Saturday, June 15, 2019

चन्द पंक्तियाँ (४) ... - बस यूँ ही ...

(1)

तमाम उम्र मैं
हैरान, परेशान,
हलकान-सा,
तो कभी लहूलुहान बना रहा

हो जैसे मुसलमानों के
हाथों में गीता
तो कभी हिन्दूओं के
हाथों का क़ुरआन बना रहा....

(2)

तालियाँ जो नहीं बजी
महफ़िल में तो शक
क्यों करता है
हुनर पर अपने
गीली होंगी शायद अभी ...
मेंहदी उनकी हथेलियों की ....

(3)

बन्जारे हैं हम
वीराने में भी अक़्सर
बस्ती तलाश लेते हैं

आबादी से दूर
भले हवा में ही अपना
आशियाना तराश लेते हैं ...

Wednesday, June 12, 2019

चन्द पंक्तियाँ (३)... - बस यूँ ही ...

(1)

कपसता है
कई बार ...
ब्याहता तन के
आवरण में
अनछुआ-सा
एक कुँवारा मन .....

(2)

जानती हो !!
इन दिनों
रोज़ ...
रात में अक़्सर
इन्सुलिन की सुइयाँ
चुभती कम हैं ....

बस .... तुम्हारी
शैतानियों भरी
मेरे जाँघों पर
काटी चिकोटियों की
बस चुगली
करती भर हैं ....

(3)

आने की तुम्हारी
उम्मीदों के सारे
दरवाज़े बन्द
संयोग की सारी
खिड़कियाँ भी यूँ ....

फिर ये मन के
रोशनदान पर
हर पल, हर पहर
करता है कौन ...
"गुटर-गूँ, गुटर-गूँ" .....

Sunday, June 9, 2019

चन्द पंक्तियाँ (२)... - बस यूँ ही ...

(1)

बेशक़ एक ही दिन
वर्ष भर में सुहागन
करती होगी सुहाग की
लम्बी उम्र की खातिर
उमंग से वट-सावित्री पूजा

पर उसका क्या जो
हर दिन, हर पल तुम्हारे
कुँवारे मन का अदृश्य
कच्चा धागा मेरे मन के
बरगद से लिपटता ही रहा

पल-पल हो जाना तुम्हारा
मेरे "मन की अर्धाङ्गिनी"
क्या मतलब फिर इन
सुहागन, अर्धाङ्गिनी,
ब्याहता जैसे शब्दों का ....

तनिक बोलो तो मनमीता !!!

(2)

साल भर में बस एक शाम
टुकड़े भर चाँद देख
एक-दूसरे के गले मिलकर
ईद की खुशियों में
माना कि हम सब बस ...
सराबोर हो जाते हैं

पर उनके ईद का क्या
जो रोज-रोज, पल-पल,
अपने पूरे चाँद को
नजर भर निहार कर
उसी से गले भी मिलते ह

'सोचों' में ही सही .....

(3)

सुबह-सुबह आज ... ये क्या !!..
बासी मुँह .... पर ...
स्वाद मीठा-मीठा
उनींदा शरीर ... पर ...
इत्र-सा महकता हुआ
अरे हाँ .. कल रात ..
सुबह होने तक
गले लगकर संग मेरे तुम
ईद मनाती रही और ...
मैं तुम्हारी मीठी-सोंधी
साँसों की सेवइयां और ...
होठों के ज़ाफ़रानी जर्दा पुलाव
चखता रहा तल्लीन होकर....
मीठा- मीठा सुगंधित असर
है ये शायद ... उसी का

भला कैसे कहें कि ...
ये बस एक सपना था ....

चित्र - स्वयं लेंसबध (साभार- पटना संग्रहालय).








Friday, June 7, 2019

इन्सानी फ़ितरत

साहिब !
ये तो इन्सानी फ़ितरत है
कि जब उसकी जरूरत है
तो होठों से लगाता है
नहीं तो ... ठोकरों में सजाता है
ये देखिए ना हथेलियों के दायरे में मेरे
बोतल बदरंग-सा
ये रहता है जब-जब भरा-भरा
रंगीन मिठास भरा शीतल पेय से
तब नर्म-नाजुक उँगलियों के
आगोश में भरकर अपने होठों से
लगाया करते हैं सभी
होते हैं तृप्त इनके तन और मन भी
ख़त्म होते ही मीठी रंगीन तरल
जमीं पर फेंका जाता है बोतल
और गलियों-सड़कों पर लावारिस-सा
लुढ़कता रहता है बस्ती -शहर के
या पाता है चैन किसी नगर-निगम के
कूड़ेदान के बाँहों में। हाँ, साहिब !
लोग कहते हैं
मैं पगली हूँ
इस बोतल का दर्द ...
मैं तो समझती हूँ ...
पर ... साहिब ! ... आप !???

Saturday, June 1, 2019

डायनासोर होता आँचल (एक आलेख).


प्रथमदृष्टया शीर्षक से आँचल के बड़ा हो जाने का गुमान होता है, पर ऐसा नहीं है। दरअसल आँचल के डायनासोर की तरह दिन-प्रतिदिन लुप्तप्रायः होते जाने की आशंका जताने की कोशिश कर रहा हूँ।
हम अक़्सर रचनाओं में, चाहे किसी भी विधा में लिखी गई हो, ख़ासकर पुराने समय की रचनाओं में और फ़िल्मी गानों में तो जो स्वयं में रचना का एक विधा है , "आँचल" की महिमा की प्रचुरता है।
चाहे माँ की ममता का मासूमियत महकाना हो या फिर प्रेमिका के प्रेम की पराकाष्ठा दर्शाना हो ... हर में समान रूप से समाहित है - आँचल। अब चाहे वह माँ का हो , प्रेमिका का या फिर बहन या पत्नी का।
अगर माँ का आँचल मन को शान्ति और सुकून देता है तो बहन का बचपन में खेल-खेल में खींच कर छेड़ने में ... प्रेमिका या पत्नी का मादकता से भरने में। व्रत-पूजा या इबादत में ऊपर वाले से इसे फैला कर दुआ लेने में या फिर नेगाचार में भी इसकी महत्ता है ही।कहीं-कहीं गाँव-देहात या शहर में भी कुछ लोग अपना या अपने से छोटे का नाक साफ़ करने में भी उपयोग में लाते हैं। वैसे मैं इस नाक साफ करने वाली बात की चर्चा नहीं करता तो भी मेरी ये आलेख अधूरी नहीं रह जाती। फिर भी ...
हर रूप में इसके अलग - अलग रंग लहराते हैं।
सचिन देव बर्मन जी की "मेरी दुनिया है माँ तेरे आँचल में ...." से लेकर वहीदा रहमान जी की  'गाइड' वाली " काँटों से खींच कर ये आँचल "... तक में आँचल का महत्व झलक ही जाता है।
अम्मा के गोद में आँचल के छाँव तले किसी अबोध का दुग्धपान करना या कराना आज भी आंचलिक क्षेत्र में , वह भी सार्वजनिक स्थल पर , एक आम दृश्य होता है। भूख से अपने बिलखते- बिलबिलाते संतान को माँएं इसी विधि से तुरंत तृप्त कर देती हैं।
भूखा अबोध शीघ्र ही तृप्त होकर खुश होकर खेलने लगता है या फिर चैन की नींद सो जाता है। उस पल एक हल्की-सी मुस्कान की परत माँ की पपड़ायी होंठों को सुशोभित कर जाती है।

कुछ कहने के पहले मैं स्पष्ट कर दूँ कि मैं पर्दाप्रथा , चाहे बुर्क़ा हो या घुँघट, का कतई पक्षधर नहीं हूँ।

बस आँचल के लुप्तप्रायः होने की चिन्ता जो सता रही है, उसका उल्लेख कर रहा हूँ। उस क्रम में मेरी दकियानूसी होने की छवि नहीं बननी चाहिए ... बस ... वर्ना मुझे बुरा भी लग सकता है। है कि नहीं !?
हाँ ... तो मैं आँचल के लुप्तप्रायः होने की चर्चा और चिन्ता दोनों ही कर रहा था। कहीं- कहीं तो किसी अबोध को धूप के तीखापन से बचाने के लिए आधुनिक (परिधान से, विचार का पता नहीं) माँ को अपने लेडीज़ रुमाल (जो कि प्रायः छोटा ही होता है ) से सिर ढंकते देखा है।
आज के आधुनिक शहरीकरण के मेट्रो संस्कृति के तहत दुपट्टाविहीन सलवार-समीज़ और जीन्स-टीशर्ट वाले परिधानों ने आँचल जैसे निरीह को मिस्टर इण्डिया बना दिया है यानि गायब ही कर दिया है।
कुछ दशकों बाद कहीं हमें अजायबघरों के किसी नए आलमीरा में शीशे के अंदर प्रदर्शित किये गए मुग़लों और अंग्रेजों के अंगरखे के बगल में ही कहीं आँचल भी सजा कर नेपथलीन की गोली के साथ रखा हुआ देखने के लिए मिल ना जाए कहीं। हाल ही में सपरिवार पटना के संजय गांधी जैविक उद्यान में घूमने के दौरान एक बाड़े में गिद्ध के एक जोड़े को देख मैं हतप्रभ रह गया था। कारण - बचपन में गंगा किनारे ख़ासकर शमशान घाटों के आसपास बहुतायत में इनका झुण्ड दिख जाता था। आज हमारी सभ्यता से जैसे करोडों वर्ष पहले अस्तित्व में रहने वाले डायनासोर लुप्त हो चूके हैं।
फिर हमारी भावी पीढ़ी अपने बचपन से बुढ़ापे तक  के सफ़र में आँचल के अलग-अलग रूप से वंचित रह जाएंगे ना !?
आइए एक प्रयास अपने घर से ही शुरू करते हैं ताकि आँचल को डायनासोर बनने यानि लुप्तप्रायः होने से बचाया जा सके। है ना !?

Thursday, May 30, 2019

इन्द्रधनुष


'बैनीआहपीनाला' को
स्वयं में समेटे
क्षितिज के कैनवास पर
प्यारा-सा इन्द्रधनुष ...
जिस पर टिकी हैं
जमाने भर की निग़ाहें
रंगबिरंगी जो है !!!... है ना !?

उसे पाने को आग़ोश में
फैली तुम्हारी बाँहें
एक भूल ....
और नहीं तो क्या है !?...

खेलने वाला सारा बचपन
कचकड़े की गुड़िया से
मचलता है अक़्सर
चाभी वाले या फिर
बैटरी वाले खिलौने की
कई अधूरी चाह लिए और ...
ना जाने कब लहसुन-अदरख़ की
गंध से गंधाती हथेलियों वाली
मटमैली साड़ी में लिपटी
गुड़िया से खेलने लगता है

विज्ञान के धरातल पर तो
ये इन्द्रधनुष क्या है बला !?
बस चंद बूँदें ही तो है
तैरती हुई हवा में
जो चमक उठती हैं
सूरज की आड़ी-तिरछी किरणों से

इन्द्रधनुष और मृगतृष्णा
हैं प्रतिबिम्ब एक-दुसरे के
प्यारे, लुभावने .. सबके लिए
मूढ़ है बस वो जो है ....
अपनाने की चाह लिए ....

Sunday, May 26, 2019

चन्द पंक्तियाँ (१) ... - बस यूँ ही ....

(1)#
उस शाम
गाँधी-घाट पर
दो दीयों से
वंचित रह गई
गंगा-आरती

जो थी नहीं
उस भीड़ में
कौतूहल भरी
तुम्हारी दो आँखें
मुझे निहारती

(2)#
एक चाह कि ...
बन स्वेद
तुम्हारी
रोमछिद्रों से
निकलूँ मैं
और
पसर जाऊँ
बदन पर
तुम्हारे
ओस के बूँदों
की तरह .....

(3)#
बूँद- बूँद
नेह तुम्हारे
हर पल
हर रोज
हो जाते हैं
विलीन
रेत-से पसरे
मन की
प्यास में मेरे

और ... मैं ....
तिल-तिल तुम में....

(4)#
रही होगी तुम्हारी
कोई मज़बूरी
हमारा तो बस ...
था पक्का प्यार ही

बतलाते रहे हैं
जमाने को अक़्सर ...
जिसे आज तक
उम्र की नादानी

(5)#
सारी-सारी रात
खामोश
हरी दूब-सा
तुम्हारा मन ...

तुम संग
आग़ोश में तुम्हारे
ओस की बूँदों-सा
मेरा मन ...