य कई भाषाओं में अनुवादित भी किए गए हैं। 

उन्हें ही क्यों .. तत्कालीन इस्मत चुग़ताई अथार्त इस्मत आपा को भी इस समाज में बुरी नज़रों से देखा गया। दरअसल समाज अपना कुरूप और कुत्सित चेहरा साहित्य या सिनेमा के पटलों वाले आईना पर देख ही नहीं पाता या देखना ही नहीं चाहता .. शायद ...

वैसे तो जन्मदिनों को या दिवसों को मनाने में हम यक़ीन नहीं करते, कारण .. प्रत्येक जन्मदिन के दिन हर प्राणी की आयु से एक वर्ष घटा हुआ होता है, जो एक वज़ह बनती है उदासी की .. पर लोग जश्न मनाते हैं भला क्योंकर .. मालूम नहीं और रही बात दिवस की तो, अगर दिवस को दिनचर्या में शामिल कर लिया जाए, तो फिर दिवसों का क्या करना भला ? 

पर 11 मई को सम्पूर्ण विश्व में उनके चाहने या मानने वालों के द्वारा उनके जन्मदिन के उपलक्ष्य में कई कार्यक्रम हर वर्ष आयोजित किए जाते हैं .. तो इसी बहाने उन महान विभूति को शत्-शत् नमन .. काश ! .. हमारा तथाकथित बुद्धिजीवी समाज जो 'डेबोनियर' या 'ए सर्टिफिकेट' वाली फ़िल्म से इतर उन्हें देख पाता, पढ़ पाता, समझ पाता .. बस यूँ ही ...

ख़ैर ! .. अब हमारी बतकही झेलने के उपरांत हमारी कहानी भी सुन लीजिए .. बस यूँ ही ...